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(नौ)
आयुष्य सौ वर्ष का था। तुम्हारी तत्काल मृत्यु हो गई। वहां से तुम श्रेणिक के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुए।
पशु की उस योनि में तुम सम्यक् दर्शन से समन्वित नहीं थे, फिर भी तुमने उस विकराल और असामान्य वेदना को समभावपूर्वक सहा । उस अपूर्व तितिक्षा से ही तुम्हें मनुष्य जन्म मिला है। आज तुम सम्यक्-दर्शन संपन्न मुनि हो । आज एक रात के इन तुच्छ शारीरिक कष्टों से विचलित हो गए ? तुम इतने अधीर हो गए ? घर जाने की मनःस्थिति बना ली। तुम अपने पूर्व जन्म की स्मृति करो और देखो कि उन कष्टों की तुलना में ये क्या कष्ट हैं? कहां मेरु ? कहां राई ?
मेघ का सोया हुआ चैतन्य जाग गया। उसके मन में एक नई सिहरन दौड़ गई। चित्त एकाग्र हो गया । पूर्वजन्म की स्मृति ताजा हुई और उसके सामने चलचित्र की भांति अतीत का सारा दृश्य आने लगा। उसने पूरी घटना का साक्षात्कार किया। भगवान् महावीर ने जैसा कहा, वैसा अक्षरशः सामने आ गया।
पूर्वजन्म की घटना को साक्षात् कर वह गद्गद हो उठा। उसका संवेग दुगुना हो गया। आंखों से आनंद के आंसू टपकने लगे। हृदय, हर्षान्वित हो उठा। सारा शरीर रोमांचित हो गया। वह तत्काल भगवान् को वंदना - नमस्कार कर बोला- 'भगवन्! आज से दो आंखें मेरी अपनी रहेंगी, शेष सारा शरीर इन निर्ग्रथों के लिए समर्पित रहेगा। भंते! आपने मुझे पुनः संयम में स्थिर किया है। आप मुझे पुनः संयम जीवन दें और कृतार्थ करें । '
[ ने उसे पुनः संयम में आरूढ़ किया।
भगवान्
प्रागैतिहासिक काल की घटना है। जैन धर्म के आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभ इस धरती पर थे। एक दिन उनके अट्ठानवें पुत्र मिलकर आए। उन्होंनें भगवान् से प्रार्थना की- 'भरत ने हम सबके राज्य छीन लिए हैं हम अपना राज्य पाने की आशा लिए आपकी शरण में आए हैं। '
भगवान् ने कहा- 'मैं तुम्हें वह राज्य तो नहीं दे सकता किंतु ऐसा राज्य दे सकता हूं, जिसे कोई छीन न सके।'
पुत्रों ने पूछा- 'वह राज्य क्या है ?'
भगवान् ने कहा- 'वह राज्य है- आत्मा की उपलब्धि ।'
पुत्रों ने पूछा- 'वह कैसे हो सकती है ?"
तब भगवान् ने कहा
'संबुज्झह किं न बुज्झह, संबोहि खलु पेच्च दुल्लहा । वणमंति राइओ, णो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥'
नो
हू
- 'सबोधि को प्राप्त करो। तुम सबोधि को प्राप्त क्यों नहीं कर रहे हो ? बीती रात लौटकर नहीं आती। यह मनुष्य जीवन भी बार-बार सुलभ नहीं है । '
इस प्रकार जैन-धर्म के साथ संबोधि का प्रागैतिहासिक संबंध है। संबोधि क्या है ? वह है-आत्म- मुक्ति का मार्ग। वे सब मार्ग जो हमें आत्मा की संपूर्ण स्वाधीनता की ओर ले जाते हैं। एक शब्द में 'सबोधि' कहलाते हैं। बोधि के तीन प्रकार हैं-ज्ञान-बोधि, दर्शन-बोधि, चारित्र—बोधि ।
तीन प्रकार के बुद्ध होते हैं-ज्ञान-बुद्ध, दर्शन-बुद्ध, चारित्र - बुद्ध ।
जैन दर्शन का यह अभिमत है कि हम कोरे ज्ञान से आत्म-मुक्ति को नहीं पा सकते, कोरे दर्शन और कोरे चारित्र से भी उसे नहीं पा सकते। उसकी प्राप्ति तीनों के समवाय से अर्थात् अविकल संबोधि से हो सकती है। जैनधर्म वस्तुतः प्राचीन धर्म है। उसके बाईस तीर्थंकर प्रागैतिहासिक काल में हुए हैं। पार्श्व और महावीर ऐतिहासिक