Book Title: Acharya Kundkund aur Unki Krutiya
Author(s): Prabhavati Choudhary
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ - - 2 जिनवाणी जैनागंग-साहित्य विशेषाङ्क का ऐसा युक्तियुक्त वर्णन अन्य शास्त्रों में दुर्लभ है। इस प्रकार तीन श्रुतस्कन्धों में विभाजित आत्म द्रव्य, अन्य द्रव्यों से उसका भेद एवं चरणानुयोग का यथार्थ स्वरूप समझने में निमित्तभूत ग्रन्थ प्रवचनसार है। जिनसिद्धान्त बीज रूप में इस ग्रन्थ में विद्यमान है। समयसार- वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोपवं गई पते। वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवलीभणिय ।। समयसार की इस प्रथम गाथा में कन्दकुन्दाचार्य की प्रतिज्ञा से ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ का नाम 'समयपाहुड' रखना उन्हें अभिप्रेत था। किन्तु प्रवचनसार एवं नियमसार के साथ समयसार नाम प्रचलित हो गया। समय की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी गई है- 'समयते एकत्वेन युगपज्जानाति गच्छति च' अर्थात् जो पदार्थों को एक साथ जाने अथवा गुण पर्याय रूप परिणमन करे वह समय है। इस निर्वचन के अनुसार जीव समय है और प्राभृत 'प्रकर्षेण आसमन्तात् भृतम् इति' निरुक्ति के अनुसार समस्त युक्तियों से समन्वित उत्कृष्टता से परिपूर्ण होता है। इसे शास्त्र भी कह सकते हैं। इस शास्त्र में जीव या आत्मा का निरूपण है। ग्रन्थ में दस अधिकार है। प्रथम पूर्वरंगाधिकार है। ३८ गाथाओं में से १२ गाथाएँ पूर्वपीठिका के रूप में हैं, जिनमें ग्रन्थकार ने मंगलाचरण, ग्रन्थप्रतिज्ञा, स्वसमय-परसमय का निरूपण किया है, शुद्ध एवं अशुद्ध नय का स्वरूप भी इस अधिकार में प्राप्त है। दूसरा अधिकार जीवाजीवाधिकार है। जीव का अजीव से अनादिकाल से संबंध चला आ रहा है। इसी कारण वह नोकर्म रूप परिणति को आत्म-परिणति मानकर अहं का कर्ता होता है। इस अधिकार में शुद्धअशुद्ध, निश्चय एवं व्यवहार नय का भी सम्यक् निरूपण है। तृतीय कर्तृकर्माधिकार है। इसमें जीव-अजीव के अनादिकाल से चले आ रहे संबंध एवं कारण का विस्तार से निरूपण है। जीव स्वयं को पर का कर्ता मानकर कर्तृत्व के अहंकार से युक्त होता है तथा पर की इष्टअनिष्ट परिणति में हर्ष व विषाद का अनुभव करता है। चतुर्थ पुण्यपापाधिकार है। इस अधिकार में आचार्य ने मोक्ष के अभिलाषी जीव को पुण्य-प्रलोभन के प्रति सचेत किया है। अशुभ के समान शुभ भी जीव को संसारचक्र में फंसाने वाला है। अत: मुमुक्षु के द्वारा अशुभोपयोग के समान शुभोपयोग भी त्याज्य है। पंचम आम्रवाधिकार है। इसमें जीव की संसारी अवस्था की हेयता एवं मुक्तावस्था की उपादेयता का निरूपण है। षष्ठ संवराधिकार है। आनव का रुक जाना संवर है। उमास्वाति आदि आचार्यों ने गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय रूप चारित्र को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10