Book Title: Aatma ka Darshan
Author(s): Jain Vishva Bharti
Publisher: Jain Vishva Bharti

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ (सात) परिचारकों से पूछा। उन्होंने भगवान के समवसरण की बात कही। मेघ का मन भगवान् के उपपात में जाने के लिए उत्सुक हो उठा। अश्व रथ पर आरूढ़ होकर वह भगवान के समवसरण में गया। भगवान की अमोघ वाणी सुनकर वह अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसका वैराग्य-बीज अंकुरित हो गया । पूर्वसंचित कर्मों की लघुता से उसके मन में प्रव्रज्या की भावना उत्पन्न हुई। वह घर आया। माता-पिता से कहा- 'मैं प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए उत्सुक हूं।' यह विचार सुन महारानी धारिणी आकुल व्याकुल हो गई। वह अपने प्रिय पुत्र का वियोग नहीं चाहती थीं। माता धारिणी और पुत्र मेघ के बीच लंबा संवाद चला। माता ने उसे समझाने का पूरा प्रयत्न किया । मेघ का मन मोक्षाभिमुख हो चुका था। माता की बातों का उस पर कोई असर नहीं हुआ । उसने माता को संसार की असारता और दुःख प्रचुरता से अवगत कराया। माता अंत में कहा - 'पुत्र ! तुम प्रव्रजित होना ही चाहते हो, हम सबसे बिछुड़ना ही चाहते हो तो जाओ, सुखपूर्वक प्रव्रजित हो जाओ। किंतु वत्स ! एक बात हमारी भी मानो हम तुम्हें अपनी आंखों से एक बार राजा के रूप में देखना चाहते हैं। तुम एक दिन के लिए ही राजा बन जाओ। फिर जैसा चाहो, वैसा कर लेना ।' मेघकुमार ने एक दिन के लिए राजा बनना स्वीकार कर लिया। मेघकुमार के राज्याभिषेक की तैयारियां हुई। शुभ मुहूर्त में राज्याभिषेक की विधि संपन्न हुई। मेधकुमार राजा बन गया। सभी ने उसे बधाइयों से वर्धापित किया । राज्य-संपदा मेघकुमार को लुभा नहीं पाई। एक दिन बीत गया। मेघकुमार की दीक्षा की तैयारियां होने लगीं। आवश्यक उपकरण लाये गए। परिवार और नगरजनों से परिवृत होकर मेघकुमार भगवान् महावीर के पास आया। माता-पिता ने भगवान् से निवेदन करते हुए : कहा-‘देव! हमारा यह पुत्र मेघ आपके चरणों में प्रव्रजित होना चाहता है। यह नवनीत सा कोमल है। यह प्रचुर कामभोगों के बीच पला-सा है, फिर भी काम-रजों से स्पृष्ट नहीं है, भोगों में आसक्त नहीं है। पंक में उत्पन्न होने वाला पंकज पंक से लिप्त नहीं होता, वैसे ही यह कुमार भोगों से निर्लिप्त है। आप इसे अपना शिष्य बनाकर हमें कृतार्थ करें ।' भगवान् ने मेघ को प्रव्रजित होने की आज्ञा दी। मेघकुमार अपने आभूषण उतारने लगा। यह दृश्य देख मां का मन विह्वल हो उठा। वह अपने पुत्र को एक अकिंचन भिक्षु के रूप में घर-घर भिक्षा के लिए भटकता देखना नहीं चाहती थी । उसका मन रोने लगा। हृदय फटने लगा, पर........... । भगवान् महावीर ने स्वयं मेघकुमार को प्रव्रजित किया, उसका केशलुंचन किया। भगवान् ने स्वयं उसे साधुचर्या की जानकारी देते हुए कहा- 'वत्स ! अब तुम मुनि बन गए हो । अब तुम्हारे जीवन की दिशा बदल गई है। अब तुम्हें यतनापूर्वक चलना है, यतनापूर्वक बैठना है, यतनापूर्वक सोना है, यतनापूर्वक खड़े रहना है, यतनापूर्वक बोलना है और यतनापूर्वक ही भोजन करना है। इस चर्या में लेशमात्र भी प्रमाद न हो । यतना संयम है, मोक्ष है । अयतना असंयम है, बंधन है। पहला दिन बीता। रात आई । विधि के अनुसार सभी श्रमणों का शयन स्थान निश्चित हुआ। मुनि मेघकुमार एक दिन का दीक्षित था। उसका शयन-स्थान सबसे अंत में आया । वह स्थान द्वार के पास था। शताधिक मु स्वाध्याय आदि के लिए रात्रि में बाहर आने-जाने लगे। कुछ मुनि प्रस्रवण के लिए बाहर निकले। उस समय द्वार के पास सोये मुनि मेघकुमार की नींद उचट गई। सर्वत्र अंधकार व्याप्त था । स्पष्ट कुछ भी नहीं दीख रहा था। बाहर आते-जाते मुनियों के पैर-स्पर्श से मुनि मेघ विचलित हो गया । शरीर धूलिमय हो गया। उसने नींद लेने का बहु प्रयत्न किया, पर सब व्यर्थ। उसने सोचा- 'मैं राजकुमार था। कितने सुख में पला-पुसा ! सब प्रकार की सुविधाएं मुझे उपलब्ध थीं। सारे श्रमण मुझसे बात करते, मेरा आदर-सम्मान करते । मुझसे मीठी-मीठी बातें करते और मुझे नाना

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 792