Book Title: Acharya Hemchandra Ek Yugpurush Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf View full book textPage 4
________________ आचार्य हेमचन्द्र : एक युगपुरुष ६३ . चरित्रवान होना चाहिये। वे लिखते हैं कि - सर्वाभिलाषिणः सर्व भो जिन: सपरिग्रहः । अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशाः गुरवो न तु ।।५ अर्थात् जो आकांक्षा से युक्त हो, भोज्याभोज्य के विवेक से रहित हो, परिग्रह सहित और अब्रह्मचारी तथा मिथ्या उपदेश देनेवाला हो, वह गुरु नहीं हो सकता। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जो हिंसा और परिग्रह में आकण्ठ डूबा हो, वह दूसरों को कैसे तार सकता है। जो स्वयं दीन हो वह दूसरों को धनाढ्य कैसे बना सकता है। अर्थात् चरित्रवान, निष्परिग्रही और ब्रह्मचारी व्यक्ति ही गुरु योग्य हो सकता है। धर्म के स्वरूप के सम्बन्ध में भी हेमचन्द्र का दृष्टिकोण स्पष्ट है। वे स्पष्ट रूप से यह मानते हैं कि जिस साधनामार्ग में दया एवं करुणा का अभाव हो, जो विषयाकांक्षाओं की पूर्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानता हो, जिसमें संयम का अभाव हो, वह धर्म नहीं हो सकता। हिंसादि से कलुषित धर्म, धर्म न होकर संसार-परिभ्रमण का कारण ही होता है। इस प्रकार हेमचन्द्र धार्मिक सहिष्णुता को स्वीकार करते हुए भी इतना अवश्य मानते हैं कि धर्म के नाम पर अधर्म का पोषण नहीं होना चाहिये। उनकी दृष्टि में धर्म का अर्थ कोई विशिष्ट कर्मकाण्ड न होकर करुणा और लोकमंगल से युक्त सदाचार का सामान्य आदर्श ही है। वे स्पष्टतः कहते हैं कि संयम, शील, और दया से रहित धर्म मनुष्य के बौद्धिक दिवालियेपन का ही सूचक है। वे आत्म-पीड़ा के साथ उद्घोष करते हैं कि यह बड़े खेद की बात है कि जिसके मूल में क्षमा, शील और दया है, ऐसे कल्याणकारी धर्म को छोड़कर मन्दबुद्धि लोग हिंसा को भी धर्म मानते हैं। - इस प्रकार हेमचन्द्र धार्मिक उदारता के कट्टर समर्थक होते हुए भी धर्म के नाम पर आयी हुई विकृतियों और चरित्रहीनता की समीक्षा करते हैं। सर्वधर्मसमभाव क्यों ? हेमचन्द्र की दृष्टि में सर्वधर्मसमभाव की आवश्यकता क्यों है, इसका निर्देश पं० बेचरदासजी ने अपने 'हेमचन्द्राचार्य' नामक ग्रन्थ में किया है। जयसिंह सिद्धराज की सभा में हेमचन्द्र ने सर्वधर्मसमभाव के विषय में जो विचार प्रस्तुत किये थे वे पं० बेचरदासजी के शब्दों में निम्नलिखित हैं - "हेमचन्द्र कहते हैं कि प्रजा में यदि व्यापक देश-प्रेम और शूरवीरता हो, किन्तु यदि धार्मिक उदारता न हो तो देश की जनता खतरे में ही होगी, यह निश्चित ही समझना चाहिये। धार्मिक उदारता के अभाव में प्रेम संकुचित हो जाता है और शूरवीरता एक उन्मत्तता का रूप ले लेती है। ऐसे उन्मत्त लोग खून की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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