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श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र का मुखपत्र
श्रृत सागर
आशीर्वाद : राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. अंक : ४ द्वितीय आषाढ वि. सं. २०५२, जुलाई १९९६
प्रधान संपादक : मनोज जैन
संपादक : डॉ. बालाजी गणोरकर
प्राचीन भारतीय लेखन परम्परा
HOM.सपने
ललित कुमार भारतीय सभ्यता के पांच हजार वर्षों के अन्तराल में विपुल मात्रा में साहित्य रचा गया. आरम्भिक काल में रचना को कंठस्थ करने की परम्परा थी जिसका प्रारम्भ वेदों तथा आगमों से हुआ. वेद तथा आगम भारत के प्राचीन ग्रंथ हैं. वेदों की शिक्षा में शब्दों के सही उच्चारण पर बहुत अधिक बल दिया जाता था. यही कारण है कि वैदिक ज्ञान के लिए गुरु या आचार्यों का सानिध्य आवश्यक था. गुरुकुल में आचार्य वेदों के पाठ उच्चारित करते और शिष्य उन्हें दोहराते. इसी क्रम से उन्हें भी धीरेधीरे संपूर्ण पाठ कंठस्थ हो जाता. इस प्रकार ज्ञान गुरु-शिष्य की इस परम्परा से पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहा. इसी परम्परा को हम श्रुत परम्परा के नाम से जानते हैं. प्राचीनकाल में सैंकड़ों वर्षों तक यह परम्परा चलती रही. इसका प्रचलन वेदों तक ही सीमित नहीं था.
1 अन्य धर्मों ने भी इसी श्रुत परम्परा का अनुकरण किया. भारत के सभी धर्मों २०वी सदी के महान जैनाचार्य की एक विशिष्ट शासन प्रभावना
में इस श्रुत परम्परा को अपनाये रखने का एक अन्य धार्मिक कारण भी था. सभी
| धर्मों के पवित्र ग्रंथ ईश्वर की वाणी स्वरूप माने जाते हैं. उनका एक ही अर्थ हैं. युग प्रभावक राष्ट्रसन्त, पूज्य आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. का उनकी विवेचना उसी परिप्रेक्ष में ही होनी चाहिए. इसके लिए श्रुत परम्परा ही सार्थक नेपाल स्थित काठमांडौ (कमल पोखरी) में नूतन मंदिर की प्रतिष्ठा हेतु भारत से | थी. विहार कर पधारना जैन इतिहास में एक नये अध्याय का प्रारंभ माना जाएगा. यूं गुरू केवल सुपात्र को ही ज्ञान देता था. इसलिए लेखन की आवश्यकता भी तो नेपाल देश एक तपोभूमि के रूप में युगों-युगों से प्रसिद्ध है. आर्य भद्रबाहु स्वामी नहीं थी. क्योंकि यदि ज्ञान लिपिबद्ध हुआ होता तो लोग स्वपाठ कर विपरित अर्थ जैसे चौदह पूर्वी युग प्रधान आचार्य ने यहाँ आकर 'महाप्राण' नामक ध्यान सिद्ध घटन भी कर सकते थे. इसीलिए प्राचीन काल में ज्ञान को विकृत या अपवित्र होने कर अपनी साधना में चार चाँद लगाये थे.
के भय से बचाने के लिए इस श्रुत परम्परा द्वारा ही उसका मौलिक रूप में सुरक्षित ठीक इसी ऐतिहासिक घटना के बाद अन्तराल में आज तक कोई महान शासन | रखा गया. प्रभावक जैनाचार्य का विचरण इस धरती पर संभवतः नहीं हो पाया था. जो यह परम्परा तब तक चलती रही जब तक कि प्राचीन काल के आचार्यों को आचार्यश्री ने लगभग ५० दिनों की यात्रा दौरान आसान कर दिखाया.आपकी यात्रा | इस परम्परा में निहित कमी और ज्ञान की असुरक्षा का एहसास न हुआ. जब ऐसा सिर्फ यात्रा न रहकर एक जबरदस्त शासन प्रभावना बनकर इस शताब्दी की महान | लगा कि शिष्यों की स्मरण शक्ति कम हो रही है तब लेखन परम्परा प्रारंभ हुई. उपलब्धि मानी जायगी. यह यात्रा जैन परंपरागत इतिहास के सुवर्ण पृष्ठों पर जुड़ | .
| मौर्य काल में मगध में एक लम्बे काल का सुखा पड़ा था. जिसमें हजारों लोग गई है. आपकी सान्निध्यता में जैन धर्म के प्रचार-प्रसार का जो ठोस कार्य हुआ है
| मरे और कितने ही मगध छोड़कर भाग गये. इस लम्बे काल के दुर्भिक्ष ने जीवन वह अपने आप में अद्वितीय है. अपने पूर्वाचार्यों द्वारा छोड़ी हुई अहिंसा मूलक छवि
| अस्त-व्यस्त कर दिया था.
ऐसी स्थिति में धर्म-ध्यान व पठन-पाठन का तो प्रश्न ही नहीं उठता. इसी काल को तरोताजा करके उन महान जैनाचार्यों की यादें उजागर की है.
में अनेक जैन आचार्य दक्षिण की ओर चले गए थे. जिनका उल्लेख साहित्य में मिलता आज से लगभग दो साल पहले जब आचार्यश्री अलवर (राज.) में अंजनशलाका प्रतिष्ठोत्सव पर विराजमान थे. उस समय नेपाल (काठमांडौ) के श्री संघ के अग्रणियों
लेकिन इस प्राकृतिक विपदा के कारण न जाने कितना ज्ञान लुप्त हो गया और का आगमन हुआ. उन्होंने आचार्यश्री को काठमांडौ में नूतन जिनालय की प्रतिष्ठा |
| न जाने कितना ज्ञान स्मृति दोष के कारण क्षतिग्रस्त हो गया. इस प्रकार बचे-खुचे कराने हेतु पधारने की विनती की. तब आचार्यश्रीने कुछ सोच कर भावि में शासन
ज्ञान की सुरक्षा के लिए उसे लिपिबद्ध करना आवश्यक हो गया, जिसके फलस्वरूप को होने वाले लाभ को जानकर उनको स्वीकृति प्रदान कर अनुगृहित किया. उस ग्रंथ लेखन की परम्परा प्रारम्भ हुई. ग्रंथ लेखन से यहाँ हमारा तात्पर्य यह है कि समय उपस्थित जन समुदाय के हर्ष का पारावार नही रहा था.करतल ध्वनि से आनंद | ज्ञान को लिपिबद्ध करना और मल या आदर्श प्रति से उनकी प्रतिकतियां तैयार व्यक्त किया था. आचार्यश्री का उस साल का चातुर्मास दिल्ली चाँदनी चौक में भव्य | कराना. वास्तव में रचनायें लिख कर ही तैयार की जाती थी जैसा कि आधुनिक रूप से संपन्न हुआ था जो दिल्लीवासियों के हृदय में आज भी गूंजारित है.
दिल्ली के यशस्वी चातुर्मास के बाद आपकी निश्रा में श्री हस्तिनापुर तीर्थ का परन्तु उनकी प्रतिकृति या नकलें तैयार नहीं करवाई जाती थी. श्रुतपरम्परा 'छ'री पालित संघ निकाला गया. तत्पश्चात् आप हरिद्वार में नूतन जिनालय की । में प्रत्येक रचना को कंठस्थ कर लिया जाता था. लेकिन लेखन परम्परा में एक प्रति
[शेष पृष्ठ ३ पर
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श्रुत सागर, द्वितीय आषाढ २०५२
की ओर से आचार्यश्री का अभिवादन किया और बड़ी श्रद्धा के साथ आशीर्वाद ग्रहण प्रतिष्ठा हेतु पधारे. आपकी पावन निश्रा में श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथजी की प्राण | किये. इस अवसर पर प्रधानमंत्रीश्री का स्वागत नेपाल जेन परिषद के अध्यक्ष श्रीमान प्रतिष्ठा बड़े ही धूम-धाम से सम्पन्न हुई थी. हजारों श्रद्धालुओं ने दूर-दूर से आकर | चमचन्दजी चोरड़िया ने किया नया थी शुभ करणजी छाजेड़ ने धन्यवाद ज्ञापित किये, अपने को धनभागी माना था. हरिद्वार में यह पहला जिन मंदिर स्थापित हुआ है और दिन प्रतिदिन प्रगतिपथ पर अग्रसर है. याद रहे यहाँ पर अन्य धर्मावलंबी धुरंधर आचार्य आदि विविध सन्तों महन्तों द्वारा आचार्यश्री का अभूतपूर्व अभिनन्दन
यमनिष्टासन्यपण समारोह मनाया गया था. अनन्तर आचार्यश्री आगरा-शौरीपुर-कानपुर-वाराणसी आदि महानगरों में धर्मोपदेश द्वारा शासन प्रभावना करते हुए २० तीर्थंकरों की पवित्रतम निर्वाण स्थली श्री समेतशिखरजी पधारे. तीर्थ स्पर्शना कर भाव विभोर बने.
शिखरजी से विहार कर कलकत्ता महानगर में (भवानीपुर) चातुर्मास करने पधारे. आचार्यश्री के चातुर्मास कराने की कलकत्ता के अग्रगण्य जैन श्रेष्ठियों की विगत १० साल की भावना सन् १९९५ में फलवती हुई थी. आचार्यश्री का यह चातुर्मास कलकत्ता के पिछले ५० साल के इतिहास में अद्वितीय बना रहा. प्रवचन के माध्यम से हजारों जैन-जैनेतर भव्यों ने अपने जीवन बाग को चेतना के उर्वीकरण से नवपल्लवित किया. जिस भव्यता-उत्साह-उमंग पूर्ण वातावरण में आचार्यश्री का चातुर्मास परिपूर्ण हुआ वह तो कलकत्ता के जैन समाज में चिर स्मरणीय रहेगा. हावड़ा मल्ली फाटक के प्रतिष्ठा पर आपकी प्रेरणा से साधार्मिक बंधुओं के लिये समृद्ध दि.१९ मई को आचार्यश्री के दर्शन हेतु नेपाल नरेश महाराजाश्री वीरेन्द्र विक्रम स्थायी फंड एक ही उद्बोधन से हो गया था.
शाहदेव तथा महारानीश्री ऐश्वर्य राजलक्ष्मी देवी शाह पधारे. राज दम्पत्ति पूज्य कलकत्ता का यशस्वी चातुर्मास परिपूर्ण कर पदयात्रा संघ, अंजनशलाका, आचार्यश्री के दर्शन कर धन्य बने. शिल्प स्थापत्य युक्त नूतन जिन मंदिर में राज प्रतिष्ठा आदि अनेकविध धर्मानुष्ठान करते हुए आचार्यश्री पाटलिपुत्र से होकर | दम्पत्ति ने दर्शन वंदन किये. स्वयं आचार्य भगवंत ने मंदिर की जानकारी उपलब्ध नेपाल की ओर प्रस्थान किये. नेपाल की धरती को अपने पवित्र चरणों से पावन कराई. मंदिर के भंडार में महारानी ने अपने कर कमलों से चाँदी के सिक्के डालकर करते हुए पर्वतीय कठिन मार्गों से विहार कर भयानक जंगल-पर्वतों की हारमाला | अपनी श्रद्धा-भक्ति व्यक्त की. महाराजा को जैन धर्म के विषय में नेपाल और भारत को पार कर नेपाल की राजधानी काठमांडौ नगर पधारे. नेपाल में आप जैसे महान | की ऐतिहासिक परंपराओं की जानकारी देते हुए आचार्यश्री ने कहा कि सदियों पहले जैनाचार्य का सदियों बाद पदार्पण होने जा रहा था. अतः आपके स्वागत हेतु स्थानिक नेपाल में जैन धर्म का खूब प्रचार प्रसार हुआ था. हमारे महान जैनाचार्यों ने नेपाल जनसमुदाय व भारतवासियों ने मिलकर भव्य जुलूस द्वारा काठमांडौ में धुम मचाकर | की भूमि पर विचरण कर साधना और सिद्धि प्राप्त कर पूरे विश्व को नयी चेतना जो स्वागत किया वह वर्णन से परे हो गया था.
और मार्ग दर्शन दिया था. ___ काठमांडौ के संभ्रांत क्षेत्र - कमल पोखरी में श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों परंपराओं के लिये आचार्यश्री के शुभाशिष से नूतन जिन मंदिर तैयार हुआ. जिससे उपर के प्रासाद में श्वे. जिन मूर्तियों की प्रतिष्ठा पूज्य आचार्यश्री की शुभ निश्रा में सम्पन्न हुई. यह मंदिर नेपाल के परंपरागत शिल्प एवं स्थापत्य युक्त बना है. संभवतः २ करोड़ की लागत से यह परिपूर्ण हुआ है. प्रतिष्ठा में आचार्यश्री की निश्रा के प्रभाव से देवद्रव्यादि की उपज हुई वह विदेश की धरती पर सीमा चिह्न रूप मानी जा रही
___आचार्यश्री ने अपने व्यक्तित्व-कृतित्व-सौम्यता एवं विद्वत्ता से भगवान श्री महावीरदेव के अहिंसा प्रधान सिद्धान्तों को काठमांडौ में जन-जन तक पहुँचाया. फलस्वरूप वहाँ के स्थानिक सामाचार पत्र-पत्रिकाओं और टी.वी. आदि माध्यमा ने चित्रों सहित अनेक बार मुक्त कंठ से प्रशंसा की है. आचार्यश्री के प्रवचनों का जादुई असर यह हुआ है कि वहां पर श्वेताम्बर मूर्तिपूजक के सिर्फ २/४ घर थे उ। जगह आज २५० से उपर हो गये हैं. कई लोगों ने व्यसन मुक्त होकर जीवन को उज्ज्वल बनाया है. हजारों लोगों ने लाभ उठाकर सराहना की है. आचार्यश्री ने विदेश की धरती पर जैन शासन की अजोड़ प्रभावना कर अपने को ही नहीं अपनी गुरु परंपरा, रत्न कुक्षी, जन्म स्थली और संस्कृति को गौरवान्वित कर शासन की शान महाराजा न जन धर्म के विषय मकई जिज्ञासा भर प्रश्न किय. आचामत्रान बढ़ायी है.
अपनी दार्शनिक छटा से मर्मग्राही उत्तर देकर उन्हें संतुष्ट किया और कहा कि नेपाल प्रतिष्ठोत्सव के अनन्तर आचार्यश्री के सन् ९४ के दिल्ली चातुर्मास में दिये | के प्रशासन एवं जनता से जो आत्मीयता और स्नेह मिला है वह हमेशा के लिये गये प्रवचनों का संकलन, गुरुवाणी, ग्रंथ का विमोचन किया गया. इस प्रसंग पर याद रहेगा. आचार्यश्री ने यह भी कहा कि नेपाल जैसे एक मात्र हिन्दु राष्ट्र के विकास नेपाल के प्रधानमंत्री श्री शेर बहादुर देउवाजी मुख्य अतिथि बने थे. उन्होंने ही ग्रंथरत्न के लिये मैं अपनी शुभकामना करता हूँ. का विमोचन किया था और अपने उद्बोधन में एक महान जैनाचार्य का भारत वर्ष | इस दौरान काठमाडौ में विश्व हिन्दु महासंघ का अधिवेशन आयोजित हुआ. से नेपाल पधार कर नूतन जैन मंदिर की प्रतिष्ठा कराई एतदर्थ नेपाल देश की जनता | जिसमें आचार्यश्री को खास तौर पर आमंत्रित किया गया. इस अधिवेशन में बौद्ध
शेिष पृष्ठ ८ पर
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श्रुत सागर, द्वितीय आषाढ २०५२
संपादकीय
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श्रीमान श्रुत उपासक!
'श्रुतसागर' पत्रिका अपने विकास पथ पर निरंतर अग्रसर होती जा रही है, श्रुतज्ञान के प्रचार-प्रसार में यथाशक्ति योगदान करना इस पत्रिका का मुख्य उद्देश है. साथ ही साथ 'आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर' की जैन संघ व समाजोपयोगी प्रवृत्तियों की विस्तृत जानकारी कराना तथा सम्यग्ज्ञान मूलक कार्यों को उत्तेजित करना रहा है. हम आपसे निवेदन करते है कि इस पत्रिका के माध्यम से आप अपनी श्रुतभक्ति को उजागर कर श्रुत परंपरा का रक्षण करने में सहयोग प्रदान करें. अपनी संस्कृति की रक्षा और संवर्धन द्वारा समाज तथा राष्ट्र के गौरव को बढ़ाये.
'श्रुतसागर' पत्रिका के विषय प्राच्य विद्याओं के विस्तृत फलक को स्पर्श करते है. जैनागम आदि साहित्य परिचय, इतिहास, शिल्प स्थापत्य, महर्षियों के वृत्तान्त, शासन के प्रभावक समाचार, ग्रन्थावलोकन और अन्य भी पूरक माहिती को प्रकाशित कर जैन जैनेतर सभी विद्वानों के प्राच्य विद्या संशोधन के लिये कुछ न कुछ उपयुक्त माहिती प्रस्तुत करने का प्रयास रहेगा. हमारा ध्येय है कि इस पत्रिका के माध्यम से सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र पोषक प्रवृत्तियों को सहायता पहुँचाये और भारतीय श्रुत परंपरा के विकास में अपनी शक्तियों को लगाकर आर्य देश की महान धरोहर 'श्रुत संस्कृति का संरक्षण करें.
इस भगीरथ कार्य को गतिशील करने के लिये आप जैसे श्रुत रक्षकों के सहयोग की अपेक्षा हमेशा रहेगी. यह कहने की जरूरत नहीं कि 'पत्रिका व संस्था (श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र) के कार्य आर्य संस्कृति व उन प्राचीन विद्याओं को पुष्ट करता है जिन्हें हमारे पूर्वजों ने अपने प्राण देकर सुरक्षित रखी है.
पूज्य आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. की सत्प्रेरणा से तथा समाज के उदार धर्म प्रेमी श्रावकों के सहयोग से आज तक हम अपनी मंजिल पर निरंतर प्रयाण कर रहे हैं.
O
अब एक बात और भी कहनी है कि इस अंक सहित 'श्रुतसागर' के कुल ४ (चार) अंक प्रकाशित हो चुके हैं. लगभग २५०० कॉपियाँ विनां मूल्य समाज में ( पूरे भारत वर्ष में) प्रेषित कर अपने कर्त्तव्य को अदा कर रहे हैं. लेकिन आप भी जानते है कि कोई भी ऐसी प्रवृत्ति विन आर्थिक निर्भरता के क्षणजीवी हो जाती है. अतः हम चाहते है कि चिरंजीवी रहने के लिये अगले अंक से सदस्यता शुरु करे. याद रहे यह पत्रिका का उद्देश व्यावसायिक नहीं अपितु कम से कम द्रव्य में प्राच्य विद्या संबंधित जानकारी द्वारा चतुर्विध संघ व भारतीय विद्वानों तक लाभ पहुँचाना है. अन्त में आपसे एक अपेक्षा है कि यह अंक आपके हाथों में है. आप अपने सुझावों/ प्रतिक्रियाओं/लेख/मन्तच्चों को हमे भेजकर अपनी श्रुत भक्ति का नैतिक कर्तव्य अवश्य अदा करेंगे...
पृष्ठ १ का शेष ]
प्राचीन भारतीय लेखन...
की अनेक नकलें बनवाई जाने लगी. एक प्रति के खराब या नष्ट हो जाने पर दूसरी
प्रति लिखवा ली जाती थी.
ऐतिहासिक रूप से भारत में लिपि की परम्परा पांच हजार वर्ष प्राचीन है. लिपि या लेखन के प्राचीनतम उदाहरण हमें भारत की हड़प्पा की संस्कृति के पुरावशेषों से मिलते हैं. यह वात और है कि अभी तक इस लिपि या भाषा को समझने में सफलता नहीं मिल सकी है. लेकिन वे एक विकसित भाषा के प्राचीनतम उदाहरण हैं. इसके बाद लिपि के प्राचीन उदाहरण सम्राट अशोक के शिलालेख जो चट्टानों और स्तंभों पर कुरेदे गए, आज भी देखनें को मिलते हैं. ये सभी अभिलेख प्रायः प्राचीन ब्राह्मी लिपि में लिखे गये हैं.
अशोक के कुछ अभिलेख खरोष्टी लिपि में भी पाये गये हैं. जिसका प्रचलन अखंड भारत के पश्चिमोत्तर भाग में था. इस लिपि में लेखन दायें से बांई ओर तथा
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३
ब्राह्मी लिपि बाएं से दायीं ओर लिखी जाती थी जैसा कि आज के भारत की सभी भाषाओं में प्रचलित है. वास्तव में ब्राह्मी लिपि ही भारत की सभी लिपियों की जननी है. परन्तु कालान्तर में इस लिपि के आकार में धीरे-धीरे परिवर्तन आने लगे. जिसके कारण उनमें भेद उत्पन्न हो गये. वर्तमान लिपियों में दक्षिण और पूर्वी भारत की लिपियाँ शेष भारत की लिपियों से देखने में भिन्न अवश्य लगती हैं परन्तु इन सबका जन्म ब्राह्मी लिपि से ही हुआ है. इन लिपियों के क्षेत्रीय विकास की प्रक्रिया भी अपने आप में एक रोमांचक कथा है. प्राचीन काल में लेखन के लिए प्रायः ताड़पत्र, भोजपत्र, वस्त्र जैसे माध्यमों का प्रयोग किया जाता था. ताड़ के वृक्ष प्रायः बंगाल, उड़ीसा और दक्षिण भारत में पाये जाते हैं. अतः उन क्षेत्रों में ताड़पत्र ही लेखन का प्रमुख माध्यम बन गया था.
इन क्षेत्रों में आज भी शुभ कार्य जैसे जन्म कुण्डली इत्यादि के लिये ताड़पत्र का ही उपयोग किया जाता है. उत्तर भारत के पहाड़ी और मैदानी क्षेत्र में वस्त्र और भोज पत्र का उपयोग लेखन के लिए किया जाता था. ताड़ वृक्ष बाहुल्य क्षेत्रों में लिखने के लिए लोहे की शलाका से अक्षरों को कुरेद कर लिखा जाता था.
जैसा कि शिलालेखों की प्राचीन परम्परा थी और यह ताड़ पत्र पर सम्भव भी था. अतः शिलालेख की परम्परा का अनुकरण ताड़ पत्र पर लिखने के लिए होने लगा. इसके अन्तर्गत ताड़ पत्र पर लिखने के लिये नोकदार सुऐ जैसी लेखनी ( शलाका) का प्रयोग किया जाता था और अक्षरों को स्पष्ट करने के लिए ताड़ पत्र की लिखावट में कालिख भर दी जाती थी. यह परम्परा आज भी चल रही है इसके नहीं रहने के कारण कलम और स्याही से माध्यम की सतह पर लिखने की परम्परा विपरित वस्त्र या भोजपत्र शिलालेख की परम्परा का अनुकरण करने की योग्यता प्रारम्भ हुई.
प्राचीन ब्राह्मी लिपि के अक्षरों को ताड़ पत्र पर लिखना तो सम्भव था परन्तु इससे ताड़ पत्र को बहुत क्षति पहुंचती थी क्योंकि ब्राह्मी लिपि के अक्षर प्रायः खड़ी और आड़ी रेखाओं में मिश्रण से ही बने थे. जिसके कारण ताड़पत्र के रेशे लेखनी द्वारा कट जाते थे और पत्र बहुत दिन तक टिक नहीं पाता था.
इस प्रकार ताड़पत्र बाहुल्य क्षेत्रों की लिपि ने मरोड़ लेना प्रारम्भ कर दिया जिससे ताड़ पत्र पर लिखने में सुविधा तो हुई, साथ ही साथ ताड़पत्र की क्षति भी कम होने लगी. यही कारण है कि ताड़पत्र बाहुल्य क्षेत्रों की लिपियाँ मरोड़दार बन गई और प्राचीन ब्राह्मी से या उससे उत्पन्न उत्तर भारतीय लिपियों से भिन्न हो गई. इसके विपरीत उत्तर भारतीय लिपियों के आकार प्राचीन ब्राह्मी के ज्यादा समीप बने रहे.
हो
लेखन परम्परा के प्रारम्भ हो जाने से ही श्रुत परम्परा का समूचा ज्ञान सुरक्षित सका जो आज भारत के अनगिनत ज्ञान भंडारों में पड़ा है. प्राचीन काल में जब किसी ग्रंथ की रचना की जाती थी तो उसकी एक आदर्श प्रति स्वयं आचार्य या कोई शिष्य तैयार करता था. उसके बाद उस आदर्श प्रति के आधार पर अनेक प्रतिकृतियाँ तैयार की जाती थी. जिन्हें विभिन्न स्थानों पर वितरित कर दिया जाता था. इसके बाद जब ग्रंथ की दशा खराब होने लगती तो उसकी दूसरी प्रति तैयार करवा दी जाती. इस प्रकार यह श्रृंखला चलती रही और ज्ञान की ये पोथियाँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होती रही. आज हमारे पास सैकड़ों वर्ष प्राचीन ग्रंथों की आदर्श प्रति तो नहीं है परन्तु उनकी प्रतिकृतियाँ अवश्य उपलब्ध है.
रामायण, महाभारत या कालिदास के ग्रंथ इसी प्रकार हमारी पीढी को प्राप्त हुए जिनकी प्राचीनता पर कोई संशय नहीं किया जाना चाहिए.
मूल ग्रंथ की प्रतिकृतियाँ और फिर प्रतिकृतियों की प्रतिकृतियाँ तैयार करने की इस लम्बी परम्परा में कुछ कठिनाइयाँ भी आई. जब एक प्रतिकृति में अनजाने में भूल हो जाती या पाठ छूट जाता तो वही भूल अन्य प्रतिकृतियों में भी प्रवेश कर जाती. विशेष कर उस परिस्थिति में जब वह प्रतिकृति किसी जानकार व्यक्ति द्वारा शुद्ध नहीं की गई हो. इसी प्रकार अक्षर के गलत पढने और लिखने, गैर समझी व अनेक अन्य कारणों से मूल पाठ में विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती थी. उत्तर मध्य काल में इस प्रकार की भूलें कुछ ज्यादा ही हुई. क्योंकि उत्तर मध्य काल में जव ग्रंथों के प्रति धार्मिक व सामाजिक चेतना जागृत हुई तब ग्रंथों की प्रतिकृतियां तैयार करने वालों का एक वर्ग ही तैयार हो गया था जिन्हें 'लिपिकार' या स्थानीय भाषा [शेष पृष्ठ ७ पर
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श्रुत सागर, द्वितीय आषाढ २०५२
( गतांक से आगे )
जैन साहित्य ३
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द्वादशांगी
जैन धर्म के सबसे प्राचीन ग्रंथ द्वादशांगी के नाम से जाने जाते हैं. इन्हें गणिपिटक भी कहते हैं. भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य गौतमस्वामी आदि गणधरों ने मिलकर द्वादशांगी की रचना की. इनमें से प्रथम ग्यारह अंग आज उपलब्ध हैं. लेकिन बारहवाँ अंग जो दृष्टिवाद के नाम से जाना जाता था, वह लगभग १५०० वर्षों से लुप्त है.
ग्यारह अंगों के सन्दर्भ में कालांतर में अन्य आगम रचे गयें जिनमें से 99 अंग, १२ उपांग, ४ मूलसूत्र ६ छेदसूत्र, १० प्रकीर्णक और दो चूलिका सूत्र. ये सम्मिलित रूप से ४५ आगम के नाम से प्रसिद्ध हैं.
जैन परंपरा के मूल में आत्मा व अपरिग्रह कर सर्वोत्कृष्ट स्थान है. आगमों में बताया गया है कि साधक के जीवन में जब कोई दोष रह जाता है तभी उसे स्वर्णरूप संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है. दूसरे शब्दों में स्वर्ण संयम का नहीं अपितु संयमगत दोष का परिणाम है. स्वर्ग प्राप्ति को भव-भ्रमण का नाम देकर बताया है कि जैन परंपरा में स्वर्ग का कोई मूल्य नहीं है.
अंग अंग वारह हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं:- १. आचारांग (आयारांग), २. सूत्रकृतांग (सूयगडांग), ३. स्थानांग (ठाणांग), ४. समवायांग (समवाय), ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति (विवाहपण्णत्ति ), ६. ज्ञाताधर्मकथा (नायाधम्मकहा), ७. उपासकदशा (उवासगदशा), ८. अंतकृद्दशा (अंतगडदशा), ९. अनुत्तरोपपातिक दशा (अनुत्तरोववाइय दशा), १०. प्रश्नव्याकरण (पण्णवागरण), ११. विपाकसूत्र (विवागसूप) और १२ दृष्टिवाद (विहीबाद). इनमें का (विवागसूय) और १२. दृष्टिवाद (दिट्ठीवाद) . इनमें अंतिम दृष्टिवाद का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है.
[दृष्टिवाद अंग श्रुतज्ञान का समुद्र माना जाता था. अन्य आगमस्थ उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इस संसार में ऐसा कोई पदार्थ, ऐसी कोई विद्या, ऐसा कोई ज्ञान-विज्ञान नहीं होगा जिसकी चर्चा दृष्टिवाद में न हो. यहाँ तक कहा जाता है कि संसारवर्ती सभी धर्म-दर्शन की जड़ दृष्टिवाद में मिलती है. इसके चौदह प्रभेद हैं जिन्हें पूर्व कहते हैं. पूर्वी के नाम इस प्रकार हैं- उत्पाद, अग्रायण, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्ति, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, समयप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्यानुप्रवाद, अवन्ध्यकल्याणवन्ध्य, प्राणायु-क्रियाविशाल व बिन्दुसार. ] इन ग्यारह अंगों का श्वेताम्बर परंपरा में सर्वोच्च स्थान है.
अंगों के क्रम में पहला नाम आचारांग का है. यह उपयुक्त ही है, क्योंकि मोक्षमार्ग प्ररूपण में सब से पहले आचार की व्यवस्था अनिवार्य होती है. आचारांग की रचना के विषय में दो भिन्न भिन्न उल्लेख मिलते हैं. एक मत के अनुसार पहले पूर्वों की रचना हुई और वाद में आचारांग आदि बने. दूसरे मत के अनुसार पहले आचारांग बना और वाद में अन्य. चूर्णिकारों व वृत्तिकारों ने इन दो परस्पर विरोधी उल्लेखों की संगति बैठाने का प्रयास किया है. फिर भी यह मानना विशेष उपयुक्त है कि सर्व प्रथम आचारांग की रचना हुई होगी. पूर्व शब्द के अर्थ को लेकर यह कल्पना की जाती है कि पूर्वो की रचना पहले हुई. किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि पूर्व में आचारांग आदि शास्त्र समाविष्ट ही हैं. अतः पूर्वो में भी आचार की व्यवस्था न की गई हो ऐसा किस प्रकार कहा जा सकता है?
आचारांग को प्रथम स्थान देने का हेतु है उसका विषय इसके अतिरिक्त जहाँ
जहाँ अंगों के नाम आए हैं, वहाँ-वहाँ मूल तथा वृत्ति में सबसे पहले आचारांग का नाम लिखा गया है. साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि किसीने आचारांग का नाम पहले लिखने में कोई विसंवाद उपस्थित नहीं किया है.
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आचारांग के बाद सूत्रकृतांग आदि जो नाम हैं, उनके क्रम की योजना किसने | वनाई? इसका उल्लेख नहीं मिलता लेकिन यह अवश्य महत्त्वपूर्ण है कि जैनों के चेताम्बर एवं दिगंबर दोनों परंपराओं में इनका क्रम एक जैसा ही है.
इन मौलिक ग्रंथों के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि आत्मा से परमात्मा कैसे बन सकते हैं. जीव से शिवपद कैसे प्राप्त होता है, यही एक मुख्य उद्देश्य तत्त्व ज्ञान के केन्द्र में फलित होता है. अन्य ज्ञानविज्ञान की बातें इत्यादि प्रचुर मात्रा में उद्धृत है, पर वह सब गौण रूप से दिग्दर्शित है.
अंगों की विषयवस्तु -
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अंग ग्रंथों में अध्यात्म एवं साधना के साथ स्वर्ग नरकादि, परलोक, सूर्यचन्द्रादि जम्बूद्वीपादि लवणसमुद्रादि विविध प्रकार के गर्भ व जन्म, परमाणु कंपन व परमाणु की सांशता तथा इन विषयों से सम्बन्धित अन्य अनेक विषयों की चर्चा ठीक-ठीक प्रमाण में की गई है. इनमें कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि अमुक विषय का स्पष्टीकरण नहीं हो सकता. मुक्तात्मा एवं निर्वाण के विषय में विस्तृत एवं प्रामाणिक चर्चा इनमें हुई है. साथ ही तत्कालीन समाज, राजनीति, विद्याभ्यास, राजवैभव, सामाजिक आचार, युद्ध, वाद-विवाद, अलंकारशाला, क्षौरशाला, जैन मुनियों की आचारप्रणाली, अन्य मत के तपस्वियों एवं परिव्राजकों की आचारपद्धति, दीक्षा, दण्ड व्यवस्था, व्यापार, जैन-अजैन उपासकों की जीवनचर्या, मन
व पूरी करने की रीति, दास प्रथा, इन्द्र, रुद्र, स्कंद, नाग, भूत, यक्ष, शिव, वैश्रवण, हरिणेगमेची आदि देव, विविध कलाओं, सब्धियाँ, विकुर्वणाशक्ति, नगर, उद्यान, समवसरण, देवासुरसंग्राम, वनस्पति आदि पंचेन्द्रिय तक के विविध जीव, आहार, श्वासोच्छ्वास, आयुष्य, अध्यवसाय आदि पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है.
उनका
जैन परंपरा के मूल में आत्मा व अपरिग्रह का सर्वोत्कृष्ट स्थान है. आगमों में बताया गया है कि साधक के जीवन में जब कोई दोष रह जाता है तभी उसे स्वर्गरूप संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है. दूसरे शब्दों में स्वर्ग संयम का नहीं अपितु संयमगत दोष का परिणाम है. स्वर्ग प्राप्ति को भव-भ्रमण का नाम देकर बताया है कि जैन परंपरा में स्वर्ग का कोई मूल्य नहीं है. अंग सूत्र में जितनी भी कथाएं आती हैं उनमें सभी में साधकों के निर्वाण को ही प्रथम स्थान दिया गया है.
इन मौलिक ग्रंथों के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि आत्मा से परमात्मा कैसे बन सकते हैं, जीव से शिवपद कैसे प्राप्त होता है, यही एक मुख्य उद्देश्य तत्त्व ज्ञान के केन्द्र में फलित होता है. अन्य ज्ञान-विज्ञान की बातें इत्यादि प्रचुर मात्रा में उद्धृत है, पर वह सव गौण रूप से दिग्दर्शित है. [कमशा (आगामी अंकों में 99 अंगों सहित ४५ आगमों का क्रमश: परिचय कराया जाएगा)
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श्रुत सागर, द्वितीय आषाढ २०५२
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सुभाषित
चरिज्जधम्मं जिनदेलियं विदू । [२१-१२ उत्तराध्यायन सूत्र ] बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह जिन द्वारा उपदिष्ट धर्म का आचरण करे. धम्मस्स विओ मूलं ।
[९-२-२ दशवैकालिक सूत्र ]
धर्म का मूल विनय है.
अप्पणट्ठा परठावा, कोहा वा जइ वा भया। हिंसगं न मुसं बूया, नोवि अन्नं वयावए ।। [६-११ दशकालिक सूत्र ] निर्द्वन्य अपने स्वार्थ के लिये या दूसरों के लिए कोच से, या भव से किसी प्रसंग पर दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाला सत्य या असत्य वचन न तो स्वयं बोले न दूसरों से बुलवाये.
1
न लवेज्न पुट्ठो सावज्जं न निरट्ठे न मम्मयं । अप्पणट्ठा परट्ठा वा उभयस्स तरेण वा ।।
[१-२५ उत्तराध्ययन सूत्र ] किसी के पूछने पर भी अपने स्वार्थ के लिए अथवा दूसरों के लिए पाप युक्त निरर्थक वचन न बोले और मर्मभेदक वचन भी नहीं बोलना चाहिए. बालं सम्मइ सासंतो, गलियस्सं व वाहए। [१-३७ उत्तराध्ययन सूत्र ] जैसे दुष्ट घोड़े को चलाते हुए उसका वाहक खिन्न होता है, वैसे ही दुर्बुद्धिअविनीत शिष्य को शिक्षा देता हुआ गुरु खिन्नता का अनुभव करता है. अणुमा पि मेहावी, मायामो विवज्जए । [ ५-२-४९ दशवालिक सूच] आत्मार्थी साधक अणुमात्र भी माया मृषा का सेवन न करे. अणमिक्कतं च वर्ष संपेहाए, खर्ग जागाहि पंडिए । [१-२-१ आचारांग सूत्र ]
सूत्र
हे पंडित साधक! जीवन के जो क्षण बीत गये सो बीत गये. अवशेष जीवन को ही लक्ष्य में रखते हुए प्राप्त अवसर का तू सदुपयोग कर.
मुलाओ बंधप्यभवो दुमल्स, संघात पच्छा समुवेन्ति साहा । साहप्पसाहा विरुहन्ति साहा, तओ सि पुष्पं च फलं रसो य।।
[९-२-१ दशवैकालिक सूत्र ]
|
वृक्ष के मूल से स्कन्ध उत्पन्न होता है, स्कन्ध के पश्चात् शाखाएँ, और शाखाओं
में से प्रशाखाएँ निकलती हैं. इसके पश्चात् फूल, फल और रस उत्पन्न होता है. एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मोक्खो जेण किलिं, सयं, सिग्धं, निस्सेसं चाभिगच्छई ।।
[ ९-२-२ दशवेकालिक सूत्र ] इसी प्रकार धर्म रुपी वृक्ष का मूल विनय है, और उसका अन्तिम फल मोक्ष है. विनय से मनुष्य को कीर्ति, प्रशंसा और श्रुतज्ञान आदि समस्त इष्ट तत्वों की प्राप्ति होती है,
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ग्रंथावलोकन
'गुरुवाणी' वह जीवन मूल्यों को आलोकित करनेवाला उत्तम संस्कार पोषक एक पठनीय ग्रंथ है. जीवन में सदाचार-नैतिकता मार्गानुसारिता श्रावक तथा साधु धर्म का पालन कैसे कर सकते है, इन सत्कर्मों से जीवन में क्या लाभ होता है यह सब खूब रोचक शैली में प्रवचनकार आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. ने प्रवचनों के माध्यम से समझाया है.
रुवाणी ग्रन्थ
..
श्री
०५३
जीवन को सुख-समृद्धिमय बनाना हो, संसार की उपाधियों से त्रस्त हुए हो और शान्ति की चाहना रखते हो तो इस ग्रंथ का अध्ययन नितान्त आवश्यक प्रतीत होगा. सामान्य जीवन से लेकर आध्यात्मिकता के उच्च शिखर पर आरूढ होने तक की असर जीवन में समरसता पैदा करके रहेगी ऐसा कह सकते है. क्रमबद्ध पद्धति इस प्रावचनिक ग्रंथ में मिलती है. सुग्राह्य और सरल शब्दों की जादुई
इस 'गुरुवाणी' ग्रंथ का विमोचन समारोह अभी-अभी १९ मई को नेपाल की राजधानी काठमाण्डौ में सम्पन्न हुआ है. नेपाल के प्रधान मन्त्री शेरवहादुर श्रीमान् देउवाजी के करकमलों से विमोचन होना भी इस प्रत्यरत्न की महिमा है. नेपाल के महाराजा श्री वीर विक्रम वीरेन्द्र सिंह शाहदेव को भी यह ग्रंथ जब वे पूज्य आचार्यश्री [शेष पृष्ठ ८ पर
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उद्गार
जैन दर्शन यथार्थ में जीवन का दर्शन है. इसे अनुभूति में लाने हेतु जो साहित्य का अद्भुत और अपूर्व प्रयास किया गया है उससे वर्तमान ही नहीं भावी पीढ़ियां भी लाभान्वित होगी और इसका उपकार मानेगी.
सुन्दरलाल पटवा, भूतपूर्व मुख्य मंत्री, मध्य प्रदेश
This is the best provided and most impressive institution for the practice and scholarl study of Jain religion that I have seen. The trustees and employees are to be congratulated on the impeccable presentation and upkeep of the buildings. Every thing is in place for the furtherance of Jain scholarship.
Dr. Will Johnson, University of Wales, U.K. cs पाठकों से नम्र निवेदन 80
यह अंक आपको कैसा लगा, हमें अवश्य लिखें. आपके सुझावों की हमें प्रतीक्षा है. आप अपनी अप्रकाशित रचना/लेख सुवाच्य अक्षरों में लिखकर / टंकित कर हमें भेज सकते हैं. अपनी रचना/ लेखों के साथ उचित मूल्य का टिकट लगा लिफाफा अवश्य भेजें अन्यथा हम अस्वीकृति की दशा में रचना वापस नहीं भेज सकेंगे.
श्रुतसागर, आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा, गांधीनगर ३८२००९.
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श्रुत सागर, द्वितीय आषाढ २०५२ || इतिहास के झरोखे से ||
(( वृत्तान्त सागर) सम्राट् सम्प्रति
चातुर्मास वि.सं. २०५२ आशित शाह
.पू. गच्छाधिपति आचार्य श्री सुबोधसागरसूरीश्वरजी म.सा. सम्राट संप्रति का जन्म ई.स.पूर्व २५७ में हुआ था. संप्रति का जीवन जितना
एवं आचार्य श्री मनोहरकीर्तिसागरसूरीश्वरजी म.सा. आदि ठाणा प्रेरक है! उतना ही उनका पूर्वभव रोमांचकारी है. जिससे वह सम्राट अशोक के पौत्र
जवाहरनगर, जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ, गोरेगांव (प.), मुम्बई. के रूप में जैनधर्मी सम्राट के नाम से प्रसिद्ध हुआ.
.पू. आचार्य श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी म.सा. ____ संप्रति पूर्वभव में कौशांबी नगर में दुमक नामका भिखारी था. यह उस समय |
| एवं मुनि श्री शिवसागरजी म.सा. आदि ठाणा की बात है जब इस पावन धरा पर युगप्रधान आर्य सुहस्ति महाराज विचरण कर
जैन. श्वे. मू. संघ विजयनगर, नारणपुरा, अहमदाबाद रहे थे. उस समय बारह साल से दुष्काल चल रहा था. श्रीमंतों को भी एक समय .पू. राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. भोजन करना पड़ता था पर साधु भगवंतों को गोचरी भक्तिभाव पूर्वक मिलती थी.
उपाध्याय श्री धरणेंद्रसागरजी म.सा. एक समय आर्य सुहस्ति महाराज के शिष्य श्रीमंत श्रावक के घर से मोदक प्रचुर पन्यास श्री वर्धमानसागरजी म.सा. गोचरी लेकर निकल रहे थे तब द्वार पर खड़ा दुमक भिखारी मोदक प्रचुर गोचरी पन्यास श्री अमृतसागरजी म.सा. देखकर मुनि से मांगने लगा. मुनि ने कहा कि यह भोजन मैं तुम्हें नहीं दे सकता. गणिवर्य श्री विनयसागरजी म.सा. अगर तुम ऐसा भोजन चाहते हो तो तुम्हें दीक्षा लेकर साधु बनना होगा. द्रुमक गणिवर्य श्री देवेन्द्रसागरजी म.सा. आदि ठाणा १२ ने सोचकर मुनि से कहा कि इन दिनों जब खाने के सासे पड़ रहे हैं और लड्डुप्रधान श्री नेमीनाथजी महाराज जैन मंदिर मिष्ठान युक्त भोजन मिलता हो तो मैं दीक्षा लेने के लिए तैयार हूँ. मुनि उसे आर्य
अजीमगंज, मूर्शिदाबाद - (प. बंगाल) सुहस्ति के पास ले गये. उन्होंने अपने ज्ञानबल से जैन शासन की महान प्रभावना
.पू. आचार्य श्री भद्रबाहुसागरसूरीश्वरजी म.सा. का निमित्त देखकर द्रुमक को दीक्षा दी और उनका नाम रंकमुनि रखा गया. दीक्षा
___ मुनि श्री प्रसन्नकीर्तिसागरजी म.सा. के दिन उपवास करके दुसरे दिन पारणे में मिष्टान्न प्रधान आहार लेने से उन्हें अतिसार
| मुनि श्री जयकीर्तिसागरजी म.सा. का रोग हो गया. इनके रोग का योग्य इलाज होने लगा. श्रीमंत घराने के बड़े बड़े
वीतराग सोसायटी, पालडी, अहमदाबाद श्रावक उनकी सेवा कर रहे थे. रंकमुनि की वेदना असह्य हो रही थी. श्रावकों की
.मुनि श्री निर्मलसागरजी म.सा. एवं भक्ति देखकर वे सोचने लगे कि जब मैं भिखारी था तो यही लोग मुझे धक्का देकर
मुनि श्री पद्मोदयसागरजी म.सा.
जैन श्वे. मू. पू. संघ गोल, जिला : जालौर, राजस्थान. निकाल देते थे और आज यही लोग खड़े पाँव मेरी सेवा कर रहें हैं. मुझे वंदन कर |
•मुनि श्री विमलसागरजी म.सा. आदि ठाणा २ रहें है. अहो! जैन धर्म की कैसी महत्ता है. इसी शुभ भाव के साथ उनका कालधर्म
थोभ की वाडी, उदयपुर (राज.) हो गया. शुभ भाव के फलस्वरूप उनका जन्म मगध के सम्राट अशोक के अंधपुत्र ,
अधपुत्र सूर्य किरणों का प्रवेश के यहाँ पुत्र के रूप में हुआ. उनका नाम संप्रति रखा गया.
• प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी कोबा स्थित श्री महावीरालय में भगवान महावीर - जब वे ६ माह के थे तो धावमाता की बात सुनकर उनके पिता कुणाल ने संगीत |
स्वामी के तिलक को २२ मई १९९६ के दिन दुपहर २.०७ बजे सूर्य ने अपनी कला से सम्राट अशोक को प्रसन्न करके वरदान के रूप में अपने पुत्र के लिए | रश्मियों से प्रकाशित किया. इस अ
रश्मियों से प्रकाशित किया. इस अवसर पर प. पू. बहुश्रुत मुनि श्री जम्बूविजयजी 'काकिणी' मांगा. 'काकिणी' का गूढ अर्थ राज्यभिक्षा होता हैं. जिससे संप्रति १० | म.सा. आदि ठाणा, राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्यमाह की उमर में ही मगध का युवराज एवं अवन्ति का शासक घोषित कर दिया | | प्रशिष्यादि मुनिगण एवं समाज के अनेक गणमान्य नागरिक एवं सैकड़ों की संख्या
में श्रद्धालु उपस्थित थे. जब वे १४ साल के हुए तो सम्राट अशोक ने उन्हें मगध बुलाकर युवराज पद | मुनिराज श्री जम्बूविजयजी म.सा. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा में अर्पण किया और अवन्ति के शासक के रूप में राजतिलक किया. पंजाब की सीमा | पिछले दिनों पधारे. आपने श्रुत संशोधन हेतु उपयुक्त हस्तप्रत, ताड़पत्र तथा अन्य पर बार-बार हो रहे यवन आक्रमण को उन्होंने अपनी वीरता एवं कुनेह से दूर किया | सामग्री का अवलोकन कर पूरक माहिती प्राप्त की. आपने यहां चल रही विविध और मगध की सीमा ग्रीस तक फैला दी थी. बाद में आंध्र को भी जीतकर अपने | श्रुत संवर्धन प्रवृत्तियों की प्रशंसा की. राज्य में मिला दिया था.
• नित्य प्रति दर्शनार्थ आने वाले यात्रियों के अतिरिक्त विगत अप्रैल, मई एवं जून एक बार माता श्री शरदबाला से धर्म प्रतिबोध सुनकर और अपने जन्म से पहले | मास में ८,०६५ दर्शकों ने आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञान मंदिर का अवलोकन जैनाचार्य द्वारा कही गई भविष्य वाणी सुनकर समय आने पर धर्म कार्य करने का
किया. दर्शकों की संख्या में यह अभिवृद्धि उल्लेखनीय है. आलोच्य अवधि में ४३३ वचन दिया.
ग्रंथों का पठनार्थ उपयोग हुआ.
नवीन पुस्तकों की संप्राप्ति आर्य सुहस्ति महाराज १६-१७ साल के बाद जब विहारं करते-करते उज्जैन पधारें तो जैन संघ ने उनके स्वागतार्थ भव्य वरघोड़ा निकाला, भगवान के रथ के
. आचार्य श्री कैलाससागरमूरि ज्ञान मंदिर में विगत तीन माह में ४११ ग्रंथों को
संप्राप्त किया गया जिनमें से २३६ ग्रंथ भेंट स्वरूप मिलें हैं तथा १७५ ग्रंथों को पीछे आर्य सुहस्ति महाराज अपने शिष्य समुदाय के साथ चल रहे थे. वरघोड़ा इतना
क्रय किया गया है. ग्रंथों के सूचीकरण एवं विस्तृत सूचनाओं के कम्प्यूटरीकरण हेतु भव्य था कि सभी नगरजन जैन धर्म की भव्यता देखकर अपने आपको कृतकृत्य
पंडितों द्वारा ही सीधे कम्प्यूटर पर सूचनाओं की प्रविष्टी प्रारम्भ की गई है. अभी मान रहे थे. सम्राट् संप्रति भी अपने राजगढ़ के झरोखे से अपने परिवार सहित
तक यह कार्य पहले काडों पर तैयार करने के बाद प्रविष्ट किया जाता था. नई पद्धति वरघोड़े का आनंद उठा रहे थे. भगवान के रथ के पीछे चल रहे आर्य सुहस्ति महाराज
| में कार्य की शुद्धता के साथ ही समय की भी बचत होगी. पर दृष्टि पडते ही वे उन्हें अपलक नजरों से देखने लगे और आत्ममंथन करने लगे.
| कम्प्यूटर केन्द्र की प्रगति : [शेष पृष्ठ ७ पर पिछले दिनों कम्प्यूटर केन्द्र में multi media kit प्रस्थापित किया गया है.
था.
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श्रुत सागर, द्वितीय आषाढ २०५२ पृष्ठ ६ का शेष ]
सम्राट् सम्प्रति.....
आत्ममंथन ने जब उच्चता प्राप्त कर ली तो वे बेहोश हो गये. अनेक शीतोपचार के बाद जब वे होश में आए तब उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो चुका था और अपने पूर्वभव को जान गये थे. उन्होंने वरघोड़ा रोकने की आज्ञा दी और तुरंत वे राजमहल से निकलकर आर्य सुहस्ति महाराज के पास आए और वंदन करके कहा कि आप मुझे जानते हैं? एक राजन् के मुख से ऐसी बात का गुढ अर्थ जानकर आर्य सुहस्ति महाराजने अपने ज्ञान बल से जान लिया और कहा कि मैं आपको जान गया हूँ परन्तु आपका पूर्वभव रोमांचकारी और जैन शासनके लिए गौरवप्रद होने से मैं इसे संघ के समक्ष कहना चाहता हूँ. तो आप मेरे साथ उपाश्रय पधारें.
वरघोड़ा संपन्न हो जाने पर आर्य सुहस्ति महाराज ने उपाश्रय में मांगलिक आदि कार्य पूर्ण करके संप्रति का पूर्वभव जो द्रुमक भिखारी के रूप में था, वह सारा वृत्तांत कहा. पूर्वभव सुनकर अयन्ति की प्रजा की जैन धर्म के लिए श्रद्धा और मजबूत हुई . संप्रति ने अपना राज्य जब आर्य सुहस्ति महाराज को समर्पित किया तो उन्होंने राजा को धर्म बोध दिया और राज्य लक्ष्मी का उपयोग धर्मकार्य में करने को कहा. अवन्ति की भद्रा शेठाणी ने अपनी इकतीस पुत्रवधुओं के साथ आर्य सुहस्ति महाराज के पास दीक्षा ली तो संप्रति महाराजने इस प्रसंग से प्रभावित हो कर आर्य हस्तिमहाराज की निश्रा में अठ्ठाई महोत्सव करवाया. जिसमें अनेक जैन संघों को एवं अनेक राजाओं को आमंत्रित किया. अठ्ठाई महोत्सव संपन्न होने पर भव्य रथयात्रा निकाली गई. इसी रथयात्रा में संप्रति ने महान अभिग्रह लिया था कि 'नित्य सुबह मेरे द्वारा जब तक एक नये जिनमंदिर का खातमुहूर्त नहीं होता तब तक मैं दंतधावन नहीं करूंगा'. सम्राट् के इस अभिग्रह से प्रेरित होकर आज्ञावर्ती अनेक राजाओं ने अपने राज्य में जैन धर्म को राज्यधर्म बनाया एवं जिनमंदिरों का निर्माण भी करवाया.
संप्रति महाराज ने यह अभिग्रह वीर निर्वाण २८९ में लिया था और वे वीर निर्वाण ३२३ तक जीवित रहें. अन्तराल के ३४ सालों में उन्होंने सवा करोड़ कलात्मक पाषाण की प्रतिमाओं एवं पिच्याणवे हजार धातु प्रतिमाओं को सवा लाख नये जिनमंदिरों में प्रतिष्ठित करवाया तथा छत्तीस हजार प्राचीन जैन तीर्थों एवं मंदिरों का जीर्णोधार भी करवाया. अपने पूर्वभव को ध्यान में रखते हुए सात सौ दानशालाएँ खोल रखी थी. प्रतिमाएं बनवाने हेतु जयपुर एवं मकराणा में अनेक कारखानें खोल रखें थें. संप्रति महाराज द्वारा प्रतिष्ठित किसी भी प्रतिमा के उपर लेख न होने की यह वजह बताई जाती है कि सैद्धान्तिक रूप से ऐसा माना जाता है कि धर्मकार्य में कीर्ति की अपेक्षा धर्म के फल को बाध करती हैं. परंतु संप्रतिने निशानी रूप हर प्रतिमा के कोहनी के पीछे दो समचोरस टेके रखवायें थे जिससे आज भी पता चल जाता है कि यह प्रतिमा संप्रति द्वारा निर्मापित है अथवा उनके समय की हैं. आज छोटे-बड़े शहरों में एवं गांवों में ऐसी कई प्रतिमाएं दृष्टिगत होती हैं.
महाराजा संप्रति ई.पूर्व २३५ में मगध के सम्राट् बने थे, परन्तु यह देखने के लिए आर्य सुहस्ति महाराज विद्यमान नहीं थे क्योंकि उनका कालधर्म ई.पूर्व २३० में हो गया था. उनके बाद उनके शिष्य युगप्रधान श्री गुणसुंदरसूरि महाराज सम्राट् संप्रति के धर्मकार्यों का नेतृत्व करते थे एवं उचित समय पर मार्गदर्शन भी देते थे.
सम्राट् संप्रति ने अपने बाहुवल से नेपाल, तिब्बेट एवं खोटान प्रदेश भी जीत लिए थे. वहाँ पर अपने जैन उपदेशकों को प्रथम भेजकर वहाँ की प्रजा का कल्याण किया था और उन्हें जैनधर्मी बनाकर जैनधर्म का प्रचार करवाया था. बाद में साधु भगवंतों का विहार करवाया था. इस तरह सम्राट् संप्रतिने चारों ओर जैन धर्म की पताका लहराती रखी थी. वीर निर्वाण ३२३ में इस महान राजा का स्वास्थ्य अचानक खराव हो गया और दिन प्रतिदिन उनका स्वास्थ्य गिरता गया. अपना अंत समय नजदीक देखकर उन्होने अपने चाचा दशरथ को मगध का सम्राट् पद दिया और कुछ समय में ही उनका देहांत हो गया.
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पृष्ठ ८ का शेष ]
अहं का अंधकार...
संत ने विद्वान् को कप और रकाबी दी और कॉफी बनाकर लाया. कॉफी को वह कप में डालता गया. कप भर गया.... रकाबी भी भर गई, फिर भी वह कॉफी और... पायजामें पर भी कॉफी गिर गयी. इस पर विद्वान् ने संत से कहा कि - "यह डालता ही रहा. यहाँ तक कि कॉफी उभर कर नीचे गिरने लगी. विद्वान् के शर्ट आप क्या कर रहे हैं? मेरे कपड़े सब खराब हो गए."
से
कहा – “आपकी बात मैं समझ नहीं पाया, आप ही कुछ बताइए." संत ने विद्वान् से कहा - "यह आपके सवाल का जवाब है.” तब उसने संत
संत ने कहा - "भरे हुए कप में कॉफी डालने से कुछ फायदा नहीं. जैसे भरे कप में कॉफी डालने से उभर गयी और कपड़े खराब हो गये, वैसे ही जहाँ तक दिल और दिमाग का कप खाली नहीं होगा, तब तक मेरा कहना उभार जैसा होगा. आप खाली होकर आएँ तो ही मैं आपको कुछ समझा सकूँगा."
जब जगत के ज्ञान से शून्य बनता है, तभी वह स्वयं का परिचय प्राप्त कर सकता है.
जब परमात्मा की शरण में जाओगे, जब परमात्मा को समर्पित हो जाओगे; तब ही आपका जीवन, सत्य के प्रकाश से उज्ज्वल बनेगा.
७
सत्य और सदाचार से युक्त जीवन प्रस्थापित करने के लिए साहस अपेक्षित है, क्योंकि साहस के बिना साधना नहीं होगी. जहाँ साधना नहीं, वहाँ सिद्धि भी नहीं होगी.
आपको जानकारी कितनी है, इस से कोई मतलब नहीं. आप क्या जानते हैं, इसका भी नहीं बल्कि आप क्या करते हैं, उसका अधिक महत्त्व है. आप के जीवन में (Practical) कितना है, वही देखा जाता है.
जन्म से मृत्यु की उत्पत्ति होती है. हमारा सारा जीवन मृत्यु से घिरा हुआ रहता है. उसमें असत् वस्तु का ग्रहण मृत्यु की परंपरा लाता है जबकि सत्य अमरता प्रदान करता है.
आज तक हमारा जनाजा निकला पर सत्य पाकर हम मृत्यु का जनाजा निकलवायेंगे.
यदि मृत्यु को मारना है तो धर्मशास्त्र अति आवश्यक है. धर्मोषधि से ही मृत्युरूपी दर्द का निदान हो सकता है.
हम जब-जब यह सोचते हैं कि हम युवान हैं, तब-तब वास्तव में हम पल-पल बुड़े होते जा रहे होते हैं.
हमारा यह सोचना गलत है कि 'जीवन लम्बा है, ' क्योंकि मृत्यु प्रतिक्षण हमारी ओर बढ़ती आ रही है.
पृष्ठ ३ का शेष ]
में 'लहिया' के नाम से जाना जाता है.
धार्मिक वृत्ति के परिणाम स्वरूप यदि जीवन में अभयता प्रवेश करे तो हम बेधड़क कह सकेंगे कि 'हम अमर हैं'
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प्राचीन भारतीय लेखन...
देश
में
छापाखाने खुल जाने के बाद भी इनकी परम्परा चलती रही. चित्रकारों की तरह ही उनका यह व्यवसाय पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहा.
की
प्रतिकृतियाँ तैयार करते हैं. साथ ही जैन श्रमण परम्परा के प्रतिपालक साधुगुजरात व राजस्थान में आज भी कुछ लहिये जीवित हैं जो जैन आगम ग्रंथों साध्वीजी भी नित्य कुछ न कुछ लिखने का नियम धारण करते हैं और इस परम्परा को जीवित रखे हुए हैं. यद्यपि तीव्र गति से कम्प्यूटर का विकास होने पर आज कम्प्यूटर द्वारा प्राचीन शैली की लिपि में ग्रंथों की प्रतिकृतियाँ भी तैयार होने लगी है. इसी के साथ भारतीय हस्त लिखित ग्रंथों के लेखन की इस प्राचीन परम्परा में एक नई विधा ने जन्म लिया है.
स्वयं की खोज और विकास से बड़ी कोई आस्तिकता नहीं है.
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, द्वितीय आषाढ 2052 | अहं का अंधकार गच्छाधिपति आचार्यश्री कैलाससागरसूरीश्वरजी के आचार्य श्री पासागरसूरीधरजी शुभाशीर्वाद दुर्विचारों का संगठन बहुत खतरनाक होता है. यह व्यक्ति को परमात्मा तक पहुँचने नहीं देता. असत्य के माध्यम से मिला हुआ सुख क्षणमात्र आनंद देता है लेकिन उसका भविष्य कितना दुःखमय होता है, क्या इसका कभी विचार किया है? आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी की प्रेरणा से जो व्यक्ति परिणाम को देखकर अपना कार्य नहीं करता उसका भविष्य कष्टमय य कष्टमय | श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा बन जाता है. क्षणिक सुख के लिए वह व्यक्ति अपने अनंत भव बिगाड़ लेता है. अगर आपको आत्मा से परिचय प्राप्त करना है तो आप को अपना आचरण संचालित संस्थाएँ आत्ना के अनुकूल बनाना पड़ेगा. जीवन में यदि सत्य और सदाचार की प्रतिष्ठा आपका हार्दिक स्वागत करती हैं. नहीं होगी तो जीवन दुर्गन्धमय बन जाएगा. उसकी पवित्रता नष्ट हो जायेगी. इसलिए | उसकी पवित्रता नष्ट हो जायगा. इसलिए १.श्री महावीरालय ज्ञानियों ने कहा है कि अगर आपको जीवन में कुछ पाना है तो आप असत्य की | | 2. आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञान मंदिर भूमिका छोड़ दें और अपने जीवन को सदगणों से सुगंधमय बनार्वे. ___ "मैं सब जानता हूँ' यह मन का दंभ है. मन के इस अहम् को छोड़ दो. परमात्मा (क) देवदिगणि क्षमाश्रमण हस्तप्रत भाण्डागार के द्वार पर मूर्ख बनकर जाओगे तो विद्वान बन कर लौटोगे, जीवन में कुछ प्रकाश (ख) आर्य सुधर्मा स्वामी श्रुतागार लेकर आओगे. (ग) सम्राट सम्प्रति संग्रहालय एक विद्वान् एक संत के पास गया. विद्वान् के मन में अहम् था. वह सोचता (घ) आर्य रक्षितसूरि शोध सागर (कम्प्यूटर केन्द्र) था कि मैं सब कुछ जानता हूँ. वह संत से कहने लगा कि मैं (M.A. B.ED.) (3) श्री महावीर दर्शन (प्रस्तावित) हूँ. मैंने (PhD.) की है. मैं आत्मा के बारे में कुछ जानना चाहता हूँ. जब तक मन | 3. श्री जैन आराधना भवन (उपाश्रय) में अहम् बैठा हो तब तक जानकारी कैसे प्राप्त होगी? 4. श्री आचार्य कैलाससागरसूरि स्मृति मंदिर [शेष पृष्ठ ७पर | 5. मुमुक्षु कुटीर पृष्ठ 2 का शेष] २०वी सदी के महान जैनाचार्य.... 6. श्रीमती गुलाबदेवी सोहनलाल चौधरी जैन भोजन शाला | 7. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, श्री वीरप्रभु प्राचीन जिनालय बोरीज, गांधीनगर महासंघ के अध्यक्ष श्री महाभदंत और विश्व हिन्दु परिषद के श्री सिंघलजी ने अपने विशेष जानकारी हेतु सम्पर्क सूत्र : अपने भाषण में आचार्यश्री की मुक्त कंठ से प्रसंशा की. अन्त में आचार्यश्री ने अपने श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र प्रभावी वक्तव्य में कहा कि अहिंसा के माध्यम से हम विश्व में शान्ति का प्रचार कोबा, गांधीनगर - 382 009. प्रसार कर सकते है, परन्तु याद रहें पहले हमें अपने सिद्धान्तों को आत्मसात् करना फोन- (02712) 76252,76204, 76205 होगा वरन् विश्वशान्ति के लिये दिये जाने वाले नारों और भाषणों का कोई मूल्य | पृष्ठ 5 का शेष] ग्रंथावलोकन... नहीं होगा. के दर्शनार्थ पधारे तब उपहार स्वरूप अर्पण किया गया है. पूज्य गणिश्री पूज्यश्री नेपाल से दि. 23.5.96 को विहार कर विविध ग्राम, नगर, उपवन | देवेन्द्रसागरजी म. सा. ने इस ग्रंथ का संकलन संपादन किया है. उन्होंने सन् 94 में पद स्पर्शना करते हुए ऐतिहासिक नगर अजीमगंज की पुण्य भूमि में चातुर्मास | के आचार्यश्री के दिल्ली (चांदनी चौक) चातुर्मास की अवधि में हुए प्रवचनों को हेतु पधार रहे हैं. स्मरण रहे, यह वही सौभाग्यशाली नगर है जहाँ आचार्य भगवन्त | संकलित कर आकर्षक पुस्तकाकार में समाज के सामने प्रस्तुत किया है. का जन्म हुआ था. आजादी के पूर्व यहाँ के श्रद्धावन्त श्रावक रत्नों से यह नगर | याकिनी महत्तरा धर्म सुनु आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी म. सा. द्वारा रचित पूरे भारत में सुप्रसिद्ध था.जगत शेठ, राय बहादुर श्री धनपतसिंहजी दूगड़, महाराज धर्मबिन्दु ग्रंथ इस 'गुरुवाणी' का मूल स्रोत है. ग्रंथनाम : 'गुरुवाणी', मूल प्रवचनकार : आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी, श्री बहादुरसिंहजी सिंधी, श्री निर्मल कुमारजी नवलखा, श्री बुद्धसिंहजी दुधोरिया, संकलन व संपादन : गणिवर्य श्री देवेन्द्रसागरजी, भाषा: हिन्दी, आवृत्ति : प्रथम, श्री पुरनचंदजी नाहर आदि जैन परिवारों की कीर्ति और धर्म कार्यों को देश भर वि. सं. 2052, मूल्य : 400/-, प्रकाशक : श्री अष्टमंगल फाउण्डेशन - कोबा, में आज भी याद किये जाते हैं." गांधीनगर - 382 009. . श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र संचालित Book Post/Printed Matter आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञान मंदिर (पूर्णतया कम्यूटरीकृत शोध संस्थान) हेतु आवश्यकता है सह निदेशक (प्रशासन) : कार्यः ज्ञान मंदिर में संग्रहालय, ज्ञान-भंडार, कम्प्यूटर व शोध विभाग की प्रवृत्तियों का संयोजन. योग्यता :उद्यमी, अनुभवी, परिपक्व, धार्मिक तथा उम्र 60 वर्ष से कम. भारती विद्या (विशेष रूप से जन विद्या) एवं सम्बन्धित क्षेत्रों में रूचि तथा इस क्षेत्र में चल रही योजनाओं के संचालन व नई योजनाओं के क्रियान्वयन की क्षमता. अपेक्षित वेतन एवं वायोडाय के साथ निम्न पते पर आवेदन करें. Published & Despatched by Secretary, Sri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र Koba,Gandhinagar-382009.h: 76204,76205,76252 कोबा, गांधीनगर 382 009 Printed at Dhvani Graphics, Vasana, Ahmedabad. Ph: 6634333 For Private and Personal Use Only