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१५.
श्रुतसागर, भाद्रपद २०५४ पर भी संपत्ति का अभाव रहता है. कभी-कभी भुगतने वाला खुद मालिक भी होता नहीं है तो कभी मालिक होने पर भी भुगत नहीं सकता. इन सभी विषमताओं के मूल में भी कर्म ही छुपे होते है. विषमता एवं भिन्नता से भरे हुए संसार को, कर्म को माने बिना समझना संभव नहीं है. जिस तरह रोग की जानकारी के बिना इसका उपचार नहीं हो सकता वैसे ही कर्म को समझे बिना इसके चंगुल से छुटा नहीं जा सकता. कर्म को हटाये बिना इष्ट की प्राप्ति नहीं हो सकती... सांसारिक सामग्री एवं सफलता पाने के लिये भी कर्म को समझकर इसकी यथायोग्य व्यवस्था करनी आवश्यक है. कर्म कोई श्रद्धा का विषय नहीं, कर्म तो विज्ञान है. यह सदा तर्कबद्ध है. जिस तरह विज्ञान के अपने सिद्धांत हैं वैसे ही कर्म के अपने सिद्धांत हैं और उसके अनुरूप कर्म कार्यशील रहता है. कर्म के सिद्धांत में कहीं भी अपवाद का स्थान नहीं है. कर्म को श्रद्धा का विषय मानकर एक ओर नहीं रख सकते और यदि वैसा किया तो अंत में हमें ही सहन करना पड़ेगा.
हाल में जेनेटिक एन्जिनीयरींग नामक विज्ञान की शाखा ने जन्मजात भिन्नता के विषय में काफी संशोधन किया है और उसने जो निष्कर्ष दिये हैं वे कर्म के सिद्धांत को ज्यादा समर्थन करने वाले हैं. जेनेटिक विज्ञान इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि व्यक्ति-व्यक्ति के बीच की भिन्नता का आधार जिन के ऊपर है. यह हमारे शरीर के रचना का अंतिम तत्त्व (घटक) है. विज्ञान उसे मूल घटक मानता है. इस जिन में संसार का सूत्र होते हैं. जिसके आधार पर व्यक्ति-व्यक्ति के बीच में भिन्नता रहती है. मनुष्य का रूप, स्वभाव (प्रकृति), बुद्धि, भावि रोग, शरीर रचना जैसी बहुत-सी बातों का आधार इन संस्कार सूत्रों पर निर्भर है. जिन का निर्माण माता-पिता के बीज से होता है और प्रत्येक जिन के अंदर कम्प्यूटर की तरह सूक्ष्म संस्कार आदेश होते हैं. जिसे क्रोमोसोम कहते है. इस तरह जेनेटिक विज्ञान कर्म के सिद्धांत के बहुत निकट आ पहुँचा है. आगे का सवाल है कि प्रत्येक जिन में- उसके गुण सूत्रों में- संस्कार सूत्रों में भिन्नता क्यो? इस भिन्नता के लिये यदि माँ-बाप का बीज कारणभूत है तो एक ही माता-पिता के दो संतानों में भिन्नता क्यो पाई जाती है? कभी-कभी तो एक ही माँ-बाप की संतानो के बीच में गुण-दोष में, रूप में, जमीन-आसमान का अंतर पाया जाता है. इस अंतर का जितना महत्त्व है इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि एक संतान को जेनेटिक के वारसे में (हेरिटेज) सब कुछ अच्छा प्राप्त होता है, दूसरे को खराब प्राप्त होता है व तीसरे को मिश्र रूप संस्कार प्राप्त होता है. फलस्वरूप प्रत्येक संतान को संसार में जो सहन करना पड़ेगा या लाभ प्राप्त होगा उसमें भी भिन्नता रहेगी. इस भिन्नता के लिये कौन जिम्मेदार?
जेनेटिक विज्ञान के पास उसका एकमात्र उत्तर है "कोइन्सीडेन्स" (आकस्मिकता). इस भिन्नता को आकस्मिक बताने के सिवाय उनके पास और कोई चारा नहीं है. इस आकस्मिक बात में कोई संतान अधिक लाभ प्राप्त कर गया तो दूसरे को अधिक सहन करना पड़ा उसका क्या? फिर न्याय कहाँ रहा? कार्य-कारण का नियम यहाँ पर निरर्थक हो गया क्या? कर्म विज्ञान के पास इस भिन्नता के करण है. कुछ भी आकस्मिक नहीं है. कर्म जिन के भी पूर्व में जाता है और किसी एक संतान के ऊपर इस प्रकार के ही जिन का प्रभाव क्यों पाया गया. वह बतलाता है कि जिन तत्त्व के पीछे पूर्व जन्म के संस्कार जुड़े होते है इसलिये एक ही माता-पिता के से पैदा हुए संतान में भी भिन्नता और तरतमता रहती हैं. इस तरह कर्म विज्ञान जेनेटिक विज्ञान से आगे है. इतना ही नहीं बल्कि जब हम उसका अभ्यास करते हैं तो अवश्य लगता है कि कर्मविज्ञान सचमुच बहुत आगे है. विज्ञान की सभी शाखाओं में कर्म विज्ञान सबसे महत्व की शाखा है.... जिन कर्मों के ऊपर हमारी प्रगति-पतन, मुक्ति-बंधन, सुख-दुख, शांति-अशांति का आधार है, उन्हें समझे बिना हमें सुख समृद्धि का रास्ता नहीं मिल सकता. यदि जीवन में कुछ प्राप्त करना हो तो मनुष्य जीवन को सार्थक करना होगा और कर्म सिद्धांत को समझ कर ही आगे चलना पड़ेगा..
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