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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर, भाद्रपद २०५४ __ ११ हमारे जैन तीर्थ - १ रांतेज तीर्थ पं. रामप्रकाश झा हरेक धर्म में उससे जुड़े तीर्थ स्थान होते हैं और उस तीर्थ का सम्बन्धित धर्म के मतावलम्बियों के साथ अटूट सम्बन्ध होता है. जैन धर्म में अनेक तीर्थ स्थान हैं. इनमें से कुछ किसी समय अति प्रसिद्ध थे तथा कुछ कालान्तर में प्रसिद्ध हुए. कुछ स्थानों का अभूतपूर्व विकास हुआ है तथा यहाँ अनेक जिनालयों सहित विविध धार्मिक एवं शैक्षणिक प्रवृत्तियों का शुभारम्भ हुआ है तो कुछ किन्हीं कारणों से लुप्त जैसे या खंडहरों में बदल गए. चरण-पादका, आयाग-पटट, स्तुप पूजा, मूर्ति पूजा आदि का संबंध इन तीर्थों के साथ जुड़ा हआ है. इन तीर्थों में हमारी परम्परा के स्रोत तथा मूल दृष्टिगत होते हैं. जैन समाज की विगत शताब्दियों में धार्मिक भक्ति की पराकाष्ठा एवं कला प्रेम का उत्थान तथा विकास भी इन तीर्थों द्वारा जाना ज स्तम्भ के अन्तर्गत हम वाचकों को क्रमशः यथासम्भव इनका परिचय प्रस्तुत करेंगे जिससे वे इन तीर्थों की यात्रा कर सद्धर्म की प्राप्ति कर सकेंगे. -सं. उत्तर गुजरात में भोयणी तथा शंखेश्वर के बीच अवस्थित रांतेज तीर्थ एक अत्यन्त सुन्दर तीर्थ है जो प्राचीन काल में रत्नावली नगरी के नाम से विख्यात था. इसकी उत्पत्ति के बारे में कहा जाता है कि धनपुर (कटोसण) गाँव का एक व्यापारी व्यापार के सिलसिले में यदा-कदा रांतेज गाँव में आता था तथा कभी-कभी किसी के घर पर रात्रि विश्राम कर लेता था. एक रात उसने स्वप्न में देखा कि उससे कोई कह रहा है कि इस गाँव में सन्यासी के मठ के नीचे एक भव्य जिनमन्दिर है उसकी खुदाई करवाओ. सुबह जागने पर श्रावक ने इस बात को स्वप्न सम दिया. परन्तु एक दो बार नहीं बल्कि कई बार उसे ऐसा ही स्वप्न दिखलाई पड़ा. एक रात अधिष्ठायक देव ने स्वप्न में उससे पूछा कि तुम खुदाई क्यों नहीं करवाते हो? श्रावक ने कहा कि मैं तो स्वप्न समझकर इस बात को टाल दिया करता था. अधिष्ठायक देव ने कहा कि तुम अपने गाँव के श्रीसंघ के समक्ष यह बात रखो. श्रावक ने गाँव वापस आकर श्रीसंघ के समक्ष स्वप्न की सारी बात बतलाई तथा श्री संघ को लेकर वापस रांतेज गाँव में सन्यासी के मठ पर पहुँचा, सन्यासी को किसी तरह इस बात पर राजी कर लिया गया कि अगर इस जगह से कोई जिनालय बाहर निकलेगा तो सन्यासी का मठ यहाँ से थोड़ी दूर पर बनवा दिया जाएगा और अगर कुछ भी नहीं निकला तो वापस इसी जगह उनका मठ ज्यों का त्यों पुनः कर दिया जाएगा. खुदाई आरम्भ की गई. थोड़ी खुदाई के बाद बावन जिनालय से युक्त देरासर निकला, परन्तु देरासर में एक भी मूर्ति नहीं देखकर उस श्रावक को बहुत दुःख हुआ और उसने महामङ्गलकारी अट्ठमतप की आराधना आरम्भ की. आराधना के तीसरे दिन रात में अधिष्ठायक देव ने दर्शन देकर कहा कि गाँव के पूर्व दिशा में स्थित रबारीवास में खुदाई कराओ तो मूर्तियाँ निकलेंगी. दूसरे ही दिन रबारीवास में खुदाई का काम आरम्भ करवाया गया जिसमें १८ प्रतिमाएँ निकलीं. इनमें से मुलनायक नेमिनाथ भगवान तथा अन्य जिन प्रतिमाएँ भूतल कक्ष में स्थापित की गई हैं. मूलनायक की प्रतिमा अत्यन्त अलौकिक तथा प्रभावशाली है. भूतल कक्ष से बाहर निकलते ही दाहिनी ओर श्री पद्मावती देवी की प्रतिमा है. इसके ऊपर प्राचीन लिपि में कोई लेख अंकित है. अन्य स्थलों पर भी बहुत से लेख खुदे हुए हैं. इन लेखों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि इस तीर्थ के जीर्णोद्धार वि. सं. ११००, १३००, १६००, १८७४ तथा १८८५ में हुए थे. वर्तमान मन्दिर की प्रतिष्ठा वि.सं. १८९३ में माघ शुक्ल त्रयोदशी को हुई थी तथा इसी दिन से प्रतिवर्ष आज तक नियमित वर्षगाँठ मनाई जाती है. For Private and Personal Use Only
SR No.525257
Book TitleShrutsagar Ank 1998 09 007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanubhai Shah, Balaji Ganorkar
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year1998
Total Pages16
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size1 MB
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