Book Title: Aarhati Drushti
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh Prakashan

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Page 14
________________ कहा गया है कि पुद्गल का आकर्षण सेन्टरी पीटल है और आत्मा का आकर्षण सेन्टरी फ्यूगल है / परम्परागत बहिर् आत्मन् और अन्तर् आत्मन् को विज्ञान की सेन्टरी पीटल और सेन्टरी फ्यूगल संज्ञाओं से अभिहित करना लेखिका की अपनी मौलिक सूझबूझ का परिणाम है। इसपर भी यह नहीं कहा जा सकता कि प्रश्न का अन्तिम समाधान लेख में हो गया है ।दार्शनिक का काम अन्तिम समाधान देना है भी नहीं, उसका इष्ट देवता 'प्रश्न' है, 'उत्तर' नहीं / प्रश्न को ठीक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर देना उसका प्रथम कर्तव्य है, उत्तर की खोज तो निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। संस्कृत का 'क' शब्द प्रश्नवाचक भी है और परम तत्त्व का वाचक भी। ‘कस्मै देवाय हविषा विधेम' के दोनों अर्थ हैं--यह प्रश्न भी है कि हम किस तत्त्व की उपासना करें और उत्तर भी है कि हम परम-तत्त्व की उपासना करें / परम-तत्त्व क्योंकि सदा ही रहस्यमय बना रहता है इसलिए उसका 'क' नाम सार्थक है / प्रस्तुत कृति में इस 'क' देवता की ही उपासना है। इस 'क' देवता की उपासना में ही आनन्द निहित है। ____ प्रस्तुत कृति में जो प्रश्न उठाये गये हैं, उनमें से अधिकतर पुराने हैं किन्तु कुछ प्रश्न नितान्त नवीन भी हैं, उदाहरणत: आत्मा के वजन का प्रश्न / कुछ विषय तो पुराने हैं किन्तु उन्हें नवीन परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयत्न किया गया है, उदाहरणत: परम्परागत दस संज्ञाओं को आधुनिक मनोविज्ञान के संदर्भ में देखा गया है / कुछ लेखों में प्राचीन सामग्री को नया रूप दे दिया गया है, जैसा कि जैन व्याख्या पद्धति विषयक लेख में देखने को मिलता है / तुलनात्मक अध्ययन का पुट सभी लेखों में है किन्तु कुछ लेख शुद्ध रूप से तुलनात्मक ही हैं, जैसे 'विभिन्न भारतीय दर्शनों में आश्रव' / अनेकान्त सम्बन्धी पांच छह लेखों में अनेकान्त का सैद्धान्तिक स्वरुप तो स्पष्ट किया ही गया है, व्यावहारिक रूप भी बताया गया है। सभी प्रकार के दार्शनिक प्रश्नों से जूझते समय लेखिका के अवचेतन मन में आधुनिक पाठक के मन में उठने वाले सन्देह छाये रहे हैं और वह उन प्रश्नों का समाधान केवल परम्परागत शास्त्रीय पद्धति से करके ही सन्तुष्ट नहीं होती है अपितु पाश्चात्य विचारकों के विचारों का भी उपयोग करती हैं। आत्मा का अस्तित्व एवं पुनर्जन्म के प्रश्न कुछ उसी प्रकार के प्रश्न हैं / प्राचीन काल के लेखक इन अवधारणाओं को मानकर चलते थे, इनकी सिद्धि का विशेष प्रयल नहीं करते थे, किन्तु आज का पाठक शायद कुछ भी मानकर चलने को तैयार नहीं है। इसलिए पुनर्जन्म जैसी अवधारणा भी प्रमाण की अपेक्षा रखती है। अनेक स्थलों पर लेखिका की प्रतिपादन शैली सहज ही पाठक को बाँध लेती

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