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मनुष्य ने आकाश का पता लगाया, भूमि की खोज की, सागर की गहराइयों में डुबकी लगाई, पाताल तक पहुँचा. अपनी सुख - सुविधाओं के लिए उसने विभिन्न आविष्कार किये, विज्ञान के चक्षु लगाकर उसने प्रकृति के कण - कण को टटोला, परन्तु अफसोस कि मनुष्यने अपने पास खड़े, अपने ही समान, अपने ही जातिबन्धु मनुष्य को नहीं पहचाना. जब तक मनुष्य, मनुष्य को पहचान नहीं लेता, उसकी सारी पहचान और विकास की गाथाएँ अधूरी हैं.
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