Book Title: Acharya Amrutchandra Vyaktitva Evam Kartutva
Author(s): Uttamchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 7
________________ जिन्होंने अपनी शक्ति से वस्तुतत्व को भलीभांति कहा है, एसे यों ने इस समयसार नामक ग्रन्थ की अथवा शुद्धात्मा की व्याख्या की है, स्वरूपप्त (ग्रपने स्वभाव में ही लीन रहने वाले ) अमृत प्राचार्य का (मेरा) इसमें कुछ भी कर्त्तव्य नहीं है अर्थात् मैंने इसमें कुछ भी नहीं किया है ।" बहुमुखी प्रतिभा के धनी यात्रा अमृतचन्द्र न केवल सिद्धहस्त कवि ही हैं, अपितु सुप्रतिष्ठित सफल गद्यकार भी हैं। उनकी प्रतिभा का चमत्कार गद्य और पद्य साहित्य की दोनों ही विधानों में समान रूप से प्रस्फुटित हुआ है। अमृतचन्द्र की कृतियों का अध्ययन करते समय एक बात अत्यन्त स्पष्ट रूप से प्रतिभारित होती है कि जब वे किसी बात को सिद्ध करना चाहते हैं, समझाना चाहते हैं तो गद्य का सहारा लेते हैं और जब वे अन्तर से गद्गद् होकर अध्यात्ममार्ग में चलने की प्रेरणा देना चाहते हैं तो सहज ही उनके कल से, उनकी कलम से कविता प्रस्फुटित होने लगती है । तात्पर्य यह है कि उनके साहित्य में बुद्धि एवं हृदय दोनों का ही सुन्दरतम् समन्वय है। न तो वे एकान्ततः भावुक ही हैं और न शुष्क तर्कबाज उनके ग्रन्थों में भावना और तर्क का सुन्दरतम सरस समन्वय है । जब उनकी बुद्धि हृदय पर हावी रहती है, तब वे परिमार्जित गद्य लिखते हैं और जब हृदय बुद्धि पर हावी हो जाता है, तब वे शान्तरस से सरावोर प्रवाहमयी प्रांजल पद्य लिखने लगते हैं। - - इस बात को आत्मस्वाति में विशेषरूप से देखा जा सकता है । यही कारण है कि 'आत्मख्याति' चम्पू बन गई है । गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते गद्य और पद्य जिसमें मिश्रित हो, उसे चम्पू कहते हैं । भावों को उद्वेलित कर देने वाले प्रेरणास्पद प्रवाह के लिए जो अनुकूलता पद्य में पाई जाती है, वह गद्य में नहीं । इसीप्रकार वस्तुस्वरूप के सतर्क प्रतिपादन के लिए जो विशाल क्षेत्र गद्य प्रदान करता है, वह क्षमता पद्य में नहीं होती । किसी विषय के विशेष स्पष्टीकरण के लिए तर्क-वितर्क जरूरी है। तर्क-वितर्क की उछल-कूद बाली भाषा के भार को पद्म वदस्ति नहीं कर एकता, गद्य में ही वह क्षमता है कि जो तर्क-वितर्क की भाषा में बुद्धिपक्ष को निर्वाध विचरण करने के लिए असीमित क्षेत्र प्रदान करता है | अक्षर मात्रा, स्वर, ताल आदि असीम बन्धनों के बीच लीमित पद्यक्षेत्र में तर्कवितर्क का ताण्डव सम्भव नहीं है । ( vii )

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