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(४) सचित्त मिश्र वस्तु नहि खाणी, दश विकालिक जाणजी । आचारंगमें लुण खावणकी, आ जीनवरकी आणजी ।मू।२९। भगवती मुत्रमें देखो, निबडो तिखो होयजी। कडवो कह्यो अध्ययन चेत्तिसे, उतराध्येन लो जोयजी।।३०। जुठ बोलवारा त्यागज कीना, दशविकालिक जाणजी । आचारांग 'मृगादिक' ताइ, जुठ बोले दया आणजी ।।३।। समवायांग तेइस तीर्थकर, सूर्य उगो केवळ ज्ञानजी। नमीश्वर पाछले पोहरे, दशाश्रुत स्कंध पीछणनी ॥५॥३२॥ सूर्य उगतां ज्ञान उपनो, तेवीश तीर्थकर जाणजी । पाछले पोहेरे मल्ली जानवर, ए ज्ञातासूत्रकी वाणनी।।३३॥ दश प्रकारे वैयावच्च बोली, उववाइमें लेखनी । हरकेसीकी वैयावच्च करतां, जक्ष ब्राह्मण हणीया देखगी।।३४। प्राणभूत जीव सचने, दुःख नहि देणो कोयजी । प्रत्यक्ष मांहे ब्राह्मणहणीया,वैयावच्चकीणविध होयगी।मू।३५। ठाणायंगे मल्ली जीनवर, दिक्षा लिची जीणा सातजी । छसो जीण साते निकल्पा, आ ज्ञातासुत्र की वातनी ।मू।३६। मल्ली जीनने केवळ उपनो, पछी मंत्री दीक्षा जाणजी । सात जीण साथे दीक्षा, आ ठाणायंगकी वाणजी।मु॥३७॥ पसु पंडिग रहित होसेन्जा, उत्तराध्ययन रहे अणगारजी साधु साध्वी भेला रहे, ठाणायंग मुत्र मंजारजी ।।मु॥३८॥ निषेद प्रशंसा नहि करणी, सुयगडांग सावद्य दानजी । एकांत पाप कह्यो जीनवरजी, आ भगवती को ज्ञानजी ।मु।३९। नन्दन वन पांचसो योजनको, जंबुद्विप पन्नति वायजी! . बलकुठ शहस जोजनको तेमे केम समायजी मु॥४०॥ ..