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श्रीवितरागायनमः।
श्रीउपकेश (कवला) गच्छके मुनिश्री ज्ञानसुंदर विरचित
प्रश्नमालास्तवन।
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छपावी प्रसिद्ध करनार,
जैन पाठशाला-फलोदी.
प्रथम भावृती १०००
बीर संवत् २४४२
विक्रम संवत् १९७३
भावनगर-"धी विद्या विजय " मुद्रालयमें शाह
पुरुषोत्तमदास गीगाभाई पांचभायासें मुद्रित.
कीमत ०-१-०
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प्रस्तावना.
प्रिय पाठको ए वात कीसीसे छीपी हुई नहीं है कि जैनी स्याद्वदी है और जैनीओका आगम भी स्याद्वद की गंभीर शेलीसे भरा हुवा है परन्तु अधुनीक समयमे कितनाक नामधारी+जैनी केवल ३२ सुत्रकाही मान बेठ है इसीका मुख कारण श्रीजिन प्रतिमाको वन्दनीक पुजणीक नही मानणाकाही है उनि महनुभावांसे पुछा जाता है क्या ३२ सुत्र । सच्चा हे बाकी जुठा है इसपर कितनेई केहते है की बाकी सुत्रांमे मूर्ती का अधिकार पीछेसे मीला दीया है.
प्रिय ! जब ३२ सुत्रांमे ही मुर्तीका अधिकार है तो फेर अन्य सुत्रां. मे पीछेसे मिला दिया किस वास्ते केहेते है । और क्या साबुती है कितनेक मुर्ती उत्थापक केहते है कि ३२ सूत्रका मूल पाठमे तो मुर्तीपुजा हे नहीं और टीका नियुक्ती आदिमे हे वो हम नही मानते.
प्रिय! ३२ सुत्रांका मूल पाठमे मुर्ती पुजाका अधिकार अछी तरह से श्रीगणधर भगवान ने फरमाया है वो हमारी वणई (गयवर विलास) पुस्तकमे स्पष्ट बतला दिया है। अगर आप पांचगी नहीं मानते हो इसका क्या कारण है..
(पुर्व पक्ष) मुल ३२ सुत्रांसे पांचागीमे कीतनेही बोल अमीलते है. (उत्तर पक्ष) प्रिये जैन आगममे ऐसी बात कीसी पांचागी प्रकर्ण * स्थानकवासी तैरापन्थी.
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मे नहीं है कि ३२ सुत्रांसे न मीले परन्तु उनिकी गंभीर शेलीको पीछाणा और अंतरंगत रेस्व को समजना ए बहुतही मुसीकल है.
परन्तु समयक ज्ञान शुन्य मुर्ती उत्थापक केवल अज्ञान के मारा अपणा मीथ्या कदापाके वसीभुत है के पुर्व धारी आचार्य के वचनको ____उत्थापन कर्ते है उनिसे हम ईसी स्तवन द्वारे प्रश्न पुछते है कि जो तुम ३२ सूत्र मूल पाठ मानते है तो ३२ सुत्रांमे एसे एसे बोल है कि वीगर पांचागी समाधान नहीं होता है हमारे तो पुर्व आचार्य ईनी बोलाका पांचागी द्वारे समाधान कर गया है. __अब जो पांचागी नही माननेवाला से हमारा केहना है की ३२ सुत्रांका प्रश्न ३२ सुत्रांका मूल पाठसे समाधान कर छापा द्वारे प्रगट करे नही तो अब आपका ३२ सुत्र ही मानने का कृतब्बी रंग चल. णका नहीं है।
प्रिय आप लोक पांचांगी आदि प्रकरणसे ही आपकी आजीवका चलाते हो और उनि पांचांगीको नही मानणा ए क्या कृतघ्नीपणा नहीं है तो क्या हे स्वं विचार कर लेणा हम आपके हितार्थी शीषसा देत है कि आप आपकी आत्म कल्याण करणा चाहते होते जैन आगम पांचांगी संयुक्त प्रमण कोरे अस्तु. ___ हमारे ढुंढीय और तेरापंथी भाइ ऐसा न करे कि हम जो ३२ सुत्रांका मूल पाठसे प्रश्न पूछा है जीसीका उत्तर अङ्ग बङ्गसे दे देवे हम मूल सूत्र से लेणा चाहते है वो मुल ३२ सुत्रांसे ही देवे जो मुल सुत्र से उत्तर नहीं देवेगा तो ऑम तोरसे जाहर होजावेगा कि जैन आगम की छोडके केवल ३२ सुत्र मानणा ए ऐक भद्रीक जीवांके लीए जाल रचा है परन्तु अब आपकी ढोल जीतनी पोल वीद्वतासे छीपी हुई नही है इतनाही केहके प्रस्तावना समाप्त करता हूं. श्रीरस्तु । लेखक.
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श्री रत्नप्रभसूरि गुरुभ्यो नमः ॥ श्री प्रश्नमाला स्तवनः ॥ ॥ दोहा ॥
मंगळ शासन नाथजी, मंगळ गौतम स्वांम मंगळ वाणी जिन तणी, वंछीत सीजे काम ॥ १ ॥ स्याद्वाद गंभीरता, जाणे पूर्वधार ।
पंचागी जीणने रची, खोल दीया सब तार ॥ २ ॥ नवो पंथ प्रगट हुवो, माने सूत्र बत्रीस । भोळा लोको आगले पूरे मन जगसि ॥ ३ ॥ पूछया से ती, इम कहे प्रकरण टीका माय । मीलता, बोलज को नहि, तीणसुं मानो नाय ॥ ४ ॥ तिण कारण नीचे लखुं, बत्तीस सुत्रका बोल | विनयां चरंगी दीजीये, मूल सूत्रथी खोल ॥ ५ ॥
॥ ढाल ||
आदर जीव क्षमा गुण आदर । एदेशी ।
मूल सूत्रथी उत्तर आपो, के करो पंचांगी परमाणजी || एटेक || सत्तावनसो कह्या समवायांग, मल्ली मनप्रजव जाणजी । छठ्ठे अंगे कह्या आठसो, आ जिनवरकी वाणीजी ॥ मु ॥ १ ॥ गुणसठ सो काा अवधीनाणी, समवायांगरो लेखजी । दाय सहस मल्ली जिनवरके, ज्ञाता सूत्र को देखजी ||मू ॥ २ ॥ ज्ञाता में कृश्न की राणी, वत्तसि सहसको मानजी । सोला सहस कही ते देखो, ओ अन्तगडको ज्ञानजी ॥ मू॥३॥ च्यार ज्ञान केसी स्वामी के, रायपसेणी जोयजी ।
तिन ज्ञान उत्तराध्ययन बोले, केसी स्वामी होयजी || ||४॥
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(२)
विराधी पहेले देवलोके, भगवतीमें वातजी। ज्ञातामें गाइ ईसान देवी, आटुंइ एक साथजी ।मू॥५॥ उववाइमें तप देखो, उत्कृष्ट जोतपी जायजी। भगवतीमें, तां मली, तापस, ईसांण इंद्रेक हायजी ॥॥६॥ उववाइ छटे देवलोके, जावे चोद पूर्वना धारजी। कार्तिकशेठ पहेले देवलोके, भगवतीजीमें तारजी ।।मू॥७॥ तीन करण योगथी टाले, श्रावक कर्मादानजी । उपासकमें हल निवाडा, सगडाल आनंद गुणवानजी ॥॥८॥ वेदनी कर्मकी बार मूहूर्त, जगन थिति पनवण जाणनी। तेहिज अंतर्मुहुर्त दाखी, उत्तराध्ययन की वाणजी ।मू॥९॥ भगवतामें बाल मरणथी, वदे अनंत संसारजी। ठाणायंगमें दो मरणकी, आज्ञा दी करतारजी |मु॥१०॥ चौदे पूर्व महावल भण्यो, भगवती ब्रह्म देवलोकजी। . छहाथी नीचे नहि जावे, उपवाइ सुत्र अवलोकजी ।।मू॥११॥ लसण मांहे जीव अनंता, उत्तराध्ययनमें सारजी। प्रत्तीक काय पनवणा बोले, पंचागी लो घारजी ।।मु॥१२॥ दोय भाषारी आज्ञा नहि, दश वीकालक जाणनी । चार भाषा अलराद्धी बोली, पनवणाकी वाणजी ॥मू॥१३॥ दश विकालक चित्रामकी नारी, नहिरे हे अणगारजी । ठाणयंग के पंचमे ठाणे, साधु आजीयां रेवे लारजी ॥॥१४॥ रोग आयो औषद नहि करणो, उत्तराध्ययनमें लेखनी । वरिप्रभुजी औषध कीनो, भगवती लो देखनी ॥॥१५॥ दशवकालिक भोजन करवो, एक भक्त को माननी । वकिट भोजी तपसी साधु, ओ कल्पसुत्रको ज्ञानजी ॥॥१६॥
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(३)
अल्पछटां जावे गोचरी, कल्पसूत्रमें जाणजी । वर्षतां बीलकुल नहि जावे दशविकालीक वाणीजी ॥ मू॥ १७॥ भगवती में अणसण कधो, कदाचित करे आहारजी । बीजो सुत्रत्रत भंग को, लागे दोष अपारजी ||५||१८ ॥ पनवणामें स्त्री वेदका, स्थितिका पंच आदेशजी । सर्वज्ञका मतमे किम चाले, पीण छे सुत्रनी रेसजी ॥ मू॥ १९ ॥ राजपिंड साधु नहि लेवे, ठाणायांगमें जाणजी । देवकी वहराया छे साधुने, अन्तगडकी वाणी जी || ||२०|| पंचवीश जोजन उपद्रवनहि होवे, समवायांग अतीसय अधीकारजी अभंग सेणीदी मुली चडीया, विपाक सुत्र मुजारजी | मू||२१| दोय साधु समोसरण मांये, बाल्या गोसालो आणजी । लोहांण हुव भगवंत के, आ भगवतीनी वाणीजी ॥ मू॥ २२ ॥ समवायांगमें श्रावक केरा, चैस हुडीमें होयजी । उपासक सुत्रमें देखो, पाठ न दीसे कोयजी ॥ मु॥२३॥ अल्प आयुषो ठाणायंगजी, देदो खीलो आहारजी । अल्प पापने बहु निर्जरा, भगवती सुत्र मंझारजी ||मू ॥ २४॥ पंच महानदी नहीं उतरणी, ठाणायंगरो लेखजी । मार्ग जातां नदी उतरे, आचारांग लो देखजी || ||२५|| चोमासामें विहार नहि करणो, बृहत् कल्पकी साखजी । पंचमें ठाणे विहार करणा को, वितराग गया भाखीजी ॥मू॥ २६ त्रिविधे २ हिंसा नहि करणी, आचारंग दसवि कालजी । नंदि उतरे नावे बेठे, आचारंगमें भालजी || ||२७|| कल्पसूत्र साधु, वर साले विगे नहि लेवे वारमवारजी । सुयगडांगमें निषेध कीनो, नहि लेवे अणगारजी ||||२८||
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(४) सचित्त मिश्र वस्तु नहि खाणी, दश विकालिक जाणजी । आचारंगमें लुण खावणकी, आ जीनवरकी आणजी ।मू।२९। भगवती मुत्रमें देखो, निबडो तिखो होयजी। कडवो कह्यो अध्ययन चेत्तिसे, उतराध्येन लो जोयजी।।३०। जुठ बोलवारा त्यागज कीना, दशविकालिक जाणजी । आचारांग 'मृगादिक' ताइ, जुठ बोले दया आणजी ।।३।। समवायांग तेइस तीर्थकर, सूर्य उगो केवळ ज्ञानजी। नमीश्वर पाछले पोहरे, दशाश्रुत स्कंध पीछणनी ॥५॥३२॥ सूर्य उगतां ज्ञान उपनो, तेवीश तीर्थकर जाणजी । पाछले पोहेरे मल्ली जानवर, ए ज्ञातासूत्रकी वाणनी।।३३॥ दश प्रकारे वैयावच्च बोली, उववाइमें लेखनी । हरकेसीकी वैयावच्च करतां, जक्ष ब्राह्मण हणीया देखगी।।३४। प्राणभूत जीव सचने, दुःख नहि देणो कोयजी । प्रत्यक्ष मांहे ब्राह्मणहणीया,वैयावच्चकीणविध होयगी।मू।३५। ठाणायंगे मल्ली जीनवर, दिक्षा लिची जीणा सातजी । छसो जीण साते निकल्पा, आ ज्ञातासुत्र की वातनी ।मू।३६। मल्ली जीनने केवळ उपनो, पछी मंत्री दीक्षा जाणजी । सात जीण साथे दीक्षा, आ ठाणायंगकी वाणजी।मु॥३७॥ पसु पंडिग रहित होसेन्जा, उत्तराध्ययन रहे अणगारजी साधु साध्वी भेला रहे, ठाणायंग मुत्र मंजारजी ।।मु॥३८॥ निषेद प्रशंसा नहि करणी, सुयगडांग सावद्य दानजी । एकांत पाप कह्यो जीनवरजी, आ भगवती को ज्ञानजी ।मु।३९। नन्दन वन पांचसो योजनको, जंबुद्विप पन्नति वायजी! . बलकुठ शहस जोजनको तेमे केम समायजी मु॥४०॥ ..
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पांचसो जोजनकी चोडादा रव्या, गजदंता दोय जाणजी। उपरकुट शहस जोजनको, जंबुद्धिप पन्नति वखाणजी ॥7॥४१॥ रुषभ कुटको पहेला पणौ, आठ जोजनको मुलजी। पाठांतर बार जोजनको, जंबुद्विप पन्नति सु मूलजी ॥॥४२॥ अर्द्ध भरतकी जीवा दाखी, जंबुद्विप पन्नति मजारजी। . नव सहस सातसो अडतालीश, बारा कला विचारजी ।मु।४३। चोथे अंगे तेहीज जीवा, नव हजारको मानजी । पंचागी वीना ते कीम जाणे, हिरदे आणो ज्ञानजी ।मु॥४४॥ चोथे अंगे जगन थिति, बत्तीस सागर बीजे वीमाणजी । पन्नवणमे ईगतीस सागर, जघन्न थिति परमाणजी ।मु॥४५॥ रुषभ वीरके वीचे समवायांग, अंतरो कोडा कोड एकजी । बयालीस सहसवर्ष छे उणा,जंबुद्विप पन्नति लो देखजी।मु।४६। साधु आधा कर्मी आहार भोगवे, सुयगडांग बोले एमजी । कर्मोथी लेपे नहि लेप, दो वता मीले केमजी ॥।॥४७॥ भगवती सुत्रम देखो, आघाकर्मी अधिकारजी। चउगतीको कयो पोवणो, रुले बहुत संसारजी ।।मु॥४८॥ उणो सहस तेतीस सूर्य, चक्षु फर्सचोथे अंगनी। बत्तीस सहस एक जोजन जाजे, जंबुद्विप पन्नति चंगजी मु।४९। सतक आठ उदेसो दशमी, भगवती अंग पेछाणजी। पोग्गले पोगाली कयो जीवने, तेहनो सु परमाणजी ॥मु॥५०॥ सोला नाम मेरुका चाल्या, समवायांगमे जोयजी। आठमो प्रयदर्शन दाख्यो, चौदमो उत्तर होयजी ।मु॥५१॥ .. तिमहिज जंबुद्विप पन्नति, मेरुका सोला नामजी। ..... आठमो सलोचय चौदमो उत्तम, ओपचांगीको कामनीम।५२॥
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अण आहारी दोसमा थीति, पन्नवण पीछाणजी। तीन समा भगवती बोले, आजीनवरकी आणजी मु॥५३॥ चर्म तीर्थंकर कल्पसुत्रे, बेयालीस वर्ष दिक्षा संगजी । बायालीस वर्ष जाजरा, देखो चोथो अंगनी ॥मु॥५४॥ जीवा भिगम रुचक द्विपको, कह्यो असंख्यातो मानजी । ठाम दुणो संख्यातो आवे, जोवो जीनवरको ज्ञानजी ।मु।५५। मेरु कंड अडतीस सहसको, समवायांगमें होयजी । तेहिज छत्तीस सहस बतायो, जंबुद्विप पन्नति जोयजी ।।५६। इगसठ संहस जोजनको जाणे, समवायांग दुजौ कांडजी । तेसठ हजार जोजनको देखो, जंबुद्विप पन्नतिमांडजी ।मु।५७। नव हजार नवसो जोजनको, नन्दनवन चोयो अंगजी । चौपन जोजन जाजरो दाख्यो, जोवो पंचमे उपांगजी मु।५८। दशमे अंगे बत्तीसइद्र, अडतालीश पांचमे उपांगजी । चौष्ट कह्या दुजेठाणे, देखो तीजे अंगजी ।।५९। सिद्धांकी अवगणा उववाइ, बत्तीस अंगुलको माननी । जगन्य सात हाथको सीद्धे, ओ भगवतीको ज्ञानजी ।।६। सीद्ध सीलाथी उणो जोजन, सीद क्षेत्र भगवती जाणजी उववाइमे पुरो जोजन, करो पंचागी परमाणजी ॥॥६१।। छठीनरकका मध्य भागसु, धणोदधिनो चरमांतजी। गुणीयासी सहस्रसमवायांग बोले, श्री जीनवाणी सत्यजीम।६२। जिवाभिगम गिणती करतां, इठितर सहस्रजोजन परमाणजी। पंचागी विनते किम जाणो, हिरदे आणो नाणजी ॥॥६३।। रेवंतिथी जेष्टातांइ, तारा अठाणु होयजी। गीणती करतां सत्ताणुं आवे, समवायांगलो जोयजी ।।मू॥६॥
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नव जोजन धाणेंद्रि विषे, पन्नवणामे जाणजी । च्यार पांचसो जोजन दाखी, दुजे उपांग परमाणजी ||६५| भगवतीमें पलंकालको, कुवा तणो को मानजी । तेथी फर्क घणेरी दिसे, अणुयोग द्वारको ज्ञानजी || || ६६ ॥ असुर अवधि ज्ञान जग नथी, पचीस जोजन चोथे उपांगजी । अंगुल भाग असंख्यो दाख्यो, देव सुधर्मा चंगजी ॥४॥६७॥ बादर ते मनुष्य लोकमे, पन्नवणा पेछाणजी । देखो अनि कही नरकमें उतराध्ययन ओगणीसमे जाणजी | मु|६८ | शोरीपुरमें नेमीनाथजी, कथा, उत्तराध्ययन मजारजी । दिक्षा लेतो कहि द्वारका, मुलथी काडो सारजी || ||६९ || शौरीपुर पूर्वमें जाणो, द्वारका पश्चिम दिस जाणजी । राम कृश्न वंदन कर चाल्या, आ जीनवरकी वाणजी | मु|७० सात कुलधरका नाम बताया, ठाणांयंग ठाणौ सातजी । दश कुलधरक कह्या दशमे ठाणे, मुलथी मेलौ वातजी ॥ म्॥ ७१ ॥ तिहीज आवती उसपणी जाणे, कुलधरको अधिकारजी । सातमे दशमे ठाणो देखो, उपरवत् विचारजी ॥॥७२॥ सुधर्म इशान कह्यो बरोवर, जिवाभिगम जोयजी । भगवती सूत्रमे देखो, इशान उंचो होयजी ॥ ॥ ७३ ॥ तिछ गति कही असुरकी, नंदीश्वर दीप मजारजी । राजधानी असंख्या दीपे, भगवती अंग विचारजी ॥ ॥ ७४ ॥ माहावेदना, समद्रष्टी, नेरीयां, पहेले सतके थायजी ।
सतक अठारे उदेशो पांचमो, अल्प वेदना कहेवायजी ।।७५ बारमो तीर्थंकर को कृश्नने, अंतगड अधीकारजी जिनवर होसी तेरमो देखो, समवायांग सूत्र मोजारजी।। मु७६॥
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(८)
मनुष्य तिर्यचको काल वेक्र, अंतर्मुहूर्त पांचमे अंगजी । भीभमूहूर्त च्चार बताया, जोवो तीजे उपांगजी ॥॥७७॥ जगन्न अरादी रत्न त्रीयकौ, नव करे सत अठजी । नर देवे उत्कृष्टो रेवे, अद्ध पुदगल मठजी || मु॥७८॥ भगवती में निद्रा लेतो, सात आठ बंदे कर्मजी । तीजा पहोरे निद्रा लेणी, उत्तराध्ययनमें मर्मजी ॥॥ ७९ ॥ असंघेणी का नेरीया, जोवो तीजे उपांगजी । उत्तराध्ययन सुयगडांग देखो, मांस खपावे करे तंगजी ||८० ॥ दिव्य संधेणी क्या देवता, लेवो पन्नवणा देखजी । असंघेणी जाणो देवता, जीवाभिगम को लेखजी ॥ ॥८१॥ भगवती असन्नी मनुष्यको, अडतालीस मूहूर्त अवठीया कालजी चोवीस मोहुर्तको, वीहरो, बतायो, पन्नवणामें नालजी ||८२ ब्रह्म कल्पविमण ठाणायंग, रक्त स्वयंम नीलवर्ण जाणजी । रक्त पेत सुकल बतायौ, जीवाभिगम पिछाणजी ||८३ समवायांग भगवती मांडे, शक्र स्तवन अधिकारजी दोनु पाठ फर्कज दीसे, पंचागी लो धारजी ॥॥८४॥ पांचसो तीस भेद बताया, पुद्गल पन्नवणा लेखजी । चारसो व्यासी दाख्या जीनंबर, उत्तराध्ययन लो देखजी | मु॥८५॥ जघन कलमेषी, सुधर्म, जावे, पन्नवणा की वायजी । भगवती सुत्रमे देखो, भूवन पतीमें जायजी || ||८६॥ सारण करतो में नहि जाणुं, कल्प सूत्र परमाणजी । आचारंगमें कहेमे जाणुं, आ वीर जीणदकी बाणजी ॥ ॥८७॥ पहेला देवने पछे मनुष्यने, धर्म कह्यो जगनाथजी । अछेरामे वाणी निष्फळ, मेलो मुलके साथजी ॥८८॥
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(९)
योग बायो हिंसाहुवे, भगवतीमें वातजी। आज्ञादि सुभ योगकी प्रभु, मेलो उववाइ सातजी ॥मु॥८९।। बारा व्रत लेसुं इम बोल्यो, आणंद उपासक जोयजी। आठत उचरीयां जाणौ, अतिचार वारेका होयजी मु।९। वनस्पति संघट्टो नहि करणो, भगवतीमे लेखजी। झाड पकड खाडासु नीकले, आचारंग लो देखजी ।मु॥९१॥ समय मात्र प्रमाद न करणो, उत्तराध्ययन दशमे जाणजी। तीजी पेहेरे निद्रा लेणी, छावीसमे अध्ययन परमाणजी ।मु।९२॥ गृहस्तीने कठण नहि बोले, निशीथ सूत्रमें लेखजी। केसी कहे मुह तुच्छ प्रदशी, रायपसेणी लो देखजी ॥।॥१३॥ निसाथमे साधुने वरज्यौ, कोई चीज देखवा जायजी। विपाक गौतम मृगा लौढौ, देखो जीनवर भायजी (मु१४॥ गृहस्तीसे प्रचो नहि करणो, दश विकालीक जाणजी। गौतम अंगुली पकडी अमंतो, आ अंतगडकी वाणजी ।मु[९५। छ पुरुष सातमी स्त्री, अंतगड अर्जुन जाणजी। पुरुष सातमो छे कही स्त्री, प्रगट पाठ परमाणजी मू॥९६।। इत्यादि बहु बोलवालीया, मूलसूत्रमें नालजी। स्याद्वादकी सेली विना, तेकिम जाणे बालजी ।मु।।९७॥ जो नहि माने ते पंचागी, तासुं कहीये तेमजी । मूल पाठथी उत्तर आपो, जब बोले पाधरा एमजी ॥7॥९८॥ परमपरा नवले धारणा, टबा अर्थमे जोयजी । मत यक्षारा वातां सुणतो, आश्चर्य उपजे मोयजी ।मु॥१९॥ लुकाजी मजुरी करता, चोरीसे उलटो ज्ञानजी। परंपरा तुमे केहनी चालो, हिरदे आणो ज्ञानजी ॥मू॥१०॥ टबा वालो हेला पाडे, में कीयो. टीका अनुसारजी। ..
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(१०) टबो माने टीका नहि माने, वे डबे डुबावण हारजी॥॥१०॥ भद्रबाहु स्वामी कृत्ति कीनी, ते बहु कठण जाणजी। तेनी सुगम करी आचारज, ते दृषि परमाणजी ॥7॥१०२॥ वादी कहे वातो पंचागी, गइ कालमें वीतजी । नवी रची आचारज ज्यारी, कीम आवे प्रतीतजी ॥४॥१०३॥ सुत्र रह्या " नियुक्ति" वोती, तेहना सुपरमाणजी। आचारज रच्या नहि मानो, आगो सुणजो वाणजी।मु।१०४। तीन छेद भद्रबाहु रच्या, पन्नवणा श्यमाचारजी। देवठ्ठी गणीजी नंदी बणाइ, दश विकालीक सज्जभव गण
धारजी ।।मु॥१०५॥ धर्म धुरंधर पुर्व धारी, टीका करतां जाणजी। काम पडे जद बोल चालको, सरणां लेवो आणजी मू।१०६। जैनी नाम धरावे फोगट, जिन आगमथी दुरजी। तेहिज भाची पंडत भाजो, कृतघ्नीने क्रुरजी ॥॥१०७॥ मुल सहीत पंचागी मानो, दो बहु आदर मानजी । स्याद्वादकी शैली समाजो लो गुरु गमशे ज्ञानी ।।१०८॥
॥ कलस ॥ नाभि रायकुल वंसभुसण, मारुदेवा मायनी । " अष्टापद" पर आप सिध्या, गयवर प्रणमे पायजी ।। एकादशी अषाढ सुकल, उगणीश बहुत्तर सालजी। देस मरुधर गांव तिवरी, प्रभु जोडी प्रश्नमालजी ॥१॥
॥ इति श्री प्रश्नमाला संपूर्ण ॥ इन प्रश्नोका ऊत्तर ३२ सुत्र मानणेवाला (ढुंढीया या तेरापन्थी) दोनु एक मासके अंदर प्रगट करे ताके आपके अंध सरद्धालु मत पक्षीयां के मीथ्यात्वका नसा फोरन् उत्तर के ४ समक्ति रत्नकी प्राप्ति हो अस्तु.
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