Book Title: Acharya Hemchandra Ek Yugpurush
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf

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Page 2
________________ आचार्य हेमचन्द्र : एक युगपुरुष ही प्राप्त कर लिया। आचार्य हेमचन्द्र को उनकी अल्प बाल्यावस्था में ही गुरु द्वारा दीक्षा प्रदान कर दी गई और विधिवत रूप से उन्हें धर्म, दर्शन और साहित्य का अध्ययन करवाया गया। वस्तुत: हेमचन्द्र की प्रतिभा और देवचन्द्र के प्रयत्न ने बालक के व्यक्तित्व को एक महनीयता प्रदान की। हेमचन्द्र का व्यक्तित्व भी उनके साहित्य की भाँति बहु-आयामी था। वे कुशल राजनीतिज्ञ, महान् धर्मप्रभावक, लोक-कल्याणकर्ता एवं अप्रतिम विद्वान्, सभी कुछ थे। उनके महान् व्यक्तित्व के सभी पक्षों को उजागर कर पाना तो यहाँ सम्भव नहीं है, फिर भी मैं कुछ महत्त्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न अवश्य करूँगा। हेमचन्द्र की धार्मिक सहिष्णुता यह सत्य है कि आचार्य हेमचन्द्र की जैनधर्म के प्रति अनन्य निष्ठा थी किन्तु साथ ही वे अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु भी थे। उन्हें यह गुण अपने परिवार से ही विरासत में मिला था। जैसा कि सामान्य विश्वास है, हेमचन्द्र की माता जैन और पिता शैव थे। एक ही परिवार में विभिन्न धर्मों के अनुयायियों की उपस्थिति उस परिवार की सहिष्णुवृत्ति की ही परिचायक होती है। आचार्य की इस कुलगत सहिष्णुवृत्ति को जैनधर्म के अनेकान्तवाद की उदार दृष्टि से और अधिक बल मिला। यद्यपि यह सत्य है कि अन्य जैन आचार्यों के समान हेमचन्द्र ने भी अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका नामक समीक्षात्मक ग्रन्थ लिखा और उसमें अन्य दर्शनों की मान्यताओं की समीक्षा भी की। किन्तु इससे यह अनुमान नहीं लगाना चाहिये कि हेमचन्द्र में धार्मिक उदारता नहीं थी। वस्तुत: हेमचन्द्र जिस युग में हुए थे, वह युग दार्शनिक वाद-विवाद का युग का था। अत: हेमचन्द्र की यह विवशता थी कि वे अपनी परम्परा की रक्षा के लिये अन्य दर्शनों की मान्यताओं की तार्किक समीक्षा कर परपक्ष का खण्डन और स्वपक्ष का मण्डन करें। किन्तु यदि हेमचन्द्र की महादेवस्तोत्र आदि रचनाओं एवं उनके व्यावहारिक जीवन को देखें तो हमें यह मानना होगा कि उनके जीवन में और व्यवहार में धार्मिक उदारता विद्यमान थी। कुमारपाल के पूर्व वे जयसिंह सिद्धराज के सम्पर्क में थे, किन्तु उनके जीवनवृत्त से हमें ऐसा कोई संकेत-सूत्र नहीं मिलता कि उन्होंने कभी भी सिद्धराज को जैनधर्म का अनुयायी बनाने का प्रयत्न किया हो। मात्र यही नहीं, जयसिंह सिद्धराज के दरबार में रहते हुए भी उन्होंने कभी किसी अन्य परम्परा के विद्वान् की उपेक्षा या अवमानना की हो, ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता। यद्यपि कथानकों में जयसिंह सिद्धराज के दरबार में उनके दिगम्बर जैन आचार्य के साथ हुए वाद-विवाद का उल्लेख अवश्य है परन्तु उसमें भी मुख्य वादी के रूप में हेमचन्द्र न होकर बृहद्गच्छीय वादिदेवसूरि ही थे। यह भी सत्य है कि हेमचन्द्र से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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