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श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र का मुखपत्र
श्रृत सागर
आशीर्वाद : राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. अंक : ४ द्वितीय आषाढ वि. सं. २०५२, जुलाई १९९६
प्रधान संपादक : मनोज जैन
संपादक : डॉ. बालाजी गणोरकर
प्राचीन भारतीय लेखन परम्परा
HOM.सपने
ललित कुमार भारतीय सभ्यता के पांच हजार वर्षों के अन्तराल में विपुल मात्रा में साहित्य रचा गया. आरम्भिक काल में रचना को कंठस्थ करने की परम्परा थी जिसका प्रारम्भ वेदों तथा आगमों से हुआ. वेद तथा आगम भारत के प्राचीन ग्रंथ हैं. वेदों की शिक्षा में शब्दों के सही उच्चारण पर बहुत अधिक बल दिया जाता था. यही कारण है कि वैदिक ज्ञान के लिए गुरु या आचार्यों का सानिध्य आवश्यक था. गुरुकुल में आचार्य वेदों के पाठ उच्चारित करते और शिष्य उन्हें दोहराते. इसी क्रम से उन्हें भी धीरेधीरे संपूर्ण पाठ कंठस्थ हो जाता. इस प्रकार ज्ञान गुरु-शिष्य की इस परम्परा से पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहा. इसी परम्परा को हम श्रुत परम्परा के नाम से जानते हैं. प्राचीनकाल में सैंकड़ों वर्षों तक यह परम्परा चलती रही. इसका प्रचलन वेदों तक ही सीमित नहीं था.
1 अन्य धर्मों ने भी इसी श्रुत परम्परा का अनुकरण किया. भारत के सभी धर्मों २०वी सदी के महान जैनाचार्य की एक विशिष्ट शासन प्रभावना
में इस श्रुत परम्परा को अपनाये रखने का एक अन्य धार्मिक कारण भी था. सभी
| धर्मों के पवित्र ग्रंथ ईश्वर की वाणी स्वरूप माने जाते हैं. उनका एक ही अर्थ हैं. युग प्रभावक राष्ट्रसन्त, पूज्य आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. का उनकी विवेचना उसी परिप्रेक्ष में ही होनी चाहिए. इसके लिए श्रुत परम्परा ही सार्थक नेपाल स्थित काठमांडौ (कमल पोखरी) में नूतन मंदिर की प्रतिष्ठा हेतु भारत से | थी. विहार कर पधारना जैन इतिहास में एक नये अध्याय का प्रारंभ माना जाएगा. यूं गुरू केवल सुपात्र को ही ज्ञान देता था. इसलिए लेखन की आवश्यकता भी तो नेपाल देश एक तपोभूमि के रूप में युगों-युगों से प्रसिद्ध है. आर्य भद्रबाहु स्वामी नहीं थी. क्योंकि यदि ज्ञान लिपिबद्ध हुआ होता तो लोग स्वपाठ कर विपरित अर्थ जैसे चौदह पूर्वी युग प्रधान आचार्य ने यहाँ आकर 'महाप्राण' नामक ध्यान सिद्ध घटन भी कर सकते थे. इसीलिए प्राचीन काल में ज्ञान को विकृत या अपवित्र होने कर अपनी साधना में चार चाँद लगाये थे.
के भय से बचाने के लिए इस श्रुत परम्परा द्वारा ही उसका मौलिक रूप में सुरक्षित ठीक इसी ऐतिहासिक घटना के बाद अन्तराल में आज तक कोई महान शासन | रखा गया. प्रभावक जैनाचार्य का विचरण इस धरती पर संभवतः नहीं हो पाया था. जो यह परम्परा तब तक चलती रही जब तक कि प्राचीन काल के आचार्यों को आचार्यश्री ने लगभग ५० दिनों की यात्रा दौरान आसान कर दिखाया.आपकी यात्रा | इस परम्परा में निहित कमी और ज्ञान की असुरक्षा का एहसास न हुआ. जब ऐसा सिर्फ यात्रा न रहकर एक जबरदस्त शासन प्रभावना बनकर इस शताब्दी की महान | लगा कि शिष्यों की स्मरण शक्ति कम हो रही है तब लेखन परम्परा प्रारंभ हुई. उपलब्धि मानी जायगी. यह यात्रा जैन परंपरागत इतिहास के सुवर्ण पृष्ठों पर जुड़ | .
| मौर्य काल में मगध में एक लम्बे काल का सुखा पड़ा था. जिसमें हजारों लोग गई है. आपकी सान्निध्यता में जैन धर्म के प्रचार-प्रसार का जो ठोस कार्य हुआ है
| मरे और कितने ही मगध छोड़कर भाग गये. इस लम्बे काल के दुर्भिक्ष ने जीवन वह अपने आप में अद्वितीय है. अपने पूर्वाचार्यों द्वारा छोड़ी हुई अहिंसा मूलक छवि
| अस्त-व्यस्त कर दिया था.
ऐसी स्थिति में धर्म-ध्यान व पठन-पाठन का तो प्रश्न ही नहीं उठता. इसी काल को तरोताजा करके उन महान जैनाचार्यों की यादें उजागर की है.
में अनेक जैन आचार्य दक्षिण की ओर चले गए थे. जिनका उल्लेख साहित्य में मिलता आज से लगभग दो साल पहले जब आचार्यश्री अलवर (राज.) में अंजनशलाका प्रतिष्ठोत्सव पर विराजमान थे. उस समय नेपाल (काठमांडौ) के श्री संघ के अग्रणियों
लेकिन इस प्राकृतिक विपदा के कारण न जाने कितना ज्ञान लुप्त हो गया और का आगमन हुआ. उन्होंने आचार्यश्री को काठमांडौ में नूतन जिनालय की प्रतिष्ठा |
| न जाने कितना ज्ञान स्मृति दोष के कारण क्षतिग्रस्त हो गया. इस प्रकार बचे-खुचे कराने हेतु पधारने की विनती की. तब आचार्यश्रीने कुछ सोच कर भावि में शासन
ज्ञान की सुरक्षा के लिए उसे लिपिबद्ध करना आवश्यक हो गया, जिसके फलस्वरूप को होने वाले लाभ को जानकर उनको स्वीकृति प्रदान कर अनुगृहित किया. उस ग्रंथ लेखन की परम्परा प्रारम्भ हुई. ग्रंथ लेखन से यहाँ हमारा तात्पर्य यह है कि समय उपस्थित जन समुदाय के हर्ष का पारावार नही रहा था.करतल ध्वनि से आनंद | ज्ञान को लिपिबद्ध करना और मल या आदर्श प्रति से उनकी प्रतिकतियां तैयार व्यक्त किया था. आचार्यश्री का उस साल का चातुर्मास दिल्ली चाँदनी चौक में भव्य | कराना. वास्तव में रचनायें लिख कर ही तैयार की जाती थी जैसा कि आधुनिक रूप से संपन्न हुआ था जो दिल्लीवासियों के हृदय में आज भी गूंजारित है.
दिल्ली के यशस्वी चातुर्मास के बाद आपकी निश्रा में श्री हस्तिनापुर तीर्थ का परन्तु उनकी प्रतिकृति या नकलें तैयार नहीं करवाई जाती थी. श्रुतपरम्परा 'छ'री पालित संघ निकाला गया. तत्पश्चात् आप हरिद्वार में नूतन जिनालय की । में प्रत्येक रचना को कंठस्थ कर लिया जाता था. लेकिन लेखन परम्परा में एक प्रति
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