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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रुत सागर, द्वितीय आषाढ २०५२ पृष्ठ ६ का शेष ] सम्राट् सम्प्रति..... आत्ममंथन ने जब उच्चता प्राप्त कर ली तो वे बेहोश हो गये. अनेक शीतोपचार के बाद जब वे होश में आए तब उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो चुका था और अपने पूर्वभव को जान गये थे. उन्होंने वरघोड़ा रोकने की आज्ञा दी और तुरंत वे राजमहल से निकलकर आर्य सुहस्ति महाराज के पास आए और वंदन करके कहा कि आप मुझे जानते हैं? एक राजन् के मुख से ऐसी बात का गुढ अर्थ जानकर आर्य सुहस्ति महाराजने अपने ज्ञान बल से जान लिया और कहा कि मैं आपको जान गया हूँ परन्तु आपका पूर्वभव रोमांचकारी और जैन शासनके लिए गौरवप्रद होने से मैं इसे संघ के समक्ष कहना चाहता हूँ. तो आप मेरे साथ उपाश्रय पधारें. वरघोड़ा संपन्न हो जाने पर आर्य सुहस्ति महाराज ने उपाश्रय में मांगलिक आदि कार्य पूर्ण करके संप्रति का पूर्वभव जो द्रुमक भिखारी के रूप में था, वह सारा वृत्तांत कहा. पूर्वभव सुनकर अयन्ति की प्रजा की जैन धर्म के लिए श्रद्धा और मजबूत हुई . संप्रति ने अपना राज्य जब आर्य सुहस्ति महाराज को समर्पित किया तो उन्होंने राजा को धर्म बोध दिया और राज्य लक्ष्मी का उपयोग धर्मकार्य में करने को कहा. अवन्ति की भद्रा शेठाणी ने अपनी इकतीस पुत्रवधुओं के साथ आर्य सुहस्ति महाराज के पास दीक्षा ली तो संप्रति महाराजने इस प्रसंग से प्रभावित हो कर आर्य हस्तिमहाराज की निश्रा में अठ्ठाई महोत्सव करवाया. जिसमें अनेक जैन संघों को एवं अनेक राजाओं को आमंत्रित किया. अठ्ठाई महोत्सव संपन्न होने पर भव्य रथयात्रा निकाली गई. इसी रथयात्रा में संप्रति ने महान अभिग्रह लिया था कि 'नित्य सुबह मेरे द्वारा जब तक एक नये जिनमंदिर का खातमुहूर्त नहीं होता तब तक मैं दंतधावन नहीं करूंगा'. सम्राट् के इस अभिग्रह से प्रेरित होकर आज्ञावर्ती अनेक राजाओं ने अपने राज्य में जैन धर्म को राज्यधर्म बनाया एवं जिनमंदिरों का निर्माण भी करवाया. संप्रति महाराज ने यह अभिग्रह वीर निर्वाण २८९ में लिया था और वे वीर निर्वाण ३२३ तक जीवित रहें. अन्तराल के ३४ सालों में उन्होंने सवा करोड़ कलात्मक पाषाण की प्रतिमाओं एवं पिच्याणवे हजार धातु प्रतिमाओं को सवा लाख नये जिनमंदिरों में प्रतिष्ठित करवाया तथा छत्तीस हजार प्राचीन जैन तीर्थों एवं मंदिरों का जीर्णोधार भी करवाया. अपने पूर्वभव को ध्यान में रखते हुए सात सौ दानशालाएँ खोल रखी थी. प्रतिमाएं बनवाने हेतु जयपुर एवं मकराणा में अनेक कारखानें खोल रखें थें. संप्रति महाराज द्वारा प्रतिष्ठित किसी भी प्रतिमा के उपर लेख न होने की यह वजह बताई जाती है कि सैद्धान्तिक रूप से ऐसा माना जाता है कि धर्मकार्य में कीर्ति की अपेक्षा धर्म के फल को बाध करती हैं. परंतु संप्रतिने निशानी रूप हर प्रतिमा के कोहनी के पीछे दो समचोरस टेके रखवायें थे जिससे आज भी पता चल जाता है कि यह प्रतिमा संप्रति द्वारा निर्मापित है अथवा उनके समय की हैं. आज छोटे-बड़े शहरों में एवं गांवों में ऐसी कई प्रतिमाएं दृष्टिगत होती हैं. महाराजा संप्रति ई.पूर्व २३५ में मगध के सम्राट् बने थे, परन्तु यह देखने के लिए आर्य सुहस्ति महाराज विद्यमान नहीं थे क्योंकि उनका कालधर्म ई.पूर्व २३० में हो गया था. उनके बाद उनके शिष्य युगप्रधान श्री गुणसुंदरसूरि महाराज सम्राट् संप्रति के धर्मकार्यों का नेतृत्व करते थे एवं उचित समय पर मार्गदर्शन भी देते थे. सम्राट् संप्रति ने अपने बाहुवल से नेपाल, तिब्बेट एवं खोटान प्रदेश भी जीत लिए थे. वहाँ पर अपने जैन उपदेशकों को प्रथम भेजकर वहाँ की प्रजा का कल्याण किया था और उन्हें जैनधर्मी बनाकर जैनधर्म का प्रचार करवाया था. बाद में साधु भगवंतों का विहार करवाया था. इस तरह सम्राट् संप्रतिने चारों ओर जैन धर्म की पताका लहराती रखी थी. वीर निर्वाण ३२३ में इस महान राजा का स्वास्थ्य अचानक खराव हो गया और दिन प्रतिदिन उनका स्वास्थ्य गिरता गया. अपना अंत समय नजदीक देखकर उन्होने अपने चाचा दशरथ को मगध का सम्राट् पद दिया और कुछ समय में ही उनका देहांत हो गया. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पृष्ठ ८ का शेष ] अहं का अंधकार... संत ने विद्वान् को कप और रकाबी दी और कॉफी बनाकर लाया. कॉफी को वह कप में डालता गया. कप भर गया.... रकाबी भी भर गई, फिर भी वह कॉफी और... पायजामें पर भी कॉफी गिर गयी. इस पर विद्वान् ने संत से कहा कि - "यह डालता ही रहा. यहाँ तक कि कॉफी उभर कर नीचे गिरने लगी. विद्वान् के शर्ट आप क्या कर रहे हैं? मेरे कपड़े सब खराब हो गए." से कहा – “आपकी बात मैं समझ नहीं पाया, आप ही कुछ बताइए." संत ने विद्वान् से कहा - "यह आपके सवाल का जवाब है.” तब उसने संत संत ने कहा - "भरे हुए कप में कॉफी डालने से कुछ फायदा नहीं. जैसे भरे कप में कॉफी डालने से उभर गयी और कपड़े खराब हो गये, वैसे ही जहाँ तक दिल और दिमाग का कप खाली नहीं होगा, तब तक मेरा कहना उभार जैसा होगा. आप खाली होकर आएँ तो ही मैं आपको कुछ समझा सकूँगा." जब जगत के ज्ञान से शून्य बनता है, तभी वह स्वयं का परिचय प्राप्त कर सकता है. जब परमात्मा की शरण में जाओगे, जब परमात्मा को समर्पित हो जाओगे; तब ही आपका जीवन, सत्य के प्रकाश से उज्ज्वल बनेगा. ७ सत्य और सदाचार से युक्त जीवन प्रस्थापित करने के लिए साहस अपेक्षित है, क्योंकि साहस के बिना साधना नहीं होगी. जहाँ साधना नहीं, वहाँ सिद्धि भी नहीं होगी. आपको जानकारी कितनी है, इस से कोई मतलब नहीं. आप क्या जानते हैं, इसका भी नहीं बल्कि आप क्या करते हैं, उसका अधिक महत्त्व है. आप के जीवन में (Practical) कितना है, वही देखा जाता है. जन्म से मृत्यु की उत्पत्ति होती है. हमारा सारा जीवन मृत्यु से घिरा हुआ रहता है. उसमें असत् वस्तु का ग्रहण मृत्यु की परंपरा लाता है जबकि सत्य अमरता प्रदान करता है. आज तक हमारा जनाजा निकला पर सत्य पाकर हम मृत्यु का जनाजा निकलवायेंगे. यदि मृत्यु को मारना है तो धर्मशास्त्र अति आवश्यक है. धर्मोषधि से ही मृत्युरूपी दर्द का निदान हो सकता है. हम जब-जब यह सोचते हैं कि हम युवान हैं, तब-तब वास्तव में हम पल-पल बुड़े होते जा रहे होते हैं. हमारा यह सोचना गलत है कि 'जीवन लम्बा है, ' क्योंकि मृत्यु प्रतिक्षण हमारी ओर बढ़ती आ रही है. पृष्ठ ३ का शेष ] में 'लहिया' के नाम से जाना जाता है. धार्मिक वृत्ति के परिणाम स्वरूप यदि जीवन में अभयता प्रवेश करे तो हम बेधड़क कह सकेंगे कि 'हम अमर हैं' For Private and Personal Use Only प्राचीन भारतीय लेखन... देश में छापाखाने खुल जाने के बाद भी इनकी परम्परा चलती रही. चित्रकारों की तरह ही उनका यह व्यवसाय पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहा. की प्रतिकृतियाँ तैयार करते हैं. साथ ही जैन श्रमण परम्परा के प्रतिपालक साधुगुजरात व राजस्थान में आज भी कुछ लहिये जीवित हैं जो जैन आगम ग्रंथों साध्वीजी भी नित्य कुछ न कुछ लिखने का नियम धारण करते हैं और इस परम्परा को जीवित रखे हुए हैं. यद्यपि तीव्र गति से कम्प्यूटर का विकास होने पर आज कम्प्यूटर द्वारा प्राचीन शैली की लिपि में ग्रंथों की प्रतिकृतियाँ भी तैयार होने लगी है. इसी के साथ भारतीय हस्त लिखित ग्रंथों के लेखन की इस प्राचीन परम्परा में एक नई विधा ने जन्म लिया है. स्वयं की खोज और विकास से बड़ी कोई आस्तिकता नहीं है.
SR No.525254
Book TitleShrutsagar Ank 1996 07 004
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoj Jain, Balaji Ganorkar
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year1996
Total Pages8
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size1 MB
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