Book Title: Vastusara Ratnapal Charitre
Author(s): Agamoddharak Granthmala
Publisher: Agamoddharak Granthmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // समणस्स भगवओ महावीरस्स // आगमोद्धारक-ग्रन्थमाला-ग्रन्थाङ्कः 3. ध्यानस्थस्वर्गत-आगमोद्धारक-श्रीमदानन्दसागरसूरीश्वरेच्यो नमः / // श्रीवस्तुसार-रत्नपाल-चरित्रे // ii सास (A सारा प्रकाशिकाय आसपुरवास्तव्य-प्राग्वाटवंशीय-श्रीप्रेमचन्द्रस्मार्थ तल्लघुभ्राता-मोतीचन्द्रकृत-द्रव्यसहाय्येन कर्पटवाणिज्या श्रीमीठाभाई-कल्याणचन्द्र-जैन श्वे० संस्था / श्रीवीर सं. 2482 आगमोद्धारक सं. TUL विक्रमीय० 2012 . प्रतिः 500 मूल्यं-पठनपाठनं क्राईष्ट० 1956 मुद्रक : महेता अमरचंद बेचरदास, श्रोबहादूरसिंहजी प्री. प्रेस : पालीताणा (सौराष्ट्र) Scanned with CamSca Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पणम् प्रकाशकीय वक्तव्य आ संस्थाने आगमोद्धारक ग्रन्थमालाना आ त्रीजा प्रन्थने पूज्यपाद्गणिवर्य-श्रीलब्धिसागरमहोदयानाम् .. बाहर पाडतां अत्यन्त आनन्द थाय छे के आ एकज वर्षमा संस्थाये त्रण ग्रन्थरत्नो बाहर पाड्या छे। विद्यमानं सर्व संसारसुखं तिरस्कृत्य भवान् युवावस्थायां आमां पू. श्रीमलयसागरजी महाराज पासेथी सांभलेली निष्कान्तः / सर्वमपि कुटुम्बिजनं असारात् संसाराद् उद्धृत्वा | बे कथाओने संस्कृत पद्यमां मुनिराज श्रीत्रलोक्यसागरजी म. संयममार्गे प्लावितं च / अस्मिन् समयेऽपि भवत् कुटुम्बिनः | रचेल छे। अने तेनी शुद्धि पू. श्रीसूर्योदयसागरजी म. तथा चतुर्विशति संयमिनः संयमानन्दमनुभवन्ति / पू. श्रीप्रबोधसागरजी म. करेल छे. तेने प्रकाशन करवानो ____भवतामुपदेशप्रेरणाभ्यां जीर्णोद्धारादिनि अनेकशुभकार्याणि तमाम खर्च आसपुर निवासी श्रीप्रेमचन्दभाईना स्मार्थे तेमना लघुभ्राता मोतीचन्दभाईए आपेल छे / तथा चरित्रोनां प्रुफो संजातानि भवन्ति च / अतो भवतां गुणाकृष्टोऽहं इमे लघू | सुधारवान कार्य पू० श्रीकञ्चनविजयजी म. सा. तथा श्रीप्रमोदचरित्रे उपदि करोमि. सागरजी म. करेल छे. द्रव्य सहायक तथा पू. मुनिराजोनो अमो आभार मानीए छीए. प्रेस दोष के दृष्टि दोषथी कोई अशुद्धि रही होय. तो सुधारी वाचवा अमारी भलामण छे. aspeedeeapemperceptodeeDEOS त्रैलोक्यसागरः | // 2 // प्रकाशक Scanned with CamSca Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scammea with CamSca E श्रीवस्तुसारचरित्रम् INI RA समणस्स भगवओ महावीरस्स अनन्तलब्धिनिधानाय श्रीगौतमस्वामिने नमः आ गमोद्धारक श्रीमदानन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः // श्रीवस्तुसारचरित्रम् . // 1 // gemecapeecDECareeDCORRECORRECER Doormeconom20CDoorna ज्ञातान्वये महादीप, तीर्थनाथमपश्चिमम् / भव्यानां हितबोधाय, सुष्ठुधर्मोपदेशकम् // 1 // बाल्येऽप्यमरनाथस्य, संदेहोच्छेदकारिणम् / धीरतायाः महागारं, संगमे करूणाकरम् // 2 // श्रीगौतमादिविप्राणां सद्वेदार्थप्रकाशकम् / अपूर्वज्ञानदातारं, नौमि | तं ज्ञातनन्दनम् // 3 // (त्रिभिर्विशषकम् ) गौतमादिगणाधीशान्, एकादश मुनीश्वरान् / सार्वान् गणधरांस्तांश्च, वन्देहं शुभभावतः / // 4 // स्तौमि स्वपरशास्त्रज्ञ, आगमद्युतिधारकम् / आगमज्ञानदातारं, सूरिमानन्दसागरम् / / 5 // पंचाचारेऽनिशं रक्तं, दान्तं सद्भावधारकम् / सदानन्देन वक्तारं, वन्दे क्षमाब्धिपाठकम् // 6 // नत्वा देवगुरुन् सर्वान् , वन्दित्वा जिनभारतीम् / चरित्रं वस्तु-10 सारस्य, लिखामि देवभाषया, || 7 // शान्तिपुराभिधे प्रामे, जिनप्रासादमण्डिते / शत्रुर्मदनराजाऽस्ति, स्तोकभूमिप्रशासकः // 8 // तस्य पुरोहितो विश्वभूतिर्नाम महाबुधः / सर्वकार्येषु दक्षो यः, राजनीतिविचक्षणः // 9 // निर्मला तस्य भार्याऽभूत् , शीलालङ्कारशोभिता / वस्तुसारस्तयोः पुत्रः, प्राणप्रियः सुलक्षणः // 10 // पाठयति पिता पुत्रं, सदा शास्त्राण्यनेकशः / ऋते पितुश्च को दाता, बालेभ्यो हितशिक्षणम् // 11 // एवं तु दशमे वर्षे, दुर्भाग्याशनिपाततः / विश्वभूतिस्तदाधारः, कथाशेषत्वमासदत् // 12 // वस्तुसारं सुशास्त्राणि, पाठयेत् को विना पितुः / एवं गतेपु कालेपु, षोडशवर्षकोऽभवत् // 13 / / इतः शान्तिपुरासन्ने, गते क्रोशे च पंचषे / Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. 2011 में यहां पूज्य श्रीत्रैलोक्यसागरजी म. व श्रीरुपसागरजी म० का चातुर्मास था, तब उपधानतप संबन्धि बात निकलने पर आपने आधा खर्च देना स्विकार किया था, और आधा खर्च श्रीसंघने देना स्विकार किया, और उपधानतेप बडे आनन्द से पूर्ण हुवा, जिसमें 13 भाईयों व 48 बहिनोने लाभ लियाया था। सं. 2012 में यहां पार्श्वचंद्र गच्छीय मुनि विकासचंद्रजी चातुर्मास रहे थे, और चातुर्मास बाद फाल्गुन शु. 1 को महाराज यहां से तीन मील दूरीपर गोठड़ा नामक ग्रामके निकट एक गुफामे ध्यान लगाने जा रहे थे, सो आप अपने लघुभ्राता एवं और मी दो चार जने साथ वहां गये हुवे थे, वहां पहुचने पर आप हाजत रफा करने को गये, और हाथ शुद्धि के लिये एक बाव में उतरे वहां चक्कर आनेसे अन्दर गिर पड़े और इस असार संसार को छोड़कर स्वर्गको सिधाये। * आपके पीछे दो पुत्रीयें व एक लघुपुत्र 11 वर्षयि छोड़ गये है। शासनदेव से प्रार्थना है कि संघमे इनकी जो कमी पडी है उसे व उनके किये हुवे अभिप्रहोंको पूर्ण करने की शक्ति आपके लघुभ्राता व 'आपके पुत्रको प्रदान करें। आपकी आत्माको शान्ति प्रदान हो ऐसी भी शासनदेवसे विनन्ति है। MAN श्रोचतुर्विध संघ सेवक . . . वृद्धिचंद भीमचंदजी सेमलावत : आसपुर Scanned with CamSca Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयुत् प्रेमचन्दजी का संक्षिप्त जीवन चरित्र Cota आपका जन्म डूंगरपुर (राजस्थान) जिलेके अंदर आसपुर नामक ग्राममें वीशा-पोरवाल ज्ञातीय श्रीउदयचन्दजी सिमलावत की सुपत्नी कुरीबाई की कुक्षीसे सं. 1964 मार्गशिर्ष कृष्णा 8 को हुवा था। आप बचपन से ही सुसंस्कारी थे। श्रीउदयचन्दजी के लघुभ्राता श्रीपुनमचन्दजी के कोई संतान नहीं होने से आपको पुत्र तरिके स्वीकार किये थे। आपके लघुभ्राता मोतीचन्द नामक है, व एक बहीन भी थी। आप व्यापार कार्य में अधिक कुशल थे। आप न्यायसंपन्न वैभवको ही चाहनेवाले थे। आपने अपने जीवनमे किसीके साथ दगा फरेब नहीं किया, कालेबाजारका इतना जोरशोर था, फिर मी आप उसे जहरीला काला साप समजकर बाल बाल बचे थे। आपकी धार्मिक भावना अत्यन्त सराहनीय थी, जब कभी कोईभी धार्मिक कार्य उपस्थित होता तो आप अग्रेसर होकर | उस कार्यको तन, मन और धन की. सहायता देकर पार लगा देते थे। सं. 2007 में आप सहकुटुम्ब शत्रुजय व गिरनारजी की यात्रा को गये थे, तब गिरनारजी के जीर्णोद्धार के कार्यको देखकर आपने अभिग्रह किया कि जब तक मैं यहां के जीर्णोद्धार में रु. 10000) न दे सकुं तब तक हर पूर्णिमाको || घृत नहीं खाऊंगा। वैसे ही स्थानीय संघ के एक कार्य बाबत आपने अभिग्रह किया था कि जब तक वह कार्य न हो जायगा तब बक लग्न-प्रसंग के जीमन में मीठा पकवान नहीं खाउगा / 20pepepepemora // 3 // Scanned with CamSca Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Cococca Scaneu Will CamSca IN| इन्द्रपुरसमानं वै, देवपुरं महापुरम् // 14 // तत्र देवयशो राजा, पुरोहितश्च सोमिलः / सोमिला तस्य भार्यास्ति, सीललावण्य- INh शोभिता // 15 // सुकोमलाऽभिधा कन्या, रुपेण रतिसन्निभा / नम्रतादिगुणोपेता, तयोर्जाता सुलक्षणा // 16 // संप्राप्तयौवनां ताञ्च, दृष्ट्वेत्यचिन्तयद्विजः / एतद्योग्यो वरः कोऽपि, दर्शनीयो मयाऽधुना // 17 // सन्तति, न काप्यस्ति, विना पुत्र्यानया खलु। तस्मात् सुगुणसंयुक्तः, जामाता सुकुलोद्भवः // 18 // मदालये वसेद्यो हि, मुक्त्वा पित्रादिकं सदा, तस्मै कन्या मया देया। कस्मै चिन्नान्यसूनवे // 19 // (युग्म) एवं विधं वरं सोऽथ, मृगयामास सर्वतः। परं प्राप्नोति न क्वाऽपि, चिन्ता चिते च वर्धते // 20 // भाषायां-" सुखे न सुवे धननो धणी, सुखे न सुवे जेने चिन्ता घणी / सुखे न सुवे दिकरीनो बाप, सुखे न सुवे | जेना घरमां साप // 21 // " इतः कोऽपि मनुष्योऽथ, समेत्योवाच सोमिलम् / आसीच्छान्तिपुरे स्वामिन् !, विश्वभूतिपुरोहितः // 22 // वस्तुसार, सुतस्तस्य, षोडशवार्षिकः सुधीः / जनीसहित एवास्ति, कन्यायोग्यो मयेक्षितः // 23 // कथंचिद्बोधयित्वा तन्, मातरं सादरं भवान् / ददातु वस्तुसाराय, कन्यकां स्नेहलामपि // 24 // पुरोधसा तदर्थञ्च, प्रेषिता वाग्मिनो लधु / गत्वा शान्तिपुरे तेऽपि, प्रोचुः तन्मातरं मुदा // 29 // देवपुरे प्रसिद्धो यः, सोमिलोऽस्ति पुरोहितः। द्विजोतमो नरेशस्य, मान्यो गुणविभूषणः // 26 // तस्यैका सुभगा पुत्री, लावण्यरुपशोभिता / युवावस्थाञ्च संप्राप्ता, लग्नयोग्याऽधुनाऽस्ति वै // 27 // श्रुत्वा योग्य भवत्पुत्रं, वस्तुसारं गुणान्वितम् / प्रेषिताः सोमिलेनात्र, समेता वरलिप्सुना // 28 // एकैव तस्य कन्यास्ति, प्राणेभ्योऽत्यन्तवल्लभा / जामाता मद्गृहे तिष्ठेदित्येवेच्छति सोमिलः // 29 // निर्मलोवाच भो विप्राः !, एकपुत्रो ममाऽपि च / कथङ्कारं गृहे तस्य, तत्पुत्रं प्रददाम्यहम् // 30 // विप्राः प्रोचुरये सुभ्र, तव स्थितिस्तु निर्बला / कथं विवाहसंबन्धं, करिष्यसि द्विजालये // 31 // भूपणानि च वस्त्राणि, ब्रह्मभोजनकान्यपि / सर्वाणि लग्नकार्याणि, विना द्रव्यं कथं भवेत् // 32 // अन्यापि वस्तुसारस्य, प्राध्ययनविधायिनी / पाठकादिसुसामग्री, नास्ति सुखपुरःसरम् // 33 // द्रव्याभावेन सुष्ठुत्व-मस्मिन् कार्ये विचारय / धनं कन्या च विज्ञानं, सर्व तत्र भविष्यति // 34 // एवं युक्तिप्रयुक्तिभ्यां, मातुरादाय सम्मतिम् / गत्वोपवस्तुसारं ते, तन्मतं जगदुः तदा // 35 // CO2DDCRate FASTE HALFIFTHERE 220c0meOODOOD Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scaneu with CamSca श्रीवस्तुसारचरित्रम् RecorderDOL | अज्ञानाद्वस्तुसारेण, स्वीकृतं तद्वचो रहः / तृष्णापाशैरहो बद्धा, जन्तवः किं न कुर्वते' // 36 // भाषायां-" चार कोशकी आवण जावण, बार कोशकी घी घलावण / तीसकोस माथाको मोड, घरजमाइ गंडककी ठोड // 37 // " वस्तुसारेण साध ते, आगतास्सोमिळान्तिके। दृष्वा जामातरं योग्य, हृदये हर्षभागभूत् // 38 // कुंकुमतिलकं कृत्वा, लग्नं च समहोत्सवम् / मन्यते स्वं कृतार्थ च, सोमिलः पुलकाश्चितः // 39 // अध्ययनाय तेनासौ, प्रामान्तरं च प्रेषितः। उषित्वा तत्र सारोऽप्य-भ्यासं करोति संमुदा // 40 // श्वशुरस्य गृहे याति, कदायाति निजे गृहे / एवमनेक वर्षाणि, व्यतितानि सुखेन वै // 41 // इतश्च वस्तुसारस्य, प्रिया गर्भ बभार च / परिवर्तित चेष्टा सा, गर्भ च परिरक्षति // 42 // इतः संपूर्ण काले सा, पुत्र प्रासूत कोमला। जन्मोत्सवः कृतस्तस्य, सोमिलेन महामहैः // 43 // शुभे दिने तदा तस्य, कृतं नाम सुधीरिति / सुलक्षणेन युक्तः स, इन्दुकलेव वर्धते // 44 // यदा तु वस्तुसारोऽगात्, नुत्यै श्रीमातृसन्निधौ / तदा च वक्ति तं माता, पौत्रं च मम दर्शय // 45 अहोऽहं मन्दभाग्यास्मि, यन्नदृष्टं स्नुषामुखम् / द्रष्टुं पौत्रं न शक्नोमि, 'चित्रा गतिर्हि कर्मणाम् // 46 // पौत्रेक्षणाय हे पुत्र !, ममेच्छा वर्ततेऽधुना / वस्तुसारो जगौ मातः !, दर्शयिष्यामि ते सुतम् // 47 // इत्याश्वास्य जनीं सारः, समागात् श्वशुरौकासि / श्वश्रू च कथयामास, जननी हृदयाशयम // 48 // कोपं कृत्वा तदा श्वश्रूः, वक्ति जातमातरं प्रति / रे मूढ ! कि वदत्येवम् , पुत्रकाविमको मम // 49 // गमिष्यतो न मे गेहाद्, अन्यगृहे कदाचन / द्रष्टुमिच्छति ते माता, तोगच्छतु सादरम् // 50 // अचिन्ति वस्तुसारेण, 'स्त्रोषु प्रज्ञा भवेन्नहि' / श्वशुरं कथयिष्यामि, 'बुद्धिशाली नरो यतः // 51 // एकदा सोमिलस्याने, वस्तुसारोऽवदत् पुनः / मातुर्मे वर्तते कांक्षा, द्रष्टुं पौत्राननं खलु // 52 // मातुर्मनः समाध्य, तौ नीत्वा च निजे गृहे। पश्चाद् द्वित्रि दिनान्नुन-मागन्तास्मि तवान्तिके // 53 / / श्रुत्वैवं वस्तुवाचं हि, तदा वह्निकणोपमाम् / पुरोहितोऽब्रवीदेवं, क्रुधा विवेप वर्मकः // 54 // अरे मूढ ! न जानासि, जामाता त्वं गृहे मम / एषा पुत्री सुतश्चैषो, दोगुन्दकसहोदरौ॥ 55 // नोगमिष्यत एतौ तु, मातुस्ते सन्निधौ क्वचित् / गत्वा शान्तिपुरे शीघ-मानय जननी तव // 56 // श्रुत्वेदं वस्तुसारोऽथ, विलक्षोऽचिन्तयत्तदा / अहोऽसमञ्जसं जातं, गृहे जामा THEHELHI ecorrespono Romeomom200omic Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scared with CamSca श्रीवस्तुसारचरित्रम् // 4 // MARADABAD careerCCrepeareerameezrecederapes तृता खलु // 57 // यस्याः पिता वदत्येवं, प्रत्यक्षमसञ्जसम् / कथं ? सुकोमला सा तु, मया साध समेष्यति // 58 किं करोमि क्व गच्छामि, कस्याने पूत्करोम्यहम् / गृहे जामातरं घिधिक, धिक् तस्य जीवितं मम // 59 // कियत्यपि गते काले, कस्मै प्रयोजनाय च / वस्तुसारो गतो प्रामे, श्वशुरस्य निदेशतः // 60 / / प्रत्यागच्छति सः सारः, कार्य कृत्वा पुरं प्रति / शान्तिपुरे वसन् कोऽपि, मार्गे च मिलितस्तदा // 61 // पृच्छति स्म तकं सारः, जनन्याः कुशलं मम / प्रत्युवाच तदा सोऽथ, ते माता मृत्युसन्मुखा / / 62 / / ततः शान्तिपुरे शीघ्रं, गच्छ त्वं मातुरन्तिके / स्नेहार्द्रचित्तः श्रुत्वैवमागात् शीघ्रं जनी प्रति / / 63 / / दुःखान्वितां जनीं दृष्ट्वा, वस्तुसारोऽतिदुःखितः / पुत्रं दृष्ट्वा प्रसूः प्राह, जीवितमन्त्यमेव मे / / 64 // न दृष्टं पौत्रवक्त्रं तु, 'न दृष्टं च वधूमुखम् / एवं मातुर्गिरिं श्रुत्वा, वस्तुसारोऽरुदीद च / / 65 / / मया मूढेन नोऽकारि, जनीकार्य हि जन्मनि / हा कि | मे पुरुषत्वेन, यस्यैतदपि दुःशकम् / / 66 / उक्तं च-" उढो गर्भः प्रसवसमये सोढमत्युग्रशूलं, पथ्याहार, सपनविधिमिः स्तन्यपानप्रयत्नैः / विष्ठामुत्रप्रभृतिमलिनैः कष्टमासाद्य सद्यस्त्रातः पुत्रः कथमपि यया स्तूयतां सैव माता / / 67 / / " एक साप्तपदीनं च, सारो गति हे सखे ! / त्वं श्वशुरगृहे याहि, प्रत्यानय सुतादिकम् / / 68 // मित्रं वदति हे सार !, तत्र याहि त्वमेव हि / तत्राऽहं किं करिष्यामि, विचित्रः श्वशुरः श्रुतः // 69 / / परिचयीं करिष्यामि, तस्माद्गच्छ त्वमेव हि ! लात्वा पुत्रादिकं शीघ्र-मागच्छ मातुरान्तिके // 70 // पुत्रादि ग्रहणार्थं च, वस्तुसारस्तदा गतः / विशन्तञ्च गृहं सारं, बभाषे सोमिलो द्विजः // 71 // स्तोककार्ये विलम्बस्ते, मूढ ! कुतो बभूव रे। जगाद वस्तुसारोऽथ, जनी मे व्याधिपीडिता / / 72 / / अन्त्यावस्था तदीयेव, कुटुम्बं द्रष्टुमिच्छति / तस्मात् पुत्रादिकं नीत्वा, तत्र गन्तास्मि सत्वरम् / / 73 / / श्वशुरोऽथ जगादेवं, विस्मृतं कि वचो मम / ममतो तु सुतापुत्रौ, नेतुं शक्नोषि नो क्वचित् / / 74 // उवाच वस्तुसारोऽथ, किं वदसि द्विजोत्तम!। ईदृशे समये त्वीहक, प्रजल्पन् किं न लज्जसे // 75 / / स्त्रीपुत्रौ च ममैव स्तः, नाधिकारस्तयोस्तव / सोमिलः प्राह द्वारिस्थं, जल्पकं कुटतु त्वमुम् // 76 // करं धृत्वा च भृत्येन, पातितो भूतले लघु / यष्टि मुष्टि प्रहारेण, प्रहतोऽसौ सुनिर्दयम् / / 77 / / काकनाशं प्रणश्यन् हि, समा CRODerverpeneuperdeeperpowdeepe Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ scaneu with CamSca श्रीवस्तुसार चरित्रम् // 7 // Readacoedemadeshmerapr | प्यामि जीवितम् / आज्यखंडादियुक्भक्तं, विषोपमं हि ते गृहे / / 121 // विलक्षोऽथ निजे गेहे, एकाकी सोमिलो गतः / शान्ति| पुरेऽथ सारो हि, सप्रियापुत्रकोऽवसत् // 122 // शत्रुमर्दनभूपालात्, सारः प्राप्तजीविकः / पाठयति निजं पुत्रं, त्रिवर्ग साधयन् | सुखम् // 123 // अन्यदा भूपयुक्तोऽसौ, गतोद्याननिरीक्षितुम् / पश्यतस्तो मुनि तत्र, कायोत्सर्गस्थितं मुदा // 124 // योग्य-10 जीवौ मुनिख़त्वा, मुक्त्वा ध्यानं निजं तदा / देशनां विदधे साधुर्भव्यजीवोपकारिणीम् // 125 / / देशनान्ते नृपोऽपृच्छद्, मन्ये त्वां सुकुलोद्भवम् / अस्मिंश्च यौवने स्वामिन् , गृहीतं संयम कथम् // 126 / / साधुः प्रोवाच हे राजन् !, संसारोऽयं भयङ्करः। तस्मात् त्यक्त्वा च संसारं, अङ्गीकृतं मया व्रतम् // 127 // भूपालः प्राह हे स्वामिन् !, कथं भयङ्करं जगत्। कृत्वा कृपां मयि ब्रूहि, कारणं भयकारकम् // 128 // साधुर्बभाण हे राजन् !, अन्यया कथया मृतम् / पुरोहितकथा या हि, विश्वेका सा भयङ्करा // 129 / / नृपोऽवदच्च हे स्वामिन् !, वर्तते मे गुरुः सुखी / तस्य नो दुःखलेशोऽपि, कथं दुःखी पुरोहितः / // 130 / / संसारे न सुखी | कोपि, विश्वो हि दुःखसागरः / अस्य पूर्वभवं राजन् !, श्रृणु आश्चर्य कारकम् // 131 / राजपुरे शुभे ग्रामे, सूरसेनाभिधो वणिक् / भानुमती प्रिया तस्य, संतानेन विवर्जिता // 132 // रामरथाभिधस्तत्र, तस्याभूत् प्रातिवेश्मिकः / सुन्दरी गेहिनी तस्य, गुणसौन्दर्यशोभिता // 133 // पुत्र एकस्तयोरासीत्, द्वित्री संवत्सरात्मकः / मन्दं गच्छति सोबालः, मन्दं मन्दं च भाषते // 134 // भानुमती च सेनोऽथ, तं शिशुं निजपुत्रवत् / लालयतोऽति हर्षेण, भोज्येनाभरणादिना // 135 / / अपुत्रस्तु परं पुत्रं, स्वपुत्र मेव मन्यते / रक्षतस्तं निजे इम्य, स्वपुत्रमिव तौ सदा // 136 // रामरथोऽन्यदा कस्माद्, प्रामादागतवान् गृहे / पृच्छति च निजां भायीं, क्व गतोऽस्ति सुतः प्रिये ! // 137 // भार्या वदति पार्श्वस्थं, गृहं गच्छति सर्वदा / जगाम सो गृहे तस्य, पुत्रं द्रष्टुं मुदा तदा // 138 // यावत् याति रथस्तत्र, तावत् द्वारे स्थिता च सा / प्रोवाच भानुमत्येवं, पुत्रो नास्ति हि मे गृहे // 139|| प्रियां प्राह रथोऽभेत्य, तत्र नास्ति सुतः खलु / दंपति तु तदा बालं, शोधनार्थ विनिर्गतौ। // 140 // इतस्ततो बिसुद्धपन्तो, | भ्रमतः प्रतिपाटकम् / कुतो न प्रापतुर्थालं, तेन चिन्ता तुरौ हि तौ // 141 / / इतश्च सूरसेनोऽथ, गेहमागतवान् तदा / चिन्तापरौ DeparaceDeceDececa OA Shot on OnePlus By vipul Jain Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dector Scauneu with CamSca श्रीवस्तुसारचरित्रम् // 6 // धुना // 99 // धान्यवदत् सुतामेवं, पुराहि कथितं मया / एकाकिनि वनेऽत्राहं, तमस्विन्यां करोमि किम् // 10 // यावत्तयोमिथो वार्ता, तावत् पुण्योदयेन हि / प्रयान्तस्तु तदा केचित् , शाकटिकाः समागता // 101 // शाकटिकाञ्जगौ धात्री, यूयं कुत्र गमिष्यथ / प्रत्युत्तरं ददत्येवं, व्रजामः शान्तिपत्तनम् // 102 // धान्यवदच हे भ्रातः, विश्वभूतेरियं स्नुषा / गन्त्रीमध्ये पथि श्रान्ता, वराकी नीयते त्वया // 103 / / शाकटिको वदत्येवं, गन्ध्यामारोहतु स्वयं / आरुह्य शकटे द्वे तु, शान्तिपुरं प्रतीयतुः // 104 / / प्रामाहि समुत्तिर्य, अहित्वा तं शिशु तदा / विश्वभूतेहं पृष्ट्रवा, गच्छतस्ते शनैश्शनैः // 105 / / श्वशुं द्रष्टुं गृहे याति, तावत् | प्राप्तां यमालयम् / श्मशाने नीयमानां तां, पश्यति सोद्यमैर्जनैः // 106 // मूर्च्छिता प्राप्तसंज्ञा सा, वक्षस्तदेव कुट्टति / शबोपरि सुतं मुक्त्वा, क्रन्दुते च महास्वरैः // 107 // लोका गदन्ति तामाती, मृता श्वश्रू तवैव हि / कदा को न मृतौ जीवेत् , ततस्तापं त्यज वृथा | // 108 // सद्यो धर्व भज त्वं तु, मुमूर्षुरस्ति सोऽधुना / श्रुत्वैवं वस्तुसारस्य, सन्निधौ त्वरितं गता // 109 // समेत्य मूञ्छितं दृष्ट्वा, पृच्छाति सान्तिकान् जनान् / ज्ञात्वा तत् कारणं तेभ्यः, वक्तिः पत्युः श्रुताविति // 110 / / इयं सुकोमला स्वामिन् , आगतास्ति तवान्तिके। दृष्टः पुत्रो जनन्या वे, तस्मात पुत्रं विलोकय // 111 // तस्यां बाद प्रजल्पन्त्यां, लब्धसंज्ञो यदाभवत् / स्त्रीवचसा तदा तस्य, स्वरपरिचयोऽभवत् // 112 / / अथोन्मीलितनेत्रश्च, पश्यति च सुकोमलाम् / साह दयां विधायार्य!, स्त्रियं पश्य सपुत्रकाम् // 113 // संप्राप्तो विशदां शुद्धिं, पश्यति च सुतादिकम् / वस्तुसारो द्विजः सोऽथ, प्राप सौस्थ्यं शनैश्शनैः // 114 // सोमिलो लोकिकार्थ दागू, वस्तुसारगृहे तदा / आगतः सोमिलायुक्तो, लोकाचारो महान्यतः // 115 / / शोके प्रतिनिवृत्तेऽथ, सारं वदति सोमिलः / गम्यते तत्र सर्वत्र, विलंबं मा कुरू वृथा / / 116 // बभाषे वस्तुसारोऽथ, कोमलाजनक प्रति / तत्राहं नागमिष्यामि, अस्मिन् जन्मनि निश्चितम् // 117 / आगच्छेत् यदि ते पुत्री, तदा सुखेन तां नय / वर्तते हि ममानुज्ञा, यथारुचि तथाकुरू // 118 // जगाद सोमिलः पुत्रि, एहि नाम निजे गृहे / सुकोमला जगावेवं, यत् स्थिताऽहं निजे गृहे / / 119 / / अस्मिन् जन्मनि हे तात , नागमिष्यामि ते गृहे / घृतं विनापि भक्तं हि, मन्येहममृतोपमम् // 120 // शुष्कान्नेन सदात्रैव, निर्गमि DeepermaCarpependendormers Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scanlieu wil CamSca गतो निजे गृहे / गृहद्वारं विशन् दुःखी, पपात भूतले तदा // 78 // मूछितो गतशुद्धिश्च, वक्तुं किं नापि प्राभवत् / इतः श्रीवस्तुसार सोमिलगेहे च, यज्जातं कथयामि तत् // 79 // प्रदोष समये तत्र, धात्रीयुक्ता सुकोमला / पुत्रं च क्रोडयामास, सानन्दा हि चरित्रम् गवाक्षके // 80 // धात्रो सुकोमलां प्राह, नवीनं किं श्रुतस्त्वया / मया तु न श्रुतं किञ्चित् , यज्जातं तद्वद् त्वकम् // 81 / / धात्री प्रोवाच हे पुत्रि!, समाकर्णय तद्यथा / पत्युस्ते जननीदानी-मन्त्यावस्था सूदुःखिता // 82 // दिदृक्षकाधुना तस्याः, स्नुषा पौत्राननस्य च / ततो वध्वादिकं शीघ्रं, नेतुमागात् पतिस्तव // 83 // पित्रा तिरस्कृतः सोऽथ, ताड्यमानो नियोगिना / धावमानस्ततः शीघ्रं, कष्टेनागात् निजे गृहे // 84 // वर्तनेन पितुः पुत्रि !, दूयतेऽतिमनो मम / त्वत्तो गुप्तमिदं त्वेतद्, परं दुःखप्रदं ननु // 85 // अहो वदसि कि मातः, पित्रा मे बुद्धिशालिना / दुश्चेष्टितं कृतं किं नु, नो जाने कि भविष्यति // 86 // मातरवि मां तत्र, सपुत्रां नय मंक्षु वै / उत्कण्ठाऽतीव मे नन्तुं, श्वश्रूचरणपंकजौ // 87 / / विलम्बोऽथातिदुःसह्यो, क्षणो वर्षसमो मम / कुरूपायं यथायोग्य, येन गच्छामि लीलया // 88 // धात्री जगाद हे पुत्रि!, कथं रात्रौ नयाम्यहम् / पथ्यस्मिन् तिमिराक्रान्ते, यावो यानं विना कथम् // 89 // देहे नो विद्यते शक्तिः, गन्तुं पादेन तत्र हि / राजगृहे विना यानं, त्वं तु ना यात् कदाचन // 90 // गृहाद्वहिः पृथिव्यां तु, पदं मुक्तं कदा नहि / कथं यास्यसि मृदङ्गि!, सपुत्रा पथि दुर्गमे // 91 // साहैतत्तु गृहं नूनं, कारागारसमं मम / एतदुपवनं चारू, श्मशानमिव भासते // 92 / / सुखस्पर्शा च मे शय्या, भासते कण्टकाऽऽकुला / मृदु प्रावरणं तत्तु, वह्निकल्पं प्रभासते // 93 // धात्री जगाद् हे पुत्री !, शृणु तावदुपायकम् / रात्रिमध्ये गमिष्यावो, द्वारेण पश्चिमेन तु // 94 // प्रच्छन्नं पादचारिण्यौ, द्वारपालावितर्किते / निर्णीयेति तदा ते तु, यापयामासतुः क्षणम् // 95 // ततो बालं समारोप्य, धात्रीस्कन्धे सुकोमला / यावत् पुरोद्विनिर्याति, तावत् तस्या मृदुक्रमात् / / 96 // कण्टककर्करादिभ्यः, शोणितं निर्गतं बहु / दुखं विस्मृत्य गच्छन्त्यौ, विलंबेन विनाग्रतः // 97 / / मध्यमार्गे च संप्राप्ते, स्थिता तत्र सुकोमला / निःश्वसन्ति जगादेवं, दीनास्या NI मातरं प्रति // 98 // (त्रिमिर्विशेषकम् ) परिश्रमेण मे देहात्, शक्तिर्या सा विनिर्गता / ततोऽहं पादमप्यने, गन्तुं शक्नोमि ना: CoenacoccapezoC Karezeraezzera Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scanneu win CamSca श्रीवस्तुसारचरित्रम् Coorcemera // 8 // COCERTEREDEIDOS | हि तौ दृष्ट्वा, पृष्टवान् कारणं किमु // 142 // जगौरथोथ हे भ्रातः, पुत्रः क्वापि न दृश्यते / कृता शुद्धर्हि सर्वत्र, परं न IN | लभ्यते क्वचित् // 143 // समागच्छाम्यहं शीघ्रं, मुक्त्वा भारं निजे गृहे / गृहे गतो निजां भार्याम् , हसन्तीमीक्षते मुहुः | // 144 // गृहान्तरे हि क्रीडन्त, बालमसौ समीक्ष्य च / चुम्बति तं महामोहा-दत्यंतस्नेहपूर्वकम् // 145 // पृच्छतिस्म तदा नारी, अयोग्यं किं कृतं त्वया / सा जगाद मयैतत्तु, नर्मणा कृतमेव हि // 146 // सूरसेनो जगादेव-मयुक्तं हि त्वया कृतम् / | आनाय्य च रथं तत्र, तत् पुत्रकं मुदा ददौ // 147 // एवं तु स्वस्थतां प्राप्तौ, कथञ्चित् दम्पती तु वै / तेन बद्धान्तराया सा, I0 मृतेयाय भवान्तरम् // 148 // सूरसेनस्य जीवस्तु, अयं पुरोहितश्च ते / सुन्दरी रामको जातो, कोमला पितराविह // 149 / / भानुमति जनी जाता, वस्तुसारस्य संप्रति / न दृष्टं पौत्र वक्त्रं च, भवेऽस्मिन् तेन कर्मणा // 150 // चित्रा गतिस्तु देवस्य, वाचामगोचरा हि सा / श्रुत्वैतद् वस्तुसारोथ, प्राप जातिस्मृति तदा // 151 // कृत्वाञ्जलिं मुदा तत्र, प्राहमुनिवरं प्रति / भवता कथितं तत्तु, सत्यमेव महामुने ! / / 152 / / गत्वा गृहे स्वपुत्राय, अर्पयित्वा धनादिकम् / आगच्छामि व्रतार्थञ्च, कृपां विधाय | तिष्ठतु // 153 // पुरोहितेन राज्ञा च, परिवारेण सार्धकम् / गृहीतः संयमस्तत्र, गुरोः पार्श्व प्रमोदतः // 154 // पालयित्वा सुचारित्रं, निर्दोषमप्रमादतः। सुखं देवगृहे भुक्त्वा, मोक्षमापुः विदेहके // 155 // चरित्रं वस्तुसारस्य, श्रुत्वा भव्या ! विचार्य च / केषामपि न कर्तव्यं, नर्मादिकं सुदुःखदम् // 156 / / 'निपुणाः सर्वशास्त्रेषु, नरेशादि प्रबोधकः। आगमोद्धारकर्तारोः, देवर्द्धिरिव योधुऽना // 157 / / राजरकौ समौ येषां, समौ शत्रुसुमित्रकौ / जयन्तु सूरयस्ते वै, आनन्दसागरा भुवि // 158 / / तेषां | शिष्यस्य दक्षस्य, क्षान्त्यादिगुणशालिनः / व्याख्याने सुप्रविणस्य, पाठकस्य क्षमाम्बुधेः // 159 // शिष्येण लघु भूतेन, त्रैलोक्याभिधवार्धिना / वाग्वरे च शुभे देशे, आसपुराभिधे पुरे // 160 / / खवसुवेदनेत्रे (2480) वै, वीरवर्षे शुभे तथा / विक्रमे रुद्रव्योमाक्षि(२०११) संज्ञके हायने मुदा // 161 // शुभे कार्तिकमासे च, पञ्चमीवासरेऽसिते / माणिक्याब्धिमहासूरेः, गच्छनेतुस्समाश्रये / 162 / संपूर्णा लघुकाकारा, एषा विश्वहितावहा / कथा पद्येन संदृब्धा, प्रार्श्वनाथप्रसादतः // 163 / / सूर्योदयप्रबोधाभ्यां, द्रङ्गे कपट CPepperpecseeroeoepeecene Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scanned with CamSca वंजके। शुद्धिरस्य चरित्रस्य, कृता वै शुभभावतः // 164 / / तुलाकृष्णेति नामा यः, पण्डितेषु महोत्तमः / दृष्टिपातः कृतस्तेन, श्रीवस्तुसार- अभयज्ञानमन्दिरे // 165 // चरित्रम् श्रीरत्नपाल चरित्रम् || // इतिश्रीवस्तुसारचरित्रम् // // श्रीरत्नपालचरित्रम् // THAMPARAMETandoiNSrNYTMEETITYurrnima SarezczemercenezaerzzaeezICEETareeDee ज्ञातकुले महासूर्य, मिथ्यात्वतमनाशकम् / महावीरं जिनं वन्दे, भव्यानां हितकारकम् // 1 // वन्देऽहं श्रीगणाधीशान्, गौतमादिमुनीश्वरान् / महालब्धिधरांस्तांश्च, / अत्यन्तशुभभावतः // 2 // वन्देहं तं महासूरि, आनन्दाब्ध्यभिधानकम् / आगमोद्धारकर्त्तार, पंचमारे प्रभावकम् // 3 // शान्तमूर्ति सदानन्दं, क्षमासागरपाठकम् / महोपकारिणं नत्वा, पंचाचारपवित्रितम् // 4 // चरित्रं रत्नपालस्य, करोमि गुरुभक्तितः / स्वान्यजीवोपकाराय, चित्ताहादप्रदायकम् // 5 // (युग्मं) भो भव्या ! श्रुयतां शास्त्र, शुद्धभावेन सर्वदा / शाखेण च महालाभो, वीरेणेति प्रकाशितम् // 6 // श्रीवीरप्रभुणाप्येवं, भाषितं निजपर्षदि / "माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमंमिय बीरिय" // 7 // चतुर्खङ्गेषु मध्ये तु, द्वितीय श्रुतिरुच्यते / त्यक्त्वाऽलस्यं तु भो भव्याः!, सादरं श्रूयतां मुदा / / 8 / / श्रुत्या श्रीरत्नपालेन, साधितं च शिवं खलु / तस्य निदर्शनं वक्ष्ये, यथा पूर्व मया श्रुतम् // 9 // मेदपाटे शुभे देशे, लक्ष्मीपुरं महापुरम् / सदाचारिजनाकीर्ण, धनधान्यादिसंभृतम् // 10 // अनेकजिनचैत्यानि, शोभन्ते यत्र नित्यशः। ध्वजादिकेन युक्तानि, जनचेतोहराणि च / / 11 / / देवपालो नृपस्तत्र, यथार्थगुणधारकः। मोहिनीति प्रिया तस्य, शिलालङ्कारधारिणी // 12 // धन Sameepercoccerocreatenercerened Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scaneu wit CamSca चरित्रम् श्रीरत्नपाल अयो वणिक् तत्र, धनेन रहितस्सदा / चन्द्रया भार्यया साध, दुःखेन वसति स्म सः // 13 // लोकस्य कृपया सोऽथ, किनिल्लात्वा क्रयाणकम् / प्रामेषु विक्रयं कृत्वा, निर्वाहं तु करोति सः // 14 // इतः कश्चिन् महेभ्योऽथ, महाकुटुम्बधारकः / पूर्ण भद्राभिधानोऽपि, तत्र वसति पाटके // 15 // धनञ्जयप्रिया चन्द्रा, भर्तृरक्ता सुलक्षणा। क्रमाद् गर्भवती जाता, वर्णेन परिवर्तिता K // 16 // पूर्णकालेऽथ चन्द्रा सा, प्रासूतक सुतं तदा / किश्चित्सुलक्षणोपेतं, सर्वाङ्गेन सुशोभितम् // 17 / / तयोः पुत्रमुखं दृष्ट्वा, // 10 // हर्षोऽत्यन्तोऽभवत्तदा / 'कस्य मोदो न जायेत, संसारे सुतजन्मनि // 18 // पश्चाह्निके सुते जाते, धनञ्जयो व्यपद्यत / शीर्षवेदनयाऽकाले, 'कर्मणा को हि छुट्यते // 19 // भर्तुविरहदुःखिन्या, कृत्वाऽतिक्रन्दनं तदा / तया पुत्र मुखं दृष्ट्वा, शनैर्दुखं विसर्जितम् // 20 // चन्द्रा तस्याङ्गजस्याहं, मानचन्द्रं व्यधात् मुदा / वैतनिकादिकं कृत्वा, पालयति सुतं सुखम् // 21 // एवं मासाष्टके जाते, ज्वरादिपीडया च सा / निराधारं सुतं मुक्त्वा, दीर्घनिद्रां समासदत् // 22 // मिलित्वा स्वजनैस्तत्र, कृता सवोंचिता क्रिया / बालो न पालितः कैश्चित् , 'को हि द्रव्यं विना निजः' / / 23 / / सम्बन्धो नास्ति मे कश्चिद्, एवमुक्त्वा स्वगोत्रजाः / गता स्वके स्वके स्थाने, 'धनैराकृष्यते जनः // 24 // केनाप्यरक्षितो बालो, रोदीति च महास्वरः। तदा दयाभावेन, पूर्णचन्द्रो व्यचिन्तयत् / / 25 // समादाय निजे गेहे, पालयामि स्तनन्धयम् / स्नुषादिकाभिरेतस्य, पयःपानं भविष्यति // 26 // सन्ति मम सुताः पञ्च, पञ्चाऽपत्यान्विताः स्नुषाः / क्रमेण चास्य बालस्य, पोषणं नु भविष्यति // 27 // चिन्तयित्वा च स | श्रेष्ठी, गृहीत्वा तं स्तनन्धयम् / समादाय निजे गेहे, स्नुषाभ्यश्चार्पयत्तदा / / 28 // संभूय ताश्च सर्वास्तु, क्रमेण तं स्तनन्धयम् / कारयित्वा पयःपानं, पालयन्ति सदा मुदा // 29 // श्रेष्ठिना पश्चमे वर्षे, समकार्ये नियोजितः। बालको मानचन्द्रोऽथ, वत्सादिकं ह्यचारयत् // 30 // श्रेष्ठिगृहेषु ये बालाः, कुर्वन्त्यध्ययनं सदा / तैः सार्ध मानचन्द्रोऽपि, लेखनगणनादिकं // 31 // अभ्यास च करोत्येवं, पूर्वपुण्यानुसारतः / कालेनाल्पेन चन्द्रोऽथ, बुध्या सुशिक्षितोऽभवत् / / 32 // (युग्मं) श्रेष्ठी क्रमेण तं चन्द्रं, हट्ट| कार्ये :न्ययोजयत् / अहर्निशं च कार्याणि, करोति शुद्धभावतः / / 33 // भानुचन्द्राभिधः कश्चिद्, अथाष्टादशवार्षिकं, चन्द्रं जगौ 200RamCRORROceae vedereopormODeeperpone Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S Scanneu with CamSca e द्वितीया शशिवत् सोऽथ, संवर्द्धते. दिने दिने // 78 // एकदा त्वावयोस्तत्र, पल्य३ सुप्तयोस्तदा / प्रिया जगांद मां देव, श्रीरत्नपाल समाकर्णय मे वचः // 79 // दूरमपसर त्वं तु, स्तनन्धयस्य हेतवे / इत्तो नास्त्योवकाशो हि, तत्तं त्वमेव देहि भोः // 8 // चरित्रम् यावत्सरत्यसौ सुप्त-स्तावद् वाप्यां पपात च / कूपे पतन्नसौ चन्द्रः, श्लोकमेकं जगौ तदा / / 8 / / स्वप्ने या सुन्दरीजाता, सा वाप्यां मम पातुका / साक्षाद्यस्य भवेन्नारी, का गतिस्तस्य वै भवेत् // 82 / / भाषायां-" सपनाकेरी सुन्दरी, दीया कुवेमे डाल / // 13 // जो. परणे यह सुन्दरी, उसके केसे हाल / / 83 // " एवमुदीर्यमाणोऽसौ, पपात वापिका तले। भाग्य योगेन यज्जातं, तत् तस्य कथयाम्यतः // 84 / / इतश्च भूपतिर्देव-पालस्तापार्दितस्तदा / तस्मिन्नेव वने सोऽपि, विश्रामाय समागतः // 85 // श्रुत्वा पतनघोषश्च, शीघ्र वाप्यामुपस्थितः / मानुषं पतितं दृष्ट्वा, कर्षणाय समुद्यतः // 86 // आदिष्टानुचरैस्तञ्च, बहिष्कृष्टं स भूपतिः / पृ कछति स्म कथं कूपे, पतितः कारणं वद / / 87 // ममानुमानमेत्तत्तु, केनापि पातितस्त्वकम् / यत्तव ब्रूवतः पातः, तदिदं मेs16/नुमापकम् / / 88 // तस्य नाम तदाख्याहि, शिक्षा तस्मै ददाम्यहम् / चन्द्रः प्राहानुमानं तु, निःशत सत्यमेवहि // 89 // तस्मै शिक्षा परं कोऽपि, कर्तुमीशो न भूतले / तस्माद्-वृथाहि तन्नाम, कथं त्रुवे भवत् पुरः // 90 // मां नो जानासि भोस्त्वं तु, अहश्च नगराधिपः / तस्य नाम समाख्याहि, शिक्षा दातुमहं क्षमः // 91 / / सत्यं वदामि हे राजन् !, किञ्चित्त्वं न करिष्यसि / विज्ञापयामि हे स्वामिन् !, मौनमेवात्र धार्यताम् / / 92 // चिन्तयति तदाराजा, ममागे किं वदत्यसौ। पट्टपुत्रमहिष्योर्हि, पक्षपातो न मे हृदि // 93 / / सर्वेषां हि यथानीति, शिक्षायै शक्तिमानम् / नाहमस्मिञ्जने 'शक्तः, एवं किं कथयत्यसौ // 94 // आवेशात् प्राह राजा तं, कार्येऽस्मिन् न क्षमः कथम् / तस्य सत्यनिदानं तु, त्वरितं वद में पुरः // 95 // चन्द्रो जगाद हे स्वामिन् !, अत्रत्यश्रेष्ठिकन्यया / कूपे मे पतनं जातं, नान्यत् किमपि कारणम् / / 96 // निशम्यैवं तदा राजा, समादिशनियोगिनः / गत्वा युयश्च तां कन्या, समानयत सत्वरम् / / 87 // सेवकाः गमनार्थ तु, यदा यत्नं च कुर्वते / चन्द्रो जगौ श्रृणु स्वामिन् , मे चरित्रं रसप्रदम् // 98 // सर्व निजचरित्रं सो, नृपाप्रेऽवर्णयत्तदा / स्वामिन्नीव निद्रायां, स्वप्नोदृष्टो मया खलु // 99 // तेनाहं कथयामि त्वां, Pomegreemeremezone OISTRATIVEATMEजातamarnmamrate zeperrercree-ezzerapierrezzaee Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scarleu will CamSca चरित्रम् SENSEEKERATAPLYOYArnatara INI कुर्वन् धनी भवेः / दर्शितोऽयं मयोपायो, यथारुचि तथाकुरू // 56 // श्रुत्वोपायं तु चन्द्रोथ, अतीव मुमुदे तदा / तदीयमुपकार श्रीरत्नपाल-|| सो, हृदि बिभ्रद् गतो गृहे // 5 // एकदा पूर्णभद्राय, निजाशयमसौ जगौ। तात ! तवोपकारस्तु, महानास्ति ममोपरि // 58 // यद् बाल्ये पोषणं कृत्वा, जीवितमर्पितं ममः / तेन तवोपकर तु, विस्मरिष्यामि नो कदा // 59 // परं लग्नादिकार्याथ, यामि निज, पितु है / श्रेष्ठ्युवाच चिरं जीव, कार्य कुरु सुखेन भोः // 60 // याहि त्वं तु निजे गेहेऽदर्शयत् तद्गृहं च सः। समा॥१२॥ दायाशिर्ष नत्वा, ययौ स्वकीयवेश्मनि // 61 // जीर्णशीर्ण निजं गेहं, मार्जयित्वाऽवसत्तदा / विधिं च भानुचन्द्रोक्ता, महर्निशं करोत्यसौ // 62 // प्रथमे दिवसे प्राप, सोद्यमी द्वादशाणकम् / मध्यरात्रौ तकं कोपि, यत् किश्चित् कार्यमादिशेत् / / 63 // तत् कार्य समये तस्मिन् , लाभाशया करोति सः। एवं चातिश्रमं कृत्वा, करोति धनसञ्चयम् / / 64 // एवं तृतीयवर्षान्ते, पञ्चदश 6 शतानि च / रुप्यकानि तु जातानि, तेनामोदं दधार सः // 65 // चिन्तयति निजे चित्ते, वर्षान्ते भावि तद्धनम् / तदा विवाह कार्यश्च, महामहेभविष्यति // 66 // लग्ने जाते स्त्रिया साधं, भोगान् भोक्ष्ये स्वयं सदा / एवं मनोरथं कुर्वन् , व्यतियिवान् दिनानि सः // 67 // संपूर्ण द्विसहस्रे तु, भानुचन्द्रश्च मे सखा। लग्नादिसर्वकार्य सः, सानन्देन करिष्यति // 68 // एकदा जेष्ठमासे च, चन्द्रो भानूदये सति / कान्तारे दलिकार्थश्च, गतोस्ति द्रव्यकांक्षया / / 69 // तत्राऽपि स गतो दूरे, गृहीत्वा काष्ठभारकम् / पुरिद्वारे समायतो, मध्यं दिनं तदाऽभवत् // 70 // तापार्दितस्तृषाक्रान्तो, जगामोपवनं स हि / भारिकां स्थापयित्वाऽधो, वाप्यां जलाशयाऽगमत् / / 71 // पीत्वातिशीतलं वारि, पादशुद्धिं विधाय च / विश्रामाय तटे तस्या, उपाविशन्मुदा तदा / / 72 / / शीतलवायुना तस्य, नेत्रे संवेद संयुते / तेन सुष्वाप तत्रैव, गाढनिद्रावशङ्गतः // 73 // पश्यति स्वप्नमेवञ्च, मानसानन्ददायिनम् / सुश्रेष्ठिसुतया साध, पाणिग्रहोऽभवन्मम // 74 // भावना यादृशी यस्य, तस्य स्वप्नादिकं हि तत् / ' आयाति सदृशं लोके, तस्मात् तस्य बभूव हि // 75 / / हस्तमोचनकाले तु, सप्तभूमिगृहं महत् / दासादिपरिवारश्च, दत्तं धनादिकं तदा / / 76 // भुञ्जानोऽहनिशं भोगान् , तयासाधं यथेच्छया / कालन्तु गमयामास, देवसद्मनि देववत् / / 77|| सगर्भा मम भार्या सा, पुत्र प्रासूत सुन्दरम् / ACADEeeeeeKDC22NCZEE CRececreameroecorrecrevenge Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OS scammed with CamSca श्रीरत्नपाल-10 चरित्रम् DeepeecemenezzO रहस्येवं, पूर्णचन्द्रस्य ईर्षया // 34 // भोश्चन्द्र ! श्रुणु मे वाता, श्रेष्ठी चासौ पिता तव / करोति ते न सम्बन्धं, तत्र किं कारणं 10 वद // 35 / / कान्तिचन्द्रस्य सम्बन्धो, राजचन्द्रगृहे कृतः / देवदत्तस्य लग्नं तु, कृतं महोत्सवेन वै // 36 // सम्बधो विहितोऽन्येषां, क्रियते किं न ते पुनः / चन्द्रो जगाद हे तात् !, पृच्छायां कारणं वद // 37 / / चिन्तेयं मम तातस्य, किं पृच्छति भवान् पुनः। मम कार्ये विलंम्बोऽभूत्, गच्छामि त्वरितञ्च भोः // 38 // प्रोवाच भानुचन्द्रस्ते, लग्नं सो न विधास्यति / चेन्मयि प्रत्ययो न स्यात्, पृच्छेस्त्वं श्रेष्ठिनं निजम् // 39 // अथकदा च स श्रेष्ठी, सान्ध्यं कृत्यं समाप्य च / स्वकुटुम्बं समाहूय, क रोति स्म कथादिकम् // 40 // तस्मिन्नवसरे चन्द्रः, पृच्छति श्रेष्ठिनं प्रति / यौवनस्थस्य मे लग्नं, विधास्यति कदा भवान् // 4aa ? | श्रेष्ठी जगौ न पृष्टोऽयं, विषयस्तु कदा त्वया / अद्यैव पृच्छसि तत्र, किमस्ति कारणं वद // 42 // चन्द्रो बभाण भो तात !, विना लन तु जीवनम् / निरर्थकं भवेन्नून, विवाहः क्रियते ततः // 43 / / श्रेष्ठो जगाद भोश्चन्द्र !, न स्याल्लग्नं धनं विना / तव पावें तु नो द्रव्यं, तस्माद् द्रव्यं समाजय // 44 // पितस्त्वं किं वदस्येवं, देवदतादिभिर्यतः / किं समुपार्जितं द्रव्यं ?, तेषां लग्नं कृतं | त्वया // 45 // एते हि सन्ति मत्पुत्राः, धनञ्जयसुतोऽसि नु। तव लग्नादिकार्याथ, करोमि न धनव्ययम् // 46 // मृतौ ते | पितरौ बाल्ये, मयानुकंपया तदा / सद्मनि त्वं समादाय, पालितो यत्नतः सदा // 47 // पालनेन पिताऽहं तु, जन्मदानेन नो खलु। तस्माद्विवाहकार्याथ, नो यतिष्ये कदाचन // 48 // द्वितीयेऽहनि चन्द्रोऽथ, भानुचन्द्रं व्यजिज्ञपत् / स श्रेष्ठी मम लमं न, करोति द्रविणं विना / / 49 // तस्मात् त्वमेव हे तात !, लमादिकं च कारय / त्वयैव कथितं कार्य, त्वमेव परिसाधय // 50 // बभाषे भानुचन्द्रोऽथ, भवेल्लनं सुखावहम् / जघन्येनापि ते पाचँ, द्विसहस्रं धनं यदि // 51 // उवाच मानचन्द्रोऽथ, पार्श्वे नास्ति कपर्दिका / कथं वार्ता सहस्रस्य, द्वयस्य क्रियते त्वया // 52 / / भानुर्जगौ विना द्रव्य, लग्नादिकं कथं भवेत् / द्वव्यार्जनाय भोचन्द्र, उद्यम कुरु यत्नतः // 53 // चन्द्रः प्राह न जानामि, द्रव्यार्जन कथं भवेत् / ततस्त्वं कथयोपायं, येनाहं स्यां सुखं धनी // 54 // पूर्व सूर्योदयात्वं तु, याहि वनमहर्निशम् / काष्ठभारं समानीय, विक्रीणीथाः पुरे सदा // 55 // लप्स्यसे रुप्यकाध यद्, एवं peococcoomcDORCED Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PiteAYER Scauneu with CamSca Donomercom शिक्षा कर्तुं न अर्हसि / सत्यं ब्रवीषी हे चन्द्र !, ततस्तां नहि शिक्षयेत् // 100 // पुनः पृच्छति भूपालो, वाप्यां निपततस्तव / श्रीरत्नपाल-10 आननात् कीदृशं वाक्यं, समुप्तन्नं तदुचर // 101 // चन्द्रो बभाण हे स्वामिन् !, पतनावसरे मुखात् / यद्वाक्यं मे समुद्भुतं, चरित्रम् श्रावयामि भवत्पुरः // 102 // स्वप्ने या सुन्दरी जाता, सा वाप्यां मम पातुका / साक्षद्यस्य भवेन्नारी, का गतिस्तस्य वै भवेत // 103 // राजा प्रोवाच सत्यं भोः !, स्त्रीणां गतिविलक्षणा / विश्वासो नैव कर्तव्यः, शर्मित्रं च सा भवेत् // 104 / उक्तं च॥१४॥ " रागो वा यदि वा द्वेषः, कोपि लोकोत्तरः स्त्रियाः। ददाति रागिणी प्राणा-नादत्ते द्वेषिणी च सा // 105 // " एवमुक्त्वा नृपालस्तु, गतस्तदा निजालये / मानचन्द्रो निजे चित्ते, चिन्तयामासिवानिदम् // 106 // किं करोमि क्व गच्छामि, कस्याने कथयाम्यहम् / परिणीता वधूस्वप्ने, मे कूपे क्षेपिकाऽभवत् // 107 // नागमिष्यत्तु भूपालो-ऽभविष्यन्मरणं मम / तेन लनादिकं कार्य, विधामि न वाधुना // 108 // एतस्मिन् विषये कोऽपि, सज्जनः पृच्छते मया / एवमितस्ततः पश्यन् , अद्राक्षीत् मुनिपं तदा // 109 // आम्रवृक्षतले सोऽथ, ध्यानमग्नसमास्थितः। तस्य मुनिगणश्चापि, ज्ञानध्यानसमाहितः // 110 // कायोत्सर्गे स्थितः कोऽपि, अध्ययनं करोति कः / ददाति वाचनां कोऽपि, केऽपि गृह्णन्ति तां मुदा // 111 // ईदृग्गणेन संयुक्तं, दृष्ट्वा सो मुनिपं तदा / चिन्तयति निजे चित्ते, अयं कोऽपि महामुनिः // 112 // पृच्छाम्यस्मै विचारं तं, चित्ते यो धारितो मया / गत्वा सूरिसमिपेऽसौ, तं नत्वा समुपाविशत् // 113 / / ध्यानं समाप्य सः सूरिः, धर्मलाभाशिषं ददौ / सूरिः पृच्छति योग्य तं, किमर्थमागतोऽसि भोः! // 114 // जगौ चन्द्रोऽथ हे स्वामिन् !, आजन्मातीवदुःख्यहम् / भानुना दर्शितोपायः, सुखार्थ पालितो मया // 115 // रुप्यकाणि हि जातानि, पञ्चदशशतानि मे / अन्यत् पञ्चशतं चास्मिन् , वर्षे पूर्ण भविष्यति // 116 // मूलं सुखस्य भार्याऽस्ति, प्रसिद्धं भूतले सदा / तेन दारनिमित्तञ्च, द्रव्यार्जनं मया कृतम् // 117 // परं स्वप्ने मया स्वामिन् , कृतः / पाणिग्रहो मुदा / कूपे पातो हि सञ्जातः, स्वप्नवनितया तया // 118 // साक्षाद् या च भवेन्नारी, तया कि न भवेद् भूवि AIN तेन चञ्चलचित्तोऽहं, विमृशामि मुहुः प्रभो // 119 // ततः पृच्छाम्यहं स्वामिन् !, लमकार्य करोमि किम् / सूरिः प्रोवाच भो SOCIDCODCReaperCURRECTOR 000000200 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scaneu with CamSca भद्र!, दुःखमूलं हि सुन्दरी // 120 // नागमिष्यत् तदा राजा, भविष्यजन्मनिष्फलम् / दारसंगे कृते किं तु, महादुःखं भवे श्रीरत्नपाल भवे // 121 / / अस्मिन्नपि भवे दुःखं, गृहोपस्करपूरणे / यदीच्छा ते सुखस्यास्ति, गृहाण संयम मुदा // 122 // चन्द्रो जगाद चरित्रम् हे स्वामिन् !, सुखे मम प्रयोजनम् / भावनाऽपि सुखस्याथ, ततो यच्छतु संयमम् // 123 // सूरिरुवाच भोश्चन्द्र !, किञ्चिद ध्ययनादिकम् / उषित्वा मम पार्श्वे त्वं, कुरुष्व मुनिभिस्सह // 124 // चन्द्रो जगाद हे स्वामिन् !, भवत्सार्थे वसाम्यहम् / भोजनस्य प्रबन्धस्तु, कया रित्या भविष्यति // 125 // नाहं द्रयव्ययं कर्तुं, समर्थोऽस्मि मनागपि / सूरिराह न कर्तव्या, चिन्ता तु भोजनादिके // 126 // साधु सार्थे भवेत् कोऽपि, तस्य चिन्ता तु श्रावकाः। सुतादिवच्च कुर्वन्ति, निश्चिन्तो भव तेन हि / // 127 // चन्द्रोऽथ सूरिणा साध, विहारं च सदाऽकरोत् / द्रव्यं बद्ध्वा सकट्यां च, निश्चिन्तमनसा सुखं // 128 // साधु-| योग्य क्रियालापं, जीवादितत्त्वविस्तरम् / चन्द्रः पठितवान्सोऽथ, स्वल्पकालेन यत्नतः // 129 // चन्द्रो वैराग्यभावेन, सूरि | विज्ञप्तवास्तदा / संयमं यच्छतु स्वामिन् !, योग्यता यदि मे भवेत् // 130 // सूरिः प्राह गमिष्यामः, वसन्तपुरपत्तने / तत्र | दीक्षा प्रदास्यामि, यदि श्राद्धस्य भावना // 131 // तत्रानुमोदना भावि, शासनस्य प्रभावना / या सम्यक्त्वस्य मूलं हि, कीर्ति- 10 तश्च बहुश्रुतैः // 132 // सूरिं सपरिवारञ्च, वसन्तपुरपत्तने / श्राद्धाः प्रावेशयन् भूरिविज्ञप्तिसमहाहैः // 133 // देशनां | विदधे सूरिः, भव्यानामुपकारिणीम् / श्रुत्वा सर्वे जनाः लुब्धाः, देशनाश्रवणे सदा // 134 // पश्चाष्टकदिने जाते, श्रावका | मुनिपं जगुः / चातुर्मास्यं तु अत्रैव, कर्तव्यं मुनिपुंगव ! // 135 // तेन धर्मप्रभावश्च, लोके विस्तरमेष्यति / सुरिरुवाच भोः श्राद्धाः, युष्माकं भावना शुभा // 136 / / श्रावकाः जगदुः स्वामिन् !, संघाप्रणीश्च वर्तते / रत्नपालाभिधः श्रेष्ठी, विख्यातो नगरे सदा // 137 // द्रव्योपार्जनरक्तोऽसौ, उपाश्रये च मन्दिरे। द्रव्यव्ययभयाच्छ्रेष्ठी, नायाति कृपणः कदा // 138 // इभ्यं विना न विज्ञप्ति, कर्तुमीशा वयं प्रभोः। सूरिरुवाच यास्यामि, विज्ञप्ताच्छा न मे खलु // 139 // श्राद्धा उचुस्तदा स्वामिन् !, तं श्रेष्ठिनं 10 // 15 // प्रबोधय / येन बुद्धो भवेद्धर्मी, धर्मकार्ये सहायकृत् // 140 // सूरिराह गृहे तस्य, यामि कि बोधनाय भोः!। उपाश्रये न DESCRDERecommercenCOCOM PRODUCERCORDCCCCORDSee व श्व, लोके विस्तरमेष्यति / म अवकाः जगदुः स्वामिन् !, सं // 137 // द्रव्योपार्जनरत्तो Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scaneu will CamSca श्रीरत्नपाल चरित्रम् acceezeeperamedeclename आयाति, तस्य बोधो भवेत् कथम् // 141 // अवोचन धर्मिणः सूरे !, आनयामस्तमत्र हि / लीलया देशनां दत्वा, भवेद्धर्मी | तथा कुरु // 142 // सूरिराह यदि श्राद्धाः!, लधुकर्माऽऽगमिष्यति / बोधयित्वोपदेशेन, स्थिरीकायों मया हि सः // 143 / / अथ श्राद्धाः समागत्य, रत्नपालस्य मन्दिरे। श्रेष्ठिनं तं समाचख्युः, अत्रागता हि सूरयः // 144 // व्याख्यां कुर्वन्ति शास्त्रस्य, अनिK| शं धर्महेतवे। अनेकयुक्तिसंयुक्तां, समेहि तदुपाश्रये // 145 // श्रेष्ट्युवाच न दिष्टो भो !, बहुकार्याणि सन्ति मे। तेनागन्तुं न शक्नोमि, यूयं शृणुत सादरम् // 146 / / पुनः प्राहश्च ते श्राद्धा, अद्य कार्याणि भूरिशः। कल्ये तु निश्चयेन त्वां, नेष्यामः सूरिसन्निधौ / / 147 // एवमुक्त्वा गताः श्राद्धा, द्वितीयेऽह्नि समागताः। आगच्छतु भवानद्य, व्याख्यानश्रवणाय च // 148 // श्रेष्ठ्युवाच 16 नृपेणाहं, शीघ्रमाकारितोऽस्मि भोः ! / तेनाहं किं करोम्यत्र, गच्छामि राजमन्दिरम् // 149 // तृतीयेति पुनः श्राद्धा, आगताः श्रेष्ठि सद्भनि / तदा श्रेष्ठयाह भोः श्राद्धाः !, प्राधूर्णकाः समागताः // 150 // एवमष्टदिनं यावत्, श्रेष्ठी तु श्रावकान् सदा / अलीकमुत्तरं दत्त्वा, सुतानेवं जगाद सः // 151 / / श्रूयतां वाक्यमस्माक-मागता अत्र सूरयः। व्याख्यानेऽहं गमिष्यामि, लोकानुरोधतः प्रगे // 152 // श्राद्धा मां कथयिष्यन्ति, चातुर्मास्यकृते गुरोः। टीप्पन्यां यच्छ रुप्याणि, पंचसप्तशतानि वा // 153 // तस्मात् तत्र गते पश्चात् , पत्रकं त्वरितञ्च भोः / प्रेषितठयं स्वभृत्येन, राजकारणहेतुकम् / / 154 // नन्ददिने पुनः श्राद्धाः, श्रेष्टीनमेयरुस्तदा / उत्तरीयञ्च वख स्व-मादाय गतवान् मुधा / / 155 // अल्पकालेन दासेरः, गृहीत्वा पत्रकं तदा / समागादिभ्य| पार्श्वे सः, दत्तवान् पत्रकं करे // 156 / / गृहीत्वा पत्रकं श्रेष्ठो, वाचयित्वा तदा च सः / बभाषे श्रावकान् श्रेष्ठी, अन्तरायोदयः खलु // 157 // नत्वा सूरिं तदा श्रेष्ठी, आगतश्च निजे गृहे / सूरिरुवाच भोः श्राद्वाः!, नोपकारो भविष्यति // 158 // जगदुः श्रावकाः स्वामिन् , धनी धर्म पराङ्मुखः / एनं विना हि संघस्य, कार्य किमपि नो भवेत् // 159 / / सूरिरुवाच भोः श्राद्धाः!, लाभोऽप्यत्र न दृश्यते / तेन प्रगे विहारश्च, कारिष्यामि सुखेन भोः / / 160 // उवाच मानचन्द्रोऽथ, विज्ञप्ति शृणु मे प्रभो!। रत्नपालं महेभ्यं तु, बोधयामि तवाज्ञया // 161 // प्राह सूरिस्तु भोश्चन्द्र !, सुष्ठुकृतं भवेत्तदा / तं बोधय सुखेन त्वं, महालामो CHOOTDEDMAmuryaDEORDER // 16 // Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ scanned with CamSca श्रीरत्नपालचरित्रम् भविष्यति // 162 // चन्द्रो जगौ भवान् कश्चित् , कालं तिष्ठतु अत्र वै। सूरिः प्राह निवत्स्यामि, कार्य त्वं चिन्तितं कुरु // 163 / / श्रेष्ठिव्यतिकरं ज्ञात्वा, चन्द्रः प्रगे गतः पणे / स्थितस्तत्र स एकान्ते, व्यवसायं तु पश्यति // 164 // समये वाहनारुढो, श्रेष्ठी IN हट्टे समागमत् / उत्तीर्य वाहनाच्छ्रेष्ठी, योग्यस्थाने समासितः // 165 // मानचन्द्रं तदा दृष्ट्वा, चित्ते चिन्तितवानिदम् / निष्कि-| योऽसौ दरिद्रो हि, बम्भ्रमन् नगरें सदा // 166 // याचनार्थ तु मे हट्टे, समागत्य समाश्रितः / नाहं किश्चित् ददाम्यस्मै, तिष्ठतु सुखपूर्वकम् // 167 / / (युग्म) भाषायां-" पपासुं परचो नहिं." इत्यादि / महान्तं व्यवसायश्च, करोति स्म महोद्यमः / रुप्यसुवर्णकार्पासा, हुण्डिकान्नादिकं तदा // 168 / / एवं मध्याह्नकालेऽथ, पुनर्याने समागते / समाप्य सर्वकार्याणि, तस्मिन्नारुढवांस्तदा // 169 // भोजनार्थ गतः श्रेष्ठी, उद्यानस्थे निजे गृहे। नानाविधानि भोज्यानि, सुखेन भुक्त्ववानसौ // 170 / / पुनः काले समा-| यातं, यानमारुह्य सत्वरम् / मुदागात् स्वापणं श्रेष्ठी, व्यापारमकरोत्तदा // 171 // पुनदृष्ट्वा च चन्द्र सः, चित्ते चिन्तितवानिदम् / IN याचकस्तु अयं नास्ति, नो तिष्ठेत्मार्गणश्विरम् // 172 // याचितमपि नो किञ्चित् , संभवेन्नहि याचकः / गृहे गमनकाले च, प्रक्ष्याम्येनं यथातथम् / / 173 // प्रदोषसमये जाते, पुनर्याने समागते / हट्टादुत्तिष्ठवान् श्रेष्ठी, चन्द्रपार्थे समागमत् / / 174 // पृच्छति स्म किमर्थं त्व-मुपविष्टोसि सांप्रतम् / क्व वास्तव्योसि किन्नाम, तत् सर्वमभिधीयताम् // 175 // उत्थितोसि भवानेव-मासि नोस्मि अहं पुनः / कथं मिथो भवेद्वार्ता, तस्मादत्रोपविश्यताम् // 176 / / श्रोतुकामस्तदा श्रेष्ठी, उपाविशत्तदन्तिके / ततश्चन्द्रो जगादेवं, मद्वार्ता श्रूयतामियम् // 177 // रत्नपुर्ण महेभ्योऽथ, नाम्ना च धनदोऽवसत् / लक्षाधिपस्तु स श्रेष्ठी, प्रसिद्धो नगरे महान् // 178 / / वृद्धे वयसि पुत्रोऽभुत्, शेष्ठिचित्तातिहर्षकृत् / महोत्सवेन तस्याहं, मानचन्द्रं व्यधाद् मुदा // 178 / / द्वादशवार्षिके जाते, तस्य लममकारयत् / श्रेष्ठी धनव्ययं कृत्वा, आनयच्च स्नुषां गृहे // 18 // अल्पकालेन स श्रेष्ठी, पञ्चत्वं प्राप्तवान् तदा / प्रश्चात् मे जननी साऽपि, दीर्घनिद्रां समासदत् // 181 // नियोगिनस्तदा हस्ते, व्यवसायो गतः खलु / अहं कश्चिन्न जानामि, व्यापरविषयं दात // 182 // सप्ताष्टकसमे जाते, नष्टा लक्ष्मी च मे गृहात् / गते धने गृहात् शेष्ठिन्, कस्य चित्तं न मुह्यति // 183 // ऋणादहं ParaceRDCRPeppeoperPeoppearance Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scaneu witir CamSca श्रीरत्नपालचरित्रम् careenCORRECAREERemporaezzerage महादुःखी, विक्रितवान् गृहादिकम् / भाटकेन गृहं लात्वा, दरिद्रनायकोऽवसम् // 184 // भृत्यकार्याणि कृत्वाई, करोम्युदरपूरणम् / | महाकष्टेन कालो मे, गच्छति स्म तया सह // 185 // भार्या प्राह सदा मां तु, सुखं दृष्टं न ते गृहे। भोजनसमये साऽथ, वदत्येवं पुनःपुनः // 186 // एकदाऽऽवेशयुक्तेन, मया प्रोचे निजाप्रिया / दर्शय सुखसमत्व-मानयामि सुखं ततः // 185 / / तच्छृत्वा वनिता प्राह, गम्यतो नगराद् बहिः। श्मशाने चण्डिकादेव्याः, सम्मुखे कुरु अष्टमम् // 188 // कृत्वा तिष्ठ ततो देवी, प्रत्यक्ष सा NI भविष्यति / वरं ब्रहीती सा देवी, यदा त्वां कथयिष्यति // 189 / / (युग्म) तदा सुखं तु याचेथाः, येन दुःखं गमिष्यति / निशम्य 6 वचनं तस्याः, विधाय हृदि निश्चयम् // 190 // श्रेष्ठिन्नहं गतस्तत्र, कृत्वाऽष्टमतपो मुदा। योजयित्वा च द्वौ हस्तौ, चण्डिकासम्मुखे स्थितः // 19 // (युग्म) तृतीयायां निशायां सा, नेपथ्यादिविभूषिता / चण्डिका तपसाऽऽकृष्टा, प्रत्यक्षं साऽभवन्मम // 192 // देवी प्राहेति | हे चन्द्र !, वरं याचस्व स्वेच्छाया / प्रसन्नाऽहं तपश्शक्त्या, प्रयच्छामि तवेप्सितम् // 193 // भो मातः! मे सुख देहि, एवं प्रा. र्थितवानहम् / देव्याह वद भोश्चन्द्र !, यच्छामि कीदृशं सुखम् // 194 // कथितश्च मया देवि !, पृच्छाम्यहं निजां प्रियाम् / तदर्थ समयं देहि, कृपां कृत्वा ममोपरि // 195 / / मासद्वयं च देव्याह, तुभ्यं ददाम्यहं मुदा / तस्योपरि 'न दास्यामि, अवेहि निश्चयेन भोः ! // 196 // देवीगिरं समाकर्ण्य, आगतोऽहं गृहे तदा / भार्यायै कथयामास, देवीवाक्यं हि मूलतः // 197 // प्रामेऽत्र सा जगौ तावत्, सुखी धनप्रियामिधः। तुद्वत् सुखं तु देव्यग्रे, याचस्व परया मुदा // 198 // चिन्तितं तु मया श्रेष्ठीन् , स्त्रीवाक्येन करोमि किम् ? / श्रेष्ठिनमथवा पृष्ट्वा, निश्चयं कारवाणि किम् // 199 / / गतोहं शेष्ठिनः पार्थे, पृष्टवांश्च तकं तदा / कीदृशं ते सुख शेष्टिन् !, वद त्वं मत्पुरो मुदा // 20 // श्रेष्ठ्याह हेतुना केन, पृच्छतीदं भवान् मम / जातो व्यतिकरः सर्वः, प्रोक्तः श्रेष्ठिपुरो मया // 201 / श्रेष्ठी जगाद हे चन्द्र !, नो मन्यस्व सुखी इति / मत्सदृशं सुखं त्वं तु, मा याचस्व कदाऽपि हि // 202 / / दुष्पुत्र दुःखितोऽहं तु, न मे सुखं कदाचन / तेन शान्तिपुरे त्वं भो, नलश्रेष्ठ्यान्तिके व्रज // 203 // नलान्तिके गतोऽहं तु, पृष्ठः सुखाय | सो मया / अवादीन्मे 'सुखं नास्ति, महद् दुःखं निजे हृदि // 204 // मद्गृहे वनिते द्वे च, श्वासमात्रसुखं न हि / द्रव्यभृते गृहे Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ StarTea WILT CamSca श्रीरत्नपाल चरित्रम् LOCTODeepen02202Reppeace जाते, पुत्रपुत्र्यादिकं नहि // 205 // अहर्निशं तु चिन्तायां, मे मनो बहुमुह्यति / सन्ततिवर्जिते पल्यौ, कुरुतः कलहं सदा // 206 / / ' गच्छ लक्ष्मीपुरे त्वं तु, लाभचन्द्राभिधान्तिके / श्रेष्ठिनं तत्र गत्वा च, सुखं पृच्छतु लीलया // 207 / / लाभः प्राहागतं | चन्द्र, नाहं सुखी कदाचन / रक्षितं बहुलोकानां, द्रविणं तु गृहे मया // 208 // धनं दत्तं तु लोकानां, व्याजाशया मया मुदा / विद्यते न गृहे किञ्चित्, तेन चिन्तातिवर्तते, // 209 / / भोजनं न मुखे याति, निद्रा दूरे गतास्ति मे / पुत्रादिका न मन्यन्ते, नास्ति सुखलवो मम // 210 // मादृशं तु सुखं चन्द्र !, मा याचस्व कदाचन / गच्छान्यत्र पुरे कश्चित्, पृच्छतु सुखिनं भवान् // 211 // बहूनां धनिनां घृत्तं, ज्ञातमस्ति मया खलु / नैकोऽपि सुखभागू ज्ञातः, ततस्त्वां प्रष्टुमागतः // 211 // वदत्वं स्वसुखं श्रेष्ठिन् , येन स्यां सफलश्रमः / मासद्वये तु युग्मं हि, न्यूनं दिनश्च वर्तते // 213 // गते तत् समये शेष्ठिन् !, देवी दास्यति नो सुखम् / विलम्ब नो सहे यस्मात् , ततः शिघ्र कृपां कुरु // 214 // श्रुत्वा श्रेष्ठी प्रमोदेन, चिन्तयामासिवानिदम् / आद्योऽहं सुखिनां मध्ये, न कोऽपि मादृशो जनः // 215 // चन्द्रं याने समारोप्य, जगौ श्रेष्ठी मुदा तदा / दर्शयामि सुखं मे स्वं, कीदृशोऽई महासुखी // 216 // उर्वी कृत्य निजं हस्तं, गृहादिकमदर्शयत् / सर्वमेतन् ममैवास्ति, पुरेऽन्यदपि वर्तते, // 217 // एवं वाती मिथः कुर्वन् , प्राप श्रेष्ठी गृहं मुदा / तस्य वृक्षान् समीपस्थान् , दर्शयित्वा च सोऽवदत् // 218 // प्रथमां भूमिकां पश्य, सन्त्यत्र वाहनादयः / आरक्षका द्वितीयायां, शस्त्रेण सज्जिताः सदा // 219 // दासीदासास्तृतीयायां, ममाज्ञाधारिणो मुदा / चतुर्थी भोजनार्थं च, वसन्ति भक्तकारकाः // 220 // पञ्चम्यां भूमिकायाञ्च, प्राधूर्णकाः समागताः / सुखपूर्व च तिष्ठन्ति, ताविषे त्रिदशा इव // 221 / / षष्ठयां भूमौ सुताः सर्वे, तिष्ठन्ति सुखशालिनः / ममाज्ञां तु शिरोधायां, मन्यन्ते, गुरुवागिव // 222 // सप्तम्यां भूमिकायाश्च, तोरणादीनि पश्य भोः ! / एषां कान्तिसमुहैश्य, प्रकाशो निशि वर्तते // 223 // सुवर्णमयपल्यंक-चीनाशुंकमसूरकान् / | देवानां दुर्लभान् सर्वान् , पश्य चन्द्र ! मनोहरान् / / 224 // ऋणं कस्यापि मे नास्ति, सुखं गीर्वाणसन्निभम् / तेन त्वमपि याचस्व, | देव्यग्रे मादृशं सुखम् // 225 / / श्रुत्वैतां श्रेष्ठिनो वाती, दृष्ट्वाऽऽवासादिकं तदा / विलक्षवदनश्चन्द्रः, मौनेन स्थितवान् खलु // 226 / / Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CIDCORDC Scauneu will CamSca श्रीरत्नपाल चरित्रम् // 20 // Caper रत्नपालो जगौ चन्द्र, औदासीन्यं कथं तव / सर्वे न्यषेधयन् त्वाञ्च, अहं सम्मतिदोऽभवम् // 226 / / धूनयन्नुत्तमाङ्गं सो, जगाद | श्रेष्ठिनं प्रति / एतत् सर्व मुधा ज्ञेयं, स्वप्नो हि खलु भो वणिक् // 228 / / स्वप्नो मम सदा श्रेष्ठः, शेष्ठिन् निरर्थकस्तव / अ-. स्मिन् स्वप्ने न मुह्येस्त्वं, निजे हृदि विचारय // 229 // रत्नपालो जगौ चन्द्र !, मृषा वदति किं भवान् / अहं जाग्रत् सदैवस्मि, त्वं तन्द्रायां च वर्तसे // 230 // चन्द्रो बभाण हे श्रेष्ठिन् !, 'सत्यं वदामि ते पुरः / जानीहि त्वमिदं सर्व, स्वप्नं तु निश्चयेन भोः | // 23 // चन्द्रो जगाद हे श्रेष्ठिन् !, शृणु स्वप्न कथां मम / निशिदृष्टो मया स्वप्नः, सर्वथानन्ददायकः // 232 // मत्पार्चे सन्ति को ट्यब्ध, द्रविणानां तु षोडश / षोडशात्मजकन्याश्च, षोडशभूमिके स्थितः // 234 / / दुःखस्य नो लवस्तत्र, सुखेन यान्ति वासराः। | उन्मीलिते तु नेत्रे मे, नष्टस्वप्नोऽभवत्तदा // 235 / / गतं सर्व सुखं शेष्ठिन्, पश्चातापोऽभवन्महान् / एवं ते मिलिते नेत्रे, सर्व | | नष्टं भविष्यति // 236 // मम स्वप्नस्त्वतिश्रेष्ठः, तव स्वप्नो निरर्थकः / तत् सुखं संस्मराम्यद्य, त्वया नैव स्मरिष्यते // 237 // | स्मृत्वाहं तत् सुखं श्रेष्ठिन् , सुखं वेनि पुनःपुनः। तत्र यादृश आनन्दः, तं कथं कथयाम्यहम् // 268 // श्रेष्ठिन्नयं तव स्वनो, नो भावि चित्तमोदकृत् / यदि त्वं मन्यसे सत्य, तदा वद गतं भवम् // 239 // द्वौ स्वप्नावेव हे श्रेष्ठिन् !, समानौ ते ममापि च / | तेनाहं कथयामि त्वां, विचारय निजे हृदि // 240 // श्रेष्ठि प्रोवाव हे चन्द्र !, किं जल्पसि च मूर्खवत् / प्रत्यक्षं सर्वकार्याणि, | | करोम्यहं मुदा सदा // 241 / / जनः पश्यति सर्वाणि, प्रत्यक्षं निजचक्षुषा / किं वदसि भवानेवं, मन्येहं प्रथिलोऽसि किम् ? // 242 // नाहं मूर्खश्च हे श्रेष्ठिन् !, विचार्यतां निजे हृदि / सत्यमेतद् यदा सर्व, पूर्वजन्म तदा वद // 243 // पूर्वजन्म यदि त्वं तु, नो मन्यसे तदा शृणु / त्वमेव नगरश्रेष्ठी, लक्ष्मीपतिस्तवमेव हि // 244 // निमित्तं तत्र भाग्यं हि, न स्यात् किमपि तद्विना / तस्मान्मन्यस्व भाग्य भोः, पुनर्बाढं विचारय // 245 // विचारयति स श्रेष्ठी, पूर्व धर्मों मया कृतः / तेनाऽहमीदृशो जातः, भावि किं मे भविष्यति // 246 // चिन्तयित्वा बभाषे तं, हाहा ! जन्म मुधा 'गतं / दर्शय धर्ममार्गश्च, त्वमेव मे गुरुस्ततः // 247 // चन्द्रः प्रोवाच हे श्रेष्ठीन् !, आचार्याः सन्त्युपाश्रये / मया सार्धश्च एहि त्वं, बन्दस्व गुरु पत्कजौ // 248 // द्वितीयेऽति प्रगे श्रेष्ठी, सचन्द्रः सूरिस DeceDepepereaponomere CERemecomes Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scammeu wiu CamSca श्रीरत्नपाल चरित्रम् पद लो द्रव्यं व्याया। अन्तिमाराधनां विधः सदा / ना शस्ति 27.4 // अमेश्ससंयुतम् / अत्याद श्वनाशकः // 20 // 21 // निधौ / समागादतिहर्षेण, वन्दते चरणौ गुरोः // 249 / / श्रेष्ठी प्रोवाच हे स्वामिन् !, ममागः क्षम्यतान्त्वया / सूरिभों ! धर्मलाभस्ते, इत्याशिषमदान्मुदा // 250 / / पश्चाद्धर्मोपदेशं तु, दत्तवान् श्रेष्टिनं प्रति / श्रुत्वा धर्म तदा श्रेष्ठी, सुव्रतान्यग्रहीन मुदा // 251 / / मानचन्द्रस्य दीक्षायाः, महोत्सवं व्यधाच सः / लक्षं द्रव्यं व्ययित्वा च, चातुर्मास्यमकारयत् // 252 / / द्वादशानि च सर्वाणि, सम्यक्त्वसहितान्यपि / व्रतानि पालयित्वा च, शुद्धभावेन सर्वदा // 253 // अन्तिमाराधनां कृत्वां, स्वायुषं स समाप्य च / दिवं गत्वा सुखं भुक्त्वा, च्युत्वा मुक्तिं गमिष्यति // 254 / / (युग्म) संयमाराधनां कृत्वा, तपोभिर्विविधैः सदा / नष्टकर्मा स चन्द्रर्षिः, सिद्धिसौख्यं हि IN प्राप्तवान् // 255 // इति श्रीरत्नपालस्य, चरित्रं रससंयुतम् / श्रुत्वा श्रुत्यां च भो भव्याः!, भूयासुः सादराः सदा // 256 / / सुधर्मस्वामिपट्टे यः, परिपाट्या तपागणे / बहुश्रुतेषु विख्यातः, वादिमदविनाशकः / / 257 // आगमोद्धारकर्ताश्च, भूपालप्रतिबोधकः / पट्टो जीवदयाकारी, येन प्राप्तो नृपालतः // 258 / जिनागमस्य रक्षायै, खोपदेशेन कारिते / बन्दिरे सूर्यपूर्नाम्नि, पादलिताभिधे पुरे // 259 / / ताम्रपत्रशिलोत्कीर्णे, आगममन्दिरे क्रमात् / शासने बहुकार्याणि, कृतानि निज जन्मनि // 260 // प्रशमादिगुणोपेतः, बद्धलक्षः सदागमे / सूरिगणेऽग्रगण्योभूत् , सूरिरानन्दसागरः // 261 // तच्छिष्यः शान्तमूर्तिश्च, पाठकपदधारकः / ज्ञानक्रियासु दक्षो यः, श्रीक्षमासागरो गुरुः // 262 / / तत् पादकजभृङ्गेन, शिशुत्रैलोक्यवार्धिना / पुण्यालीति शुभे प्रामे, देशे च लघुवावरे // 263 / / प्रासाददण्डकार्यार्थे, स्थितियंत्र' कृता शुभा / आदिजिनप्रसादेन, लिख्यमाना कथा हि या // 264 // वर्तमाने तपागच्छे, माणिक्यसागरस्य च / गच्छनेतृमहासूरेः, साम्राज्ये गुणसंजुषः // 265 / / रुद्रव्योमद्विवर्षे च, पक्षेऽसिते च फाल्गुने / दशम्यां गुरुघस्रे सा, समाप्ताऽभूत् सुखावहा // 266 / / एतस्या रत्नपालस्य, कथाया अतिमोदतः। कृता शुद्धिर्यथाशक्तिः, प्रबोधसागरेण हि // 267 / / तुलाकृष्णेतिनामा यः, पण्डितेषु महोत्तमः / दृष्टीपातः कृतस्तेन, अभयज्ञानमन्दिरे // 268 // नास्ति मे काव्यशक्तिस्तु, नो ज्ञानं शद्वयोजनम् / तस्माद्विद्वज्जनाः सर्वे, क्षम्यन्तु कृपया मम // 269 // // इतिश्रीरलपालचरित्रम् // GeemaDeodeeperpenedeemperoraep