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श्रुत सागर, द्वितीय आषाढ २०५२
( गतांक से आगे )
जैन साहित्य ३
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द्वादशांगी
जैन धर्म के सबसे प्राचीन ग्रंथ द्वादशांगी के नाम से जाने जाते हैं. इन्हें गणिपिटक भी कहते हैं. भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य गौतमस्वामी आदि गणधरों ने मिलकर द्वादशांगी की रचना की. इनमें से प्रथम ग्यारह अंग आज उपलब्ध हैं. लेकिन बारहवाँ अंग जो दृष्टिवाद के नाम से जाना जाता था, वह लगभग १५०० वर्षों से लुप्त है.
ग्यारह अंगों के सन्दर्भ में कालांतर में अन्य आगम रचे गयें जिनमें से 99 अंग, १२ उपांग, ४ मूलसूत्र ६ छेदसूत्र, १० प्रकीर्णक और दो चूलिका सूत्र. ये सम्मिलित रूप से ४५ आगम के नाम से प्रसिद्ध हैं.
जैन परंपरा के मूल में आत्मा व अपरिग्रह कर सर्वोत्कृष्ट स्थान है. आगमों में बताया गया है कि साधक के जीवन में जब कोई दोष रह जाता है तभी उसे स्वर्णरूप संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है. दूसरे शब्दों में स्वर्ण संयम का नहीं अपितु संयमगत दोष का परिणाम है. स्वर्ग प्राप्ति को भव-भ्रमण का नाम देकर बताया है कि जैन परंपरा में स्वर्ग का कोई मूल्य नहीं है.
अंग अंग वारह हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं:- १. आचारांग (आयारांग), २. सूत्रकृतांग (सूयगडांग), ३. स्थानांग (ठाणांग), ४. समवायांग (समवाय), ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति (विवाहपण्णत्ति ), ६. ज्ञाताधर्मकथा (नायाधम्मकहा), ७. उपासकदशा (उवासगदशा), ८. अंतकृद्दशा (अंतगडदशा), ९. अनुत्तरोपपातिक दशा (अनुत्तरोववाइय दशा), १०. प्रश्नव्याकरण (पण्णवागरण), ११. विपाकसूत्र (विवागसूप) और १२ दृष्टिवाद (विहीबाद). इनमें का (विवागसूय) और १२. दृष्टिवाद (दिट्ठीवाद) . इनमें अंतिम दृष्टिवाद का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है.
[दृष्टिवाद अंग श्रुतज्ञान का समुद्र माना जाता था. अन्य आगमस्थ उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इस संसार में ऐसा कोई पदार्थ, ऐसी कोई विद्या, ऐसा कोई ज्ञान-विज्ञान नहीं होगा जिसकी चर्चा दृष्टिवाद में न हो. यहाँ तक कहा जाता है कि संसारवर्ती सभी धर्म-दर्शन की जड़ दृष्टिवाद में मिलती है. इसके चौदह प्रभेद हैं जिन्हें पूर्व कहते हैं. पूर्वी के नाम इस प्रकार हैं- उत्पाद, अग्रायण, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्ति, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, समयप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्यानुप्रवाद, अवन्ध्यकल्याणवन्ध्य, प्राणायु-क्रियाविशाल व बिन्दुसार. ] इन ग्यारह अंगों का श्वेताम्बर परंपरा में सर्वोच्च स्थान है.
अंगों के क्रम में पहला नाम आचारांग का है. यह उपयुक्त ही है, क्योंकि मोक्षमार्ग प्ररूपण में सब से पहले आचार की व्यवस्था अनिवार्य होती है. आचारांग की रचना के विषय में दो भिन्न भिन्न उल्लेख मिलते हैं. एक मत के अनुसार पहले पूर्वों की रचना हुई और वाद में आचारांग आदि बने. दूसरे मत के अनुसार पहले आचारांग बना और वाद में अन्य. चूर्णिकारों व वृत्तिकारों ने इन दो परस्पर विरोधी उल्लेखों की संगति बैठाने का प्रयास किया है. फिर भी यह मानना विशेष उपयुक्त है कि सर्व प्रथम आचारांग की रचना हुई होगी. पूर्व शब्द के अर्थ को लेकर यह कल्पना की जाती है कि पूर्वो की रचना पहले हुई. किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि पूर्व में आचारांग आदि शास्त्र समाविष्ट ही हैं. अतः पूर्वो में भी आचार की व्यवस्था न की गई हो ऐसा किस प्रकार कहा जा सकता है?
आचारांग को प्रथम स्थान देने का हेतु है उसका विषय इसके अतिरिक्त जहाँ
जहाँ अंगों के नाम आए हैं, वहाँ-वहाँ मूल तथा वृत्ति में सबसे पहले आचारांग का नाम लिखा गया है. साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि किसीने आचारांग का नाम पहले लिखने में कोई विसंवाद उपस्थित नहीं किया है.
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आचारांग के बाद सूत्रकृतांग आदि जो नाम हैं, उनके क्रम की योजना किसने | वनाई? इसका उल्लेख नहीं मिलता लेकिन यह अवश्य महत्त्वपूर्ण है कि जैनों के चेताम्बर एवं दिगंबर दोनों परंपराओं में इनका क्रम एक जैसा ही है.
इन मौलिक ग्रंथों के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि आत्मा से परमात्मा कैसे बन सकते हैं. जीव से शिवपद कैसे प्राप्त होता है, यही एक मुख्य उद्देश्य तत्त्व ज्ञान के केन्द्र में फलित होता है. अन्य ज्ञानविज्ञान की बातें इत्यादि प्रचुर मात्रा में उद्धृत है, पर वह सब गौण रूप से दिग्दर्शित है.
अंगों की विषयवस्तु -
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अंग ग्रंथों में अध्यात्म एवं साधना के साथ स्वर्ग नरकादि, परलोक, सूर्यचन्द्रादि जम्बूद्वीपादि लवणसमुद्रादि विविध प्रकार के गर्भ व जन्म, परमाणु कंपन व परमाणु की सांशता तथा इन विषयों से सम्बन्धित अन्य अनेक विषयों की चर्चा ठीक-ठीक प्रमाण में की गई है. इनमें कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि अमुक विषय का स्पष्टीकरण नहीं हो सकता. मुक्तात्मा एवं निर्वाण के विषय में विस्तृत एवं प्रामाणिक चर्चा इनमें हुई है. साथ ही तत्कालीन समाज, राजनीति, विद्याभ्यास, राजवैभव, सामाजिक आचार, युद्ध, वाद-विवाद, अलंकारशाला, क्षौरशाला, जैन मुनियों की आचारप्रणाली, अन्य मत के तपस्वियों एवं परिव्राजकों की आचारपद्धति, दीक्षा, दण्ड व्यवस्था, व्यापार, जैन-अजैन उपासकों की जीवनचर्या, मन
व पूरी करने की रीति, दास प्रथा, इन्द्र, रुद्र, स्कंद, नाग, भूत, यक्ष, शिव, वैश्रवण, हरिणेगमेची आदि देव, विविध कलाओं, सब्धियाँ, विकुर्वणाशक्ति, नगर, उद्यान, समवसरण, देवासुरसंग्राम, वनस्पति आदि पंचेन्द्रिय तक के विविध जीव, आहार, श्वासोच्छ्वास, आयुष्य, अध्यवसाय आदि पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है.
उनका
जैन परंपरा के मूल में आत्मा व अपरिग्रह का सर्वोत्कृष्ट स्थान है. आगमों में बताया गया है कि साधक के जीवन में जब कोई दोष रह जाता है तभी उसे स्वर्गरूप संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है. दूसरे शब्दों में स्वर्ग संयम का नहीं अपितु संयमगत दोष का परिणाम है. स्वर्ग प्राप्ति को भव-भ्रमण का नाम देकर बताया है कि जैन परंपरा में स्वर्ग का कोई मूल्य नहीं है. अंग सूत्र में जितनी भी कथाएं आती हैं उनमें सभी में साधकों के निर्वाण को ही प्रथम स्थान दिया गया है.
इन मौलिक ग्रंथों के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि आत्मा से परमात्मा कैसे बन सकते हैं, जीव से शिवपद कैसे प्राप्त होता है, यही एक मुख्य उद्देश्य तत्त्व ज्ञान के केन्द्र में फलित होता है. अन्य ज्ञान-विज्ञान की बातें इत्यादि प्रचुर मात्रा में उद्धृत है, पर वह सव गौण रूप से दिग्दर्शित है. [कमशा (आगामी अंकों में 99 अंगों सहित ४५ आगमों का क्रमश: परिचय कराया जाएगा)
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