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नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन
जिस प्रकार वेदों के शब्दों की व्याख्या के रूप में सर्वप्रथम निरुक्त सा अर्थ किस प्रसंग में उपयुक्त है, यह निर्णय करना आवश्यक होता लिखे गये, सम्भवतः उसी प्रकार जैन परम्परा में आगमों की व्याख्या है। भगवान् महावीर के उपदेश के आधार पर लिखित आगमिक ग्रन्थों के लिए सर्वप्रथम नियुक्तियाँ लिखने का कार्य हुआ। जैन आगमों की में कौन से शब्द का क्या अर्थ है, इसे स्पष्ट करना ही नियुक्ति का व्याख्या के रूप में लिखे गये ग्रन्थों में नियुक्तियाँ प्राचीनतम हैं। आगमिक प्रयोजन है।" दूसरे शब्दों में नियुक्ति जैन परम्परा के पारिभाषिक शब्दों व्याख्या साहित्य मुख्य रूप से निम पाँच रूप में विभक्त किया जा का स्पष्टीकरण है। यहाँ हमें स्मरण रहे कि जैन परम्परा में अनेक सकता है-१. नियुक्ति २. भाष्य ३. चूर्णि ४. संस्कृत वृत्तियाँ एवं शब्द अपने व्युत्पत्तिपरक अर्थ में गृहीत न होकर अपने पारिभाषिक टीकाएँ और ५. टब्बा अर्थात् आगमिक शब्दों को स्पष्ट करने के लिए अर्थ में गृहीत हैं, जैसे-अस्तिकायों के प्रसंग में 'धर्म' एवं 'अधर्म' प्राचीन मरु-गुर्जर में लिखा गया आगमों का शब्दार्थ। इनके अतिरिक्त शब्द, कर्म सिद्धान्त के सन्दर्भ में प्रयुक्त 'कर्म' शब्द अथवा स्याद्वाद सम्प्रति आधुनिक भाषाओं यथा हिन्दी, गुजराती एवं अंग्रेजी में भी में प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द। आचारांग में 'दंसण' (दर्शन) शब्द का जो आगमों पर व्याख्याएँ लिखी जा रही हैं।
अर्थ है, उत्तराध्ययन में उसका वही अर्थ नहीं है। दर्शनावरण में दर्शन सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् शान्टियर उत्तराध्ययनसूत्र की भूमिका शब्द का जो अर्थ होता है वही अर्थ दर्शनमोह के सन्दर्भ में नहीं होता में नियुक्ति की परिभाषा को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि 'नियुक्तियाँ है। अत: आगम ग्रन्थों में शब्द के प्रसंगानुसार अर्थ का निर्धारण करने मुख्य रूप से केवल विषयसूची का काम करती हैं। वे सभी विस्तारयुक्त में नियुक्तियों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। घटनाओं को संक्षेप में उल्लिखित करती हैं।'
नियुक्तियों की व्याख्या-शैली का आधार मुख्य रूप से जैन परम्परा अनुयोगद्वारसूत्र में नियुक्तियों के तीन विभाग किये गये हैं- में प्रचलित निक्षेप-पद्धति रही है। जैन परम्परा में वाक्य के अर्थ का
१. निक्षेप नियुक्ति- इसमें निक्षेपों के आधार पर पारिभाषिक निश्चय नयों के आधार पर एवं शब्द के अर्थ का निश्चय निक्षेपों के शब्दों का अर्थ स्पष्ट किया जाता है।
आधार पर होता है। निक्षेप चार हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। २. उपोद्घात नियुक्ति- इसमें आगम में वर्णित विषय का इन चार निक्षेपों के आधार पर एक ही शब्द के चार भिन्न अर्थ हो पूर्वभूमिका के रूप में स्पष्टीकरण किया जाता है।
सकते हैं। निक्षेप-पद्धति में शब्द के सम्भावित विविध अर्थों का उल्लेख ३. सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति- इसमें आगम की विषय-वस्तु का कर उनमें से अप्रस्तुत अर्थ का निषेध करके प्रस्तुत अर्थ का ग्रहण उल्लेख किया जाता है।
किया जाता है। उदाहरण के रूप में आवश्यकनियुक्ति के प्रारम्भ में प्रो. घाटगे ने इण्डियन हिस्टारिकल क्वार्टरली, खण्ड १२, अभिनिबोध ज्ञान के चार भेदों के उल्लेख के पश्चात् उनके अर्थों को पृ० २७० में नियुक्तियों को निम्न तीन विभागों में विभक्त किया है- स्पष्ट करते हुये कहा गया है कि अर्थों (पदार्थों) का ग्रहण अवग्रह
१. शुद्ध नियुक्तियाँ- जिनमें काल के प्रभाव से कुछ भी मिश्रण है एवं उनके सम्बन्ध में चिन्तन ईहा है। इसी प्रकार नियुक्तियों में न हुआ हो, जैसे आचारांग और सूत्रकृतांग की नियुक्तियाँ। किसी एक शब्द के पर्यायवाची अन्य शब्दों का भी संकलन किया
२. मिश्रित किन्तु व्यवच्छेद्य नियुक्तियाँ- जिनमें मूलभाष्यों का गया है, जैसे- आभिनिबोधिक शब्द के पर्याय हैं- ईहा, अपोह, संमिश्रण हो गया है, तथापि वे व्यवच्छेद्य हैं, जैसे दशवैकालिक और विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति एवं प्रज्ञा। नियुक्तियों आवश्यकसूत्र की नियुक्तियाँ।
की विशेषता यह है कि जहाँ एक ओर वे आगमों के महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक ३. भाष्य मिश्रित-नियुक्तियाँ-वे नियुक्तियाँ जो आजकल भाष्य शब्दों के अर्थों को स्पष्ट करती हैं, वहीं आगमों के विभिन्न अध्ययनों या बृहद्भाष्य में ही समाहित हो गयी हैं और उन दोनों को पृथक्- और उद्देशकों का संक्षिप्त विवरण भी देती हैं। यद्यपि इस प्रकार की पृथक् करना कठिन है जैसे निशीथ आदि की नियुक्तियाँ। प्रवृत्ति सभी नियुक्तियों में नहीं है, फिर भी उनमें आगमों के पारिभाषिक
नियुक्तियाँ वस्तुत: आगमिक परिभाषिक शब्दों एवं आगमिक शब्दों के अर्थ का तथा उनकी विषय-वस्तु का अति संक्षिप्त परिचय विषयों के अर्थ को सुनिश्चित करने का एक प्रयत्न हैं। फिर भी नियुक्तियाँ प्राप्त हो जाता है। अति संक्षिप्त हैं, इनमें मात्र आगमिक शब्दों एवं विषयों के अर्थ-संकेत ही हैं, जिन्हें भाष्य और टीकाओं के माध्यम से ही सम्यक प्रकार से प्रमुख नियुक्तियाँ समझा जा सकता है। जैन आगमों की व्याख्या के रूप में जिन नियुक्तियों आवश्यकनियुक्ति में लेखक ने जिन दस नियुक्तियों के लिखने का प्रणयन हुआ, वे मुख्यत: प्राकृत गाथाओं में हैं। आवश्यकनियुक्ति की प्रतिज्ञा की थी, वे निम्न हैंमें नियुक्ति शब्द का अर्थ और नियुक्तियों के लिखने का प्रयोजन बताते १. आवश्यकनियुक्ति हुए कहा गया है-“एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, अत: कौन २. दशवैकालिकनियुक्ति
प्रवृत्ति सम
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ग्रन्थ नहीं है। इनमें से पिण्डनियमानयुक्ति को भी समाति
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४७ ३. उत्तराध्ययननियुक्ति
पिण्डनियुक्ति, ओघनियुक्ति एवं आराधनानियुक्ति को भी समाविष्ट किया ४. आचारांगनियुक्ति
जाता है, किन्तु इनमें से पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति कोई स्वतन्त्र ५. सूत्रकृतांगनियुक्ति
ग्रन्थ नहीं है। पिण्डनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति का एक भाग है और ६. दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति
ओघनियुक्ति भी आवश्यकनियुक्ति का एक अंश है। अत: इन दोनों ७. बृहत्कल्पनियुक्ति
को स्वतन्त्र नियुक्ति ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि वर्तमान में ८. व्यवहारनियुक्ति
ये दोनों नियुक्तियाँ अपने मूल ग्रन्थ से अलग होकर स्वतन्त्र रूप में ९. सूर्य प्रज्ञप्तिनियुक्ति
ही उपलब्ध होती हैं। आचार्य मलयगिरि ने पिण्डनियुक्ति को १०. ऋषिभाषितनियुक्ति
दशवैकालिकनियुक्ति का ही एक विभाग माना है, उनके अनुसार वर्तमान में उपर्युक्त दस में से आठ ही नियुक्तियाँ उपलब्ध हैं, दशवैकालिक के पिण्डैषणा नामक पाँचवें अध्ययन पर विशद नियुक्ति अन्तिम दो अनुपलब्ध हैं। आज यह निश्चय कर पाना अति कठिन होने से उसको वहाँ से पृथक् करके पिण्डनियुक्ति के नाम से एक है कि ये अन्तिम दो नियुक्तियाँ लिखी भी गयी या नहीं? क्योंकि स्वतन्त्र ग्रन्थ बना दिया गया। मलयगिरि स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हमें कहीं भी ऐसा कोई निर्देश उपलब्ध नहीं होता, जिसके आधार जहाँ दशवैकालिक नियुक्ति में लेखक ने नमस्कारपूर्वक प्रारम्भ किया, पर हम यह कह सकें कि किसी काल में ये नियुक्तियाँ रहीं और बाद वहीं पिण्डनियुक्ति में ऐसा नहीं है, अत: पिण्डनियुक्ति स्वतन्त्र ग्रन्थ में विलुप्त हो गयीं। यद्यपि मैंने अपनी ऋषिभाषित की भूमिका में नहीं है। दशवैकालिकनियुक्ति तथा आवश्यकनियुक्ति से इन्हें बहुत पहले यह सम्भावना व्यक्त की है कि वर्तमान 'इसीमण्डलत्यु' सम्भवतः ही अलग कर दिया गया था। जहाँ तक आराधनानियुक्ति का प्रश्न है, ऋषिभाषितनियुक्ति का परवर्तित रूप हो, किन्तु इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर साहित्य में तो कहीं भी इसका उल्लेख नहीं है। प्रो० ए० निर्णयात्मक रूप से कुछ भी कहना कठिन है। इन दोनों नियुक्तियों एन० उपाध्ये ने बृहत्कथाकोश की अपनी प्रस्तावना (पृ०३१) में के सन्दर्भ में हमारे सामने तीन विकल्प हो सकते हैं
मूलाचार की एक गाथा पर वसुनन्दी की टीका के आधार पर इसी १. सर्वप्रथम यदि हम यह मानें कि इन दसों नियुक्तियों के लेखक नियुक्ति का उल्लेख किया है, किन्तु आराधनानियुक्ति की उनकी यह एक ही व्यक्ति हैं और उन्होंने इन नियुक्तियों की रचना उसी क्रम में कल्पना यथार्थ नहीं है। मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दी स्वयं एवं प्रो० की है, जिस क्रम से इनका उल्लेख आवश्यक नियुक्ति में है, तो ए० एन० उपाध्ये जी मूलाचार की उस गाथा के अर्थ को सम्यक् ऐसी स्थिति में यह सम्भव है कि वे अपने जीवन-काल में आठ नियुक्तियों प्रकार से समझ नहीं पाये हैं। की ही रचना कर पायें हों तथा अन्तिम दो की रचना नहीं कर वह गाथा निम्नानुसार हैपायें हों।
"आराहण णिज्जुत्ति मरणविभत्ती य संगहत्युदिओ। २. दूसरे यह भी सम्भव है कि ग्रन्थों के महत्त्व को ध्यान में पच्चक्खाणावसय धम्मकहाओ य एरिसओ।" रखते हुए प्रथम तो लेखक ने यह प्रतिज्ञा कर ली हो कि वह दसों
(मूलाचार, पंचाचाराधिकार, २७९) आगम ग्रन्थों पर नियुक्ति लिखेगा, किन्तु जब उसने इन दोनों आगम अर्थात् आराधना, नियुक्ति, मरणविभक्ति, संग्रहणीसूत्र, स्तुति ग्रन्थों का अध्ययन कर यह देखा कि सूर्य प्रज्ञप्ति में जैन-आचार मर्यादाओं (वीरस्तुति), प्रत्याख्यान (महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान), आवश्यकसूत्र, के प्रतिकूल कुछ उल्लेख हैं और ऋषिभाषित में नारद, मंखलिगोशाल धर्मकथा तथा ऐसे अन्य ग्रन्थों का अध्ययन अस्वाध्याय काल में किया आदि उन व्यक्तियों के उपदेश संकलित हैं जो जैन परम्परा के लिए जा सकता है। वस्तुत: मूलाचार की इस गाथा के अनुसार आराधना विवादास्पद हैं, तो उसने इन पर नियुक्ति लिखने का विचार स्थगित एवं नियुक्ति ये अलग-अलग स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं। इसमें आराधना से तात्पर्य कर दिया हो।
आराधना नामक प्रकीर्णक अथवा भगवती आराधना से तथा नियुक्ति ३. तीसरी सम्भावना यह भी है कि उन्होंने इन दोनों ग्रन्थों पर से तात्पर्य आवश्यक आदि सभी नियुक्तियों से है। नियुक्तियाँ लिखी हों किन्तु इनमें भी विवादित विषयों का उल्लेख होने अत: आराधनानियुक्ति नामक नियुक्ति की कल्पना अयथार्थ है। से इन नियुक्तियों को पठन-पाठन से बाहर रखा गया हो और फलतः इस नियुक्ति के अस्तित्व की कोई सूचना अन्यत्र भी नहीं मिलती है अपनी उपेक्षा के कारण कालक्रम में वे विलुप्त हो गयी हों। यद्यपि और न यह ग्रन्थ ही उपलब्ध होता है। इन दस नियुक्तियों के अतिरिक्त यहाँ एक शंका हो सकती है कि यदि जैन आचार्यों ने विवादित होते आर्य गोविन्द की गोविन्दनियुक्ति का भी उल्लेख मिलता है, किन्तु हुए भी इन दोनों ग्रन्थों को संरक्षित करके रखा, तो उन्होंने इनकी यह भी नियुक्ति वर्तमान में अनुपलब्ध है। इनका उल्लेख नन्दीसूत्र', नियुक्तियों को संरक्षित करके क्यों नहीं रखा?
व्यवहारभाष्य', आवश्यकचूर्णि", एवं निशीथचूर्णि११ में मिलता है। ४. एक अन्य विकल्प यह भी हो सकता है कि जिस प्रकार इस नियुक्ति की विषय-वस्तु मुख्य रूप से एकेन्द्रिय अर्थात् पृथ्वी, दर्शनप्रभावक ग्रन्थ के रूप में मान्य गोविन्दनियुक्ति विलुप्त हो गई पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि में जीवन की सिद्धि करना था। है, उसी प्रकार ये नियुक्तियाँ भी विलुप्त हो गई हों।
इसे गोविन्द नामक आचार्य ने बनाया था और उनके नाम के आधार - नियुक्ति साहित्य में उपर्युक्त दस नियुक्तियों के अतिरिक्त पर ही इसका नामकरण हुआ है। कथानकों के अनुसार ये बौद्ध परम्परा
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ से आकर जैन परम्परा में दीक्षित हुए थे। मेरी दृष्टि में यह नियुक्ति ३. आवश्यकनियुक्ति के बाद दशवैकालिकनियुक्ति और फिर आचारांग के प्रथम अध्ययन और दशवैकालिक के चतुर्थ षड्- उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना हुई, यह तो पूर्व चर्चा से सिद्ध हो चुका जीवनिकाय नामक अध्ययन से सम्बन्धित रही होगी और इसका उद्देश्य है। इन तीनों नियुक्तियों की रचना के पश्चात् आचारांगनियुक्ति की रचना बौद्धों के विरुद्ध पृथ्वी, पानी आदि में जीवन की सिद्धि करना रहा हुई है, क्योंकि आचारांगनियुक्ति की गाथा ५ में कहा गया है- 'आयारे होगा। यही कारण है कि इसकी गणना दर्शन प्रभावक ग्रन्थ में की अंगम्मि य पुव्बुद्दिट्ठा चउक्कयं निक्खेवो'-आचार और अंग के निक्षेपों गयी है। संज्ञी-श्रुत के सन्दर्भ में इसका उल्लेख भी यही बताता है।१२ का विवेचन पहले हो चुका है।२२ दशवैकालिकनियुक्ति में दशवैकालिकसूत्र
इसी प्रकार संसक्तनियुक्ति'३ नामक एक और नियुक्ति का उल्लेख के क्षुल्लकाचार अध्ययन की नियुक्ति (गाथा ७९-८८) में 'आचार' मिलता है। इसमें ८४ आगमों के सम्बन्ध में उल्लेख है। इसमें मात्र शब्द के अर्थ का विवेचन तथा उत्तराध्ययननियुक्ति में उत्तराध्ययनसूत्र ९४ गाथाएँ हैं। ८४ आगमों का उल्लेख होने से विद्वानों ने इसे पर्याप्त के तृतीय 'चतुरंग' अध्ययन की नियुक्ति करते हुए गाथा १४३-१४४ परवर्ती एवं विसंगत रचना माना है। अत: इसे प्राचीन नियुक्ति साहित्य में 'अंग' शब्द का विवेचन किया है। २३ अतः यह सिद्ध होता है कि में परिगणित नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार वर्तमान नियुक्तियाँ आवश्यक, दशवैकालिक एवं उत्तराध्ययन के पश्चात् ही आचारांगनियुक्ति दस नियुक्तियों में समाहित हो जाती हैं। इनके अतिरिक्त अन्य किसी का क्रम है। नियुक्ति नामक ग्रन्थ की जानकारी हमें नहीं है।
इसी प्रकार आचारांग की चतुर्थ विमुक्तिचूलिका की नियुक्ति में
'विमुक्ति' शब्द की नियुक्ति करते हुए गाथा ३३१ में लिखा है कि दस नियुक्तियों का रचनाक्रम
'मोक्ष' शब्द की नियुक्ति के अनुसार ही 'विमुक्ति' शब्द की नियुक्ति यद्यपि दसों नियुक्तियाँ एक ही व्यक्ति की रचनायें हैं, फिर भी भी समझना चाहिए।२४ चूँकि उत्तराध्ययन के अट्ठाईसवें अध्ययन की इनकी रचना एक क्रम में हुई होगी। आवश्यकनियुक्ति में जिस क्रम नियुक्ति (गाथा ४९७-९८) में मोक्ष शब्द की नियुक्ति की जा चुकी से इन दस नियुक्तियों का नामोल्लेख है।४ उसी क्रम से उनकी रचना थी।२५ अत: इससे यही सिद्ध हुआ कि आचारांगनियुक्ति का क्रम हुई होगी, विद्वानों के इस कथन की पुष्टि निम्र प्रमाणों से होती है- उत्तराध्ययन के पश्चात् है। आवश्यकनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति,
१. आवश्यकनियुक्ति की रचना सर्वप्रथम हुई है, यह तथ्य स्वत: उत्तराध्ययननियुक्ति एवं आचारांगनियुक्ति के पश्चात् सूत्रकतांगनियुक्ति सिद्ध है, क्योंकि इसी नियुक्ति में सर्वप्रथम दस नियुक्तियों की रचना का क्रम आता है। इस तथ्य की पुष्टि इस आधार पर भी होती है करने की प्रतिज्ञा की गयी है और उसमें भी आवश्यक का नामोल्लेख कि सूत्रकृतांगनियुक्ति की गाथा ९९ में यह उल्लिखित है कि 'धर्म' सर्वप्रथम हुआ है। १५ पुनः आवश्यकनियुक्ति से निह्नववाद से सम्बन्धित शब्द के निक्षेपों का विवेचन पूर्व में हो चुका है (धम्मो पुवुद्दिट्ठो)।२६ सभी गाथाएं (गाथा ७७८ से ७८४ तक) ६ उत्तराध्ययननियुक्ति (गाथा दशवैकालिकनियुक्ति में दशवैकालिकसूत्र की प्रथम गाथा का विवेचन १६४ से १७८ तक) में ली गयी है। इससे भी यही सिद्ध होता करते समय 'धर्म' शब्द के निक्षेपों का विवेचन हुआ है। इससे यह है कि आवश्यकनियुक्ति के बाद ही उत्तराध्ययननियुक्ति आदि अन्य सिद्ध होता है कि सूत्रकृतांगनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति, के बाद नियुक्तियों की रचना हुई है। आवश्यकनियुक्ति के बाद सबसे पहले निर्मित हुई है। इसी प्रकार सूत्रकृतांगनियुक्ति की गाथा १२७ में कहा दशवैकालिकनियुक्ति की रचना हुई है और उसके बाद प्रतिज्ञागाथा है 'गंथोपुबुद्दिट्ठो'।२८ हम देखते हैं कि उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा के क्रमानुसार अन्य नियुक्तियों की रचना की गई। इस कथन की पुष्टि २६७-२६८ में ग्रन्थ शब्द के निक्षेपों का भी कथन हुआ है। २९ इससे आगे दिये गये उत्तराध्ययननियुक्ति के सन्दर्भो से होती है। सूत्रकृतांग नियुक्ति भी दशवैकालिकनियुक्ति एवं उत्तराध्ययननियुक्ति से
२. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा २९ में 'विनय' की व्याख्या करते परवर्ती ही सिद्ध होती है। हुए यह कहा गया है 'विणओ पुव्बुद्दिट्ठा' अर्थात् विनय के सम्बन्ध ४. उपर्युक्त पाँच नियुक्तियों के यथाक्रम से निर्मित होने के पश्चात् में हम पहले कह चुके हैं। इसका तात्पर्य यह है कि उत्तराध्ययननियुक्ति ही तीन छेद सूत्रों यथा-दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प एवं व्यवहार सूत्र की रचना से पूर्व किसी ऐसी नियुक्ति की रचना हो चुकी थी, जिसमें पर नियुक्तियाँ भी उनके उल्लेख क्रम से ही लिखी गयीं हैं, क्योंकि विनय सम्बन्धी विवेचन था। यह बात दशवैकालिकनियुक्ति को देखने दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति के प्रारम्भ में ही प्राचीनगोत्रीय सकल श्रुत के ज्ञाता से स्पष्ट हो जाती है, क्योंकि दशवैकालिकनियुक्ति में विनय समाधि और दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प एवं व्यवहार के रचयिता भद्रबाहु को नामक नवें अध्ययन की नियुक्ति (गाथा ३०९ से ३२६ तक) में 'विनय' नमस्कार किया गया है। इसमें भी इन तीनों ग्रन्थों का उल्लेख उसी शब्द की व्याख्या है। इसी प्रकार उत्तराध्ययननियुक्ति (गाथा २०७) क्रम से है जिस क्रम से नियुक्ति लेखन की प्रतिज्ञा में है। अत: में 'कामापुवुद्दिट्ठा' कहकर यह सूचित किया गया है कि काम के यह कहा जा सकता है कि इन तीनों ग्रन्थों की नियुक्तियाँ इसी क्रम विषय में पहले विवेचन किया जा चुका है।२० यह विवेचन भी हमें ___ में लिखी गयी होगी। उपर्युक्त आठ नियुक्तियों की रचना के पश्चात् दशवैकालिकनियुक्ति की गाथा १६१ से १६३ तक में मिल जाता ही सूर्यप्रज्ञप्ति एवं इसिभासियाइं की नियुक्ति की रचना होनी थी। इन है।२५ उपर्युक्त दोनों सूचनाओं के आधार पर यह बात सिद्ध होती है दोनों ग्रन्थों पर नियुक्तियाँ लिखी भी गयीं या नहीं, आज यह निर्णय कि उत्तराध्ययननियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति के बाद ही लिखी गयी। करना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि पूर्वोक्त प्रतिज्ञा गाथा के अतिरिक्त
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४९ हमें इन नियुक्तियों के सन्दर्भ में कहीं भी कोई भी सूचना नहीं मिलती विशेषावश्यक-मलधारिहेमचन्द्रसूरिकृत टीका-पत्र १. है। अत: इन नियुक्तियों की रचना होना संदिग्ध ही है। या तो इन ५. “साधूनामनुग्रहाय चतुर्दशपूर्वधरेण भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पसूत्रं नियुक्तियों के लेखन का क्रम आने से पूर्व ही नियुक्तिकार का स्वर्गवास व्यवहारसूत्रं चाकारि, उभयोरपि च सूत्रस्पर्शिका नियुक्तिः।" हो चुका होगा या फिर इन दोनों ग्रन्थों में कुछ विवादित प्रसंगों का बृहत्कल्पपीठिका मलयगिरिकृत टीका-पत्र २. उल्लेख होने से नियुक्तिकार ने इनकी रचना करने का निर्णय ही स्थगित ६. "इह श्रीमदावश्यकादिसिद्धान्तप्रतिबद्धनियुक्तिशास्त्रसंसूत्रणसूत्रधारः.... कर दिया होगा।
श्रीभद्रबाहुस्वामी....कल्पनामधेयमध्ययनं नियुक्तियुक्तं निर्मूढवान्।" अत: सम्भावना यही है कि ये दोनों नियुक्तियाँ लिखी ही नहीं बृहत्कल्पपीठिका श्रीक्षेमकीर्तिसूरिअनुसन्धिता टीका-पत्र १७७। गईं, चाहे इनके नहीं लिखे जाने के कारण कुछ भी रहे हों। प्रतिज्ञा इन समस्त सन्दर्भो को देखने से स्पष्ट होता है कि श्रुतकेवली गाथा के अतिरिक्त सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा १८९ में ऋषिभाषित का चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु प्रथम को नियुक्तियों के कर्ता के रूप में मान्य नाम अवश्य आया है। वहाँ यह कहा गया है कि जिस-जिस सिद्धान्त करने वाला प्राचीनतम सन्दर्भ आर्यशीलांक का है। आर्यशीलांक का या मत में जिस किसी अर्थ का निश्चय करना होता है उसमें पूर्व कहा समय लगभग विक्रम संवत् की ९ वीं-१०वीं सदी माना जाता है। गया अर्थ ही मान्य होता है, जैसे कि-ऋषिभाषित में। किन्तु यह जिन अन्य आचार्यों ने नियुक्तिकार के रूप में भद्रबाहु प्रथम को माना उल्लेख ऋषिभाषित मूल ग्रन्थ के सम्बन्ध में ही सूचना देता है न है, उनमें आर्यद्रोण, मलधारि हेमचन्द्र, मलयगिरि, शान्तिसूरि तथा कि उसकी नियुक्ति के सम्बन्ध में।
क्षेमकीर्ति सूरि के नाम प्रमुख हैं, किन्तु ये सभी आचार्य विक्रम की
दसवीं सदी के पश्चात हुए हैं। अत: इनका कथन बहुत अधिक प्रामाणिक नियुक्ति के लेखक और रचना-काल
नहीं कहा जा सकता है। उन्होंने जो कुछ भी लिखा है, वह मात्र अनुश्रुतियों नियुक्तियों के लेखक कौन हैं और उनका रचना काल क्या है के आधार पर लिखा है। दुर्भाग्य से ८-९वीं सदी के पश्चात् चतुर्दश ये दोनों प्रश्न एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। अत: हम उन पर अलग-अलग पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहु और वराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु विचार न करके एक साथ ही विचार करेंगे।
के कथानक, नामसाम्य के कारण एक-दूसरे में घुल-मिल गये और परम्परागत रूप से अन्तिम श्रुतकेवली, चतुर्दशपूर्वधर तथा दूसरे भद्रबाहु की रचनायें भी प्रथम के नाम चढ़ा दी गईं। यही कारण छेदसूत्रों के रचयिता आर्यभद्रबाहु प्रथम को ही नियुक्तियों का कर्ता रहा कि नैमित्तिक भद्रबाहु को भी प्राचीनगोत्रीय श्रुतकेवली चतुर्दश माना जाता है। मुनि श्री पुण्यविजय जी ने अत्यन्त परिश्रम द्वारा श्रुतकेवली पूर्वधर भद्रबाहु के साथ जोड़ दिया गया है और दोनों के जीवन की भद्रबाहु को नियुक्तियों के कर्ता के रूप में स्वीकार करने वाले निम्न घटनाओं के इस घाल-मेल से अनेक अनुश्रुतियाँ प्रचलित हो गईं। साक्ष्यों को संकलित करके प्रस्तुत किया है। जिन्हें हम यहाँ अविकल इन्हीं अनुश्रुतियों के परिणामस्वरूप नियुक्ति के कर्ता के रूप में चतुर्दश रूप से दे रहे हैं।
पूर्वधर भद्रबाहु की अनुश्रुति प्रचलित हो गयी। यद्यपि मुनि श्री पुण्यविजय १. “अनुयोगदायिनः - सुधर्मस्वामिप्रभृतयः यावदस्य भगवतो जी ने बृहत्कल्पसूत्र (नियुक्ति, लघुभाष्य-वृत्त्युपेतम्) के षष्ठ विभाग
नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरस्याचार्योऽतस्तान् के आमुख में यह लिखा है कि नियुक्तिकार स्थविर आर्य भद्रबाहु हैं, सर्वानिति।।"
इस मान्यता को पुष्ट करने वाला एक प्रमाण जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण - आचारांगसूत्र, शीलाङ्काचार्यकृत टीका-पत्र ४. के विशेषावश्यकभाष्य की स्वोपज्ञ टीका में भी मिलता है।३३ यद्यपि २. "न च केषांचिदिहोदाहरणानां नियुक्तिकालादर्वाक्कालाभाविता उन्होंने वहाँ उस प्रमाण का सन्दर्भ सहित उल्लेख नहीं किया है। मैं
इत्यन्योक्तत्वमाशङ्कनीयम्, स हि भगवाँश्चतुर्दशपूर्ववित् श्रुतकेवली इस सन्दर्भ को खोजने का प्रयत्न कर रहा हूँ, किन्तु उसके मिल जाने कालत्रयविषयं वस्तु पश्यत्येवेति कथमन्यकृतत्वाशङ्का? इति।" । पर भी हम केवल इतना ही कह सकेंगे कि विक्रम की लगभग सातवीं
उत्तराध्ययनसूत्र शान्तिसूरिकृता पाइयटीका-पत्र १३९. शती से नियुक्तिकार प्राचीनगोत्रीय चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु हैं, ऐसी ३. "गुणाधिकस्य वन्दनं कर्त्तव्यं न त्वधमस्य, यत उक्तम् - अनुश्रुति प्रचलित हो गयी थी।
"गुणाहिए वंदणयं"। भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरत्वाद् नियुक्तिकार प्राचीनगोत्रीय चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु हैं अथवा दशपूर्वधरादीनां च न्यूनत्वात् किं तेषां नमस्कारमसौ करोति? इति। नैमित्तिक (वराहमिहिर के भाई) भद्रबाहु हैं, ये दोनों ही प्रश्न विवादास्पद अत्रोच्यते- गुणाधिका एव ते, अव्यवच्छित्तिगुणाधिक्यात्, अतो हैं। जैसा कि हमने संकेत किया है नियुक्तियों को प्राचीनगोत्रीय चतुर्दश
न दोष इति।" ओघनियुक्ति द्रोणाचार्यकृत, टीका-पत्र ३. पूर्वधर आर्य भद्रबाहु की मानने की परम्परा आर्यशीलांक से या उसके ४. “इह चरणकरणक्रियाकलापतरुमूलकल्पं सामायिकादिषडध्ययनात्मक- पूर्व जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण से प्रारम्भ हुई है। किन्तु उनके इन उल्लेखों
श्रुतस्कन्धरूपमावश्यकतावदर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतस्तु गणधरैर्विरचितम्। में कितनी प्रामाणिकता है यह विचारणीय है, क्योंकि नियुक्तियों में अस्य चातीव गम्भीरार्थतां सकलसाधु-श्रावकवर्गस्य नित्योपयोगितां ही ऐसे अनेक प्रमाण उपस्थित हैं, जिनसे नियुक्तिकार पूर्वधर भद्रबाहु च विज्ञाय चतुर्दशपूर्वधरेण श्रीमद्भद्रबाहुनैतद्व्याख्यानरूपा' हैं, इस मान्यता में बाधा उत्पन्न होती है। इस सम्बन्ध में मुनिश्री आभिणिबोहियनाणं." इत्यादिप्रसिद्धग्रन्थरूपा नियुक्तिः कृता।" पुण्यविजय जी ने अत्यन्त परिश्रम द्वारा वे सब सन्दर्भ प्रस्तुत किये
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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हैं, जो नियुक्तिकार पूर्वधर भद्रबाहु हैं, इस मान्यता के विरोध में जाते आठवें बोटिक मत की उत्पत्ति का उल्लेख हुआ है। अन्तिम सातवाँ हैं। हम उनकी स्थापनाओं के हार्द को ही हिन्दी भाषा में रूपान्तरित निह्नव वीरनिर्वाण संवत् ५८४ में तथा बोटिक मत की उत्पत्ति वीरनिर्वाण कर निम्न पंक्तियों में प्रस्तुत कर रहे हैं
संवत् ६०९ में हुई। ये घटनाएं चतुर्दशपूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु १. आवश्यकनियुक्ति की गाथा ७६२ से ७७६ तक में वज्रस्वामी के लगभग चार सौ वर्ष पश्चात् हुई हैं। अत: उनके द्वारा रचित नियुक्ति के विद्यागुरु आर्यसिंहगिरि, आर्यवज्रस्वामी, तोषलिपुत्र, आर्यरक्षित, में इनका उल्लेख होना सम्भव नहीं लगता है। वैसे मेरी दृष्टि में बोटिक आर्य फल्गुमित्र, स्थविर भद्रगुप्त जैसे आचार्यों का स्पष्ट उल्लेख है।३४ मत की उत्पत्ति का कथन नियुक्तिकार का नहीं है- नियुक्ति में सात ये सभी आचार्य चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाह से परवर्ती हैं और तोषलिपुत्र निह्नवों का ही उल्लेख है। निह्नवों के काल एवं स्थान सम्बन्धी गाथाएँ को छोड़कर शेष सभी का उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में है। यदि भाष्य गाथाएँ है- जो बाद में नियुक्ति में मिल गई हैं। किन्तु नियुक्तियों नियुक्तियाँ चतुर्दश पूर्वधर आर्यभद्रबाहु की कृति होती तो उनमें इन में सात निह्नवों का उल्लेख होना भी इस बात का प्रमाण है कि नियुक्तियाँ नामों के उल्लेख सम्भव नहीं थे।
प्राचीनगोत्रीय पूर्वधर भद्रबाहु की कृतियाँ नहीं हैं। २. इसी प्रकार पिण्डनियुक्ति की गाथा ४९८ में पादलिप्ताचार्य५ ८. सूत्रकृतांगनियुक्ति की गाथा १४६ में द्रव्य-निक्षेप के सम्बन्ध का एवं गाथा ५०३ से ५०५ में वज्रस्वामी के मामा समितसूरि३६ में एकभविक, बद्धायुष्य और अभिमुखित नाम-गोत्र ऐसे तीन आदेशों का उल्लेख है साथ ही ब्रह्मदीपकशाला का उल्लेख भी है-ये तथ्य का उल्लेख हुआ है। ये विभिन्न मान्यताएं भद्रबाहु के काफी पश्चात् यही सिद्ध करते हैं कि पिण्डनियुक्ति भी चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय आर्य सुहस्ति, आर्य मंक्षु आदि परवर्ती आचार्यों के काल में निर्मित भद्रबाहु की कृति नहीं है, क्योंकि पादलिप्तसूरि, समितसूरि तथा हुई हैं। अत: इन मान्यताओं के उल्लेख से भी नियुक्तियों के कर्ता ब्रह्मदीपकशाखा की उत्पत्ति, ये सभी प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु से चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु हैं, यह मानने में बाधा परवर्ती हैं।
आती है। ३. उत्तराध्ययननियुक्ति की गाथा १२० में कालकाचार्य की मुनि श्री पुण्यविजय जी ने उत्तराध्ययन के टीकाकार शान्त्याचार्य, कथा का संकेत है। कालकाचार्य भी प्राचीनगोत्रीय पूर्वधर भद्रबाह से जो नियुक्तिकार के रूप में चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाह को मानते हैं, की लगभग तीन सौ वर्ष पश्चात् हुए हैं।
इस मान्यता का भी उल्लेख किया है कि नियुक्तिकार त्रिकालज्ञानी हैं। ४. ओघनियुक्ति की प्रथम गाथा में चतुर्दश पूर्वधर, दश पूर्वधर अत: उनके द्वारा परवर्ती घटनाओं का उल्लेख होना असम्भव नहीं एवं एकादश- अंगों के ज्ञाताओं को सामान्य रूप से नमस्कार किया है।४८ यहाँ मुनि पुण्यविजय जी कहते हैं कि हम शान्त्याचार्य की इस गया है,३९ ऐसा द्रोणाचार्य ने अपनी टीका में सूचित किया है।४० यद्यपि बात को स्वीकार कर भी लें, तो भी नियुक्तियों में नामपूर्वक वज्रस्वामी मुनि श्री पुण्यविजय जी सामान्य कथन की दृष्टि से इसे असंभावित को नमस्कार आदि किसी भी दृष्टि से युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता। नहीं मानते हैं, क्योंकि आज भी आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि नमस्कारमंत्र वे लिखते हैं यदि उपर्युक्त घटनाएँ घटित होने के पूर्व ही नियुक्तियों में अपने से छोटे पद और व्यक्तियों को नमस्कार करते हैं। किन्तु में उल्लिखित कर दी गयी हों तो भी अमुक मान्यता अमुक पुरुष मेरी दृष्टि में कोई भी चतुर्दश पूर्वधर दशपूर्वधर को नमस्कार करे, द्वारा स्थापित हुई यह कैसे कहा जा सकता है।४९ यह उचित नहीं लगता। पुनः आवश्यकनियुक्ति की गाथा ७६९ में पुनः जिन दस आगम-ग्रन्थों पर निर्यक्ति लिखने का उल्लेख दस पूर्वधर वज्रस्वामी को नाम लेकर जो वंदन किया गया है, वह आवश्यकनियुक्ति में है, उससे यह स्पष्ट है कि भद्रबाहु के समय तो किसी भी स्थिति में उचित नहीं माना जा सकता है।
आचारांग, सूत्रकृतांग आदि अतिविस्तृत एवं परिपूर्ण थे। ऐसी स्थिति ५. पुन: आवश्यकनियुक्ति की गाथा ७६३ से ७७४ में यह में उन आगमों पर लिखी गयी नियुक्ति भी अतिविशाल एवं चारों कहा गया है कि शिष्यों की स्मरण शक्ति के ह्रास को देखकर आर्य अनुयोगमय होनी चाहिए। इसके विरोध में यदि नियुक्तिकार भद्रबाहु रक्षित ने, वज्रस्वामी के काल तक जो आगम अनुयोगों में विभाजित थे, ऐसी मान्यता रखने वाले विद्वान् यह कहते हैं कि नियुक्तिकार नहीं थे, उन्हें अनुयोगों में विभाजित किया,४२ यह कथन भी एक परवर्ती तो भद्रबाहु ही थे और वे नियुक्तियाँ भी अतिविशाल थीं, किन्तु बाद घटना को सूचित करता है। इससे भी यही फलित होता है कि नियुक्तियों में स्थविर आर्यरक्षित ने अपने शिष्य पुष्यमित्र की विस्मृति एवं भविष्य के कर्ता चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु नहीं हैं, अपितु आर्यरक्षित में होने वाले शिष्यों की मंद-बुद्धि को ध्यान में रखकर जिस प्रकार के पश्चात् होने वाले कोई भद्रबाहु हैं।
आगमों के अनुयोगों को पृथक् किया, उसी प्रकार नियुक्तियों को भी ६. दशवैकालिकनियुक्ति की गाथा ४ एवं ओघनियुक्ति" की व्यवस्थित एवं संक्षिप्त किया। इसके प्रत्युत्तर में मुनि श्री पुण्यविजय गाथा २ में चरणकरणानुयोग की नियुक्ति कहूँगा ऐसा उल्लेख है। यह जी का कथन है- प्रथम, तो यह कि आर्यरक्षित द्वारा अनुयोगों के भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि नियुक्ति की रचना अनुयोगों के पृथक् करने की बात तो कही जाती है, किन्तु नियुक्तियों को व्यवस्थित विभाजन के बाद अर्थात् आर्यरक्षित के पश्चात् हुई है।
करने का एक भी उल्लेख नहीं है। स्कंदिल आदि ने विभिन्न वाचनाओं ७. आवश्यकनियुक्ति५ की गाथा ७७८-७८३ में तथा में 'आगमों' को ही व्यवस्थित किया, नियुक्तियों को नहीं। उत्तराध्ययननियुक्ति ६ की गाथा १६४ से १७८ तक में ७ निह्नवों और दूसरे, उपलब्ध नियुक्तियाँ उन अंग-आगमों पर नहीं हैं जो भद्रबाहु
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________________ नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन प्रथम के युग में थे। परम्परागत मान्यता के अनुसार आरक्षित के उत्तराध्ययननियुक्ति में उसके 'अकाममरणीय' नामक अध्ययन की युग में भी आचारांग एवं सूत्रकृतांग उतने ही विशाल थे, जितने भद्रबाहु नियुक्ति में निम्न गाथा प्राप्त होती हैके काल में थे। ऐसी स्थिति में चाहे एक ही अनुयोग का अनुसरण "सवे ए ए दारा मरणविभत्तीए वण्णिआ कमसो। करके नियुक्तियाँ लिखी गयी हों, उनकी विषयवस्तु तो विशाल होनी सगलणिउणे पयत्थे जिण चउदस पुवि भासंति"।।२३२।। चाहिए थी। जबकि जो भी नियुक्तियाँ उपलब्ध हैं वे सभी माथुरीवाचना (ज्ञातव्य है कि मुनिपुण्यविजय जी ने इसे गाथा 233 लिखा द्वारा या वलभी वाचना द्वारा निर्धारित पाठ वाले आगमों का ही अनुसरण है किन्तु नियुक्तिसंग्रह में इस गाथा का क्रम 232 ही है।) कर रही हैं। यदि यह कहा जाय कि अनुयोगों का पृथक्करण करते इस गाथा में कहा गया है कि “मरणविभक्ति में इन सभी द्वारों समय आर्यरक्षित ने नियुक्तियों को भी पुन: व्यवस्थित किया और उनमें का अनुक्रम से वर्णन किया गया है, पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से तो अनेक गाथाएँ प्रक्षिप्त भी की, तो प्रश्न होता है कि फिर उनमें गोष्ठामाहिल जिन अथवा चतुर्दश पूर्वधर ही जान सकते हैं।" यदि नियुक्तिकार और बोटिक मत की उत्पत्ति सम्बन्धी विवरण कैसे आये, क्योंकि इन चतुर्दशपूर्वधर होते तो वे इस प्रकार नहीं लिखते। शान्त्याचार्य ने स्वयं दोनों की उत्पत्ति आर्यरक्षित के स्वर्गवास के पश्चात् ही हुई है। इसे दो आधारों पर व्याख्यायित किया। प्रथम, चतुर्दश पूर्वधरों में आपस यद्यपि इस सन्दर्भ में मेरा मुनिश्री से मतभेद है। मेरे अध्ययन में अर्थज्ञान की अपेक्षा से कमी-अधिकता होती है, इसी दृष्टि से यह की दृष्टि से सप्त निह्नवों के उल्लेख वाली गाथाएँ तो मूल गाथाएँ कहा गया हो कि पदार्थों का सम्पूर्ण स्वरूप तो चतुर्दशपूर्वी ही बता हैं, किन्तु उनमें बोटिक मत के उत्पत्ति स्थल रथवीरपुर एवं उत्पत्तिकाल सकते हैं अथवा द्वार गाथा से लेकर आगे की ये सभी गाथाएँ भाष्य वीर नि.सं. 609 का उल्लेख करने वाली गाथाएँ बाद में प्रक्षिप्त हैं। गाथाएँ हों।५३ यद्यपि मुनि पुण्यविजय जी इन्हें भाष्य गाथाएँ स्वीकार वे नियुक्ति की गाथाएँ न होकर भाष्य की हैं, क्योंकि जहाँ निहवों नहीं करते हैं। चाहे ये गाथाएँ भाष्यगाथा हों या न हों किन्तु मेरी दृष्टि है जबकि उनके उत्पत्तिस्थल एवं काल को सूचित करने वाली इन की है, वह पूर्णतया असंगत नहीं है। दो गाथाओं में यह संख्या आठ हो गयी। आश्चर्य यह है कि आवश्यक पुन: जैसा पूर्व में सूचित किया जा चुका है, सूत्रकृतांग के पुण्डरीक नियुक्ति में बोटिकों की उत्पत्ति की कहीं कोई चर्चा नहीं है और यदि अध्ययन की नियुक्ति में पुण्डरीक शब्द की नियुक्ति करते समय उसके बोटिकमत के प्रस्तोता एवं उनके मन्तव्य का उल्लेख मूल आवश्यक द्रव्य निक्षेप से एकभविक, बद्धायुष्य और अभिमुखित नाम-गोत्र ऐसे नियुक्ति में नहीं है, तो फिर उनके उत्पत्ति-स्थल एवं उत्पत्ति काल तीन आदेशों का नियुक्तिकार ने स्वयं ही संग्रह किया है।५४ का उल्लेख नियुक्ति में कैसे हो सकता है? वस्तुत: भाष्य की अनेक बृहत्कल्पसूत्रभाष्य (प्रथमविभाग, पृ. 44-45) में ये तीनों आदेश गाथाएँ नियुक्तियों में मिल गई हैं। अतः ये नगर एवं काल सूचक आर्यसुहस्ति, आर्य मंगु एवं आर्यसमुद्र की मान्यताओं के रूप में गाथाएँ भाष्य की होनी चाहिये। यद्यपि उत्तराध्ययननियुक्ति के तृतीय उल्लिखित है।५ इतना तो निश्चित है कि ये तीनों आचार्य पूर्वधर अध्ययन के अन्त में इन्हीं सप्त निह्नवों का उल्लेख होने के बाद प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु (प्रथम) से परवर्ती हैं और उनके मतों का संग्रह अन्त में एक गाथा में शिवभूति का रथवीरपुर नगर के दीपक उद्यान पूर्वधर भद्रबाहु द्वारा सम्भव नहीं है। में आर्यकृष्ण से विवाद होने का उल्लेख है।५२ किन्तु न तो इसमें दशाश्रुतस्कंध की नियुक्ति के प्रारम्भ में निम्न गाथा दी गयी हैविवाद के स्वरूप की चर्चा है और न कोई अन्य बात, जबकि उसके "वंदामिभहबाहुं पाईणं चरिमसयलसुयनाणिं। पूर्व प्रत्येक निह्नव के मन्तव्य का आवश्यकनियुक्ति की अपेक्षा विस्तृत सुत्तस्स कारगमिसिं दसासु कप्ये य ववहारे।।" विवरण दिया गया है। अत: मेरी दृष्टि में यह गाथा भी प्रक्षिप्त है। यह गाथा वैसी ही है जैसी कि आवश्यकमूलभाष्य में पायी जाती है। किया गया है, अपितु उन्हें दशाश्रुतस्कंध कल्प एवं व्यवहार का रचयिता पुन: वहाँ यह गाथा बहुत अधिक प्रासंगिक भी नहीं कही जा सकती। भी कहा है, यदि नियुक्तियों के लेखक पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाह होते मुझे स्पष्ट रूप से लगता है कि उत्तराध्ययननियुक्ति में भी निह्नवों की तो, वे स्वयं ही अपने को कैसे नमस्कार करते? इस गाथा को हम चर्चा के बाद यह गाथा प्रक्षिप्त की गयी है। प्रक्षिप्त या भाष्य गाथा भी नहीं कह सकते, क्योंकि प्रथम तो यह यह मानना भी उचित नहीं लगता कि चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु ग्रन्थ की प्रारम्भिक मंगल गाथा है, दूसरे चूर्णिकार ने स्वयं इसको के काल में रचित नियुक्तियों को सर्वप्रथम आर्यरक्षित के काल में ___ नियुक्तिगाथा के रूप में मान्य किया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता व्यवस्थित किया गया और पुन: उन्हें परवर्ती आचार्यों ने अपने युग है कि नियुक्तिकार चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु नहीं हो सकते। की आगमिक वाचना के अनुसार व्यवस्थित किया। आश्चर्य तब और इस समस्त चर्चा के अन्त में मुनि जी इस निष्कर्ष पर पहुँचते अधिक बढ़ जाता है कि इस सब परिवर्तन के विरुद्ध भी कोई स्वर हैं कि परम्परागत दृष्टि से दशाश्रुतस्कंध, कल्पसूत्र, व्यवहारसूत्र एवं उभरने की कहीं कोई सूचना नहीं है। वास्तविकता यह है कि आगमों निशीथ ये चार छेदसूत्र, आवश्यक आदि दस नियुक्तियाँ, उवसग्गहर में जब भी कुछ परिवर्तन करने का प्रयत्न किया गया तो उसके विरुद्ध एवं भद्रबाहु संहिता ये सभी चतुर्दशपूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु स्वामी स्वर उभरे है और उन्हें उल्लिखित भी किया गया है। की कृति माने जाते हैं, किन्तु इनमें से 4 छेद सूत्रों के रचयिता तो
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________________ 52 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ चतुर्दश पूर्वधर आर्य भद्रबाहु ही हैं। शेष दस नियुक्तियों, उवसग्गहर गई है।६२ गोविन्दनियुक्ति के रचयिता वही आर्यगोविन्द होने चाहिए एवं भद्रबाहु संहिता के रचयिता अन्य कोई भद्रबाहु होने चाहिए और जिनका उल्लेख नन्दीसूत्र में अनुयोगद्वार के ज्ञाता के रूप में किया सम्भवत: ये अन्य कोई नहीं, अपितु वाराहसंहिता के रचयिता वराहमिहिर गया है। स्थविरावली के अनुसार ये आर्य स्कंदिल की चौथी पीढ़ी के भाई, मंत्रविद्या के पारगामी नैमित्तिक भद्रबाहु ही होने चाहिए।५५ में हैं।६३ अत: इनका काल विक्रम की पाँचवीं सदी निश्चित होता है। मुनिश्री पुण्यविजय जी ने नियुक्तियों के कर्ता नैमित्तिक भद्रबाहु अत: मुनि श्रीपुण्यविजय जी इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि नन्दीसूत्र ही थे, यह कल्पना निम्न तर्कों के आधार पर की है५६- एवं पाक्षिकसूत्र में नियुक्ति का जो उल्लेख है वह आर्य गोविन्द की 1. आवश्यकनियुक्ति की गाथा 1252 से 1270 तक में गंधर्व नियुक्ति को लक्ष्य में रखकर किया गया है। इस प्रकार मुनि जी दसों नागदत्त का कथानक आया है। इसमें नागदत्त के द्वारा सर्प के विष नियुक्तियों के रचयिता के रूप में नैमित्तिक भद्रबाहु को ही स्वीकार उतारने की क्रिया का वर्णन है।५७ उवसग्गहर (उपसर्गहर) में भी सर्प करते हैं और नन्दीसूत्र अथवा पाक्षिकसूत्र में जो नियुक्ति का उल्लेख के विष उतारने की चर्चा है। अतः दोनों के कर्ता एक ही हैं और है उसे वे गोविन्द नियुक्ति का मानते हैं। वे मन्त्र-तन्त्र में आस्था रखते थे। हम मुनि श्रीपुण्यविजय जी की इस बात से पूर्णत: सहमत नहीं 2. पुन: नैमित्तिक भद्रबाह ही नियुक्तियों के कर्ता होने चाहिए हो सकते हैं, क्योंकि उपर्युक्त दस नियुक्तियों की रचना से पूर्व चाहे इसका एक आधार यह भी है कि उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा गाथा में सूर्यप्रज्ञप्ति आर्यगोविन्द की नियुक्ति अस्तित्व में हो, किन्तु नन्दीसूत्र एवं पाक्षिक पर नियुक्ति लिखने की प्रतिज्ञा की थी।५८ ऐसा साहस कोई ज्योतिष सूत्र में नियुक्ति सम्बन्धी जो उल्लेख हैं, वे आचारांग आदि आगम का विद्वान् ही कर सकता था। इसके अतिरिक्त आचारांगनियुक्ति में ग्रन्थों की नियुक्ति के सम्बन्ध में हैं, जबकि गोविन्दनियुक्ति किसी आगम तो स्पष्ट रूप से निमित्त विद्या का निर्देश भी हुआ है।५९ अत: मुनिश्री ग्रन्थ पर नियुक्ति नहीं है। उसके सम्बन्ध में निशीथचूर्णि आदि में जो पुण्यविजय जी नियुक्ति के कर्ता के रूप में नैमित्तिक भद्रबाहु को स्वीकार उल्लेख हैं वे सभी उसे दर्शनप्रभावक ग्रन्थ और एकेन्द्रिय में जीव करते हैं। की सिद्धि करने वाला ग्रन्थ बतलाते हैं।६४ अत: उनकी यह मान्यता यदि हम नियुक्तिकार के रूप में नैमित्तिक भद्रबाहु को स्वीकार कि नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में नियुक्ति के जो उल्लेख हैं, वे करते हैं तो हमें यह भी मानना होगा कि नियुक्तियाँ विक्रम की छठी गोविन्दनियुक्ति के सन्दर्भ में हैं, समुचित नहीं है। वस्तुत: नन्दीसूत्र सदी की रचनाएँ हैं, क्योंकि वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ के अन्त में एवं पाक्षिकसूत्र में जो नियुक्तियों के उल्लेख हैं वे आगम ग्रन्थों की शक संवत् 427 अर्थात् विक्रम संवत 566 का उल्लेख किया है।६० नियुक्तियों के हैं। अत: यह मानना होगा कि नन्दी एवं पाक्षिकसूत्र नैमित्तिक भद्रबाहु वराहमिहिर के भाई थे, अत: वे उनके समकालीन की रचना के पूर्व अर्थात् पाँचवी शती के पूर्व आगमों पर नियुक्ति हैं। ऐसी स्थिति में यही मानना होगा कि नियुक्तियों का रचनाकाल लिखी जा चुकी थी। भी विक्रम की छठी शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। 2. दूसरे, इन दस नियुक्तियों में और भी ऐसे तथ्य हैं जिनसे यदि हम उपर्युक्त आधारों पर नियुक्तियों को विक्रम की छठीं इन्हें वराहमिहिर के भाई एवं नैमित्तिक भद्रबाहु (विक्रम संवत् 566) सदी में हुए नैमित्तिक भद्रबाहु की कृति मानते हैं, तो भी हमारे सामने की रचना मानने में शंका होती है। आवश्यकनियुक्ति की सामायिक कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं नियुक्ति में जो निह्नवों के उत्पत्ति स्थल एवं उत्पत्तिकाल सम्बन्धी गाथायें 1. सर्वप्रथम तो यह कि नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में नियुक्तियों हैं एवं उत्तराध्ययननियुक्ति के तीसरे अध्ययन की नियुक्ति में जो शिवभूति के अस्तित्व का स्पष्ट उल्लेख है का उल्लेख है, वह प्रक्षिप्त है। इसका प्रमाण यह है कि उत्तराध्ययनचूर्णि, "संखेज्जाओ निजत्तीओ संखेज्जा संगहणीओ" जो कि इस नियुक्ति पर एक प्रामाणिक रचना है, में 167 गाथा तक - (नन्दीसूत्र, सूत्र सं. 46) की ही चूर्णि दी गयी है। निह्नवों के सन्दर्भ में अन्तिम चूर्णि 'जेठ्ठा "स सुत्ते सत्ये सगंथे सनिज्जुत्तिए ससंगहणिए" सुदंसण' नामक 167 वी गाथा की है। उसके आगे निह्नवों के वक्तव्य - (पाक्षिकसूत्र, पृ. 80) को सामायिकनियुक्ति (आवश्यकनियुक्ति) के आधार पर जान लेना इतना निश्चित है कि ये दोनों ग्रन्थ विक्रम की छठीं सदी के चाहिए, ऐसा निर्देश है।६५ ज्ञातव्य है कि सामायिकनियुक्ति में बोटिकों पूर्व निर्मित हो चुके थे। यदि नियुक्तियाँ छठी सदी उत्तरार्द्ध की रचना का कोई उल्लेख नहीं है। हम यह भी बता चुके हैं कि उस नियुक्ति हैं तो फिर विक्रम की पाँचवीं शती के उत्तरार्द्ध या छठी शती के पूर्वार्द्ध में जो बोटिक मत के उत्पत्तिकाल एवं स्थल का उल्लेख है, वह प्रक्षिप्त के ग्रन्थों में छठीं सदी के उत्तरार्द्ध में रचित नियुक्तियों का उल्लेख है एवं वे भाष्य गाथाएँ हैं। उत्तराध्ययनच कैसे संभव है? इस सम्बन्ध में मुनिश्री पुण्यविजय जी ने तर्क दिया मिलता है कि उसमें निह्नवों की कालसूचक गाथाओं को निर्यक्तिगाथाएँ है कि नन्दीसूत्र में जो नियुक्तियों का उल्लेख है, वह गोविन्दनियुक्ति न कहकर आख्यानक संग्रहणी की गाथा कहा गया है।६६ इससे मेरे आदि को ध्यान में रखकर किया गया होगा।६१ यह सत्य है कि उस कथन की पुष्टि होती है कि आवश्यकनियुक्ति में जो निह्नवों के गोविन्दनियुक्ति एक प्राचीन रचना है क्योंकि निशीथचूर्णि में गोविन्दनियुक्ति उत्पत्तिनगर एवं उत्पत्तिकाल की सूचक गाथाएँ हैं वे मूल में नियुक्ति के उल्लेख के साथ-साथ गोविन्दनियुक्ति की उत्पत्ति की कथा भी दी की गाथाएँ नहीं हैं, अपितु संग्रहणी अथवा भाष्य से उसमें प्रक्षिप्त
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________________ नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन की गयी हैं क्योंकि इन गाथाओं में उनके उत्पत्ति नगरों एवं उत्पत्ति-समय विकसित हुई है। तत्त्वार्थसूत्र तथा आचारांगनियुक्ति दोनों ही विकसित दोनों की संख्या आठ-आठ है। इस प्रकार इनमें बोटिकों के उत्पत्तिनगर गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में सर्वथा मौन है, जिससे यह फलित और समय का भी उल्लेख है-आश्चर्य यह है कि ये गाथाएँ सप्त होता है कि नियुक्तियों का रचनाकाल तत्त्वार्थसूत्र के सम-सामयिक निह्नवों की चर्चा के बाद दी गईं-जबकि बोटिकों की उत्पत्ति का (अर्थात् विक्रम की तीसरी-चौथी सदी) है। अत: वे छठी शती के उल्लेख तो इसके भी बाद में है और मात्रा एक गाथा में है। अतः उत्तरार्ध में होने वाले नैमित्तिक भद्रबाहु की रचना तो किसी स्थिति ये गाथाएँ किसी भी स्थिति में नियुक्ति की गाथाएँ नहीं मानी जा में नहीं हो सकतीं। यदि वे उनकी कृतियाँ होती तो उनमें आध्यात्मिक सकती हैं। विकास की इन दस अवस्थाओं के चित्रण के स्थान पर चौदह गुणस्थानों पुन: यदि हम बोटिक निह्नव सम्बन्धी गाथाओं को भी नियुक्ति का भी चित्रण होता। गाथाएँ मान लें तो भी नियुक्ति के रचनाकाल की अपर सीमा को 5. नियुक्ति गाथाओं का नियुक्ति गाथा के रूप में मूलाचार वीरनिर्वाण संवत् 610 अर्थात् विक्रम की तीसरी शती के पूर्वार्ध से में उल्लेख तथा अस्वाध्याय काल में भी उनके अध्ययन का निर्देश आगे नहीं ले जाया जा सकता है, क्योंकि इसके बाद के कोई उल्लेख यही सिद्ध करता है कि नियुक्तियों का अस्तित्व मूलाचार की रचना हमें नियुक्तियों में नहीं मिले। यदि नियुक्ति नैमित्तिक भद्रबाह (विक्रम और यापनीय सम्प्रदाय के अस्तित्व में आने के पूर्व का था। यह सुनिश्चित की छठी सदी उत्तरार्द्ध) की रचनाएँ होती तो उनमें विक्रम की तीसरी है कि यापनीय सम्प्रदाय 5 वीं सदी के अन्त तक अस्तित्व में आ सदी से लेकर छठीं सदी के बीच के किसी न किसी आचार्य एवं गया था। अत: नियुक्तियाँ 5 वीं सदी से पूर्व की रचना होनी चाहिएघटना का उल्लेख भी, चाहे संकेत रूप में ही क्यों न हो, अवश्य ऐसी स्थिति में भी वे नैमित्तिक भद्रबाहु (विक्रम की छठीं सदी उत्तरार्द्ध) होता। अन्य कुछ नहीं तो माथुरी एवं वलभी वाचना के उल्लेख तो की कृति नहीं मानी जा सकती है। अवश्य ही होते, क्योंकि नैमित्तिक भद्रबाहु तो उनके बाद ही हुए हैं। पुनः नियुक्ति का उल्लेख आचार्य कुन्दकुन्द ने भी आवश्यक वलभी वाचना के आयोजक देवर्द्धिगणि के तो वे कनिष्ठ समकालिक शब्द की नियुक्ति करते हुए नियमसार, गाथा 142 में किया है।७२ हैं, अत: यदि वे नियुक्ति के कर्ता होते तो वलभी वाचना का उल्लेख आश्चर्य यह है कि यह गाथा मूलाचार के षडावश्यक नामक अधिकार नियुक्तियों में अवश्य करते। में भी यथावत् मिलती है। इसमें आवश्यक शब्द की नियुक्ति की गई 3. यदि नियुक्तियाँ नैमित्तिक भद्रबाहु (छठी सदी उत्तरार्द्ध) की है। इससे भी यही फलित होता है कि नियुक्तियाँ कम से कम मूलाचार कृति होती तो उसमें गुणस्थान की अवधारणा अवश्य ही पाई जाती। और नियमसार की रचना के पूर्व अर्थात् छठी शती के पूर्व अस्तित्व छठी सदी के उत्तरार्द्ध में गुणस्थान की अवधारणा विकसित हो गई में आ गई थीं। थी और उस काल में लिखी गई कृतियों में प्राय: गुणस्थान का उल्लेख 6. नियुक्तियों के कर्ता नैमित्तिक भद्रबाह नहीं हो सकते, क्योंकि मिलता है किन्तु जहाँ तक मुझे ज्ञात है, नियुक्तियों में गुणस्थान सम्बन्धी आचार्य मल्लवादी (लगभग चौथी-पाँचवीं शती) ने अपने ग्रन्थ नयचक्र अवधारणा का कहीं भी उल्लेख नहीं है। आवश्यकनियुक्ति की जिन में नियुक्तिगाथा का उद्धरण दिया है- नियुक्ति लक्षणमाह- "वत्थूणं दो गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के नामों का उल्लेख मिलता है,६७ संकमणं होति अवत्थूणये समभरूढे"। इससे यही सिद्ध होता है कि वे मूलत: नियुक्ति गाथाएँ नहीं हैं। आवश्यक मूल पाठ में चौदह भूतग्रामों वलभी वाचना के पूर्व नियुक्तियों की रचना हो चुकी थी। अत: उनके (जीव-जातियों) का ही उल्लेख है, गुणस्थानों का नहीं। अत: नियुक्ति रचयिता नैमित्तिक भद्रबाहु न होकर या तो काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त तो भूतग्रामों की ही लिखी गयी। भूतग्रामों के विवरण के बाद दो हैं या फिर गौतमगोत्रीय आर्यभद्र हैं। गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के नाम दिये गये हैं। यद्यपि यहाँ गुणस्थान 7. पुन: वलभी वाचना के आगमों के गद्यभाग में नियुक्तियों शब्द का प्रयोग नहीं है। ये दोनों गाथाएँ प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि हरिभद्र और संग्रहणी की अनेक गाथाएँ मिलती हैं, जैसे ज्ञाताधर्मकथा में मल्ली (आठवीं सदी) ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में "अधुनामुमैव अध्ययन में जो तीर्थङ्कर-नाम-कर्म-बन्ध सम्बन्धी 20 बोलों की गाथा गुणस्थानद्वारेण दर्शयन्नाह संग्रहणिकार:” कहकर इन दोनों गाथाओं को है, वह मूलत: आवश्यकनियुक्ति (179-181) की गाथा है। इससे संग्रहणी गाथा के रूप में उद्धृत किया है।६८ अत: गुणस्थान सिद्धान्त भी यही फलित होता है कि वलभी वाचना के समय नियुक्तियों और के स्थिर होने के पश्चात् संग्रहणी की ये गाथाएँ नियुक्ति में डाल दी संग्रहणीसूत्रों से अनेक गाथाएँ आगमों में डाली गई हैं। अत: नियुक्तियाँ गई हैं। नियुक्तियों में गुणस्थान की अवधारणा की अनुपस्थिति इस और संग्रहणियाँ वलभी वाचना के पूर्व की हैं अत: वे नैमित्तिक भद्रबाहु तथ्य का प्रमाण है कि उनकी रचना तीसरी-चौथी शती के पूर्व हई के स्थान पर लगभग तीसरी-चौथी शती के किसी अन्य भद्र नामक थी। इसका तात्पर्य यह है कि नियुक्तियाँ नैमित्तिक भद्रबाहु की रचना आचार्य की कृतियाँ हैं। नहीं है। 8. नियुक्तियों की सत्ता वलभी वाचना के पूर्व थी, तभी तो 4. साथ ही हम देखते हैं कि आचारांगनियुक्ति में आध्यात्मिक नन्दीसूत्र में आगमों की नियुक्तियों का उल्लेख है। पुनः अगस्त्यसिंह विकास की उन्हीं दस अवस्थाओं का विवेचन है६९ जो हमें तत्त्वार्थसूत्र की दशवैकालिकचूर्णि के उपलब्ध एवं प्रकाशित हो जाने पर यह बात में भी मिलती है और जिनसे आगे चलकर गुणस्थान की अवधारणा पुष्ट हो जाती है कि आगमिक व्याख्या के रूप में नियुक्तियाँ वलभी
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________________ 54 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ वाचना के पूर्व लिखी जाने लगी थीं। इस चूर्णि में प्रथम अध्ययन आराधना में नियुक्तियों की अनेक गाथाओं की नियुक्ति-गाथा के उल्लेख की दशवैकालिकनिर्यक्ति की 54 गाथाओं की भी चूर्णि की गई है। पूर्वक उपस्थिति, यही सिद्ध करती है कि नियुक्ति के कर्ता उस अविभक्त यह चूर्णि विक्रम की तीसरी-चौथी शती में रची गई थी। इससे यह परम्परा के होने चाहिए जिससे श्वेताम्बर एवं यापनीय सम्प्रदायों का तथ्य सिद्ध हो जाता है कि नियुक्तियाँ भी लगभग तीसरी-चौथी शती विकास हुआ है। कल्पसूत्र स्थविरावली में जो आचार्य परम्परा प्राप्त की रचना हैं। होती है, उसमें भगवान् महावीर की परम्परा में प्राचीनगोत्रीय श्रुत-केवली ज्ञातव्य है कि नियुक्तियों में भी परवर्ती काल में पर्याप्त रूप भद्रबाहु के अतिरिक्त दो अन्य ‘भद्र' नामक आचार्यों का उल्लेख प्राप्त से प्रक्षेप हुआ है, क्योंकि दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन की होता है- 1. आर्य शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्यभद्र और अगस्त्यसिंहचूर्णि में मात्र 54 नियुक्ति गाथाओं की चूर्णि हुई है, जबकि 2. आर्य कालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र। वर्तमान में दशवैकालिकनियुक्ति में प्रथम अध्ययन की नियुक्ति में 151 संक्षेप में कल्पसूत्र की यह आचार्य परम्परा इस प्रकार हैगाथाएँ हैं। अत: नियुक्तियाँ आर्यभद्रगुप्त या गौतमगोत्रीय आर्यभद्र की महावीर, गौतम, सुधर्मा, जम्बू, प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, संभूति, रचनाएँ हैं। विजय, भद्रबाहु (चतुर्दशपूर्वधर), स्थूलिभद्र (ज्ञातव्य है कि भद्रबाहु इस सम्बन्ध में एक आपत्ति यह उठाई जा सकती है कि नियुक्तियाँ एवं स्थूलिभद्र दोनों ही संभूतिविजय के शिष्य थे।), आर्य सुहस्ति, वलभी वाचना के आगमपाठों के अनुरूप क्यों हैं? इसका प्रथम उत्तर सुस्थित, इन्द्रदिन्न, आर्यदिन, आर्यसिंहगिरि, आर्यवज्र, आर्य वज्रसेन, तो यह है कि नियुक्तियों का आगम पाठों से उतना सम्बन्ध नहीं है, आर्यरथ, आर्य पुष्यगिरि, आर्य फल्गुमित्र, आर्य धनगिरि, आर्यशिवभूति, जितना उनकी विषयवस्तु से है और यह सत्य है कि विभिन्न वाचनाओं आर्यभद्र (काश्यपगोत्रीय), आर्यकृष्ण, आर्यनक्षत्र, आर्यरक्षित, आर्यनाग, में चाहे कुछ पाठ-भेद रहे हों किन्तु विषयवस्तु तो वही रही है और आर्यज्येष्ठिल, आर्यविष्णु, आर्यकालक, आर्यसंपलित, आर्यभद्र नियुक्तियाँ मात्र विषयवस्तु का विवरण देती हैं। पुनः नियुक्तियाँ मात्र (गौतमगोत्रीय), आर्यवृद्ध, आर्य संघपालित, आर्यहस्ती, आर्यधर्म, प्राचीन स्तर के और बहुत कुछ अपरिवर्तित रहे आगमों पर हैं, सभी आर्यसिंह, आर्यधर्म, षाण्डिल्य (सम्भवत: स्कंदिल, जो माथुरी वाचना आगम ग्रन्थों पर नहीं है और इन प्राचीन स्तर के आगमों का के वाचनाप्रमुख थे) आदि। गाथाबद्ध जो स्थविरावली है उसमें इसके स्वरूप-निर्धारण तो पहले ही हो चुका था। माथुरीवाचना या वलभी बाद जम्बू, नन्दिल, दुष्यगणि, स्थिरगुप्त, कुमारधर्म एवं देवर्द्धिक्षपकश्रमण वाचना में उनमें बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। आज जो नियुक्तियाँ के पाँच नाम और आते हैं। हैं वे मात्र आचारांग, सूत्रकृतांग, आवश्यक, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ज्ञातव्य है कि नैमित्तिक भद्रबाह का नाम जो विक्रम की छठी दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, बृहत्कल्प पर हैं। ये सभी ग्रन्थ विद्वानों की शती के उत्तरार्ध में हुए हैं, इस सूची में सम्मिलित नहीं हो सकता दृष्टि में प्राचीन स्तर के हैं और इनके स्वरूप में बहुत अधिक परिवर्तन है। क्योंकि यह सूची वीर निर्वाण सं. 980 अर्थात् विक्रम सं. 510 नहीं हुआ है। अत: वलभीवाचना से समरूपता के आधार पर नियुक्तियों में अपना अन्तिम रूप ले चुकी थी। को उससे परवर्ती मानना उचित नहीं है। इस स्थविरावली के आधार पर हमें जैन परम्परा में विक्रम की उपर्युक्त समग्र चर्चा से यह फलित होता है कि नियुक्तियों के छठी शती के पूर्वार्ध तक होने वाले भद्र नामक तीन आचार्य के नाम कर्ता न तो चतुर्दशपूर्वधर आर्य भद्रबाहु हैं और न वाराहमिहिर के मिलते हैं- प्रथम प्राचीनगोत्रीय आर्य भद्रबाहु, दूसरे आर्य शिवभूति भाई नैमित्तिक भद्रबाहु। यह भी सुनिश्चित है कि नियुक्तियों की रचना के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्य भद्रगुप्त, तीसरे आर्य विष्णु के प्रशिष्य छेदसूत्रों की रचना के पश्चात् हुई है। किन्तु यह भी सत्य है कि नियुक्तियों और आर्यकालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र। इनमें वराहमिहिर का अस्तित्व आगमों की देवर्द्धि के समय हुई वाचना के पूर्व था। के भ्राता नैमित्तिक भद्रबाहु को जोड़ने पर यह संख्या चार हो जाती अत: यह अवधारणा भी भ्रान्त है कि नियुक्तियाँ विक्रम की छठी सदी है। इनमें से प्रथम एवं अन्तिम को तो नियुक्तिकर्ता के रूप में स्वीकार के उत्तरार्द्ध में निर्मित हुई हैं। नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र की रचना के नहीं किया जा सकता है, इस निष्कर्ष पर हम पहुँच चुके हैं। अब पूर्व आगमिक नियुक्तियाँ अवश्य थीं। शेष दो रहते हैं-१. शिवभूति के शिष्य आर्यभद्रगुप्त और दूसरे अब यह प्रश्न उठता है कि यदि नियुक्तियों के कर्ता श्रुत केवली आर्यकालक के शिष्य आर्यभद्र। इनमें पहले हम आर्य धनगिरि के पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु तथा वाराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु प्रशिष्य एवं आर्य शिवभूति के शिष्य आर्यभद्रगुप्त के सम्बन्ध में विचार दोनों ही नहीं थे, तो फिर वे कौन से भद्रबाहु हैं जिनका नाम नियुक्ति करेगें कि क्या वे नियुक्तियों के कर्ता हो सकते हैं? के कर्ता के रूप में माना जाता है। नियुक्ति के कर्ता के रूप में भद्रबाहु की अनुश्रुति जुड़ी होने से इतना तो निश्चित है कि नियुक्तियों का क्या आर्यभद्रगुप्त नियुक्तियों के कर्ता हैं? सम्बन्ध किसी “भद्र" नामक व्यक्ति से होना चाहिए और उनका अस्तित्व नियुक्तियों को शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त की लगभग विक्रम की तीसरी-चौथी सदी के आस-पास होना चाहिए। रचना मानने के पक्ष में हम निम्न तर्क दे सकते हैंक्योंकि नियमसार में आवश्यक की नियुक्ति, मूलाचार में नियुक्तियों१. नियुक्तियाँ उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ से विकसित के अस्वाध्याय काल में भी पढ़ने का निर्देश तथा उसमें और भगवती श्वेताम्बर एवं यापनीय दोनों सम्प्रदायों में मान्य रही हैं, क्योंकि यापनीय
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________________ 55 नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन ग्रन्थ मूलाचार में न केवल शताधिक नियुक्ति गाथाएँ उदधृत हैं, अपितु में वस्त्र-पात्र के उल्लेख अधिक बाधक नहीं हैं। उसमें अस्वाध्याय काल में नियुक्तियों के अध्ययन न करने का निर्देश 4. चूँकि आर्यभद्र के निर्यापक आर्यरक्षित माने जाते हैं। नियुक्ति भी है। इससे फलित होता है कि नियुक्तियों की रचना मूलाचार से और चूर्णि दोनों से ही यह सिद्ध है कि आर्यरक्षित भी अचेलता के पूर्व हो चुकी थी। यदि मूलाचार को छठीं सदी की रचना भी मानें ही पक्षधर थे और उन्होंने अपने पिता को, जो प्रारम्भ में अचेल दीक्षा तो उसके पूर्व नियुक्तियों का अस्तित्व तो मानना ही होगा, साथ ही ग्रहण करना नहीं चाहते थे, योजनापूर्वक अचेल बना ही दिया था। यह भी मानना होगा कि नियुक्तियाँ मूलरूप में अविभक्त धारा में निर्मित चूर्णि में जो कटिपट्टक की बात है, वह तो श्वेताम्बर पक्ष की पुष्टि हुई थीं। चूँकि परम्परा भेद तो शिवभूति के पश्चात् उनके शिष्यों कौडिन्य हेतु डाली गयी प्रतीत होती है। और कोट्टवीर से हुआ है। अत: नियुक्तियाँ शिवभूति के शिष्य भद्रगुप्त भद्रगुप्त को नियुक्ति का कर्ता मानने के सम्बन्ध में निम्न कठिनाइयाँ की रचना मानी जा सकती है, क्योंकि वे न केवल अविभक्त धारा हैंमें हुए अपितु लगभग उसीकाल में अर्थात् विक्रम की तीसरी शती 1. आवश्यकनियुक्ति एवं आवश्यकचूर्णि के उल्लेखों के अनुसार में हुए हैं, जो कि नियुक्ति का रचना काल है। / आर्यरक्षित भद्रगुप्त के निर्यापक (समाधिमरण कराने वाले) माने गये। 2. पुन: आचार्य भद्रगुप्त को उत्तर-भारत की अचेल परम्परा / आवश्यकनियुक्ति न केवल आर्यरक्षित की विस्तार से चर्चा करती है, का पूर्वपुरुष दो-तीन आधारों पर माना जा सकता है। प्रथम तो कल्पसूत्र अपितु उनका आदरपूर्वक स्मरण भी करती है। भद्रगुप्त आर्यरक्षित की पट्टावली के अनुसार आर्यभद्रगुप्त आर्यशिवभूति के शिष्य हैं और से दीक्षा में ज्येष्ठ हैं, ऐसी स्थिति में उनके द्वारा रचित नियुक्तियों ये शिवभूति वही हैं जिनका आर्यकृष्ण से मुनि की उपधि (वस्त्र-पात्र) में आर्यरक्षित का उल्लेख इतने विस्तार से एवं इतने आदरपूर्वक नहीं के प्रश्न पर विवाद हुआ था और जिन्होंने अचेलता का पक्ष लिया आना चाहिए। यद्यपि परवर्ती उल्लेख एकमत से यह मानते हैं कि था। कल्पसूत्र स्थविरावली में आर्य कृष्ण और आर्यभद्र दोनों को आर्य आर्यभद्रगुप्त की निर्यापना आर्यरक्षित ने करवायी, किन्तु मूल गाथा शिवभूति का शिष्य कहा है। चूँकि आर्यभद्र ही ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें को देखने पर इस मान्यता के बारे में किसी को सन्देह भी हो सकता आर्यवज्र एवं आर्यरक्षित के शिक्षक के रूप में श्वेताम्बरों में और शिवभूति है, मूल गाथा निम्नानुसार हैके शिष्य के रूप में यापनीय परम्परा में मान्यता मिली है। पुनः "निज्जवण भगुत्ते वीसं पढणं च तस्स पुव्वगयं। आर्यशिवभूति के शिष्य होने के कारण आर्यभद्र भी अचेलता के पक्षधर पव्याविओ य भाया रक्खिअखमणेहिं जणओ अ"। होंगे और इसलिए उनकी कृतियाँ यापनीय परम्परा में मान्य रही होंगी। - आवश्यकनियुक्ति, 776 / 3. विदिशा से जो एक अभिलेख प्राप्त हुआ है उसमें भद्रान्वय यहाँ “निज्जवण भद्दगुत्ते" में यदि 'भद्दगुत्ते' को आर्ष प्रयोग मानकर एवं आर्यकुल का उल्लेख है कोई प्रथमाविभक्ति में समझे तो इस गाथा के प्रथम दो चरणों का शमदमवान चीकरत् (11) आचार्य- भद्रान्वयभूषणस्य अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है- भद्रगुप्त ने आर्यरक्षित की निर्यापना शिष्यो ह्यसावार्यकुलोद्गतस्य (1) आचार्य- गोश की और उनसे समस्त पूर्वगत साहित्य का अध्ययन किया। (जै.शि.सं. 2, पृ० 57) गाथा के उपर्युक्त अर्थ को स्वीकार करने पर तो यह माना जा सम्भावना यही है कि भद्रान्वय एवं आर्यकुल का विकास इन्हीं सकता है कि नियुक्तियों में आर्यरक्षित का जो बहुमान पूर्वक उल्लेख आर्यभद्र से हुआ हो। यहाँ के अन्य अभिलेखों में मुनि का है, वह अप्रासंगिक नहीं है। क्योंकि जिस व्यक्ति ने आर्यरक्षित की 'पाणितलभोजी' ऐसा विशेषण होने से यह माना जा सकता है कि निर्यापना करवायी हो और जिनसे पूर्वो का अध्ययन किया हो, वह यह केन्द्र अचेल धारा का था। अपने पूर्वज आचार्य भद्र की कृतियाँ उनका अपनी कृति में सम्मानपूर्वक उल्लेख करेगा ही। किन्तु गाथा होने के कारण नियुक्तियाँ यापनीयों में भी मान्य रही होगी। ओघनियुक्ति का इस दृष्टि से किया गया अर्थ चूर्णि में प्रस्तुत कथानकों के साथ या पिण्डनियुक्ति में भी जो कि परवर्ती एवं विकसित हैं, दो चार प्रसंगों एवं नियुक्ति गाथाओं के पूर्वापर प्रसंग को देखते हुए किसी भी प्रकार के अतिरिक्त कहीं भी वस्त्र-पात्र का विशेष उल्लेख नहीं मिलता है। संगत नहीं माना जा सकता है। चूर्णि में तो यही कहा गया है कि यह इस तथ्य का भी सूचक है कि नियुक्तियों के काल तक वस्त्र-पात्र आर्यरक्षित ने भद्रगुप्त की निर्यापना करवायी और आर्यवज्र से आदि का समर्थन उस रूप में नहीं किया जाता था, जिस रूप में परवर्ती पूर्वसाहित्य का अध्ययन किया। यहाँ दूसरे चरण में प्रयुक्त “तस्स" श्वेताम्बर सम्प्रदाय में हुआ। वस्त्र-पात्र के सम्बन्ध में नियुक्ति की मान्यता शब्द का सम्बन्ध आर्यवज्र से है, जिनका उल्लेख पूर्व गाथाओं में भगवती आराधना एवं मूलाचार से अधिक दूर नहीं है। आचारांगनियुक्ति किया गया है। साथ ही यहाँ ‘भद्दगुत्ते' में सप्तमी का प्रयोग है, जो में आचारांग के वस्त्रेषणा अध्ययन की नियुक्ति केवल एक गाथा में एक कार्य को समाप्त कर दूसरा कार्य प्रारम्भ करने की स्थिति में किया समाप्त हो गयी है और पात्रैषणा पर कोई नियुक्ति गाथा ही नहीं है। जाता है। यहाँ सम्पूर्ण गाथा का अर्थ इस प्रकार होगा- आर्यरक्षित अत: वस्त्र-पात्र के सम्बन्ध में नियुक्तियों के कर्ता आर्यभद्र की स्थिति ने भद्रगुप्त की निर्यापना (समाधिमरण) करवाने के पश्चात् (आर्यवज्र भी मथुरा के साधु-साध्वियों के अंकन से अधिक भिन्न नहीं है। अत: से) पूर्वो का समस्त अध्ययन किया है और अपने भाई और पिता नियुक्तिकार के रूप में आर्य भद्रगुप्त को स्वीकार करने में नियुक्तियों को दीक्षित किया। यदि आर्यरक्षित भद्रगुप्त के निर्यापक हैं और वे Jain Education Interational
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________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ ही नियुक्तियों के कर्ता भी हैं, तो फिर नियुक्तियों में आर्यरक्षित द्वारा प्रशिष्य एवं आर्यकालक के शिष्य हैं तथा इनके शिष्य के रूप में निर्यापन करवाने के बाद किये गये कार्यों का उल्लेख नहीं होना था। आर्यवृद्ध का उल्लेख है। यदि हम आर्यवृद्ध को वृद्धवादी मानते हैं, किन्तु ऐसा उल्लेख है, अत: नियुक्तियाँ काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त की तो ऐसी स्थिति में ये आर्यभद्र, सिद्धसेन के दादा गुरु सिद्ध होते कृति नहीं हो सकती हैं। है। यहाँ हमें यह देखना होगा कि क्या ये आर्यभद्र भी स्पष्ट संघभेद 2. दूसरी एक कठिनाई यह भी है कि कल्पसूत्र स्थविरावली अर्थात् श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर सम्प्रदायों के नामकरण के के अनुसार आर्यरक्षित आर्यवज्र से 8 वीं पीढ़ी में आते हैं। अत: पूर्व हुए हैं? यह सुनिश्चित है कि सम्प्रदाय-भेद के पश्चात् का कोई यह कैसे सम्भव हो सकता है कि 8 वीं पीढ़ी में होने वाला व्यक्ति भी आचार्य नियुक्ति का कर्ता नहीं हो सकता, क्योंकि नियुक्तियाँ यापनीय अपने से आठ पीढ़ी पूर्व के आर्यवज्र से पूर्वो का अध्ययन करे। इससे और श्वेताम्बर दोनों में मान्य हैं। यदि वे एक सम्प्रदाय की कृति होती कल्पसूत्र स्थविरावली में दिये गये क्रम में संदेह होता है, हालाँकि तो दूसरा सम्प्रदाय उसे मान्य नहीं करता। यदि हम आर्य विष्णु को कल्पसूत्र स्थविरावली एवं अन्य स्रोतों से इतना तो निश्चित होता है दिगम्बर पट्टावली में उल्लिखित आर्यविष्णु समझें तो इनकी निकटता कि आर्यभद्र आर्यरक्षित से पूर्व में हुए हैं। उसके अनुसार आर्यरक्षित अचेल परम्परा से देखी जा सकती है। दूसरे विदिशा के अभिलेख आर्यभद्र गुप्त के प्रशिष्य सिद्ध होते हैं। यद्यपि कथानकों में आर्यरक्षित में जिस भद्रान्वय एवं आर्य कुल का उल्लेख है उसका सम्बन्ध इन को तोषलिपुत्र का शिष्य कहा गया है। हो सकता है कि तोषलिपुत्र गौतमगोत्रीय आर्यभद्र से भी माना जा सकता है, क्योंकि इनका काल आर्यभद्रगुप्त के शिष्य रहे हों। स्थविरावली के अनुसार आर्यभद्र के भी स्पष्ट सम्प्रदाय भेद एवं उस अभिलेख के पूर्व है। दुर्भाग्य से इनके शिष्य आर्यनक्षत्र और उनके शिष्य आर्यरक्षित थे। चाहे कल्पसूत्र की सन्दर्भ में आगमिक व्याख्या-साहित्य में कहीं कोई विवरण नहीं मिलता, स्थविरावली में कुछ अस्पष्टताएँ हों और दो आचार्यों की परम्परा को केवल नाम-साम्य के आधार पर हम इनके नियुक्तिकार होने की सम्भावना कहीं एक साथ मिला दिया गया हो, फिर भी इतना तो निश्चित है व्यक्त कर सकते हैं। कि आर्यभद्र आर्यरक्षित से पूर्ववर्ती या ज्येष्ठ समकालिक हैं। ऐसी इनकी विद्वत्ता एवं योग्यता के सम्बन्ध में भी आगमिक उल्लेखों स्थिति में यदि नियुक्तियाँ आर्यभद्रगुप्त के समाधिमरण के पश्चात् की का अभाव है, किन्तु वृद्धवादी जैसे शिष्य और सिद्धसेन जैसे प्रशिष्य आर्यरक्षित के जीवन की घटनाओं का विवरण देती हैं, तो उन्हें शिवभूति के गुरु विद्वान् होंगे, इसमें शंका नहीं की जा सकती। साथ ही इनके के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त की कृति नहीं माना जा सकता। प्रशिष्य सिद्धसेन का आदरपूर्वक उल्लेख दिगम्बर और यापनीय आचार्य यदि हम आर्यभद्र को ही नियुक्ति के कर्ता के रूप में स्वीकार भी करते हैं, अत: इनकी कृतियों को उत्तर भारत की अचेल परम्परा करना चाहते हैं तो इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है कि हम में मान्यता मिली हो, ऐसा माना जा सकता है। ये आर्यरक्षित से पाँचवीं आर्यरक्षित, अन्तिम निह्नव एवं बोटिकों का उल्लेख करने वाली पीढ़ी में माने गये हैं। अत: इनका काल इनके सौ-डेढ़ सौ वर्ष पश्चात् नियुक्ति गाथाओं को प्रक्षिप्त मानें। यदि आर्यरक्षित आर्यभद्रगुप्त के ही होगा अर्थात् ये भी विक्रम की तीसरी सदी के उत्तरार्द्ध या चौथी निर्यापक हैं तो ऐसी स्थिति में आर्यभद्र का स्वर्गवास वीर के पूर्वार्द्ध में कभी हुए होगें। लगभग यही काल माथुरीवाचना का निर्वाण सं. 560 के आस-पास मानना होगा, क्योंकि प्रथम तो भी है। चूँकि माथुरीवाचना यापनीयों को भी स्वीकृत रही है, इसलिए आर्यरक्षित ने भद्रगुप्त की निर्यापना अपने युवावस्था में ही इन कालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र को नियुक्तियों का कर्ता करवायी थी और दूसरे तब वीर निर्वाण सं. 584 (विक्रम की द्वितीय मानने में काल एवं परम्परा की दृष्टि से कठिनाई नहीं है। शताब्दी) में स्वर्गवासी होने वाले आर्यवज्र जीवित थे। अत: नियुक्तियों यापनीय और श्वेताम्बर दोनों में नियुक्तियों की मान्यता के होने में अन्तिम निह्नव का कथन भी सम्भव नहीं लगता, क्योंकि अबद्धिक के प्रश्न पर भी इससे कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि ये आर्यभद्र नामक सातवाँ निह्नव वीरनिर्वाण के 584 वर्ष पश्चात् हुआ है। अतः आर्य नक्षत्र एवं आर्य विष्णु की ही परम्परा के शिष्य हैं। सम्भव है हमें न केवल आर्यरक्षित सम्बन्धी अपितु अन्तिम निहव एवं बोटिकों कि दिगम्बर परम्परा में आर्यनक्षत्र और आर्यविष्णु की परम्परा में हुए सम्बन्धी विवरण भी नियुक्तियों में प्रक्षिप्त मानना होगा। यदि हम यह जिन 'भद्रबाहु' के दक्षिण में जाने के उल्लेख मिलते हैं, जिनसे अचेल स्वीकार करने को सहमत नहीं हैं, तो हमें यह स्वीकार करना होगा धारा में भद्रान्वय और आर्यकुल का आविर्भाव माना जाता है, वे ये कि काश्यपगोत्रीय आर्यभद्रगुप्त भी नियुक्तियों के कर्ता नहीं हो सकते ही आर्यभद्र हों। यदि हम इन्हें नियुक्तियों का कर्ता मानते हैं, तो इससे हैं। अत: हमें अन्य किसी भद्र नामक आचार्य की खोज करनी नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में जो नियुक्तियों के उल्लेख है वे भी युक्तिसंगत होगी। बन जाते हैं। अत: हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि नियुक्तियों के कर्ता क्या गौतमगोत्रीय आर्यभद्र नियुक्तियों के कर्ता हैं? आर्य नक्षत्र की परम्परा में हुए आर्य विष्णु के प्रशिष्य एवं आर्य संपालित काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त के पश्चात् कल्पसूत्र पट्टावली में हमें के गुरु-भ्राता गौतमगोत्रीय आर्यभद्र ही हैं। यद्यपि मैं अपने इस निष्कर्ष गौतमगोत्रीय आर्यकालक के शिष्य और आर्य संपालित के गुरुभाई को अन्तिम तो नहीं कहता, किन्तु इतना अवश्य कहूँगा कि इन आर्यभद्र आर्यभद्र का भी उल्लेख मिलता है।७५ यह आर्यभद्र आर्यविष्णु के को नियुक्ति का कर्ता स्वीकार करने पर हम उन अनेक विप्रतिपत्तियों
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________________ 57 नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन से बच सकते हैं, जो प्राचीनगोत्रीय पूर्वधर भद्रबाहु काश्यपगोत्रीय आशा है जैन विद्या के निष्पक्ष विद्वानों की अगली पीढ़ी इस आर्यभद्रगुप्त और वराहमिहिर के भ्राता नैमित्तिक भद्रबाह को नियुक्तियों दिशा में और भी अन्वेषण कर नियुक्ति साहित्य सम्बन्धी विभिन्न का कर्ता मानने पर आती हैं। हमारा यह दुर्भाग्य है कि अचेलधारा समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करेगी। प्रस्तुत लेखन में मुनि श्री में नियुक्तियाँ संरक्षित नहीं रह सकी, मात्र भगवती आराधना, मूलाचार पुण्यविजय जी का आलेख मेरा उपजीव्य रहा है। आचार्य हस्तीमल और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में उनकी कुछ गाथाएँ ही अवशिष्ट हैं। इनमें जी ने जैनधर्म के मौलिक इतिहास के लेखन में भी उसी का अनुसरण भी मूलाचार ही मात्र ऐसा ग्रन्थ है जो लगभग सौ नियुक्ति गाथाओं किया है। किन्तु मैं उक्त दोनों के निष्कर्षों से सहमत नहीं हो सका। का नियुक्ति गाथा के रूप में उल्लेख करता है। दूसरी ओर सचेल यापनीय सम्प्रदाय पर मेरे द्वारा ग्रन्थ लेखन के समय मेरी दृष्टि में धारा में जो नियुक्तियाँ उपलब्ध हैं, उनमें अनेक भाष्यगाथाएँ मिश्रित कुछ नई समस्याएँ और समाधान दृष्टिगत हुए और उन्हीं के प्रकाश हो गई हैं, अत: उपलब्ध नियुक्तियों में से भाष्य गाथाओं एवं प्रक्षिप्त में मैंने कुछ नवीन स्थापनाएँ प्रस्तुत की हैं, वे सत्य के कितनी निकट गाथाओं को अलग करना एक कठिन कार्य है, किन्तु यदि एक बार हैं, यह विचार करना विद्वानों का कार्य है। मैं अपने निष्कर्षों को अन्तिम नियुक्तियों के रचनाकाल, उसके कर्ता तथा उनकी परम्परा का निर्धारण सत्य नहीं मानता हूँ, अत: सदैव उनके विचारों एवं समीक्षाओं से हो जाये तो यह कार्य सरल हो सकता है। लाभान्वित होने का प्रयास करूंगा। सन्दर्भ 1. (अ) निज्जुत्ता ते अत्था, जं बद्धा तेण होइ णिज्जुत्ती। 11. गोविंदो... पच्छातेण एगिदिय जीव साहणं गोविंद निज्जुतिकया। - आवश्यकनियुक्ति, गाथा 88 निशीथ भाष्य गाथा 3656, निशीथचूर्णि, भाग 3, पृ० 260, (ब) सूत्रार्थयोः परस्परनियोजनं सम्बन्धनं नियुक्तिः भाग-४, पृ० 96 / - आवश्यकनियुक्ति टीका हरिभद्र, गाथा 83 की टीका। 12. नन्दीसूत्र, (सं. मधुकरमुनि) स्थविरावली गाथा 41 / 2. अत्थाणं उग्गहणं अवग्गहं तह विआलणं इहं। 13. (अ) प्राकृतसाहित्य का इतिहास, डॉ. जगदीश चन्द्र जैन,पृ० 190 / - आवश्यक निर्यक्ति. (ब) जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास, डॉ. मोहनलाल मेहता, पार्श्वनाथ 3. ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा। विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, भाग 3, पृ०६। सण्णा सई मई पण्णा सव्वं आभिनिबोहियं।। 14. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 84-85 - वही, 12 // 15. वही, 84 / 4. आवस्सगस्स दसकालिअस्स तह उत्तरज्झमायारे। 16. बहुरय पएस अव्वत्तसमुच्छादुगतिग अबद्धिया चेव। . सूयगडे निज्जुत्तिं वुच्छामि तहा दसाणं च।। सत्तेए णिण्हणा खलु तित्थंमि उ वद्धमाणस्स।। कप्पस्स य निज्जुतिं ववहारस्सेव परमणि णस्स। बहुरय जमालिपभवा जीवपएसा ये तीसगुत्ताओ। सूरिअपण्णत्तीए वुच्छं इसिभासियाणं च।। अव्वत्ताऽऽसाढाओ सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ।। - वही, 84-85 / गंगाओ दोकिरिया छलुगा तरासियाण उप्पत्ती। 5. इसिभासियाइं (प्राकृत भारती, जयपुर), भूमिका, सागरमल जैन, थेराय गोट्ठमाहिलपुट्ठमबद्धं परुविंति।। पृ० 93 / सावत्थी उसभपुर सेयविया मिहिल उल्लुगातीरं। 6. बृहत्कथाकोष (सिंघी जैन ग्रन्थमाला) प्रस्तावना, ए.एन.उपाध्ये, पुरमिंतरंजि दसपुर-रहवीरपुरं च नगराई।। पृ०३१ चोद्दस सोलस वासा चोद्दसवीसुत्तरा य दोण्णि सया। आराधना... तस्या नियुक्तिराधनानियुक्तिः। -मूलाचार, पंचाचाराधिकार, अट्ठावीसा य दुवे पंचेव सया उ चोयाला।। गा. 279 की टीका (भारतीय ज्ञानपीठ, 1984) पंच सया चुलसीया छच्चेव सया णवोत्तरा होति। 8. गोविन्दाणं पि नमो अणुओगे विउलधारणिंदाणं। णाणुपत्तीय दुवे उप्पणा णिब्दुए सेसा।। - नन्दिसूत्र स्थविरावली, गा. 41 / एवं एए कहिया ओसप्पिणीए उ निण्हवा सत्त। 9. व्यवहारभाष्य, भाग 6, गा. 267-268: वीरवरस्स पवयणे सेसाणं पव्वयणे णत्थि।। 10. सो य हेउगोवएसो गोविन्दनिज्जुत्तिमादितो...। - वही, 778-784 / दरिसणप्पभावगाणि सत्थाणि जहा गोविंदनिज्जुत्तिमादी। बहुरय जमालिपभवा जीवपएसा य तीसगुत्ताओ। - आवश्यकचूर्णि भाग१, पृ. 31 एवं 353 भाग२, पृ० 201, अव्वत्ताऽऽसाढाओ सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ।। 322 / गंगाए दोकिरिया छलुगा तेरासिआण उप्पत्ती।
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________________ 58 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ थेरा य गुट्ठमाहिलपुट्ठबद्धं परुविंति।। जिट्ठा सुदंसण जमालि अणुज्ज सावत्थि तिंदुगुज्जाणे। पंच सया य सहस्सं ढकेण जमालि मुत्तूणं।। रायगिहे गुणसिलए वसु चउदसपुचि तीसगुत्ताओ। आमलकप्पा नयरि मित्तसिरी कूरपिंडादि।। सियवियपोलासाढे जोगे तद्दिवसहिययसूले य। सोहम्मि नलिणगुम्मे रायगिहे पुरिय बलभद्दे / / मिहिलाए लच्छिघरे महगिरि कोडिन्न आसमित्तो / णेउणमणुप्पवाए रायगिहे खंडरक्खा य।। नइखेडजणव उल्लग महगिरि धणगुत्त अज्जगंगे य। किरिया दो रायगिहे महातवो तीरमणिनाए।। पुरिमंतरंजि भुयगुह बलसिरि सिरिगुत्त रोहगुतते य। परिवाय पुट्टसाले घोसण पडिसेहणा वाए।। विच्छ्य सप्पे मूसग मिगी वराही य कागि पोयाई। एयाहिं विज्जाहिं सो उ परिव्वायगो कुसलो।। मोरिय नउलि बिराली वग्घी सीही य उलुगि ओवाइ। एयाओ विज्जाओ गिण्ह परिव्वायमहणीओ।। दसपुरनगरुच्छुघरे अज्जरक्खिय पुसमित्तत्तियगं च। गुट्ठामाहिल नव अट्ठ सेसपुच्छा य विंझस्स।। पुट्ठो जहा अबद्धो कंचुइणं कंचुओ समन्नेइ। एवं पुट्ठमबद्धं जीवं कम्मं समन्त्रेइ।। पच्चक्खाणं सेयं अपरिमाणेण होइ कायव्वं / जेसिं तु परीमाणं तं दुर्ल्ड होइ आसंसा।। रहवीरपुरं नयरं दीवगमुज्जाण अज्जकण्हे अ। सिवभूइस्सुवहिमि पुच्छा थेराण कहणा य।। - उत्तराध्ययननियुक्ति, 165-178 / 18. वही, 29 / 19. दशवैकालिकनियुक्ति, गाथा 309-326 / 20. उत्तराध्ययननियुक्ति, 207 / 21. दशवैकालिकनियुक्ति, 161-163 / 22. आचारांगनियुक्ति, गाथा 5 / 23. (अ) दशवैकालिकनियुक्ति, 79-88 / (ब) उत्तराध्ययननियुक्ति, 143-144 / 24. जो चेव होइ मुक्खो सा उ विमुत्ति पगयं तु भावेणं। देसविमुक्का साहू सव्वविमुक्का भवे सिद्धा।। -आचारांगनियुक्ति, 331 // 25. उत्तराध्ययननियुक्ति, 497-92 / 26. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा 99 / 27. दशवैकालिकनियुक्ति, गाथा 3 / 28. सूत्रकृतांगनियुक्ति, 127 / 29. उत्तराध्ययननियुक्ति, 267-268 / 30. दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति, गाथा 1 / 31. तहवि य कोई अत्यो उप्पज्जति तम्मि तंमि समयंमि। पुव्वभणिओ अणुमतो अ होइ इसिभासिएसु जहा।। -सूत्रकृतांगनियुक्ति, 1892 / ३२क.बृहत्कल्पसूत्रम्, षष्ठ विभाग, प्रकाशक- श्री आत्मानन्द जैन सभा भावनगर, प्रस्तावना, पृ० 4,5 33. वही आमुख, पृ० 2 ३४क. मूढणइयं सुयं कालियं तु ण णया समोयरंति इहं। अपुहुत्ते समोयारो, नस्थि पुहुत्ते समोयारो।।। जावंति अज्जवइरा, अपुहुत्तं कालियाणुओगे य। तेणाऽऽरेण पुहत्तं, कालियसुय दिट्ठिवाए य।। - आवश्यकनियुक्ति, गाथा 762-763 / (ख) तुंबवणसन्निवेसाओ, निग्गयं पिउसगासमल्लीणं। छम्मासियं छसु जयं, माऊय समन्त्रियं वंदे।। जो गुज्झएहिं बालो, निमंतिओ भोयणेण वासंते। णेच्छइ विणीयविणओ, तं वइररिसिं णमंसामि।। उज्जेणीए जो जंभगेहिं आणक्खिऊण थुयमहिओ। अक्खीणमहाणसियं सीहगिरिपसंसियं वंदे।। जस्स अणुण्णाए वायगत्तणे दसपुरम्मि णयरम्मि। देवेहिं कया महिमा, पयाणुसार णमसामि।। जो कन्नाइ घणेण य, णिमंतिओ जुव्वणम्मि गिहवइणा। नयरम्मि कुसुमनामे, तं बइररिसिं णमंसामि।। जणुद्धारआ विज्जा, आगासगमा महारिण्णाओ। वंदामि अज्जवइरं, अपच्छिमो जो सुयहराणं।। - वही, गाथा 764-769 / अपहुत्ते अणुओगो, चत्तारि दुवार भासई एगो। पुहुताणुओगकरणे, ते अत्थ तओ उ वोच्छिन्त्रा।। देविंदवंदिएहिं, महाणुभागेहि रक्खिअज्जेहिं। जुगमासज्ज विभत्तो, अणुओगो तो कओ चउहा।। माया य रुद्दसोमा, पिया य नामेण सोमदेव त्ति। भाया य फग्गुरक्खिय, तोसलिपुत्ता य आयरिआ।। णिज्जवणभद्गुत्ते, वीसं पढणं च तस्स पुवगर्य। पव्वाविओ य भाया, रक्खिअखमणेहिं जणओ य।। -वही, गाथा 773-776 / 35. जह जह पएसिणी जाणुगम्मि पालित्तओ भमाडेइ। तह तह सीसे वियणा, पणस्सइ मुरुंडरायस्स।। -पिण्डनियुक्ति, गाथा- 498 // 36. नइ कण्ह-विन्न दीवे, पंचसया तावसाण णिवसंति। पव्वदिवसेसु कुलवइ, पालेवुत्तार सक्कारे।। :
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________________ नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन जण सावगाण खिसण, समियक्खण माइठाण लेवेण। अट्ठावीसो य दुवे पंचेव सया उ चोयाला।। सावय पयत्तकरणं, अविणय लोए चलण धोए।। - आवश्यकनियुक्ति, गाथा 81-82 पडिलाभिय वच्चंता, निव्वुड निइकूलमिलण समियाओ। 52. रहवीरपुरं नयरं दीवगमुज्जाण अज्जकण्हे अ। विम्हिय पंच सया तावसाण पव्वज्ज साहा य।। सिवभूइस्सुवहिमि पुच्छा थोराण कहणा य।। ---पिण्डनियुक्ति, गाथा 503-505 / - उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 178 37. (अ) वही, गाथा 505 53. स्वयं चतुर्दशपूर्वित्वेऽपि यच्चतुर्दशपू[पादानं तत् तेषामपि (ब) नन्दीसूत्र स्थविरावली गाथा, 36 षट्स्थानपतितत्वेन शेषमाहात्म्यस्थापनपरमदुष्टमेव, भाष्यगाथा वा (स) मथुरा के अभिलेखों में इस शाखा का उल्लेख ब्रह्मदासिक शाखा द्वारगाथाद्वयादारभ्य लक्ष्यन्त इति प्रेर्यानवकाश एवेति।। के रूप में मिलता है। -उत्तराध्ययन टीका, शान्त्याचार्य, गाथा 233 38. उज्जेणी कालखमणा सागरखमणा सुवण्णभूमीए। 54. एगभविए य बद्धाउए य अभिमुहियनामगोए य। इंदो आउयसेसं, पुच्छइ सादिव्वकरणं च।। एते तिन्निवि देसा दव्वंमि य पांडरीयस्स।। - उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 119 / - सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा 146 39. अरहते वंदित्ता चउदसपुव्वी तहेव दसपुव्वी। 55. ये चादेशाः यथा—आर्यमनाचार्यस्त्रिविधं शङ्खमिच्छति- एकभविकं बद्धायुष्कमभिमुखनामगोत्रं च, आर्यसमुद्रो द्विविधम्– बद्धायुष्कमएक्कारसंगसुत्तत्थधारए सव्वसाहू य।। - ओघनियुक्ति, गाथा 1 / भिमुखनामगोत्रं च, आर्यसुहस्ती एकम्- अभिमुखनाम गोत्रमिति; 40. श्रीमती ओघनियुक्ति, संपादक- श्रीमद्विजयसूरीश्वर, प्रकाशन- जैन - बृहत्कल्पसूत्रम्, भाष्य भाग१, गाथा 144 ग्रन्थमाला, गोपीपुरा, सूरत, पृ० 3-4 56. वही, षष्ठविभाग, पृ० सं. 15-17 / 41. जेणुद्धरिया विज्जा आगासगमा महापरिन्नाओ। 57. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 1252-1260 / वंदामि अज्जवइरं अपच्छिमो जो सुअहराणं।। 58. वही, गाथा 85 / - आवश्यकनियुक्ति गाथा, 769 59. जत्थ य जो पण्णवओ कस्सवि साहइ दिसासु य णिमित्तं। 59. जत्थ य जा पण्णवआ कस्साव साहइ दिसासु या 42. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 763-774 / जत्तोमुहो य ढाई सा पुव्वा पच्छवो अवरा।। - आचारांगनियुक्ति, गाथा 51 43. अपहुत्तपुहुत्ताइं निद्दिसिउं एत्य होइ अहिगारो। चरणकरणाणुओगेण तस्स दारा इमे हुंति।। 60. सप्ताश्विवेदसंख्य, शककालमपास्य चैत्रशुक्लादौ। -दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा 4 अर्धास्तमिते भानौ, यवनपुरे सौम्यदिवसाये।। 44. ओहेण उ निज्जुत्तिं वुच्छं चरणकरणाणुओगाओ। - पंचसिद्धान्तिका, उद्धृत बृहत्कल्पसूत्रम्, भाष्य षष्ठविभाग, प्रस्तावना, पृ० 17 अप्पक्खरं महत्थं अणुग्गहत्थं सुविहियाणं।। -ओघनियुक्ति, गाथा 2 61. बृहत्कल्पसूत्रम्, षष्ठविभाग, प्रस्तावना, पृ० 18 45. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 778-783 / 62. गोविंदो नाम भिक्खू... 46. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 164-178 / पच्छा तेण एगिदियजीवसाहणं गोविंदनिज्जुत्ती कया।। एस नाणतेणो।। 47. एगभविए य बद्धाउए य अभिमुहियनामगोए य। -निशीथचूर्णि, भाग 3, उद्देशक 11, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, पृ० 260 / एते तित्रिवि देसा दव्वंमि य पोंडरीयस्स।। 63. (अ) गोविंदाणं पि नमो, अणुओगे विउलधारणिंदाणं। -सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा 146 / णिच्चं खंतिदयाणं परूवणे दुल्लभिंदाणं।। 48. उत्तराध्ययन टीका शान्त्याचार्य, उद्धृत बृहत्कल्पसूत्रम् भाष्य, षष्ठ - नन्दीसूत्र, गाथा 81 विभाग प्रस्तावना, पृ० 12 / 49. वही, पृ० 2 / (ब) आर्य स्कंदिल 50. बृहत्कल्पसूत्रम्, भाष्य षष्ठविभाग, आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर, आर्य हिमवंत पृ०, 11 / 51. सावत्थी उसभपर सेयविया मिहिल उल्लुगातीरं। आर्य नागार्जुन पुदिमंतरंजि दसपुर रहवीरपुरं च नगराई।। चोद्दस सोलस बासा चोद्दसवीसुत्तरा य दोण्णि सथा। आर्य गोविन्द
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________________ 66. जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ - देखें नन्दीसूत्र स्थविरावली, गाथा 36-41 / मोहक्षपकक्षीणमोहजिना: क्रमशोऽसंङ्ख्येयगुण निर्जराः।। 64. पच्छा तेण एगिंदियजीवसाहणं गोविंदणिज्जत्ती कया। एस णाणतेणो। - तत्त्वार्थसूत्र (उमास्वाति) सुखलाल संघवी, 9.47 / एव दंसणपभावगसत्थट्ठा। ७१अ.णिज्जुत्ती णिज्जुत्ती एसा कहिदा मए समासेण। -निशीथचूर्णि, पृ० 260 अह वित्थार पंसगोऽणियोगदो होदि णादव्वो।। 65. निण्हयाण वत्तव्वया भाणियव्वा जहा सामाइयनिज्जुत्तीए। आवासगणिज्जुत्ती एवं कधिदा समासओ विहिणा। - उत्तराध्ययनचूर्णि, जिनदासगणिमहत्तर, विक्रम संवत् 1989, णो उवजूंजदि णिच्चं सो सिद्धिं, जादि विसुद्धप्पा।। पृ० 95 / - मूलाचार (भारतीय ज्ञानपीठ) 691-692 / इदाणिं एतेसिं कालो भण्णति 'चउद्दस सोलस वीसा' गाहाउ दो, एसो अण्णो गंथो कप्पदि पढिदुं असज्झाए। इदाणिं भण्णति आराहणा णिज्जुत्ति मरणविमत्ती य संगहत्थुदिओ। 'चोद्दस वासा तइया" गाथा अक्खाणयसंगहणी। वही, पृ० 95 / पच्चक्खाणावसय धम्मकहाओ एरिस ओ।। 67. मिच्छद्दिट्ठी सासायणे य तह सम्ममिच्छदिट्ठी य। - मूलाचार, 278-279 / अविरयसम्मद्दिट्ठी विरयाविरए पमत्ते य।।। (ब) ण वसो अवसो अवसस्सकम्ममावस्सयंति बोधव्वा। तत्तो य अप्पमत्तो नियट्ठि अनियट्ठि बायरे सुहमे। जुत्ति त्ति उवाअंति ण णिरवयवो होदि णिज्जुत्ती।। उवसंत खीणमोहे होइ सजोगी अजोगी य।। -मूलाचार, 515 // - आवश्यकनियुक्ति, (नियुक्तिसंग्रह, पृ० 140) 72. ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोधव्वा। 68. आवश्यकनियुक्ति (हरिभद्र) भाग 2, प्रकाशक श्री भेरुलाल कन्हैया जुत्ति त्ति उवाअंति य णिरवयवो होदि णिजुत्ती।। लाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, मुम्बई, वीर सं. 2508, पृ० 106 -नियमसार, गाथा 142, लखनऊ, 1931 / 73. देखें- कल्पसूत्र, स्थविरावली विभाग। 69. सम्मत्तुपत्ती सावए य विरए अणंतकम्मसे। 74. देखें-मूलाचार षडावश्यक-अधिकार। दंसणमोहक्खवए उवसामंते य उवसते।।। 75. थेरस्स णं अज्ज विन्हुस्स माढरस्सगुत्तस्स अज्जकालए थेरे अंतेवासी खवए य खीणमोहे जिणे अ सेढी भवे असंखिज्जा। गोयमसगुत्ते थेरस्सणं अज्जकालस्स गोयमसगुत्तस्स इमे दुवे थेरा तव्विवरीओ कालो संखज्जगुणाइ सेढीए।। अंतेवासी गोयमसगुत्ते अज्ज संपलिए थेरे अज्जभद्दे, एएसि दुन्हवि -आचारांगनियुक्ति, गाथा 222-223 (नियुक्तिसंग्रह, पृ०४४१) गोयमसगुत्ताणं अज्ज बुढे थेरे। 70. सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्त - कल्पसूत्र (मुनि प्यारचन्दजी, रतलाम) स्थविरावली, पृ० 233 / 107 /