Book Title: Aarya Sthulbhadra
Author(s): Jain Education Board
Publisher: Jain Education Board

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Page 25
________________ पिताश्री ! आज्ञा दीजिए, मैं अपने प्राणों को न्यौछावर कर सकता हूँ। आर्य स्थूलभद्र वत्स ! तेरे नहीं, मेरे । शकडाल ने उसका हाथ पकड़कर सारी योजना प्राणों के बलिदान से ही समझाईयह अग्नि शान्त होगी। _वत्स ! मेरे एक के वचन दे ! तू मेरी आज्ञा | बलिदान से ही कुल की रक्षा हो का पालन करेगा। सकती है और राजा के मन का नहीं ! नहीं ! सन्देह मिट सकता है। दूसरा / मैं ऐसा महापाप कोई उपाय नहीं है। नहीं कर सकता। वत्स ! यह समय भावुकता का नहीं, समझदारी का है। वचन दे, मैं जैसा कहता हूँ वैसा ही तुझे करना शकडाल ने रात भर जागकर अपने काम निपटाये। प्रातः उठकर सामायिक-प्रतिक्रमण किया। फिर अरिहंत भगवान को साक्षी मानकरसंथाराग्रहण कर लिया हे प्रभो ! मेरे किसीघोर पाप का उदय हुआ है। इसका प्रायश्चित्त मेरे प्राण बलिदान से ही हो सकता है। मैंने जीवन में जो भी जाने-अनजाने पाप किया हो आपकी साक्षी से उसका मिच्छामि दुक्कड़ लेता हूँ। प्रभो ! एक आगार के सिवाय जीवन भर के लिए मैं चारों आहारका प्रत्याख्यान करता है। पड़ेगा। श्रीयक ने रोते-रोते अपना हाथ पिता के हाथ पर रखा। सारी योजना पर विचार कर दोनों घर में आ गये।

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