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व्यक्ति हैं। जैन धर्म के मुख्य सिद्धांत हैं
१. आत्मा है।
२. उसका पुनर्जन्म होता है।
३. वह कर्म की कर्त्ता है।
(दस)
४. वह कृतकर्म के फल का भोक्ता है।
५. बंधन है और उसके हेतु हैं ।
६. मोक्ष है और उसके हेतु हैं।
जैन दर्शन के अनुसार मुक्त जीव ही परमात्मा होते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार हर आत्मा में परमात्मा होने की क्षमता है। काल, स्वभाव, पुरुषार्थ आदि का उचित योग मिलने पर आत्मा परमात्मा हो जाती है, बंधन से मुक्त होकर अपने विशुद्ध रूप में प्रकट हो जाती है। जैन दर्शन आदि से अंत तक आध्यात्मिक दर्शन है। उसका समग्र चित्र आत्म-कर्तृत्व की रेखाओं से निर्मित है।
ईश्वर - कर्तृत्व की अपेक्षा आत्म-कर्तृत्व से हमारा निकट का संबंध हैं। हम अपने कर्तृत्व को इष्ट दिशा की ओर मोड़ सकते हैं किंतु उसके कर्तृत्व को इष्ट दिशा की ओर नहीं मोड़ सकते, जिसका हमसे सीधा संबंध नहीं है। इसलिए जीवन के निर्माण और विकास में आत्म-कर्तृत्व के सिद्धांत का बहुत बड़ा योग है। 'संबोधि' में आदि से अंत तक उसी का व्यावहारिक संकलन है।
विश्व के समस्त धर्मों का मूल आधार है-आत्मा और परमात्मा । इन्हीं दो तत्त्वरूपं स्तंभों पर धर्म का भव्य भवन खड़ा हुआ है। विश्व की कुछ धर्म-परंपराएं आत्मवादी होने के साथ-साथ ईश्वरवादी हैं और कुछ अनीश्वरवादी है । ईश्वरवादी परंपरा वह है जिसमें सृष्टि का कर्त्ता धर्त्ता या नियामक एक सर्व शक्तिमान ईश्वर या परमात्मा माना जाता है। सृष्टि का सब कुछ उसी पर निर्भर है। उसे ब्रह्मा, विधाता, परमपिता आदि कहा जाता है। इस परम्परा की मान्यता के अनुसार भूमंडल पर जब जब अधर्म बढ़ता है, धर्म का ह्रास होता है, तब-तब भगवान अवतार लेते हैं। और दुष्टों का दमन करके सृष्टि की रचना करते हैं, उसमें सदाचार का बीज - वपन करते हैं।
अनीश्वरवादी परम्परा
दूसरी परम्परा आत्मवादी होने के साथ-साथ अनीश्वरवादी है, जो व्यक्ति के स्वतंत्र विकास में विश्वास करती है। प्रत्येक व्यक्ति या जीव अपना संपूर्ण विकास कर सकता है। अपने में राग-द्वेष विहीनता या वीतरागता का सर्वोच्च विकास करके वह परमपद को प्राप्त करता है। वह स्वयं ही अपना नियामक या संचालक है। वह स्वयं ही अपना मित्र है, शत्रु है। जैन धर्म इसी परंपरा का अनुयायी स्वतंत्र तथा वैज्ञानिक धर्म है। यह परम्परा संक्षेप में 'श्रमण संस्कृति' के नाम से पहचानी जाती है। इस आध्यात्मिक परम्परा में बौद्ध आदि अन्य धर्म भी आते हैं। ईश्वरवादी भारतीय परम्परा 'ब्राह्मण संस्कृति' के नाम से जानी जाती है।
परमात्मा दोनों परम्पराओं में मान्य है इतना सा अंतर है कि एक परंपरा में परमात्मा सर्वज्ञ है और सृष्टिकर्ता भी जैन धर्म के सिद्धांतानुसार परमात्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है। जैन धर्म का लक्ष्य है मनुष्य वीतराग बने और वीतराग बनकर परमात्म- पद को प्राप्त करे।