Book Title: Aatma ka Darshan
Author(s): Jain Vishva Bharti
Publisher: Jain Vishva Bharti

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Page 6
________________ भूमिका जैन दर्शन ने सत्य की खोज का द्वार कभी बंद नहीं किया और किसी व्यक्ति विशेष को उसका अधिकार भी नहीं दिया। महावीर का प्रसिद्ध घोष है-'अप्पणा सच्चमेसेज्जा' स्वयं सत्य की खोज करो। इस घोषणा ने जैन दर्शन को वैज्ञानिक होने का श्रेय दिया है और वह वैज्ञानिक युग में अधिक प्रासंगिक बना है। वैज्ञानिक जगत में भी सत्य की खोज के अधिकार की स्वतंत्रता है। इस स्वतंत्रता ने वैज्ञानिक को अणु और परमाणु की खोज तक पहुंचा दिया। उसकी निष्पत्ति का एक आयाम है-अणु-अस्वों का निर्माण। महावीर ने इस त्रासदी पर भी अंकुश लगाया। उनका अग्रिम घोष है-मेत्तिं भूएसु कप्पए-सब जीवों के साथ मैत्री करो। सत्य की खोज को सर्वजीव-मैत्री में बाधक मत बनने दो। यदि सत्य की खोज के साथ मैत्री की अनिवार्य प्रकल्पना होती तो विज्ञान संहार की भूमिका पर आरोहण नहीं करता। सत्य की खोज और मैत्री की प्रकल्पना का युगपत् प्रत्यय होने पर ही मानवीय शक्ति सृजनात्मक हो सकती है। उसी अवस्था में विश्वशांति और निःशस्त्रीकरण की कल्पना साकार हो सकती है। - दार्शनिक दृष्टि से जैन-धर्म/दर्शन का प्रतिपाद्य है अनेकांत। आचारशास्त्रीय दृष्टि से इसका प्रतिपाद्य है : समता। महावीर के सारे अनुभवों और वक्तव्यों को इन दो शब्दों की परिधि में समेटा जा सकता है। वीतरागता के दो महान् फल हैं-अनेकांत और समता। वीतराग व्यक्ति में न आग्रह होता है और न पक्षपात। वह सत्य को स्वीकार करता है, फिर चाहे वह किसी व्यक्ति में हो, अथवा सम्प्रदाय में हो। दार्शनिकों में खंडन-मंडन की परंपरा एकांतवादी दृष्टिकोण के आधार पर चली। अपने मत और सम्प्रदाय का समर्थन, दूसरे मत और सम्प्रदाय का खंडन। यह है दर्शन जगत की करुण कहानी। जो दर्शन सत्य की खोज में एकांगी दृष्टिकोण अपनाते हैं, वे दूसरे के विचारों के खंडन में अधिक रस लेते हैं। सत्य की खोज का लक्ष्य गौण हो जाता है। महावीर ने अनेकांत का दर्शन प्रस्तुत कर सब दर्शनों में समन्वय खोजने की दृष्टि दी। उसका पुनरुच्चारण सिद्धसेन के शब्दों में हुआ है ___जावझ्या वयणपहा तावइया चेव हॉति णयवाया। जावड्या णयवाया तावड्या चेव परसमया॥ यह माना जाता है कि महावीर अहिंसा के पुरस्कर्ता हैं। इस मान्यता में सत्यांश नहीं है, यह नहीं कहा जा सकता किन्तु पहली सचाई यह है कि महावीर समता के पुरस्कर्ता हैं। उन्होंने समता को अनेक रूपों में जीया और उसके अनेक रूपों का प्रतिपादन किया। समता का एक दृष्टिकोण है-सब जीवों को अपनी आत्मा के समान समझना। समता का दूसरा दृष्टिकोण है-अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में सम रहना, संतुलन न खोना। समता का तीसरा दृष्टिकोण है-उच्चता के मद अथवा अहंकार से मुक्त रहना। समता का चौथा दृष्टिकोण है-राग-द्वेष मुक्त क्षण में जीना। समता एक सुरतरु है। उसकी अनेक शाखाएं हैं। उसकी एक महान शाखा है-अपरिग्रह और दूसरी महत्तर शाखा है-अहिंसा। प्रस्तुत ग्रंथ में समता के सुरतरु और उसकी शाखाओं के द्रष्टा का साक्षात् दर्शन होगा। विषमता की उर्वरा में संकल्प-विकल्प के बीजों की बुवाई होती है। राग और द्वेष जागृत होते हैं। पक्षपात में इधर या उधर झुकाव होता है, तब संकल्प-विकल्प को पनपने का मौका मिलता है। समता का वातावरण राग-द्वेष और पक्षपात से

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