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श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र का मुखपत्र
श्रुत सागर
आशीर्वाद : राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. वर्ष २, अंक ७, भाद्रपद २०५४, सितम्बर १९९८
सम्पादक मण्डल मनोज जैन
डॉ. बालाजी गणोरकर
कनुभाई शाह
शत शत वन्दन...
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युगद्रष्टा, राष्ट्रसंत गुरुदेव आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज की निश्रा में
भव्य शासनप्रभावना महेसाणा नगर में श्रमणश्रेष्ठ मुनिराज श्री रविसागरजी की शताब्दी, अंजनशलाका, दीक्षा महोत्सव,
पंन्यासपदवी प्रदान समारोह का शानदार आयोजन *परम पूज्य शान्तमूर्ति आचार्य श्रीमद् मनोहरकीर्तिसागरसूरीश्वरजी म.सा. एवं राष्ट्रसन्त, युगद्रष्टा, समर्थ जैनाचार्य श्रीमत पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा आदि विशाल साधु-साध्वीजी भगवन्तों की पावन निश्रा में
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श्रुतसागर, भाद्रपद २०५४
२. ऐतिहासिक नगर महेसाणा की पवित्र तपोभूमि पर श्रीसंघ में श्रमणश्रेष्ठ मुनि श्री रविसागरजी महाराज का शताब्दी महोत्सव, अंजनशलाका प्रतिष्ठा, भागवती प्रव्रज्या एवं पंन्यासपदारोपण के सुनहरे अवसर सम्पन्न हुए. विनायक पार्क (महेसाणा) में नूतन जिनमंदिरजी में अंजनशलाका प्राणप्रतिष्ठा महोत्सव खूब उल्लासपूर्ण वातावरण में परिपूर्ण हुआ. दि. १३-०६-९८ के शुभ मुहूर्त में गणिवर्य श्री अरुणोदयसागरजी म.सा. तथा श्री विनयसागरजी म.सा. को पंन्यासपद तथा बाल मुमुक्षु श्री किन्तनकुमार की एवं कुमारी परेशा बहन की भागवती दीक्षा चतुर्विध संघ की विशाल जनमेदनी से खचाखच भरे महेसाणा की दादावाडी के प्रांगण में हर्षोल्लास से सम्पन्न हुई. साथ ही क्रियानिष्ठ- श्रमणश्रेष्ठ मुनिप्रवर श्रीमद् रविसागरजी म.सा. की पुण्यशताब्दी तिथि के अवसर पर पूज्यश्री के गुणानुवाद पू. गुरूदेव आचार्यश्री की ओजस्वी वाणी से किया गया. इस महा महोत्सव के अवसर पर अनेकविध महापूजन, उद्यापन, साधर्मिक-वात्सल्य आदि अनुष्ठान किए गए इस अवसर पर महानगरों से गुरुभक्तों एवं राजकीय नेताओं ने पधारकर उल्लास एवं शासन की शोभा में अभिवृद्धि की.
*प.पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा., उपाध्याय भगवन्त श्रीमद् धरणेन्द्रसागरजी, पंन्यास प्रवर श्री वर्धमानसागरजी म., पंन्यास प्रवर श्री अमृतसागरजी, पंन्यास प्रवर श्री विनयसागरजी एवं गणिवर्य श्री देवेन्द्रसागरजी आदि विशाल गुरुवरों का अहमदाबाद (राजनगर) में श्री मीराम्बिका जैन संघ के प्रांगण में भव्य स्वागत के साथ पदार्पण हुआ। पूज्यश्री के पावन पदार्पण के अवसर पर ५००० से अधिक गुरुभक्तों ने पधारकर जैन शासन की शान बढाई. गुजरात विधान सभा अध्यक्ष माननीय श्री धीरूभाई शाह ने प्रवचन सभा में जिन शासन का सेवालक्षी सुन्दर उद्बोधन किया.
राष्ट्रसन्त, प्रवचनप्रभावक, आचार्य देवेश श्रीमद् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज का ५ जुलाई ९८ को अतिभव्य स्वागत के साथ श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र-कोबा तीर्थ में चातुर्मास प्रवेश हुआ. आपके शुभागमन के अवसर पर देश भर के दिल्ली-कलकत्ता-मद्रास-मुम्बई-बेंग्लोर आदि विभिन्न नगरों से हजारों गुरुभक्तों का आगमन हुआ. इस पावन अवसर पर गुजरात के माननीय मुख्यमंत्री श्री केशुभाई पटेल, गुजरात विधानसभा के अध्यक्ष माननीय श्री धीरूभाई शाह आदि अनेक लोकप्रिय राजपुरुष एवं श्री आणंदजी कल्याणजी पेढी के अध्यक्ष माननीय श्री श्रेणिकभाई कस्तुरभाई, बम्बई निवासी माननीय शेठश्री भरतभाई कोठारी, श्रीमान् मुकेशभाई नवीनभाई शाह आदि अनेक प्रतिष्ठित श्रेष्ठिगणों ने भाग लिया.
पूज्य आचार्यश्री के प्रेरक प्रवचन ने दस हजार से अधिक श्रोताओं के मन मोह लिए. धर्मसभा के दौरान पूज्यश्री के कम्बल वहोराने आदि की सुंदर उपज हुई तथा इस सुनहरे अवसर पर धर्मसभा के दौरान व्याख्यान मंडप में उद्घाटन दीप प्रज्वलित करते हुए धर्मानुरागी शेठ श्री नवनीतभाई पटेल (पार्श्वनाथ कॉर्पोरेशन) ने आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर को रु. ५१,०००/ का अनुदान घोषित किया. सोने में सुगंध की तरह फरीदाबाद (दिल्ली) निवासी परम गुरुभक्त श्रीमान् आर. के. जैन ने अपने साजिन्दों के साथ पधार कर गुरुभक्ति निमित्त सुंदर भाववाही भजन गाए. उपस्थित श्रोतागण को गीत-संगीत के साथ गुरुभक्ति में तल्लीन बनाने वाले जैनसाहेब ने अन्त में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर को रु. १,२५,०००/ का अनुदान घोषित कर गुरुभक्ति के साथ-साथ ज्ञानभक्ति का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया. अन्त में शेठ श्री सोहनलालजी लालचंदजी चौधरी परिवार ने पधारे हुए गुरुभक्तों का साधर्मिकवात्सल्य से अमूल्य लाभ लिया.
कच्छ के तूफान पीड़ितों के सहायतार्थ रु. १,११,१११/= का चेक मुख्यमंत्री को अर्पण : इस अवसर पर पूज्य आचार्यश्री की सत्प्रेरणा से श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र-कोबा तीर्थ की ओर से संस्था के प्रमुख श्री सोहनलालजी के द्वारा रु. १,११,१११/ का चेक मुख्यमंत्री श्री केशुभाई पटेल को अर्पित
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श्रुतसागर, भाद्रपद २०५४ किया गया. मुख्यमंत्रीश्री ने आचार्यश्री प्रेरित इस अनुकंपा के लिए आभार व्यक्त किया और गुरूदेव के चरणों में अपार श्रद्धाभक्ति के सुमन अर्पित किए. इस अवसर पर मुख्यमंत्री ने पालीताणा तीर्थक्षेत्र में अहिंसा यूनिवर्सिटी बनाने का आह्वान किया तथा इस दिशा में पूर्ण सहयोग देने का वचन दिया.
। हो कि पूज्य आचार्यश्री के धर्मबिन्दू ग्रंथ पर प्रत्येक रविवारीय प्रेरक प्रवचन दोपहर ३-०० से ४-३० तक हो रहे हैं. अहमदाबाद-साबरमती एवं गांधीनगर आदि से हजारों श्रोता प्रवचनरूप अमृतपान कर रहे हैं. रविवारीय प्रवचन के बाद गुरुभक्तों द्वारा साधर्मिक वात्सल्य रखा गया है. पर्व पर्युषण में अनेक नगरों से उपासकों ने पधार कर सुन्दर तपस्या के साथ धर्माराधना की. पूज्यश्री के प्रेरक प्रवचनों का अमूल्य लाभ प्राप्त कर आराधकों की साधनाएँ सफल हुई.
*गुरूदेव के शिष्य प.पू. ज्ञानध्यानतपोनिष्ठ उपाध्यायजी श्रीमद् धरणेन्द्रसागरजी म.सा. आदि ठाणा का श्री नारणपुरा जैन संघ में सुन्दर चातुर्मास प्रवेश हुआ. आपश्री की निश्रा में पर्युषण पर्व के अवसर पर सुन्दर तपस्यादि आराधनाएं सम्पन्न हुई.
प्रशान्तमूर्ति पंन्यासप्रवरश्री वर्धमानसागरजी म.सा. एवं नूतन पंन्यासप्रवरश्री विनयसागरजी म.सा. आदि ठाणा श्री मीराम्बिका जैन संघ नारणपुरा में चातुर्मास विराजमान हैं. आपकी प्रेरणा से श्रीसंघ में सम्यग् ज्ञान हेतु शिविरों के सुन्दर आयोजन हो रहे हैं तथा पर्युषण पर्व के उपलक्ष्य में उल्लेखनीय तपाराधनायें हुई.
ज्योतिर्विद नूतन पंन्यासप्रवर श्रीमद् अरुणोदयसागरजी म. एवं नूतन बालमुनि श्री कैलासपद्मसागरजी म. का चातुर्मास श्री सीमन्धर जिन मंदिर महेसाणा तीर्थभूमि में व्यतीत हो रहा है. प.पू. पंन्यासजी म. की पावन प्रेरणा से श्री रांतेज जैन तीर्थ के जीर्णोद्धार का कार्य सुचारुरूप से आयोजित हो रहा है. गुरुभक्तों को उदारता से इस पुण्यानुबंधी पुण्य के शुभ कार्य में सहयोग करने का यह अति उत्तम योग प्राप्त हो रहा है, अतः आप सहयोग अवश्य करें.
*प्रवचनकार, युवामुनिवर श्री निर्मलसागरजी म. एवं मुनिवर श्री पद्मोदयसागरजी म.सा. ब्यावर(राज.) में चातुर्मास विराजमान हैं.
सुमधुर प्रवचनकार, युवाहृदयसम्राट मुनिवरश्री विमलसागरजी म. आदि ठाणा मेवाड़ की धरती उदयपुर में चातुर्मास विराजमान हैं. आपकी निश्रा में हर्षोल्लास पूर्वक धर्माराधनाएँ चल रही है.
*पू. मुनिवर्य श्री निर्वाणसागरजी म. एवं मुनिवर्य श्री अरविंदसागरजी म. आदि ठाणा महेसाणा जैनसंघ में चातुर्मास विराज रहे हैं. यहाँ पर्युषण पर्व के अवसर पर अनुमोदनीय तपस्याएँ एवं उत्सवों का आयोजन हुआ.
भादों शुक्ल ११, दि. २/९/९८ के शुभदिन पूज्य आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा के जन्मदिन के शुभ अवसर पर गुजरात के महामहिम राज्यपाल माननीय श्री अंशुमान सिंहजी ने पधारकर पूज्यश्री के चरणों में शुभ कामनाएँ प्रदान की एवं अपनी श्रद्धाभक्ति के सुमन समर्पित किए. सोने में सुगंध की तरह इस अवसर पर १००८ पू. अनन्त श्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरु रामानुजाचार्य इन्द्रप्रस्थ एवं सिद्धदातापीठ हरियाणा पीठाधिश्वर स्वामी श्री सुदर्शनाचार्यजी महाराज का पदार्पण हआ. आपने पूज्य गुरूदेव के चरणों में अनेकों शुभ कामनाएँ अर्पित की.
!!! पाठकों से नम्र निवेदन !!! यह अंक आपको कैसा लगा, हमें अवश्य लिखें. आपके सुझावों की हमें प्रतीक्षा है. आप अपनी अप्रकाशित रचना/लेख सुवाच्य अक्षरों में लिखकर/टंकित कर हमें भेज सकते हैं. संपादक, श्रुतसागर, आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा, गांधीनगर, ३८२ ००९
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श्रुतसागर, भाद्रपद २०५४ મહાન શાસનપ્રભાવક, યુગદ્રષ્ટા, સુમધુર પ્રવચન-પ્રભાકર, રાષ્ટ્રસંત જૈનાચાર્ય શ્રી પદ્મસાગરસુરીશ્વરજી મ.સા. નું જીવન વૃત્તાન્ત
કનુભાઈ શાહ જૈનાચાર્યોની ગૌરવવંતી પરંપરામાં આચાર્ય શ્રી પદ્મસાગરસૂરીશ્વરજીનું નામ તેજસ્વી તારકની માફક ચમકે છે. બાળક પ્રેમચંદથી આરંભીને આચાર્ય શ્રી પદ્મસાગરસૂરિ સુધીની એમની વિકાસયાત્રામાં અનેક ધાર્મિક અને સામાજિક કાર્યોનો એક નવો ઇતિહાસ સર્જાતો જોઈ શકાય છે. આચાર્ય શ્રી પદ્મસાગરસૂરીશ્વરજી મહારાજમાં વ્યવહારકુશળતા, વાકપટુતા, સરળતા, નિર્ભયતા, કર્તવ્યપરાયણતા, અનુશાસનપ્રિયતા જેવા અનેક ગુણોનો સંગમ થયો છે. એમના બહુમુખી વ્યક્તિત્વના મૂળમાં મહાન આદર્શો રહેલા છે. ધ્યેય પ્રતિ અપાર નિષ્ઠા તથા સદ્વિચારોને માટે એમણે એમનું સમગ્ર જીવન સમર્પિત કર્યું છે.
જન્મ અને બાલ્યાવસ્થા: બંગાળ પ્રાન્ત અનેક મહાપુરુષોને જન્મ આપ્યો છે. અનેક મહાપુરુષોનાં કાર્યોની અમર ઘટનાઓનું તે સાક્ષી રહ્યું છે, જેમાં આ પ્રાન્તના અજીમગંજ નગરનો પણ સમાવેશ થાય છે. બાંગલાદેશની સીમા ઉપર આવેલું તત્કાલીન મુર્શિદાબાદ રાજ્યનું આ નગર અપાર વૈભવ અને અદ્ભુત ધર્મભાવનાનું મિલનસ્થળ છે. ગગનચુંબી શિખરોથી સુશોભિત સાત જિનપ્રસાદવાળા આ નગરમાં ૧૦ સપ્ટેમ્બર, ૧૯૩પના મંગળ દિવસે એક વિરલ બાળકની માતા ભવાનીદેવીની કુક્ષિએ જન્મ થયો. આ બાળકનું નામ પ્રેમચંદ રાખવામાં આવ્યું. જન્મ પહેલાં જ બાળક પ્રેમચંદે પિતા શ્રી રામસ્વરૂપસિંહજીની છત્રછાયા ગુમાવી હતી. બાળકના લાલન-પાલન અને પોષણની જવાબદારી માતા ભવાનીદેવીએ કુશળતાપૂર્વક પાર પાડી. બાળક તેજસ્વી મુખમુદ્રાવાળો તથા આંખોમાં વિલક્ષણ ચમકવાળો હતો. આ લક્ષણોને લઈને આ બાળકનું ભવિષ્ય ઉજ્જવળ છે એમ સૌ કોઈ અનુમાન કરતું હતું. લબ્ધિચંદના હુલામણા નામથી સગાંસંબંધીઓમાં પ્રેમચંદ પ્રિય અને માનીતો બન્યો હતો. બાળક પ્રેમચંદે માતાએ બતાવેલા આદર્શોને જીવનમાં ઉતાર્યા હતા. બાળઉછેરમાં માતાને પડતાં કષ્ટો જોઈને બાળકનું મન પણ વધારે કર્મઠ અને આત્મવિશ્વાસવાળું થયું. સંઘર્ષમય જીવનના પ્રારંભને લીધે આચાર્ય શ્રી પદ્મસાગરસૂરિ મ.સા.ની જીવનયાત્રા સફળ બની.
શિક્ષા અને સંસ્કાર : છ વર્ષની ઉંમરે પ્રેમચંદને અજીમગંજની શ્રી રાયબહાદુર બુધસિંહ પ્રાથમિક શાળામાં દાખલ કરવામાં આવ્યો. પ્રેમચંદે છ ધોરણ સુધીનો અભ્યાસ આ શાળામાં કર્યો. વિદ્યાભ્યાસમાં પ્રેમચંદ ખૂબ જ તેજસ્વી હતો. અને એની અદ્ભુત સ્મરણ શક્તિના લીધે વિદ્યાલયના વિદ્યાર્થીઓમાં એનું નામ સૌથી મોખરે હતું. પ્રેમચંદની જીવનશૈલી પ્રારમ્ભથી જ ઉચ્ચ ઘરાનાની પરંપરાઓને અનુરૂપ ઘડાઈ હતી. નવલખા ખાનદાન સાથે ઘનિષ્ટતા હોવાને લીધો તે ખાનદાનના કેટલાક ગુણો પ્રેમચંદના જીવનમાં ઊતર્યા; જેમ કે સૌ સાથે અદબપૂર્વક વ્યવહાર કરવો, સભ્યતાથી બોલવું, સ્વચ્છતાથી રહેવું વિગેરે. અજીમગંજ એ જમાનામાં યતિઓનું કેન્દ્ર હતું. અજીમગંજના બધા જ જમીનદારોને ત્યાં વ્યવહારિક તેમ જ ધાર્મિક શિક્ષણ પતિજી મહારાજ આપતા હતા. નવલખા પરિવારમાં યતિ શ્રી મોતીચંદ્રજી મ.સા. શિક્ષણ આપવા આવતા હતા. આના પરિણામે શરૂઆતથી જ પ્રેમચંદના જીવનમાં સુસંસ્કારોનું સિંચન થયું. જૈન દર્શન અને અધ્યાત્મની વાતો જાણવા મળી. આ કારણે નિર્દોષ બાળકનું મન આધ્યાત્મિક જીવન જીવવા માટે ઉત્સાહી થયું. પરિણામે પ્રેમચંદમાં શૈશવકાળથી જ અધ્યાત્મનાં બીજ રોપાયાં. માતૃભૂમિની પવિત્ર ચરણરજમાં બાળક પ્રેમચંદે છે ધોરણ સુધી અભ્યાસ પૂરો કર્યો. ત્યાર બાદ પ્રેમચંદ શિવપુરીના શ્રી વીરતત્ત્વ પ્રકાશક મંડળ દ્વારા સંચાલિત જૈન વિદ્યાલયમાં આગળના અભ્યાસ માટે દાખલ થયો. શાસ્ત્રવિશારદ આચાર્યપ્રવર શ્રી વિજયધર્મસૂરીશ્વરજી
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श्रुतसागर, भाद्रपद २०५४ મ.સા.ના અથાગ પ્રયત્નોથી સ્થપાયેલ અને એમના વિદ્વાન શિષ્ય મુનિરત્ન શ્રી વિદ્યાવિજયજી મ.સા.ના કુશળ માર્ગદર્શન દ્વારા સંચાલિત આ ઐતિહાસિક શિક્ષણસંસ્થામાં શ્રી પ્રેમચંદે આઠ ધોરણ સુધી અભ્યાસ કર્યો. આ અભ્યાસ દરમિયાન મુનિશ્રી વિદ્યાવિજયજી મહારાજના ગાઢ સંપર્કમાં આવવાનું થયું. મુનિશ્રીના સત્સંગ-સમાગમના કારણે પ્રેમચંદજીનો અભૂતપૂર્વ આધ્યાત્મિક તેમ જ બૌદ્ધિક વિકાસ થયો. આ બે વર્ષના ગાળા દરમિયાન પ્રેમચંદે અનેક સિદ્ધિઓ હાંસલ કરી, ધાર્મિક અભ્યાસમાં પાંચ પ્રતિક્રમણ, જીવ વિચાર પ્રકરણ કંઠસ્થ કર્યા. મુનિશ્રીની આકર્ષક પ્રવચનશૈલીમાંથી પ્રેરણા લઈને પ્રેમચંદ ભાષણ આપવાનું પણ શીખ્યો. આ રીતે વ્યાખ્યાન આપવાની પ્રગતિશીલ પ્રક્રિયા દ્વારા પ્રેમચંદ જૈન શાસનનો પ્રખર પ્રવક્તા બન્યો અને સમાજે એમને પ્રવચન-પ્રભાકરનું બિરુદ આપ્યું.
મધ્ય પ્રદેશના ખરગોન જિલ્લાના કલેક્ટર શ્રી શરતચંદ્ર પંડ્યા એમના સહાધ્યાયી હતા. શિવપુરીની આ સંસ્થામાં બે વર્ષ અભ્યાસ કરીને ૧૯૫૦માં પ્રેમચંદ કલકત્તા પાછો આવ્યો. અહીં એક સંબંધીના ઘરે રહીને શ્રી વિશુદ્ધાનંદ સરસ્વતી ઉચ્ચ માધ્યમિક વિદ્યાલયમાં ૯ અને ૧૦ ધોરણનું શિક્ષણ પુરું કર્યું. ત્યાર બાદ આધ્યાત્મિકતાના રંગે રંગાયેલો પ્રેમચંદ વ્યવહારિક અધ્યયનમાં આગળ વધી શક્યો નહિ.
ઈ. સ. ૧૯૫૨ના અન્ને પ્રેમચંદ કલકત્તાથી ફરી અજીમગંજ આવી ગયો. સ્વામી વિવેકાનંદના વિચારોથી પ્રેમચંદને ઉત્સાહ અને પ્રેરણા મળ્યાં. ફરીથી તે ભારતના પ્રમુખ ઐતિહાસિક નગરોની યાત્રાએ નીકળી પડ્યો. એણે પાંડિચેરી, દેહરાદૂન, હરદ્વાર, ઋષિકેશ, મથુરા, દિલ્હી, આગ્રા, કોટા, ગ્વાલિયર ઇત્યાદિ નગરોના ઐતિહાસિક-પૌરાણિક સ્થાનો જોયાં, આશ્રમો અને ધાર્મિક અધ્યાત્મિક સંસ્થાઓ પણ જોઈ.
સદગુરુની શોધ : ઐતિહાસિક-પૌરાણિક નગરોની યાત્રા બાદ પ્રેમચંદ પાલીતાણાની યાત્રા માટે અમદાવાદ આવ્યો. અહીં શિવપુરીના અભ્યાસકાળના સહાધ્યાયીને ત્યાં નિવાસ કર્યો. એ સહાધ્યાયી મિત્રની સાથે પાલિતાણાની યાત્રા કરીને પ્રેમચંદનું જીવન ધન્ય બન્યું. પાલીતાણાની યાત્રાએથી પાછા ફરીને પ્રેમચંદ પોતાના મિત્રની સાથે સાણંદ ગામે વિરાજિત પરમ શ્રદ્ધેય શાસન પ્રભાવક સિદ્ધાંતવેત્તા, યુગદ્રષ્ટા મહાન સંયમી અજાતશત્રુ આચાર્ય ભગવન્ત શ્રી કલાસસાગરસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના દર્શને આવ્યો. આચાર્યશ્રીનું દર્શન કરીને પ્રેમચંદનું જીવન ધન્ય બન્યું. આચાર્યશ્રીના દર્શન માત્રથી પ્રેમચંદમાં રહેલી જિજ્ઞાસાઓ અને પ્રશ્નોનું સમાધાન થયું. આચાર્યશ્રીની દિવ્ય અને પ્રેરક વાણીથી પ્રેમચંદના માનસમાં વૈરાગ્યના બીજ રોપાયાં અને દઢ થયાં. ગુરુદેવને જોયા, એમની વાણી સાંભળી અને આ દિવ્ય વાણીનો હૃદયમાં સ્વીકાર થયો. આચાર્યશ્રીની વીતરાગ વાણીના શ્રવણથી અને એમના માર્ગદર્શનથી પ્રેમચંદના જીવનમાં નવીન દિશાનો સંચાર થયો અને પ્રેમચંદે વીતરાગ પ્રભુએ ચીંધેલા દીક્ષામાર્ગે જવા સંકલ્પ કર્યો. ખરેખર આચાર્યશ્રીના સાંનિધ્યથી પ્રેમચંદના જીવનમાં આધ્યાત્મિક પ્રકાશ પથરાયો અને આચાર્યશ્રી સમક્ષ મનોમન દીક્ષા ગ્રહણ કરવાનો સંકલ્પ કર્યો. પ્રેમચંદના જીવનને ધન્યતા અર્પનાર એવા જીવન-શિલ્પીની મહાન શોધ પૂરી થઈ.
ઘરનો ત્યાગ : વીતરાગ પથ એ કંટક પથ છે અને એ માર્ગે વીર જ ડગ ભરી શકે. નિર્બળ મનુષ્યોનું તો આ માર્ગે ચાલવાનું કામ નથી. પ્રેમચંદનું મન આ અમરપથ પર ચાલવા માટે તલપાપડ બન્યું હતું. સંસારમાં આસક્ત લોકો માટે સંયમ એક કાંટા ભરેલો માર્ગ છે. સાધક આ કંટક-પથને ફૂલોનો માર્ગ સમજે છે. કષ્ટ વિના સાધના નથી અને સાધના વિના મુક્તિ પ્રાપ્ત થતી નથી. સહન કરવાની શક્તિ-ક્ષમતા જેમનામાં છે તે જ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી શકે છે. આ પ્રકારનો આચાર્ય ભગવન્તનો ઉપદેશ પ્રેમચંદના કાનોમાં સતત ગુંજ્યા કરે છે. આચાર્ય ભગવંતની વાણીનો અસરકારક પ્રભાવ પ્રેમચંદને આધ્યાત્મિક રસમાં તરબોળ કરી મૂકે છે. પ્રેમચંદ મિત્રની રજા લઈને અજીમગંજ આવે છે. રેલયાત્રાની ગતિની સાથોસાથ કુદરતનાં દશ્યોને નિહાળતો
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श्रुतसागर, भाद्रपद २०५४
६
નિહાળતો પ્રેમચંદ મનોમન વિચારોમાં ચાલે છે. જીવનનો અર્થ શું? જીવનનું ધ્યેય શું? ત્રણ દિવસની અવિરત યાત્રા પછી પ્રેમચંદ અજીમગંજ આવે છે. ઘેર આવીને પણ પ્રેમચંદ પોતાનામાં ખોવાઈ ગયો હતો. કેટલાંક જરૂરી કાર્યો પૂરા કરી પ્રેમચંદે દીક્ષા લેવાનો પોતાનો સંકલ્પ પોતાના મિત્રને જણાવ્યો. એકાએક એક દિવસ સવારે માતાજીને પ્રણામ કરીને પ્રેમચંદ સંયમમાર્ગે જવા માટે નીકળી પડ્યો. ખિસ્સામાં થોડા રૂપિયા સિવાય પોતાના માટે પ્રેમચંદે કાંઈ જ લીધું ન હતું, છતાં તેનું મન સંયમ-સાધનાના માર્ગે વિહરવાના પૂરા વિશ્વાસ સાથે છલકતું હતું.
વીતરાગના પંથે : ઘરનો ત્યાગ કરીને પ્રેમચંદ વડોદરા થઈને દિવાળીના દિવસોમાં અમદાવાદ આવ્યો. અમદાવાદમાં સહાધ્યાયી મિત્રને ઘે૨ રહીને નૂતન વર્ષના મંગળ પ્રભાતે પ્રેમચંદ ગુરુમહારાજની પાસે સાણંદ પહોંચ્યો. આચાર્યશ્રીની પાસે પહોંચી ગુરુ ભગવંતને વંદન કરીને પ્રેમચંદને અપાર સંતોષ થયો, મંગળ પ્રભાતે માંગલિક પ્રવચન સાંભળીને પ્રેમચંદે આચાર્યશ્રી સમક્ષ દીક્ષા લેવાની પોતાની પ્રબળ ભાવના વ્યક્ત કરી. પ્રેમચંદના વિચારને પ્રોત્સાહિત કરીને આચાર્ય મહારાજે થોડા દિવસો પોતાની સાથે રહેવા સૂચવ્યું. આચાર્યશ્રી પાસે રહીને પ્રેમચંદ શ્રમણ જીવનના આચાર વિચારનો સૂક્ષ્મતાથી અભ્યાસ કરવા લાગ્યો. ધાર્મિક અધ્યયન પણ ચાલુ કરી દીધું. પ્રેમચંદની દીક્ષા લેવાની ઉત્કટ ભાવના જોઈને તથા એના આચાર-વિચાર જોઈને ગુરુ ભગવંતે એક દિવસ સંઘની પ્રમુખ વ્યક્તિઓને દીક્ષા-મહોત્સવનું આયોજન કરવા જણાવ્યું. આચાર્યશ્રીના પ્રસ્તાવને સહર્ષ વધાવી લઈને દીક્ષા મહોત્સવની તૈયારી શરૂ થઈ ગઈ.
૧૩ નવેંમ્બર, ૧૯૫૫નો દિવસ સાણંદ સંઘમાં ખૂબ જ ઐતિહાસિક દિવસ તરીકે ગણાયો. જનર્મદની એકત્ર થવા લાગી. સંયમનાં ગીતો ગવાવાં લાગ્યાં. શરણાઈના મીઠા સૂર સંભળાવા લાગ્યા. પ્રેમચંદે રાજકુમાર જેવો ઠાઠમાઠ ધારણ કર્યો હતો. જ્યાં જુઓ ત્યાં પ્રેમચંદની સંયમ ગ્રહણ કરવાની ઉત્સાહ પ્રેરિત વાતો થતી હતી. સૌ પોતપોતાની રીતે સંયમમાર્ગની અનુમોદના કરતાં હતાં. દીક્ષા વિધિનો પ્રારમ્ભ થયો. શુભ ઘડીની રાહ જોવાતી હતી તે શુભ ઘડી આવી પહોંચી. આચાર્યશ્રીએ પ્રેમચંદને ઓધો (રજોહરણ) અર્પણ કર્યો. મુંડન બાદ સફેદ વસ્ત્રોમાં સજ્જ શ્રી પ્રેમચંદ સંયમની ભાવનાને ધારણ કરતાં મુનિ પદ્મસાગર મ.સા. તરીકે ઓળખાયા. જનમેદનીએ આંખમાં હર્ષાશ્રુ સાથે નૂતન મુનિ પદ્મસાગરજીનું અભિવાદન કર્યું. આચાર્ય શ્રી કૈલાસસાગરસૂરિ મ.સા.ના વિદ્વાન શિષ્યરત્ન આચાર્ય શ્રી કલ્યાણસાગરસૂરિ મ.સા.ના પદ્મસાગરજી મ.સા. શિષ્ય બન્યા.
અધ્યયનની લગન દીક્ષા અંગીકાર કરીને મુનિ શ્રી પદ્મસાગરજી મ.સા. શ્રમણ જીવનનાં અંતરંગબહિરંગ કાર્યો સમજવામાં લાગી ગયા. અને આચાર્યશ્રીના સાંનિધ્યમાં અધ્યયન-મનન-ચિંતનની સાથે સાધુઓના આચાર-વિચારની મર્યાદાઓનું પાલન કરવાનું સમજ્યા. મુનિ જીવનના થોડા સમયમાં જ મુનિ પદ્મસાગરજીએ પોતાની વિરલ પ્રતિભાનો પરિચય આપી દીધો. પોતાની કુશાગ્ર બુદ્ધિ, તીવ્ર સ્મરણશક્તિ અને પ્રખર પ્રતિભાથી મુનિશ્રીએ ફક્ત વિદ્યાભ્યાસ ક્ષેત્રે જ નહિ, પરંતુ આધ્યાત્મિક જગતમાં પણ પોતાનો વિકાસ ખૂબ જ ઝડપથી સાધ્યો. ધીરજ, મૈત્રી, કરુણા, સમતા ઇત્યાદિ જીવનવિધાયક ગુણોને મુનિશ્રીએ આત્મસાત્ કરી લીધા. વિશેષે કરીને મુનિશ્રીનો દાદાગુરુ તરફ અપાર શ્રદ્ધા અને સમર્પણભાવ રહેલો જણાય છે.
સહનશક્તિની અતૂટ ભાવના : પ્રેમચંદ નામના આ કિશોરે ઈ. સ. ૧૯૫૫માં દીક્ષા ગ્રહણ કરી, સાધુજીવનની યાત્રામાં અનેક જિનશાસનના કાર્યો કરી આચાર્યપદને દીપાવ્યું છે. મહાનતા આપમેળે પ્રાપ્ત થતી નથી. એના માટે અનેક પ્રકારનાં કષ્ટો તેમ જ સંઘર્ષ સહન કરવાં પડે છે. મુનિ પદ્મસાગરજીને મુનિ જીવનના પ્રારકિ વર્ષોમાં અનેક કઠણાઇઓનો સામનો કરવો પડ્યો; પરંતુ દરેક સંઘર્ષમાં મુનિશ્રી અડગ
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श्रुतसागर, भाद्रपद २०५४
७
રહ્યા. દુ:ખોને ક્ષણિક સમજીને જીવવાનું આપશ્રીનું મનોબળ, ધૈર્યબળ અડગ રહ્યું. કોઈના સહારા વિના જીવવાના દિવસો પણ આપશ્રીના જીવનમાં આવ્યા છે. ગંભીર બીમારીઓનો સામનો પણ કરવો પડ્યો છે. કેટલીક વખત લોહીની ઉલટીઓ જેવી વ્યાધિના દિવસોમાં પણ આપને વિહાર કરવો પડ્યો છે. આપશ્રીને પહેલા અને બીજા શિષ્યની દીક્ષા પ્રસંગે પણ પરેશાની ભોગવવી પડી છે. આ સમય દરમિયાન જાહેર માર્ગો છોડીને આપશ્રીને ખેતરોમાં અને પગદંડીઓ પર વિહાર કરવો પડ્યો છે. કહેવાય છે કે મારવાવાળાના કરતાં બચાવવાવાળાના હાથ ઘણા લાંબા હોય છે. મુનિ પદ્મસાગરજીનું પ્રારબ્ધ ખૂબ પ્રબળ હતું. નાગૌર અને પાલીના શ્રદ્ધાળુ સજ્જનોએ આપશ્રીને તન-મન-ધનથી સહયોગ આપ્યો. આજે આચાર્યશ્રી પદ્મસાગરજી મ.સા. જીવનની મહાન ઊંચાઈ પામી ચૂક્યા છે. હજારો-લાખો લોકોના વંદનીય પૂજનીય બન્યા છે. મુનિશ્રીના સંઘર્ષમય અને સહનશીલતાભર્યા ભૂતકાળને કારણે ગુરુ ભગવંતનો આજનો વર્તમાન સુવર્ણમય બન્યો છે.
જગત આજે શક્તિહીન- બુદ્ધિહીન મનુષ્યોની કદર કરતું નથી; પરંતુ ઊગતા સૂર્યને લોકો પૂજે છે, નમસ્કાર કરે છે તેવી રીતે તેમને તેમના વિરોધીઓ પણ બુદ્ધિમાન અને મહાન કહે છે અને પૂજે છે. મુનિ પદ્મસાગરજીએ વિરોધીઓના વિરોધના કારણે પોતાનો વિકાસ કરવાનો સંકલ્પ ન છોડતાં વધુ દૃઢ બનાવ્યો. વિરોધ અને સંઘર્ષ એ તો વિકાસ માટે પ્રેરણારૂપ છે. મુનિ પદ્મસાગરજીએ વિરોધીઓના વિરોધ પ્રસંગે મૌન સેવવાનું પસંદ કર્યું. કાનથી ખોટી વાતો સાંભળવાનું બંધ કર્યું. સમાજના ગંદા વાતાવરણને આંખોથી જોવાનું બંધ કર્યું અને નિરંતર વધતા રહ્યા અને સિદ્ધિઓ પ્રાપ્ત કરતા રહ્યા. વર્ષો પહેલાં વિકાસને પંથે જે મહાન ધ્યેયોને સામે રાખીને સફળ યાત્રા પર નીકળ્યા હતા તે ધ્યેયો આજે પણ નજ૨ સમક્ષ રાખ્યા છે.
બૌદ્ધિક પ્રતિભા વ્યવહારિક કુશળતા અને જિનશાસન પ્રત્યે અપાર આસ્થાને લીધે મુનિ પદ્મસાગરજીને ૨૮ જાન્યુઆરી, ૧૯૭૪ના દિવસે ગણિપદ અને ૮ માર્ચ ૧૯૭૬ના દિવસે પંન્યાસ પદવી આપવામાં આવી. ત્યાર બાદ આપશ્રીની યોગ્યતા અને લાયકાત જોઈને ૯ ડિસેંમ્બર, ૧૯૭૬ના રોજ મહેસાણા તીર્થ કે જેના નિર્માણમાં પૂજ્યશ્રીનો પણ સિંહ ફાળો રહ્યો છે ત્યાં એક વિશાળ અને શાનદાર સમારોહમાં હજારોની જનમેદની વચ્ચે આચાર્યપદવી આપવામાં આવેલ. આચાર્યપદ પ્રાપ્તિ બાદ ૫.પૂ. શ્રી પદ્મસાગરસૂરિ મ. ની ખ્યાતિમાં અદ્ભુત વ્યાખ્યાન શૈલીને કા૨ણે દિવસે-દિવસે વધારો થયો.
વ્યાખ્યાન વાચસ્પતિ આચાર્યશ્રીનાં વ્યાખ્યાનોમાં લોકોની સંખ્યા ઉત્તરોત્તર વધવા માંડી. આચાર્યશ્રીનું પ્રવચન જાદુગરની માફક લોકોને લાંબા સમય સુધી જકડી રાખે છે. સરળ હિન્દીમાં અને દૃષ્ટાંતો સહિત એમનું પ્રવચન દાર્શનિક વિષયોને પણ લોકભોગ્ય બનાવે છે. ભાષાની સરળતા, સ્પષ્ટ વક્તૃત્વ, અભિપ્રાયની ગંભીરતા, વિચારોની વ્યાપકતા અને મૌલિક રજૂઆત- એ આચાર્યશ્રીના પ્રવચનની વિશેષતા છે. આપશ્રીનાં પ્રવચનો લોકોમાં પ્રિય બન્યાં છે. જૈન શાસનને આપશ્રીના માટે ગર્વ છે. આપશ્રીનાં પ્રભાવક પ્રવચનોથી વ્યક્તિઓ અને સમાજમાં આવેલાં પરિવર્તનોનો કોઈ હિસાબ નથી.
યશસ્વી પ્રદાન : આચાર્ય બન્યા બાદ, ભાવનગરમાં પ્રથમ ચાતુર્માસ દાદા ગુરુ અને ગુરુદેવના સાંનિધ્યમાં કર્યું. આ ચાતુર્માસ દરમિયાન ૫.પૂ. પદ્મસાગરસૂરીશ્વરજીએ બે મહત્ત્વનાં કાર્યો સિદ્ધ કર્યાં. ભાવનગર સંઘનો બાલદીક્ષા પર પ્રતિબંધનો ઠરાવ હતો તે બદલાવીને આચાર્યશ્રીએ ભવ્ય સમારોહમાં બાલ મુમુક્ષુને સમગ્ર સંઘની અનુમતિથી દીક્ષા આપી; એટલું જ નહિ પરંતુ ૭૦ વર્ષોથી ભાવનગરમાં ઉપધાન તપની આરાધના થઈ ન હતી તે ઉપધાન તપની સુંદર આરાધના કરાવીને તેમણે ઐતિહાસિક કિર્તીમાન સ્થાપિત કર્યો. તે સમયના ગુજરાતના મુખ્યમંત્રી શ્રી બાબુભઈ જશભાઈ પટેલને જણાવીને શત્રુંજય મહાતીર્થમાં થતી જીવહિંસા રોકવામાં આવી. [અનુ. પાના. ન. ૮]
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श्रुतसागर, भाद्रपद २०५४
जैन साहित्य-७ [पिछले अंक में आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुत स्कंध से परिचय कराया गया था. इस अंक में सूत्रकृतांग का वर्णन किया जा रहा है. ] श्वेताम्बर परम्परा में सूत्रकृतांग हेतु सूतगड, सूयगड व सूत्तकड ये तीन प्राकृत नाम उपलब्ध होते हैं.
इनका संस्कृत रूपान्तरण आचार्य हरिभद्रसूरि आदि विद्वानों ने सूत्रकृत किया है. इस आगम में दो श्रुतस्कंध हैं जिसमें पहले श्रुतस्कंध में १६ और दूसरे श्रुतस्कंध में ७ अध्ययन हैं. इनमें पहले श्रुतस्कंध हेतु गाथाषोडशक नाम प्राप्त होता है जबकि दूसरे श्रुतस्कंध हेतु ऐसा कोई विशिष्ट नाम ज्ञात नहीं होता.
सूत्रकृतांग में स्वसमय- स्वमत, परसमय- परमत, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष आदि गूढ़ तत्त्वों के विषय में प्रतिपादन किया गया है. अपने मत के सिद्धान्तों का स्थापन व परमत का निरसन इस आगम का प्रमुख सूर दिखाई देता है. इसी कारण इसमें विविध मतों एवं वादों की चर्चा हुई है.
इस आगम में प्रमुख रूप से निम्नलिखित विषयों को स्थान प्राप्त हुआ है- कर्म का विदारण, अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसर्ग, स्त्री आसक्ति से कदर्थना, नरक की वेदना, सच्चे ब्राह्मण के गुण, महावीरस्वामी की उत्कृष्टता के उदाहरण सहित मनोहारी स्तुति, मुक्ति के लिए कुशीलों के आचरणों की तथा अज्ञानकष्टों की आलोचना, सच्ची वीरता, यथार्थ धर्म, समाधि, मोक्षमार्ग, सच्चे श्रमण, परिग्रह का नाश, शिष्यों का धर्म, पुण्डरीक का अद्भुत वृत्तान्त, तेरह क्रिया स्थान, आहार की खोज, प्रत्याख्यान की आवश्यकता, सदाचारघातक मन्तव्यों का निराकरण, इन्द्रभूति एवं पेढाल पुत्र का वाद-विवाद आदि.
सूत्रकृतांग का परिमाण लगभग २१०० गाथाएँ हैं. इस आगम पर २०५ गाथा की २६५ श्लोक प्रमाण नियुक्ति है तथा ९९०० श्लोक प्रमाण चूर्णी उपलब्ध है. साथ ही आचारांग के टीकाकार आचार्य शीलांकसूरि कृत १२,८५० श्लोक परिमाण की विद्वत्तापूर्ण वृत्ति भी है. इस वृत्ति में पांच आनन्तर्य पापों के विषय में विचार किया गया है.
क्रमशः पान नं. ७ नुमा81]
- महान शासन प्रमा48... મુંબઇની મહાનગર પાલિકામાં અભ્યાસ કરતાં બાળકોને પૌષ્ટિક ખોરાકમાં ઈંડાં આપવાનો સૌ પ્રથમ આવેલા પ્રસ્તાવનો તે સમયના મુખ્ય મંત્રી શ્રી શંકરરાવ ચૌહાણને કહીને, અમલ થતો આચાર્યશ્રીએ રોકાવ્યો હતો. આ પ્રસ્તાવને રોકવાની વિધિવત્ ઘોષણા લેમિંગ્ટન રોડ પર આવેલી નવજીવન સોસાયટીમાં આચાર્યશ્રીના સાર્વજનિક પ્રવચનમાં મુખ્ય મંત્રીશ્રીએ કરી હતી. આ રીતે આચાર્ય ભગવંતે પોતાના સામર્થ્યથી નાનાં-મોટાં સેંકડો સત્કાર્યો કરીને જૈન શાસનની મહાન પ્રભાવના કરી છે તો બીજી બાજુએ લોકકલ્યાણનાં અનેક હિતવર્ધક કાર્યો કરીને સમગ્ર માનવ સમાજની સેવા કરી છે. બીજો ભાગ આવતા અંકમાં... પાના નં. ૧૦ નું બાકી
જેનદર્શનમાં પ્રકાશપુંજ સમ્યજ્ઞાન કરે છે, આપત્તિ કાળે ત્યાગ કરતો નથી અને યોગ્ય સમયે મદદ કરે છે.
શ્રીમદ્ શુભચંદ્રાચાર્ય જ્ઞાનાર્ણવમાં લખે છે કે અજ્ઞાની કરોડો જન્મ ધારણ કરી તપના પ્રભાવથી જે પાપોને જીતે છે તે અતુલ પરાક્રમવાળો જ્ઞાની અર્ધી ક્ષણમાં ભસ્મ કરી શકે છે. અજ્ઞાની આત્મા પોતે જ કર્મરુપી બંધનથી બંધાઈ જાય છે પણ આત્મા અનાત્માનો ભેદ જાણનાર જ્ઞાની તે સમયે સાવધાન રહી પોતાના આત્માને કર્મથી મુક્ત કરે છે. આપણાં મહાન પુણ્યના ઉદયે આપણને મનુષ્યભવ અને જૈનધર્મ પ્રાપ્ત થયો છે તો આ ઉચ્ચ મનુષ્યભવમાં સર્વજ્ઞ પરમાત્માએ બતાવેલા માર્ગે ચાલીને સમ્યજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરીને પરમ સુખના ભંડાર સમું મુક્તિસુખ મેળવીએ.]
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श्रुतसागर, भाद्रपद २०५४ જેનદર્શનમાં પ્રકાશપુંજ સમ્યજ્ઞાન
પં. દિલીપ વી. શાહ સમ્યજ્ઞાન એટલે સાચું જ્ઞાન. જે જ્ઞાન સંસાર ભ્રમણમાંથી મુક્તિ અપાવે તે સમ્યજ્ઞાન. જે જ્ઞાન આત્મામાંથી પરમાત્મા બનાવે તે સમ્યજ્ઞાન. જે જ્ઞાન મનુષ્યને પુણ્ય અને પાપની સમજ આપે તે સમ્યજ્ઞાન. સમ્યજ્ઞાન એ પવિત્ર પ્રકાશ છે જે અજ્ઞાનરુપ ઘોર અંધકારમાં પડેલ પ્રાણીને પ્રકાશનો માર્ગ બતાવે છે, દુર્ગતિમાં પડતા પ્રાણીને દુર્ગતિમાં પડતો અટકાવી સદ્ગતિ અપાવે છે. સમ્યજ્ઞાન સાચા દેવ-ગુરુ-ધર્મની ઓળખ આપે છે. વિશ્વનું કોઈપણ જ્ઞાન સમ્યજ્ઞાનની તોલે આવી શકે તેમ નથી. સમ્યજ્ઞાન માનવમાંથી મહામાનવ બનાવી પરંપરાએ મુક્તિ અપાવે છે.
બાહ્ય જ્ઞાન કોઈ વ્યક્તિએ ગમે તેટલા પ્રમાણમાં પ્રાપ્ત કર્યું હોય, મોટી મોટી ડિગ્રીઓ પ્રાપ્ત કરી હોય પરંતુ જો તેનામાં સમ્યજ્ઞાન ન હોય તો ધાર્મિક દૃષ્ટિએ તે ડિગ્રીઓની કાંઈ કિંમત નથી. સા વિદ્યા યા વિમુક્તયો સાચી વિદ્યા કે સાચું જ્ઞાન તે જ કહેવાય કે જે મુક્તિ અપાવે. અત્યારે સ્કૂલ-કૉલેજમાં અપાતું જ્ઞાન વધારેમાં વધારે રોજી રોટી આપી શકે છે. પરંતુ સંસ્કાર કે આત્મહિતની પ્રેરણા નથી આપતું. આ વ્યવહારિક જ્ઞાનને આત્મા-પરમાત્મા સાથે કાંઈ લેવા દેવા હોતા નથી. તે ફક્ત ભૌતિક જ્ઞાન જ છે અને તેનું જ્ઞાન રાગ-દ્વેષ મોહને વધારનારું હોય છે.
પતંજલિ ઋષિ ફરમાવે છે કે સ્વભાવલાભ કારણમિષ્યતે જે જ્ઞાન આત્મસ્વરુપના લાભનું કારણ બને તે જ જ્ઞાન સમ્યગુ જ્ઞાન કહેવાય બાકી અજ્ઞાન અને બુદ્ધિનું દેવાળું કહેવાય. વ્યવહારિક જ્ઞાનમાં ઘણી બધી પ્રગતિ કરી હોય, શૈક્ષણિક મોટી મોટી ડિગ્રી મેળવી હોય, મોટાં મોટાં પદો આદિ મેળવ્યું હોય તેથી કાંઈ આત્માનું હિત થતું નથી. જો તમે સત્તાનો મોહ, સ્ત્રીનો મોહ, માન પાનનો મોહ કે બંગલા વાહનનો મોહ નથી મૂકી શકતા તો આ સત્તા અને આ ડિગ્રીઓ આ ભવમાં તો માન પાન કે પૈસો અપાવશે પરંતુ ભવાંતરમાં દુર્ગતિ અપાવશે, દુ:ખના ડુંગરો ઊભા કરશે. આત્મલક્ષ વિનાનું કોરું જ્ઞાન નાશવંત શરીરનો જ વિચાર કરશે. આત્માના સુખ શાંતિનો કે પરભવનો જરાય વિચાર કે ચિંતા નહિ કરે,
મજ્જત્યજ્ઞ કિલાજ્ઞાને વિષ્ટાયામિવ કરઃ
જ્ઞાની નિમજ્જતિ જ્ઞાને મરાલ ઇવ માનસે | જેમ ભૂંડ વિષ્ટામાં આળોટે છે તેમ અજ્ઞાનિ મનુષ્ય અજ્ઞાનરુપી વિષ્ટામાં આળોટે છે. પણ જ્ઞાની પુરુષ તો માનસરોવરમાં જેમ હંસ ક્રીડા કરે છે તેમ ક્રીડા કરે છે. સમ્યજ્ઞાનરુપી સૂર્યનો ઉદય થતાં રાગ-દ્વેષ અને મોહનો ગાઢ અંધકાર દૂર થાય છે. જૈન શાસ્ત્રમાં સમ્યજ્ઞાનના પાંચ પ્રકાર કહ્યાં છે. જેના માટે કર્મશાસ્ત્રમાં આ પ્રમાણે કહેલ છે.
મઇ સુઅ ઓહિ મણ કેવલાણિ નાણાણિ તત્થ માનાણી
વંજણ વગૂહ ચઉહા મણ નયણ વિણિદિય ચઉક્કા // મતિ, શ્રત, અવધિ, મન:પર્યવ અને કેવળજ્ઞાન એ પાંચ જ્ઞાન છે. (૧) મતિજ્ઞાન- પાંચ ઇંદ્રિય અને મન દ્વારા નિયત વસ્તુનો જે બોધ થાય તે મતિજ્ઞાન કહેવાય છે.
(૨) શ્રુતજ્ઞાન- શાસ્ત્રના આધારે જે જ્ઞાન થાય તે શ્રુતજ્ઞાન કહેવાય છે. અને તે પણ પાંચ ઇંદ્રિય અને મન દ્વારા થાય છે. આ બે જ્ઞાન ઇંદ્રિય ગ્રાહ્ય હોવાથી પરોક્ષ કહ્યાં છે.
(૩) અવધિજ્ઞાન- મર્યાદામાં રહેલા રૂપી દ્રવ્યનું આત્માવડે (ઈન્દ્રિયાદિકની સહાયતા વિના) જાણપણું થાય તેને અવધિજ્ઞાન કહેવાય છે.
(૪) મન:પર્યવ જ્ઞાન- અઢી દ્વીપમાં રહેલ સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવોના મનોગત ભાવને આત્માવડે જાણવા તે મન:પર્યવ જ્ઞાન કહેવાય છે.
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श्रुतसागर, भाद्रपद २०५४ (૫) કેવળજ્ઞાન- લોકાલોકના રૂપી-અરૂપી તમામ ભાવોને એક સમયે આત્માવડે જે જાણે તે કેવળજ્ઞાન કહેવાય છે.
અવધિ, મન:પર્યવ અને કેવળજ્ઞાન એ ત્રણ જ્ઞાન પ્રત્યક્ષ છે. તેમાં પણ અવધિ અને મન:પર્યવ જ્ઞાન એ દેશ પ્રત્યક્ષ છે અને કેવળજ્ઞાન સર્વ પ્રત્યક્ષ છે. જ્ઞાયતે પરિચ્છિદ્યતે વસ્તુ અને ઇતિ જ્ઞાનમ્ જેના વડે વસ્તુ જણાય-ઓળખાય તે આત્માના ગુણને જ્ઞાન કહેવામાં આવે છે. આત્માના અનંત ગુણો છે. તેમાં પ્રથમ ગુણ જ્ઞાન છે. પઢમં નાણું તઓ દયા. શાસ્ત્રમાં પ્રથમ જ્ઞાન અને પછી દયા બતાવેલ છે. આમ બતાવવાનું કારણ જે મનુષ્યને સમ્યજ્ઞાન નથી તે દયા સમજી શકતો નથી અને દયા કરવા જાય તો ત્યાં અદયાનું કાર્ય કરી બેસે છે. જો સમ્યજ્ઞાન હોય તો તેનામાં વિવેક દૃષ્ટિ હોય છે અને સારી રીતે તે દયા ધર્મ પાળી શકે છે. સમ્યજ્ઞાન દ્વારા ધર્મ-અધર્મ, સારું નરસું સત્ય-અસત્ય, પાપ-પુણ્ય વિગેરે સમજીને તે પ્રમાણે આચરણ કરી શકે છે. હું કોણ છું? ક્યાંથી આવ્યો છું? મારા જન્મનું પ્રયોજન શું? જન્મનું સાર્થક્ય શામાં રહેલું છે? તે સર્વ બાબતોને સારી રીતે પ્રકાશમાં લાવનાર સમ્યજ્ઞાન છે. સમ્યજ્ઞાન વડે મનુષ્ય પોતાના કર્મનો ક્ષય કરી શકે છે. મનુષ્યને જ્ઞાન થતાં પોતાના દોષ જણાય છે. પોતે કરેલા અનિષ્ટ કર્મો તેને યાદ આવે છે તથા પશ્ચાતાપ થાય છે અને તેથી કરીને આ ભવમાં જે જે અશુભ કાર્યો કર્યા હોય અને તેથી સામા જીવને જે કાંઈ નુકસાન થયું હોય, તેનો યોગ્ય બદલો આપવાનો પ્રયત્ન કરે છે. તેમજ જે જે અશુદ્ધ વિચારો કર્યા હોય તેને બદલે તેના વિરુદ્ધ સારા વિચારોથી મનને ભરે છે, મનને પવિત્ર અને નિર્મળ બનાવે છે. જો કે પૂર્વ કર્મના ઉદયથી કેટલીક વાર સંકટ સહન કરવા પડે પણ તે સંકટના કારણભૂત પોતાની જ પ્રવૃત્તિ હતી એમ યથાર્થ સમજતો હોવાથી સહનશીલતાથી તે ખમે છે અને આપત્તિ રુપ સદ્ગુરુ જે બોધ આપે છે, તે ખુશીથી સ્વીકારે છે. સંકટ આપનાર પર ગુસ્સો કરતો નથી, કારણ કે બીજા તો નિમિત્ત માત્ર છે પણ પોતાના સુખ દુઃખનું કારણ પોતે જ છે. આ પ્રમાણે જૂના કર્મોને શૈર્યથી ભોગવી તેમનો ક્ષય કરે છે અને પોતાને મળેલા જ્ઞાનથી એવી પ્રવૃત્તિ કરે છે કે નવાં કર્મ ઉપાર્જન ન થાય. આ પ્રમાણે નવાં કર્મોનો પ્રવાહ અટકાવે છે અને જૂના કર્મોનો ક્ષય કરીને અંતમાં મોક્ષ દશા પ્રાપ્ત કરી શકે છે.
જ્ઞાનાગ્નિના ભસ્મસાકુરુતે કર્માણિી. મનુષ્ય જ્ઞાનરુપી અગ્નિ વડે ગમે તેવા કર્મોને ક્ષણવારમાં ભસ્મીભૂત કરી શકે છે. બીજી મહત્ત્વની વાત કે જે વિદ્યારુપી ધન છે તે ચોરોના હાથમાં આવતું નથી. જે કલ્યાણનું પોષક છે; જે વિદ્યાર્થીઓને આપવા છતાં વૃદ્ધિ પામે છે અને પ્રલયના અંતે પણ જેનો નાશ નથી. કહ્યું છે કે
જ્ઞાન સમો કોઈ ધન નહિ,સમતા સમું નહિ સુખા
જીવિત સમી આશા નહિ; લોભ સમો નહિ દુ:ખા સુખ તે મન પર રહેલું છે માટે વિદ્યાથી સંસ્કાર પામેલું મન જે સુખ પ્રાપ્ત કરી શકે છે તે કેવળ ધનથી પ્રાપ્ત થતું નથી. જ્ઞાનીઓને જે આનંદ, સંતોષ, ઉચ્ચ ભાવના અને મન શુદ્ધિ થાય છે તેની સાથે કેવળ ધનથી ઉપજતું સુખ સરખાવી શકાય તેમ નથી,
તમે વૃદ્ધ થાઓ તે પહેલા જ્ઞાન મેળવવાનો શ્રમ લો. કારણ કે રૂપા તથા સોના કરતાં પણ વિદ્યા વધારે કિંમતી છે. રૂપું તથા સુવર્ણ નાશ પામશે, પણ મેળવેલું જ્ઞાન સર્વથા રહેશે. માટે જ્ઞાનને ધનના ધોરણથી નહિ માપતાં તેનામાં રહેલા અપૂર્વ લાભ તરફ દૃષ્ટિ કરો. જ્ઞાન એ મિત્રતાની ગરજ સારે છે. મનુષ્યને જ્યારે કોઈ બાબતમાં સમજણ ન પડતી હોય ત્યારે મિત્રની સલાહ લે છે પણ જે જ્ઞાનીઓ છે તેઓને બહારના મિત્રની જરૂર પડતી નથી. તેમનું જ્ઞાન સૂર્યની માફક તેમની બુદ્ધિ સતેજિત કરે છે. તેમના પ્રશ્નો-શંકાઓનું સમાધાન થઈ જાય છે. જ્ઞાન રૂપી સન્મિત્ર તેમને પાપ કર્મથી નિવારે છે, હિતકારી કાર્યમાં પ્રેરણા કરે છે, ગુણોને પ્રકટ
[અનુસંધાન પાના નં. ૮ ઉપર
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श्रुतसागर, भाद्रपद २०५४
__ ११ हमारे जैन तीर्थ - १ रांतेज तीर्थ
पं. रामप्रकाश झा हरेक धर्म में उससे जुड़े तीर्थ स्थान होते हैं और उस तीर्थ का सम्बन्धित धर्म के मतावलम्बियों के साथ अटूट सम्बन्ध होता है. जैन धर्म में अनेक तीर्थ स्थान हैं. इनमें से कुछ किसी समय अति प्रसिद्ध थे तथा कुछ कालान्तर में प्रसिद्ध हुए. कुछ स्थानों का अभूतपूर्व विकास हुआ है तथा यहाँ अनेक जिनालयों सहित विविध धार्मिक एवं शैक्षणिक प्रवृत्तियों का शुभारम्भ हुआ है तो कुछ किन्हीं कारणों से लुप्त जैसे या खंडहरों में बदल गए. चरण-पादका, आयाग-पटट, स्तुप पूजा, मूर्ति पूजा आदि का संबंध इन तीर्थों के साथ जुड़ा हआ है. इन तीर्थों में हमारी परम्परा के स्रोत तथा मूल दृष्टिगत होते हैं. जैन समाज की विगत शताब्दियों में धार्मिक भक्ति की पराकाष्ठा एवं कला प्रेम का उत्थान तथा विकास भी इन तीर्थों द्वारा जाना ज स्तम्भ के अन्तर्गत हम वाचकों को क्रमशः यथासम्भव इनका परिचय प्रस्तुत करेंगे जिससे वे इन तीर्थों की यात्रा कर सद्धर्म की प्राप्ति कर सकेंगे. -सं.
उत्तर गुजरात में भोयणी तथा शंखेश्वर के बीच अवस्थित रांतेज तीर्थ एक अत्यन्त सुन्दर तीर्थ है जो प्राचीन काल में रत्नावली नगरी के नाम से विख्यात था. इसकी उत्पत्ति के बारे में कहा जाता है कि धनपुर (कटोसण) गाँव का एक व्यापारी व्यापार के सिलसिले में यदा-कदा रांतेज गाँव में आता था तथा कभी-कभी किसी के घर पर रात्रि विश्राम कर लेता था.
एक रात उसने स्वप्न में देखा कि उससे कोई कह रहा है कि इस गाँव में सन्यासी के मठ के नीचे एक भव्य जिनमन्दिर है उसकी खुदाई करवाओ. सुबह जागने पर श्रावक ने इस बात को स्वप्न सम दिया. परन्तु एक दो बार नहीं बल्कि कई बार उसे ऐसा ही स्वप्न दिखलाई पड़ा. एक रात अधिष्ठायक देव ने स्वप्न में उससे पूछा कि तुम खुदाई क्यों नहीं करवाते हो? श्रावक ने कहा कि मैं तो स्वप्न समझकर इस बात को टाल दिया करता था. अधिष्ठायक देव ने कहा कि तुम अपने गाँव के श्रीसंघ के समक्ष यह बात रखो. श्रावक ने गाँव वापस आकर श्रीसंघ के समक्ष स्वप्न की सारी बात बतलाई तथा श्री संघ को लेकर वापस रांतेज गाँव में सन्यासी के मठ पर पहुँचा, सन्यासी को किसी तरह इस बात पर राजी कर लिया गया कि अगर इस जगह से कोई जिनालय बाहर निकलेगा तो सन्यासी का मठ यहाँ से थोड़ी दूर पर बनवा दिया जाएगा और अगर कुछ भी नहीं निकला तो वापस इसी जगह उनका मठ ज्यों का त्यों पुनः कर दिया जाएगा.
खुदाई आरम्भ की गई. थोड़ी खुदाई के बाद बावन जिनालय से युक्त देरासर निकला, परन्तु देरासर में एक भी मूर्ति नहीं देखकर उस श्रावक को बहुत दुःख हुआ और उसने महामङ्गलकारी अट्ठमतप की आराधना आरम्भ की. आराधना के तीसरे दिन रात में अधिष्ठायक देव ने दर्शन देकर कहा कि गाँव के पूर्व दिशा में स्थित रबारीवास में खुदाई कराओ तो मूर्तियाँ निकलेंगी. दूसरे ही दिन रबारीवास में खुदाई का काम आरम्भ करवाया गया जिसमें १८ प्रतिमाएँ निकलीं. इनमें से मुलनायक नेमिनाथ भगवान तथा अन्य जिन प्रतिमाएँ भूतल कक्ष में स्थापित की गई हैं. मूलनायक की प्रतिमा अत्यन्त अलौकिक तथा प्रभावशाली है. भूतल कक्ष से बाहर निकलते ही दाहिनी ओर श्री पद्मावती देवी की प्रतिमा है. इसके ऊपर प्राचीन लिपि में कोई लेख अंकित है. अन्य स्थलों पर भी बहुत से लेख खुदे हुए हैं. इन लेखों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि इस तीर्थ के जीर्णोद्धार वि. सं. ११००, १३००, १६००, १८७४ तथा १८८५ में हुए थे. वर्तमान मन्दिर की प्रतिष्ठा वि.सं. १८९३ में माघ शुक्ल त्रयोदशी को हुई थी तथा इसी दिन से प्रतिवर्ष आज तक नियमित वर्षगाँठ मनाई जाती है.
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श्रुतसागर, भाद्रपद २०५४
१२ भूतलकक्ष के ३४ नम्बर की देहरी में खुदाई करने पर बहुत सी खण्डित मूर्तियाँ निकली थी जिन्हें संरक्षित किया गया है. भूतल कक्ष में एक साथ ५० व्यक्तियों के खड़े होने का स्थान है. कर्णपरम्परानुसार यहाँ स्थित भूतलमार्ग रांतेज से मोढेरा होते हुए पाटण तक जाता है. अनुमानतः यह मार्ग राजा कुमारपाल के समय का होना चाहिए. पाटण से प्रतिदिन श्रावक समुदाय पूजा करने के लिए यहाँ आते थे. बावन जिनालय के प्रत्येक देहरी में परिकर था. इन परिकरों के ऊपर वि.सं. ११०० से १३०० के लेख भी पाए गए हैं. भूतल कक्ष के देहरी संख्या ४९ में श्री सरस्वती देवी की भव्य प्रतिमा है जो अत्यन्त प्राचीन है. देहरियाँ जहाँ समाप्त होती है वहाँ श्रावकों की चार प्रतिमाएँ हैं जिन पर वि.सं. १३०८ के लेख एवं लक्ष्मण सिंह संग्राम सिंह, रत्नादेवी आदि नाम अंकित हैं. देरासर के अन्दर प्रविष्ट होते ही गर्भगृह में श्री महावीर प्रभु की भव्य प्रतिमा है.
रांतेज तीर्थ के चमत्कार :
१. एक रात एक चोर मूल गर्भगृह का ताला तोड़कर भगवान का मुकुट आभूषण आदि लेकर चल बना. जैसे ही गाँव की सीमा पर पहुँचा, उसकी आँखों की रोशनी चली गई. चारों ओर अंधेरा छा गया, चोर घबरा गया, उसे लगा कि यह चोरी का ही परिणाम है. उसने संकल्प किया कि यदि मेरी आँखों की रोशनी वापस आ जाएगी तो आज के बाद चोरी नहीं करूँगा तथा अब तक जो चोरी की है, उसके प्रायश्चित के रूप में भगवान के प्रक्षाल हेतु एक गाय अर्पित करूँगा. ऐसा संकल्प करते ही उसकी आँखों की रोशनी वापस आ गई. वह अत्यन्त आश्चर्यचकित व भगवान के प्रति श्रद्धावान हो गया. उसने तुरन्त सारे आभूषण मन्दिर में यथास्थान रख दिए व वापस घर आ गया. दूसरे दिन एक गाय लेकर पुजारी के पास गया, उससे सारी बात कही तथा समस्त श्रीसंघ को बुलाकर गाय अर्पित कर दी.
२. यहाँ प्रायः एक सुन्दर नागराज प्रगट होते हैं जो किसी को भी उँसते नहीं हैं. ऐसा कहा जाता है कि अधिष्ठायक देव नाग के रूप में इस तीर्थ की रक्षा करते हैं.
३. इस तीर्थक्षेत्र में आज तक किसी की मृत्यु नहीं हुई. एक बार उपाश्रय में व्याख्यान चल रहा था. उसी समय लगभग चार साल का एक बच्चा ऊपर से गिर गया. पन्द्रह फुट की ऊँचाई से गिरने पर भी वह बिल्कुल भला चंगा था.
इस प्रकार के अनेक चमत्कार इस तीर्थक्षेत्र में प्रायः होते रहते हैं. यहाँ की प्राकृतिक सुषमा, शान्त तथा स्वच्छ वातावरण यात्रियों के मन में श्रद्धा और भक्ति का पवित्र भाव प्रगट करता है. रांतेज तीर्थ में पंन्यास प्रवर श्री अरुणोदयसागरजी म.सा. की प्रेरणा से पुनरुद्धार कार्य:
हो कि इस तीर्थ का पुनरुद्धार कार्य प.प. राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसरीश्वरजी म.सा. के शिष्य ज्योतिर्विद पंन्यास प्रवर श्री अरुणोदयसागरजी गणि की प्रेरणा से प्रारम्भ हुआ है. पृष्ठ १६ का शेष]
अनेकान्तवाद की दृष्टि से पूज्य गुरुदेव के कार्य अनेकान्तवाद के सही स्वरूप को भारतवर्ष में ही नहीं विदेशों में भी प्रस्तुत करने के उद्देश्य से आचार्यश्री ने कोबा में श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र एवं आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर जैसी पावन संस्थाओं की मात्र परिकल्पना ही नहीं की, अपितु अपने अथक प्रयासों से इसे जीवन्त बनाया है- आर्य संस्कृति की धरोहर को अक्षुण्ण बनाये रखने में अपना असीम योगदान दिया है, दे रहे हैं तथा भविक जीवों को इसमें योगदान करने को प्रेरित कर रहे हैं.
जैन समाज एवं पूरे विश्व के लिये गांधीनगर स्थित कोबा की यह पावन भूमि एक स्थावर तीर्थ और स्वयं आचार्यश्री एक जंगम तीर्थ के समान हैं. अनेकान्तवाद के इस तीर्थधाम को हमारा सादर वन्दन..
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श्रुतसागर, भाद्रपद २०५४
ग्रंथावलोकन
सचित्र जैन कथा सागर (भाग १ व २) पूज्य पाद गच्छाधिपति आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. द्वारा संस्कृत भाषा में विभिन्न कथा ग्रंथों से संगृहीत १०१ कथाओं के संग्रहरूम श्री कथा सागर ग्रंथ का अनुवाद गुजराती भाषा में श्री मफतलालभाई गांधी द्वारा किया गया था. इस ग्रंथ का गुजराती भाषियों ने भली-भाँति रसास्वादन किया और ऐसा प्रतीत होने लगा कि बहुत से हिन्दी भाषियों को इस ग्रंथ में अन्तर्निहित जीवन में सदुपयोगी धर्मसंदेश का लाभ प्राप्त हो. इसके लिए प.पू. पंन्यास श्री अरुणोदयसागरजी म.सा. की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन से प्रस्तुत हिन्दी अनवाद श्री नैनमलजी सराणा द्वारा किया गया है और इसे दो भागों में जैन कथा सागर नाम से प्रकाशित किया गया है. इस ग्रंथ का संपादन पू. साध्वीश्री शुभ्रांजनाश्रीजी म.सा. ने किया है.
जैन कथा सागर के प्रथम भाग में २२ कथाएँ एवं द्वितीय भाग में २३ से ४०वीं कथा तक का अनुवाद प्रस्तुत किया गया है. शेष कथाओं का प्रकाशन बाकी है. ये कथाएँ श्राद्धविधि, श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र, श्राद्धगुणविवरण, शीलोपदेशमाला, उपदेशमाला, धर्मकल्पद्रुम, त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्र, प्रस्तावशतक, कथारत्नाकर, परिशिष्ट पर्व आदि ग्रंथों से निस्सृत है. इन कथाओं में छोटी एवं बड़ी दोनों प्रकार की कथाएँ सम्मिलित हैं. जिनका उद्देश्य मानव जीवन के दुर्गुणों का नाश करके सदगुणों का पोषण, संवर्धन, संप्रसारण करना है. त्याग, विनय, विवेक, वैराग्य, सत्य, अहिंसा, आदि का उदय होकर जीव धर्माभिमुख एवं आत्माभिमुख हो यही भावना इनके कर्ताओं की रही हैं. इन कथाओं में अन्य कथाओं के साथ. ही अवन्तीसुकुमाल का वृत्तान्त, मेघकुमार का कथानक, महात्मा चिलाती पुत्र, झांझरिया मुनि, कपिल केवली की कथा, यशोधर चरित्र, गजसुकुमाल मुनि, चक्रवर्ती भरत, आर्द्रकुमार का वृत्तान्त आदि कथाएँ वाचक के मन को स्पर्श करने में अत्यन्त सफल है. ये जीवन के विविध पक्षों को स्पर्श करती हैं. इन कथाओं का अनुशीलन, रसास्वादन जीव को प्रबल आत्मिक बल देता है.
इस कथा सागर में सरल एवं सुबोध हिन्दी भाषा में भाववाही, हृदयस्पर्शी वर्णन प्रस्तुत किया गया है. यत्र-तत्र रेखाचित्रों से कथावस्तु को समझाने का प्रशंसनीय प्रयास किया गया है. पुस्तक के प्रारम्भ में युवा विद्वान डॉ. जितेन्द्र बी. शाह ने विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना लिखकर पुस्तक की शोभा में चार चाँद लगा दिए हैं. ईस्वी सन् १९५३ में पं. श्री शिवान्दविजयजी ने गुजराती ग्रंथ के हिन्दी अनुवाद की माँग जैन कथा सागर के तीसरे भाग की प्रस्तावना में अभिव्यक्त की थी उसे पूरा करने में गणिवर्य श्री अरुणोदयसागरजी की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है. एतदर्थ आपश्री तथा संलग्न महानुभावों का वाचक वर्ग ऋणी रहेगा. साथ ही इन दो भागों को पढ़ते ही शेष कथाओं को भी पढ़ने की सहज उत्सुकता होगी. जिसके विषय में आशा रखी जा सकती है कि शीघ्र ही शेष कथाएँ भी प्रकाशित हो जाएँगी. इस अनुवाद कार्य से निस्संदेह समाज को एक नई दिशा मिली है. इससे प्रेरणा प्राप्त कर अनेक ऐसे प्रकाशन संभव किए जा सकते हैं जो अभी मात्र गुजराती भाषा में ही उपलब्ध हैं किन्तु बहुसंख्य वर्ग इनसे अछूता रहा है. (सचित्र) जैन कथा सागर , भाग १ व २, संग्राहकः आचार्य श्री कैलाससागरसूरि म.सा. प्रेरक व मार्गदर्शक: गणिवर्य श्री अरुणोदयसागरजी म.सा. संपादिकाः साध्वी श्री शुभ्रांजनाश्रीजी म.सा., अनुवादकः श्री नैनमल सुराणा आवृत्तिः प्रथम, वर्षः १९९८ मूल्यः ४०/= प्रति भाग, प्रकाशकः अरुणोदय फाऊण्डेशन, कोबा.
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श्रुतसागर, भाद्रपद २०५४
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कर्म का अस्तित्व (चंद्रहास त्रिवेदी कृत "कर्मवादना रहस्यो" का अंश)
अनुः दिव्यकान्त परीख
विश्व के लगभग सभी धर्मों ने कर्म की महत्ता स्वीकार की है. संसार में व्यक्ति व्यक्ति के बीच में जो असमानता दिखाई दे रही है उसे किस तरह उचित ठहराना यह एक महाप्रश्न है. पूर्वकर्म के अस्तित्व को स्वीकारे बिना संसार में प्रवर्त्तमान असमानता को समझना लगभग अशक्य है, असंभव है. अतः संसार में सर्व धर्मों ने एक या दूसरे प्रकार से कर्म के प्रभुत्व का स्वीकार किया है. इस असमानता के कारणों की खोज करते-करते सभी को कर्म या पूर्व कर्म का आधार लेना पड़ा.
कोई बालक धनवान के यहाँ जन्म लेता है और जन्म के साथ ही करोड़ों की संपत्ति का मालिक बन जाता है. जब कि दुसरा बालक गंदी-अंधेरी कुटिया में जन्म लेता है जिसके लिये साधारण अन्न या वस्त्र प्राप्त करना भी मुश्किल होता है. कोई जन्म के साथ ही अपंग होता है तो कोई किसी भी तरह गिरने पटकाने के बावजूद भी स्वस्थ होता है, किसी को पढ़ने के लिये पाठशाला जाना भी कठिन होता है, किसी को जीवन में आगे बढ़ने के अवसर सहज मे प्राप्त होते हैं, कोई इन्सान कैसी भी प्रतिकूल परिस्थितियों में से रास्ता निकालकर आगे बढ़ते हैं तो दूसरी ओर कईं लोग प्राप्त हुए भाग्य अवसरों को खोकर अंत में रास्ते के भिखारी बन जाते हैं. कोई रूप में सुन्दर-मनोहर होता है तो कोई कुरूप होता है. कभी सामान्य रूप वाले को स्वरूपवान पत्नी प्राप्त होती है तो दूसरी ओर स्वरूपवान को किसी सामान्य मनुष्य की पत्नी बन कर संसार चलाना पड़ता है. किसी को सुशील स्वभाव की पत्नी होती है तो किसी मनुष्य को कर्कश स्वभाव वाली पत्नी मिलती है. किसी के कर्कश वचनों पर अमल करने के लिये सभी तत्पर रहते हैं तो किसी की नम्रतापूर्वक विनती पर भी कोई अमल नहीं करता है. जन्मजात असमानता रंग, रूप, संपत्ति, बुद्धि, संयोग, स्वभाव व व्यक्तित्व आदि के लिये किसे जिम्मेदार कहेंगे?
यदि भगवान ही हमें जन्म देता है तो व्यक्ति-व्यक्ति के बीच ऐसा अंतर क्यों रखता है. यदि भगवान ही इस तरह प्रिय-अप्रिय करते हों तो फिर मनुष्य कहाँ जाकर न्याय की याचना करें? इस तरह के भेद रखने वाले को क्या भगवान कहा जा सकता है? संसार में दो प्रकार से असमानता देखी जा सकती है. एक है जन्मजात असमानता, निर्दोष जन्म लेनेवाले शिशुओं के बीच संयोग, शरीर रचना, भाग्य इत्यादि की भिन्नता पाई जाती है, इसके लिये पूर्व कर्म के अलावा किसी को भी जिम्मेदार नहीं माना जा सकता. दूसरे प्रकार की असमानता भी संसार में प्रवर्तमान है. एक ही प्रकार के पुरुषार्थ में एक सफल हो पाता है जबकि दूसरा विफल रहता है. एक को बहुत सी प्रतिष्ठा सहज में प्राप्त हो जाती है तो दूसरा काबिल होते हए भी सभी से अनजान रहता है. एक आदमी के वचनों पर कार्य करने के लिये हर कोई तैयार रहता है जब कि दूसरे आदमी की विनती पर भी कोई प्रतिभाव नहीं देता. किसी को अनेक सुख-सुविधा होते हुए भी अशांति रहती है तो कोई रूखी-सूखी रोटी खाकर, नदी का पानी पीकर, वृक्ष के नीचे आराम से सो सकता है. किसी को ऊँची छत से गिरने से भी कुछ हानि नहीं होती है तो किसी को सामान्य ठोकर लगने से हड्डियाँ टूटने पर अस्पताल में रहना पड़ता है. किसी की स्मरण शक्ति इतनी तेज होती है कि एक बार पढ़ लेने से उसे याद रह जाता है तो कोई रात-दिन पठन करने पर भी थोड़ा ही याद रख सकता है. किसी के पास सुख संपत्ति की बेशमार मात्रा होती है कि उसका उपयोग नहीं हो पाता तो किसी के पास उपयोग करने की शक्ति होने
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१५.
श्रुतसागर, भाद्रपद २०५४ पर भी संपत्ति का अभाव रहता है. कभी-कभी भुगतने वाला खुद मालिक भी होता नहीं है तो कभी मालिक होने पर भी भुगत नहीं सकता. इन सभी विषमताओं के मूल में भी कर्म ही छुपे होते है. विषमता एवं भिन्नता से भरे हुए संसार को, कर्म को माने बिना समझना संभव नहीं है. जिस तरह रोग की जानकारी के बिना इसका उपचार नहीं हो सकता वैसे ही कर्म को समझे बिना इसके चंगुल से छुटा नहीं जा सकता. कर्म को हटाये बिना इष्ट की प्राप्ति नहीं हो सकती... सांसारिक सामग्री एवं सफलता पाने के लिये भी कर्म को समझकर इसकी यथायोग्य व्यवस्था करनी आवश्यक है. कर्म कोई श्रद्धा का विषय नहीं, कर्म तो विज्ञान है. यह सदा तर्कबद्ध है. जिस तरह विज्ञान के अपने सिद्धांत हैं वैसे ही कर्म के अपने सिद्धांत हैं और उसके अनुरूप कर्म कार्यशील रहता है. कर्म के सिद्धांत में कहीं भी अपवाद का स्थान नहीं है. कर्म को श्रद्धा का विषय मानकर एक ओर नहीं रख सकते और यदि वैसा किया तो अंत में हमें ही सहन करना पड़ेगा.
हाल में जेनेटिक एन्जिनीयरींग नामक विज्ञान की शाखा ने जन्मजात भिन्नता के विषय में काफी संशोधन किया है और उसने जो निष्कर्ष दिये हैं वे कर्म के सिद्धांत को ज्यादा समर्थन करने वाले हैं. जेनेटिक विज्ञान इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि व्यक्ति-व्यक्ति के बीच की भिन्नता का आधार जिन के ऊपर है. यह हमारे शरीर के रचना का अंतिम तत्त्व (घटक) है. विज्ञान उसे मूल घटक मानता है. इस जिन में संसार का सूत्र होते हैं. जिसके आधार पर व्यक्ति-व्यक्ति के बीच में भिन्नता रहती है. मनुष्य का रूप, स्वभाव (प्रकृति), बुद्धि, भावि रोग, शरीर रचना जैसी बहुत-सी बातों का आधार इन संस्कार सूत्रों पर निर्भर है. जिन का निर्माण माता-पिता के बीज से होता है और प्रत्येक जिन के अंदर कम्प्यूटर की तरह सूक्ष्म संस्कार आदेश होते हैं. जिसे क्रोमोसोम कहते है. इस तरह जेनेटिक विज्ञान कर्म के सिद्धांत के बहुत निकट आ पहुँचा है. आगे का सवाल है कि प्रत्येक जिन में- उसके गुण सूत्रों में- संस्कार सूत्रों में भिन्नता क्यो? इस भिन्नता के लिये यदि माँ-बाप का बीज कारणभूत है तो एक ही माता-पिता के दो संतानों में भिन्नता क्यो पाई जाती है? कभी-कभी तो एक ही माँ-बाप की संतानो के बीच में गुण-दोष में, रूप में, जमीन-आसमान का अंतर पाया जाता है. इस अंतर का जितना महत्त्व है इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि एक संतान को जेनेटिक के वारसे में (हेरिटेज) सब कुछ अच्छा प्राप्त होता है, दूसरे को खराब प्राप्त होता है व तीसरे को मिश्र रूप संस्कार प्राप्त होता है. फलस्वरूप प्रत्येक संतान को संसार में जो सहन करना पड़ेगा या लाभ प्राप्त होगा उसमें भी भिन्नता रहेगी. इस भिन्नता के लिये कौन जिम्मेदार?
जेनेटिक विज्ञान के पास उसका एकमात्र उत्तर है "कोइन्सीडेन्स" (आकस्मिकता). इस भिन्नता को आकस्मिक बताने के सिवाय उनके पास और कोई चारा नहीं है. इस आकस्मिक बात में कोई संतान अधिक लाभ प्राप्त कर गया तो दूसरे को अधिक सहन करना पड़ा उसका क्या? फिर न्याय कहाँ रहा? कार्य-कारण का नियम यहाँ पर निरर्थक हो गया क्या? कर्म विज्ञान के पास इस भिन्नता के करण है. कुछ भी आकस्मिक नहीं है. कर्म जिन के भी पूर्व में जाता है और किसी एक संतान के ऊपर इस प्रकार के ही जिन का प्रभाव क्यों पाया गया. वह बतलाता है कि जिन तत्त्व के पीछे पूर्व जन्म के संस्कार जुड़े होते है इसलिये एक ही माता-पिता के से पैदा हुए संतान में भी भिन्नता और तरतमता रहती हैं. इस तरह कर्म विज्ञान जेनेटिक विज्ञान से आगे है. इतना ही नहीं बल्कि जब हम उसका अभ्यास करते हैं तो अवश्य लगता है कि कर्मविज्ञान सचमुच बहुत आगे है. विज्ञान की सभी शाखाओं में कर्म विज्ञान सबसे महत्व की शाखा है.... जिन कर्मों के ऊपर हमारी प्रगति-पतन, मुक्ति-बंधन, सुख-दुख, शांति-अशांति का आधार है, उन्हें समझे बिना हमें सुख समृद्धि का रास्ता नहीं मिल सकता. यदि जीवन में कुछ प्राप्त करना हो तो मनुष्य जीवन को सार्थक करना होगा और कर्म सिद्धांत को समझ कर ही आगे चलना पड़ेगा..
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर, भाद्रपद 2054 अनेकान्तवाद की दृष्टि से पूज्य गुरुदेव के कार्य सुश्री विनीता मुकेश जैन चरम तीर्थंकर भगवान महावीर के द्वारा बताये गये पांच महाव्रतों- अहिंसा, अमृषावाद, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की महत्ता एवं उपयुक्तता पर किंचित् मात्र भी संदेह करने का साहस सिर्फ अज्ञानी एवं मिथ्यात्वी मानव ही कर सकता है. यूं देखा जाये तो प्रत्येक महाव्रत अपने आप में अन्य सभी का भी समावेश कर लेता है किन्तु सामान्य आत्माओं के सहज उर्ध्वगमन में सहायक रूप में इन्हें पृथक-पृथक रूप से समझना एवं अपनाना अधिक उपयोगी बनता है. इसी संदर्भ में वर्तमान युग की प्रासंगिकता के परिप्रेक्ष्य में यदि इन पांचों महाव्रतों को देखा जाये तो प्रत्येक समस्या के समाधान रूप में 'अनेकान्तवाद' को सर्वोच्च प्राथमिकता देना अतिशयोक्ति नहीं होगा. 'अनेकान्तवाद' शब्द ही विशालता एवं व्यापकता की अनुभूति कराता है. और जिसे इस सिद्धान्त की जैन दर्शन में बताई भावप्रधान व्याख्या को आत्मसात् करना है, व्यवहार एवं निश्चय दोनों में चरितार्थ करना है. उसे अनेकान्तवाद को समझने के लिए सुगुरू का सानिध्य पाना अपरिहार्य ही नहीं, अत्यंत ही अनिवार्य है. भारत देश की आर्य भूमि में आज भी श्रमण संस्कृति फल फूल रही है तथा यह अनेकानेक आत्माओ को मोक्षगामी बनाने में सहायक है. श्रमण संस्कृति का एक आधारस्तम्भ साधु है जिसे हम आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि के रूप में जानते हैं. हमारा यह सौभाग्य है कि वर्तमान दुषम काल में भी हमारे देश को एक ऐसे ही सुगुरू का सांनिध्य मिला है जिन्हें हम राष्ट्रसन्त, युगदृष्टा, प्रखर प्रवचनकार, आचार्य देवेश श्रीमत पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब के नाम से जानते हैं. आचार्यश्री के बहुआयामी व्यक्तित्व में अनेकान्तवाद एक सामान्य रत्न ही नहीं बल्कि एक देदीप्यमान रत्नमाला बनकर जैन शासन को ही नहीं वरन प्रत्येक मुमुक्षु आत्मा को आलोकित कर रही है, ताकि वह आत्मा मोक्ष मार्ग की अपनी यात्रा सहजता एवं सरलता से कर सके. आचार्य श्री ने अपने संयम जीवन की 75,000 किलो मीटर से भी अधिक भारत एवं नेपाल की पद यात्राओं में अपने प्रवचनों के द्वारा जागृत आत्माओं के साथ-साथ सुप्तप्राय आत्माओं को भी इस 'अनेकान्तवाद' का अमृतपान कराया है. अरिहंत परमात्मा की असीम करुणा का स्रोत मानों आचार्यश्री के प्रवचनों में अविरत बहता ही रहता है. आपके प्रवचनों में विविध दृष्टान्तों का समायोजन बस एक ही उद्देश्य के लिए होता है- येन केन प्रकारेण अनेकान्तवाद के सहारे प्रत्येक आत्मा उर्ध्वगामी बनें; उसका अधोपतन रुके. आचार्यश्री की इस मंगल कामना के लिए प्रत्येक जन का उनके प्रति अनुगृहित होना स्वाभाविक ही है. [शेष पृष्ठ 12 पर Book Post/Printed Matter सेवा में - प्रेषक: संपादक, श्रुत सागर आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर 382 009 (INDIA) प्रकाशक : सचिव, श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा, गांधीनगर - 382 009 For Private and Personal Use Only