Book Title: Acharya Kundkund aur Unki Krutiya Author(s): Prabhavati Choudhary Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 5
________________ आचार्य कुन्दकुन्द और उनकी कृतियाँ 513 संवर कहा है, किन्तु कुन्दकुन्द ने भेद-विज्ञान को संवर माना है। उनके मत में आज तक जितने भी सिद्ध हुए हैं, इस भेदविज्ञान द्वारा हुए हैं। सप्तम निर्जराधिकार है। संवर के पश्चात् निर्जरा होती है। सम्यग्दृष्टि ज्ञान तथा वैराग्य के कारण कर्मफलों को त्यागकर बन्धमुक्त हो जाता है। उसके पुन: कर्मो का बन्ध नहीं होता। इस अधिकार में सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का विशद वर्णन किया गया है। अष्टम अधिकार में बन्ध का निरूपण है। बन्ध का प्रमुख कारण राग को माना गया है। सम्यग्दृष्टि जीव बंध के कारणों को जानकर उन्हें दूर कर देता है एवं निर्बन्धावस्था को प्राप्त हो जाता है, किन्तु मिथ्यादृष्टि अज्ञान के कारण निर्बन्धावस्था को प्राप्त नहीं होता। नवम मोक्षाधिकार है। आत्मा की सर्वकर्म से मुक्तावस्था को मोक्ष कहते हैं। मोक्ष-प्राप्ति के लिए यथार्थ ज्ञान एवं श्रद्धार के साथ सम्यक् चारित्र पर अत्यधिक बल दिया है। दशम सर्वविशुद्धिज्ञानाधिकार है आत्मा के अनन्तगुणों का ज्ञान ही आत्मा का प्रधान गुण है। अन्त में अमृतचन्द्राचार्य ने आत्मख्याति टीका के अंगरूप में स्याट्वादाधिकार एवं उपायोपेयभावाधिकार लिखे हैं, जिनमें अनेकान्त का समर्थन करने के लिए अनेक नयों द्वारा आत्म-तत्त्व का निरूपण किया गया पंचास्तिकायसंग्रह- यह ग्रन्थ जिन-सिद्धान्त एवं जिन अध्यात्म का प्रवेश द्वार है। आचार्य कुन्दकुन्द ने महाश्रमण तीर्थकर देव की वाणी का सार-संक्षेप इस ग्रन्थ में गुम्फित किया है। पंचास्तिकाय का प्रतिपाद्य अमृतचन्द्राचार्य ने इस प्रकार प्रतिपादित किया है पंचास्तिकायषड्द्रव्यप्रकारेण प्ररूपणम् । पूर्व मूलपदार्थानामिह सूत्रकृताकृतम्।। जीवाजीवद्विपर्यायरूपाणां चित्रवर्त्मनाम् । ततो नवपदार्थानां व्यवस्था प्रतिपादिता।। ततस्तत्त्वपरिज्ञानपूर्वेण त्रितयात्मना। प्रोक्ता मार्गेण कल्याणी मोक्षप्राप्तिरपश्चिमा ।। अमृतचन्द्राचार्य ने पंचास्तिकाय को दो खण्डों में विभक्त किया है. किन्तु जयसेनाचार्य ने इसे तीन अधिकारों में विभक्त किया है। प्रथम अधिकार तो अमृतचन्दाचार्य के प्रथम श्रुतखण्ड के समान ही है। द्वितीय श्रुतखण्ड का द्वितीय एवं तृतीय अधिकार में विभाजन किया है। प्रथम खण्ड में मूलपदार्थों का पंचास्तिकाय एवं षड्द्रव्य के रूप में निरूपण है। मंगलपाठ एवं ग्रन्थ प्रतिज्ञा के पश्चात् पाँच अस्तिकायों का वर्णन है। अस्तिकाय का तात्पर्य है- अस्तित्व एवं कायत्व। अस्तित्व को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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