Book Title: Acharya Kundkund aur Unki Krutiya Author(s): Prabhavati Choudhary Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 2
________________ 510-1 जिनवाणी- जैनागम साहित्य विशेषाक कुन्द-प्रभा - प्रणयि-कीर्तिविभूषिताशः । यश्चारु- चारण-कराम्बुज- चंचरीकश्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्ठाम् ।। अर्थात् कुन्दकुन्द की प्रभा धारण करने वाली जिनकी कीर्ति द्वारा दिशाएँ विभूषित हुई हैं, जो चारणों के अर्थात् चारणऋद्धिधारी महामुनियों के सुन्दर हस्तकमलों के भ्रमर थे और जिन पवित्रात्मा ने भरतक्षेत्र में श्रुत की प्रतिष्ठा की है, वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किससे वन्द्य नहीं हैं? इन्द्रनन्दी आचार्य ने पद्मनन्दी को कुण्डकुन्दपुर का बतलाया है। इसलिये श्रवणबेलगोला के कितने ही शिलालेखों में उनका कोण्डकुन्द नाम ही लिखा है। श्री पी. वी. देसाई ने 'जैनिज्म इन साउथ इण्डिया' में लिखा है। कि गुण्टकल रेलवे स्टेशन से दक्षिण की ओर लगभग ८ मील पर एक कोनकुण्डल नाम का स्थान है। शिलालेखों में उसका प्राचीन नाम 'कोण्डकुन्दे' मिलता है । सम्भवतः कुन्दकुन्दाचार्य का जन्म स्थान यही है । कुन्दकुन्द महान् तपस्वी एवं ऋद्धि प्राप्त थे। किम्वदन्तियों से पता चलता है कि इनके जीवन में कई महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुई थीं। कुछ घटनाएँ निम्नलिखित हैं ९. विदेह क्षेत्र में सीमन्धर स्वामी के समवशरण जाना व वहां से आध्यात्मिक सिद्धान्त का अध्ययन कर लौटना । २. ५९४ साधुओं के संघ को लेकर गिरनार की यात्रा करना और वहां श्वेताम्बर संघ के साथ वाद-विवाद होना । ३. विदेह जाते समय पिच्छिका का मार्ग में गिर जाना, अतः गृध्र पक्षी की पिन्छि धारण करने से गृध्रपिच्छाचार्य नाम से प्रसिद्ध होना । ४. अध्ययन की अधिकता से गर्दन झुकने के कारण वक्रग्रीव नाम से प्रसिद्ध होना । समय निर्धारण - आचार्य कुन्दकुन्द के समय के विषय में विद्वानों में मतभेद है । डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने प्रवचनसार की प्रस्तावना में इन मतों पर विचार कर निष्कर्ष निकाला है कि कुन्दकुन्द का समय प्रथम ई. शती के प्रारम्भ में रहा है। प्रो. एम. ए. ढाकी आदि विद्वान् कुन्दकुन्दाचार्य को ईसवीय सातवीं शती में रखते हैं। कुन्दकुन्द की रचनाएँ शौरसेनी प्राकृत साहित्य के रचयिताओं में कुन्दकुन्द का स्थान मूर्धन्य है । इनकी सभी रचनाएँ शौरसेनी प्राकृत में हैं। इनमें १. प्रवचनसार २. समयसार ३. पंचास्तिकायसंग्रह विशाल ग्रन्थ हैं एवं जैन धर्म के तत्त्व को समझने की कुंजी है। इनके अतिरिक्त ४ नियमसार ५ अष्टपाहुड (दंसणपाहुड, चरित्तपाहुड, सुत्तपाहुड, बोधपाहुड, भावपाहुड, मोक्खपाहुड, सीलपाहुड, लिंगपाहुड) ६. बारसणुवेक्खा ७ भत्तिसंगहो हैं, जो भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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