Book Title: Aagam 38 B PANCHKALP Bhashya ev
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 4
________________ [पंचकल्प' भाष्यं] इस प्रकाशन की विकास-गाथा पूज्यपाद आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) के संशोधन एवं संपादन से सन १९४२ (विक्रम संवत १९९८) में ४५ आगम+वैकल्पिक दो आगम+ पांच नियुक्तिओ एवं कल्पसूत्र को मिलाकर “आगममंजुषा" नाम से करीब १३०० पृष्ठ छपे, जिसकी साइज़ 20x30 इंच थी | इस संपादनमें ६+१ छेदसूत्र भी पूज्यश्रीने मुद्रित करवाए | यहीं "आगममंजुषा" पूज्यश्री की प्रेरणा से श्री शत्रुजयतीर्थ की तलेटीमें आगममंदिरमें आरस के पट्ट पर भी उत्कीर्ण हुई और सुरतनगरमे ताम्रपत्र पर भी अंकित हुई | हमने उसी ६+१ छेदसूत्रो को फोटो-स्केन करवाया, फोटो-स्केन कोपी को पहले 'A-4' साइज़ मे लेजाकर अलग-अलग ६+१ किताबो के रुपमे रखा, फ़िर उसी को इन्टरनेट पर भी अपलोड करवाया और हमारे प्रकाशनो कि DVD मे भी उनको स्थान दे दिया | हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है किन्त लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा आदर देखकर हमने इसी ६+१ छेदसूत्रो को प्रत-स्वरुपमें यहां सम्मिलित कर दिया, तॉकी भविष्यमे को यह न कहे कि इस संपटमें ३९ आगम हि है, और ६ आगम कम है। एक स्पेशियल फोरमेट बनवा कर हमने बीचमे पूज्यश्री संपादित पृष्ठो को ज्यों के त्यों रख दिए, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर भाष्यगाथा के क्रमांक लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौन सी भाष्य-गाथा चल रही है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, प्रत में यहां सिर्फ गाथाए ही है, फ़िरभी हमने यहां सिर्फ कौंस - दिए है, गाथा के लिए यहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन नहीं खींची है। एक विशेष बात- इस आगममें महत् भाष्य, लघुभाष्य और व्याख्यागाथा की जानकारी के लिए हमारा "आगमसुत्ताणि मूल" भाग ३८ जरुर देखे | हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे खास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन-भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक | रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर..... । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३८/२], छेदसूत्र - [9/२] "पंचकल्प" संघदासगणिक्षमाश्रमण विरचितं भाष्य ~ 3~

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