Book Title: Aavashyak Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 7
________________ [6] अर्थ - जो पुरुष, दुर्जय, संग्राम में दस लाख सुभटों पर विजय प्राप्त करता है और एक महात्मा अपनी आत्मा को जीतता है। इन दोनों में उस महात्मा की यह विजय ही श्रेष्ठ विजय है। व्यवहार सामायिक चार प्रकार की होती हैं - . १. श्रुतसामायिक - सम्यक् श्रुत का अभ्यास करना। २. सम्यक्त्व सामायिक - मिथ्यात्व की निवृत्ति और यथार्थ श्रद्धान के प्रकटीकरण रूप चतुर्थ गुणस्थान की प्राप्ति। ३. देश विरत सामायिक - श्रावकों के देशव्रत - पंचम गुणस्थान की प्राप्ति। .. ४. सर्व विरति सामायिक - साधुओं के सर्व विरति रूप महाव्रतादि छठे गुणस्थान और इससे आगे के गुणस्थान की उन्नत दशा। सामायिक का प्रारम्भ जैनत्व प्राप्ति रूप चतुर्थ गुणस्थान से होकर सिद्ध तक पहुँचता है। यानी जैनत्व प्राप्ति इसका प्रारम्भ और अन्त स्वयं की आत्मा का सामायिकमय बनकर सदा काल उसी रूप में स्थित हो जाना है। वास्तव में जैनत्व प्राप्ति और जिनत्व तथा सिद्धत्व सभी सामायिक के शुद्धत्व रूप है। इतना सामायिक का महत्त्व है। आवश्यकता है समत्व भाव से इस की आराधना की। जितने जितने अंशों में समत्व भाव की विशुद्धता बढती है उतने उतने अंशों में ही साधक मोक्ष के नजदीक पहुँचता है। २. चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक - आवश्यक सूत्र के छह अंगों में दूसरा स्थान चतुर्विंशस्तिव का है। जब साधक सावध योग से निवृत्त होकर समत्व भाव में रमण करता है, तो उसे अपने समत्वभाव को स्थिर रखने हेतु किसी आदर्श को सामने रखना होता है, उनकी स्तुति करने पर आत्मा में अलौकिक शान्ति की प्राप्ति होती है। तीर्थंकर सर्वोच्च पुण्य प्रकृति है। तीर्थंकर प्रभु त्याग-तप-संयम साधना एवं समत्व साधना आदि सभी दृष्टि से उच्चतम शिखर पर पहुँचे हुए महापुरुष होते हैं, जो जन्म के साथ तीन ज्ञान, दीक्षा अंगीकार करते ही जिन्हें चौथा मनःपर्यव ज्ञान और कालान्तर में केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार तीर्थंकर प्रभु ज्ञान की अपेक्षा सर्वोच्च केवलज्ञान के धारक, दर्शन की अपेक्षा क्षायिक सम्यक्त्व के धारी और चारित्र की अपेक्षा यथाख्यात रूप उत्कृष्ट चारित्र के धारक होते हैं। इनकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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