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सदभावना
-आचार्य पद्यसागरसरि
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भावना
विश्व सद्भावना दिवस
के उपलक्ष्य में सद्विचार परिवार द्वारा अहमदाबाद में आयोजित प्रवचन के मननीय अंश.
प्रवक्ता
आचार्य प्रवर श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज
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संप्रेरक
संकलन/सम्पादन प्रकाशक
O 0 प्रतियाँ
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मूल्य
मुद्रक
:
:
प्रथम प्रकाशन
मुनि देवेन्द्रसागर
मुनि विमलसागर
: जीवन निर्माण केन्द्र,
ए/ ५ सम्भवनाथ एपार्टमेन्ट, उस्मानपुरा उद्यान के पास,
अहमदाबाद : ३८००१३. दूरभाष : ४४८७४०/४२५५६०.
एन / ५,
अष्टमंगल फाउण्डेशन, मेघालय फ्लेट्स, सरदार पटेल कॉलोनी के पास,
नारणपुरा, अहमदाबादः ३८००१३. दूरभाष : ४४६६३४.
: जनवरी १९९३.
: चार हजार
: तीन रुपये : पार्श्व कन्सल्टेन्टस, पालडी, अहमदाबाद. दूरभाष : ४१२३६७.
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आरम्भ
शब्दों की अपनी सीमा है, किन्तु जब वे भावों के साथ घुल-मिल जाते हैं तो जीवन परिवर्तन का सुहावना माहौल निर्मित कर देते हैं. और तब वे अपने आप महत्त्वपूर्ण बन जाते हैं.
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आज जर्वाक सर्वत्र सद्भावना की कमी अरवरती है, ऐसे में सद्भावना दिवस के उपलक्ष्य में दिये गए आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के एक प्रवचन के ये मननीय अंश अपने में बहुत अहमियत रखते हैं. इन्हें मेरे परम श्रद्धेय मुनि प्रवर श्री विमलसागरजी म. ने हमारे लिए सम्पादित किया है. इनका पठन - पाठन वैचारिक सद्भावना का सूत्रपात करेगा - ऐसी मेरी आस्था है.
कृपया इन्हें उन हाथों तक पहुँचाइये, जहाँ ये गीत बनकर सद्भावना का संगीत प्रवाहित करें ९ मार्च,
- जिगर जे. शाह १९९३.
उस्मानपुरा, अहमदाबाद.
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सौजन्य :
अष्टमंगल फाउण्डेशन बम्बई-अहमदाबाद के ट्रस्टीगण
* किशोर वाड़ीलाल संघवी,
भगवानदास हीरालाल पटेल,
* सुरेश रमणीकलाल शाह, * जयंतिलाल मणिलाल शाह,
* नरेन वसन्तलाल शाह, * किशोर एम. जैन,
* मिठालाल तातेड़,
* समीर बाबुलाल शाह,
* चेतन लीलाधर ठक्कर,
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बम्बई
अहमदाबाद
अहमदाबाद
बम्बई
अहमदाबाद
मद्रास
मद्रास
बम्बई
बम्बई
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सौजन्य :
स्व. रतनचन्द भाईचन्द शाह
की पुण्यस्मृति में
उनके परिजन शशीकलाबहन र. शाह,
सुभाष र. शाह, पोपट र. शाह,
इचलकरंजी
प्रतिष्ठान
कल्पतरु टेक्सटाईल, जवाहरनगर, इचलकरंजी.
(महाराष्ट्र)
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रोग कितने ही असाध्य क्यों न हों, उपचार के लिए अन्त तक प्रयत्न होना ही चाहिए, बचाना नैतिक दायित्व है. आज जगत् दुर्विचारों की बिमारी से ग्रसित है. आइये ! सद्भावना के औषध से हम उसका उपचार करें
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धर्मग्रन्थों की अवज्ञा और अध्यात्मबोध के अभाव ने साम्प्रत को युद्धस्थली बना दिया है. जहाँ देखो वहाँ - सभी संघर्ष की राह पर हैं. कोई बाहर में लड़ रहा है तो कोई भीतरी मन में सम्यग्ज्ञान के अभाव में सभी इस आन्ति में हैं कि लड़ाई के बाद ही शान्ति स्थापित होगी, जबकि वास्तविकता यह है कि लड़ाई कभी शाश्वत शान्ति का सूत्रपात नहीं करती.
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लड़ाई के दुष्परिणाम की एक झलक देखिये : दो जमींदार आपसी मुकदमे में बरबाद हो गए, फैसले के वक्त जीतने वाले के पास केवल लंगोट बची थी, जबकि हारने वाला उसे भी नहीं बचा पाया. ईलाहाबाद उच्च न्यायालयने टिप्पणी में लिखा है : “यहाँ आने से पूर्व विवाद के
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आज विश्व
शान्ति, प्राणी- मात्र के प्रति मैत्री और मानवता की बातें करने वालों की एक बड़ी जमात है, पर इनमें से अधिकांश केवल वाग्विलासी हैं. वे समारोहों और भाषणों का आयोजन कर क्रान्तिकारी बदलाव का भ्रम पालते हैं. वस्तुतः रचनात्मक परिवर्तन तो सद्विचारों में सदाचार के प्रवर्तन से ही आ सकता
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जैन संस्कृति में तो प्रतिवर्ष क्षमापना रूपी औषध के सेवन का विधान है, भूलों - अपराधों से भरा पड़ा है जीवन. कभी कोई गलती हुई हो या संघर्ष, कोई निमित्त मिला हो कटुता या वैर का तो उसका उपचार स्वतः ही किया जा सकता है क्षमापना के द्वारा. और पाया जा सकता है मैत्री और सद्भावना रूपी स्वास्थ्य को.
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समुद्र में सभी नदियाँ विलीन हो जाती हैं. समुद्र भी सभी को अपने में समाविष्ट कर लेता है. ठीक इसी भाँति आर्य संस्कृति की यह विशिष्टता है कि हम सभी दर्शनों का, सभी विचारधाराओं का अनेकान्त दृष्टिकोण से समन्वय कर सकते हैं. मात्र नज़रिया बदलने की आवश्यकता है.
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जब तक आदमी अपने में सिकुड़ा रहेगा, केवल खुदग़र्जी के लिए ही जीने की चेष्टा करेगा, तब तक इस संसार में संघर्ष जारी रहेंगे. शान्ति और सौहार्दपूर्ण वातावरण के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि क्षुद्रताओं और संकीर्णताओं से परे हटकर हम अपने विचारों को परमार्थ का स्वरूप दें
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जीवन मिला है सजगता के लिए, प्रेम और सद्भावना के लिए लोगों की सेवा और सहायता के लिए, क्षमा और मैत्री के आधार पर ऐसे मन्दिर भी बनाइये, जहाँ बिना आमन्त्रण के परमात्म-दशा उपस्थित हो जाय.
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सकारात्मक चिन्तन ही जीवन की वास्तविकता है. विरोध और विद्रोह तो घृणित व छिछली मानसिकता के प्रतीक हैं. सबको साथ लेकल चलने और प्रेमपूर्वक समस्याओं को सुलझाने की मानसिकता जीवन की सफलता के द्वार खोलती है.
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जो वास्तव में ही धर्म है, वह कभी अधर्म नहीं बनता. पैकिंग गलत हो सकता है, माल गलत थोड़े ही होता है ? धर्म की असलियत में कभी कोई विकृति नहीं आती. बाहर के पैकिंग से नहीं, अन्दर के माल से मतलब रखिये. यदि माल सही है तो पैकिंग कैसा भी हो, स्वीकार्य है.
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"धर्म' शब्द का अर्थ है : “दुर्गति में सरकती आत्मा को धारण कर सद्गति की ओर ले जाने वाला." धर्म सद्विचारों का पोषक और सदाचार का सन्देशवाहक होता है. वह धर्म अवश्यमेव उपादेय है जिसमें विचारों का आग्रह या दुराग्रह न हो और जो आत्मशुद्धि का साधन बनता हो.
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अब अपनत्व और सद्भावना जैसे शब्द मात्र धर्मग्रंथों व शब्दकोशों में समाहित हैं. इन तथाकथित नेताओं और समाजसेवकों के अपने- अपने स्थापित हित इतिहास को दूषित बना देंगे, यदि सभी में परस्पर सद्भावना का जन्म नहीं हुआ तो सर्वत्र हड्डियों के ढेर लग जाएँगे. अब सद्भावना ही विकल्प है नष्ट होती मानवसभ्यता का.
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हम अपने दृष्टिकोण से ही जगत् को देखते हैं, अपने विचारों के अनुरूप ही उसे जानने का प्रयास करते हैं. सम्भवतः यही हमारे संघर्ष और हमारी समस्याओं का मूल कारण है. बनिस्बत इसके, अगर पवित्र धर्मग्रन्थों के सहारे आध्यात्मिक जीवन - दृष्टि अपनायी जाय तो जीवन नन्दनवन बन सकता है.
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किसी ज़माने में भारत में अतिथि को देव - तुल्य समझा जाता था. तब पानी मांगने पर लोग सद्भावना से दूध पिलाते थे. उस ज़माने में घी - दूध की जैसे नदियाँ बहती हों आज दुर्भावना ने क्या कहर ढाया है, घी - दूध तो दूर रहा, पानी की नदियाँ भी अब सूखने लगी हैं.
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चीनी
यात्री हु-एन- सांग ने भारत की पेट भरकर प्रशंसा की है. वह लिखता है : "भारत प्रामाणिकता का आदर्श है. मैंने अपनी यात्रा के दौरान यहाँ किसी भी स्थान पर कभी ताला लगा नहीं देखा." वर्तमान दुःखद परिस्थिति को देखिये, आज राम कृष्ण और महावीर के मन्दिरों की सीढ़ियों से ही जूते गायब हो जाते हैं.
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दूसरे विश्वयुध्द में ढाई करोड़ लोग बेमौत मारे गए, कोई पाँच करोड़ से अधिक घायल हुए, अरबों की सम्पत्ति नष्ट हुई, बेशुमार घरबार उजड़े अनेकों को आजीविका खोनी पड़ी. युध्द का इतना भयावह दुष्परिणाम अभी सन् १९४६ में हम देख चुके हैं, फिर भी कितनी गहरी अज्ञानता है कि लोग युध्द में जीवन की परिकल्पना करते हैं. निश्चय ही अब विवेक अनिवार्य है.
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दिल्ली में राज करने वाले तो बहुत आए और चले गए, जाने के बाद उनकी कोई विशेष महत्ता नहीं रही. इतिहास के पन्नों पर कुछ समय तक उनका नाम रहता है और फिर वे भुला दिये जाते हैं किन्तु जो लोगों के दिल पर राज करते हैं, उन्हें सदियों तक याद किया जाता है. ज़माना गीतों के रूप में उनको गुनगुनाता है. उस दिल के राज का राज है : 'सद्भावना'.
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पश्चिम की आँधी आज जोरों पर है. हमारी सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करने के लिए पश्चिमी - सभ्यता एटम बम या अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग नहीं कर रही है. बल्कि पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो और टी.वी. के माध्यम से आक्रमण कर वह हमारी वैचारिक पवित्रता को नष्ट कर रही है. यदि समय रहते उससे अपना रक्षण नहीं किया गया तो एक दिन दुर्विचारों का यह शक्कर मिश्रित जहर हमारी समस्त सद्भावनाओं को मार कर रख देगा.
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हमारा जीवन आज '३६' के अंक की तरह बन चुका है. हम मनमुटाव व भेदभाव में जीते हैं '३६' में प्रयुक्त दोनों आँकड़ों के मुँह विपरीत दिशा में है. यह विवाद का प्रतीक है. मनमुटाव व भेदभाव मिटाइये और '३६' के बजाय '६३' की तरह जीने का संकल्प कीजिये. '६३' में दोनों आँकड़े संवाद के रूप में प्रयुक्त है. यह अंक परस्पर सहयोग का प्रतीक है. संवाद और सहयोग में प्रचंड शक्ति है. विवाद से संवाद की ओर बढ़िये.
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सरकार ने धर्म की उपेक्षा कर बहुत बड़ी भूल की है. हमारा देश धर्म-निरपेक्ष नहीं हो सकता. वह धर्म-सापेक्ष है और रहेगा. धर्म का मतलब आप मन्दिर - मस्जिद इत्यादि समझते हैं तो बड़ी गलती करते हैं. मन्दिर - मस्जिद इत्यादि तो अपनी-अपनी आस्था की अलग-अलग व्यवस्था है, जबकि धर्म तो जीवन का कर्तव्य है. प्राणी-मात्र के लिए अनन्त सुख का शाश्वत पथ.
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मनुष्य ने आकाश का पता लगाया, भूमि की खोज की, सागर की गहराइयों में डुबकी लगाई, पाताल तक पहुँचा. अपनी सुख - सुविधाओं के लिए उसने विभिन्न आविष्कार किये, विज्ञान के चक्षु लगाकर उसने प्रकृति के कण - कण को टटोला, परन्तु अफसोस कि मनुष्यने अपने पास खड़े, अपने ही समान, अपने ही जातिबन्धु मनुष्य को नहीं पहचाना. जब तक मनुष्य, मनुष्य को पहचान नहीं लेता, उसकी सारी पहचान और विकास की गाथाएँ अधूरी हैं.
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अतीत में देखना व्यर्थ है. उसे क्या देखोगे ? क्योंकि वह स्वयं आपकी ओर देख रहा है और देख रहा है आपकी कृतियों को, आपके सृजन को अतीत को भूलकर वर्तमान को देखिये, जिससे अतीत फिर कभी आपकी ओर आँख उठाकर देख न सके. भविष्य वर्तमान से गुजरकर ही अतीत की ओर जाता है.
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जब भी किसी की निन्दा का विचार मन में उठे तो जानना कि स्वयं भी उसी ज्वर से ग्रस्त हो रहा हूँ. दूसरों की निन्दा करके लोग यह सोचकर प्रसन्न होते हैं कि हम उनसे अच्छे हैं. वे भूल जाते हैं कि निन्दा अपने आप में निन्दनीय है. निन्दा दुर्भावना का ही अलग रूप है. सद्भावना से भरा व्यक्ति कभी किसी की निन्दा में संलग्न नहीं होता. ..
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परमात्मा कोई अजनबी वस्तु नहीं है, कोई सर्वथा नवीन - भिन्न तत्त्व नहीं है. बल्कि आत्मा का परम विकसित, विशुद्ध - निर्मल स्वरूप ही परमात्मा है. हर भवी आत्मा निश्चय ही परमात्मा बन सकती है, यदि उसे विशुद्ध बनाया जाय.
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पाण्डित्य प्रकृति के रहस्यों को उद्घाटित करने में नहीं है, अपितु अपने जीवन के रहस्यों के विश्लेषण में है, उनको जाँचने परखने में है. प्रकृति उतनी रहस्यमयी नहीं है, जितनी अपनी अंतरंग चेतना.
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ma.
मुनिटी द्वारा (लिस्मितनगर) सम्पादी / अनूदित साहित्य । आलोक के आंगन में (हिन्दी) १-०० रु.
आ. बालासम्राकार सूरिजी म., जीवन-यात्रा : एक परिचय (हिन्दी) २-५० रु. 0 सुवास अने सौन्दर्य
(गुज.) अपाप्य - स्वाध्याय - सूत्र
(हिन्दी) अपाप्य 0 स्वाध्याय - सूत्रो
(गुज.) २-५० रु. - आ. पद्मसागरसूरिजी म.,
जीवन-यात्रा : एक परिचय (हिन्दी) अपाप्य 0 चिन्ता : पाची, चिन्तन : सूरज (हिन्दी) ५०० रु. D चिन्ता : पाची, चिन्तन : सूरज (गुज.) ५-०० रु. - मनस्-कान्ति
(हिन्दी) ५-०० रु. 0 मानसिक कान्ति
(गुज.) ५०० रु. O में भी एक कैदी हूँ (हिन्दी) ३-०० रु. D सद्भावना
(हिन्दी) ३-०० रु. D सपना यह संसार
(हिन्दी) पेस में D जठी जगनी माया
(गुज.) पेस में
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