Book Title: Aagam 43 UTTARAADHYAYANAANI Moolam evam Vruttii
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम
“उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३६], मूलं [-] / गाथा ||१६९-१९२|| नियुक्ति : [५५६...], भाष्यं [१५...]
(४३)
प्रत
वृहदृत्तिः
सूत्रांक
२६
[१६९
१९२]
उत्तराध्य. सम्भव इति भावना । खचरानाह-'चम्मे उ'त्ति प्रक्रमात् 'चर्मपक्षिणः' चर्मचटकाप्रभृतयः, चर्मरूपा एव हि जीवाजीव
तेषा पक्षा इति, तथा रोमप्रधानाः पक्षा रोमपक्षास्तद्वन्तः रोमपक्षिणः-राजहंसादयः 'समुद्गपक्षिणः' समुद्का-| कारपक्षवन्तः, ते च मानुषोत्तरादहि-पवर्तिनः, 'विततपक्षिणः' ये सर्वदा विस्तारिताभ्यामेव पक्षाभ्यामासते। हा
विभक्ति ॥६९९॥ इह च यत्क्षेत्रस्थित्यन्तरादि प्रत्येकं प्राक्तनेन सदृशमपि पुनः पुनरुच्यते न पुनरतिदिश्यते तत्प्रपञ्चितज्ञविनेयानुन-AT
हार्थमेवंविधा अपि प्रज्ञापनीया एवेति ख्यापनार्थ चेत्यदुष्टमेवेति भावनीयमिति पञ्चविं(चतुर्विंशतिसूत्रार्थः ॥ इत्थं तिरथोऽभिधाय मनुजानभिधातुमाह| मणुया दुविहभेया उ, ते मे कित्तयओ सुण । समुच्छिमाइ मणुया, गन्भवतिया तहा ॥ १९३ ॥ गन्भ
वतिया जे उ, तिविहा ते वियाहिया । अकम्मकम्मभूमा य, अंतरद्दीवगा तहा ॥ १९४ ॥ पनरस तीस-17 साइविहा, भेआ अट्ठावीसई । संखा उ कमसो तेसिं, इह एसा वियाहिया ॥१९॥ संमुफिछमाण एसेव, भेओर होइ आहिओ। लोगस्स एगदेसंमि, ते सव्वेवि वियाहिया ॥ १९६ ॥ संतई पप्पणाईया, अपज्जवसिया-14
६९९|| |विय । ठिई पद्धच साईया, सपजवसियावि य॥१९७ ॥ पलिओवमाई तिनि य, उकोसेण वियाहिया ।।
आउठिई मणुयाणं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥१९८ ॥ पलिओवमाई तिन्नि उ, उक्कोसेण वियाहिया । पुष्वकोडिपुष्टुत्तेणं, अंतोमुत्तं जहन्नयं ॥ १९९॥ कायटिई मणुयाणं, अंतरं तेसिमं भवे । अर्णतकालमुकोसं,
दीप अनुक्रम [१६३४-१६५७]
JABERatinintamational
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४३), मूलसूत्र - [४] "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं शान्तिसूरि-विरचिता वृत्ति:
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