________________ 54 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ वाचना के पूर्व लिखी जाने लगी थीं। इस चूर्णि में प्रथम अध्ययन आराधना में नियुक्तियों की अनेक गाथाओं की नियुक्ति-गाथा के उल्लेख की दशवैकालिकनिर्यक्ति की 54 गाथाओं की भी चूर्णि की गई है। पूर्वक उपस्थिति, यही सिद्ध करती है कि नियुक्ति के कर्ता उस अविभक्त यह चूर्णि विक्रम की तीसरी-चौथी शती में रची गई थी। इससे यह परम्परा के होने चाहिए जिससे श्वेताम्बर एवं यापनीय सम्प्रदायों का तथ्य सिद्ध हो जाता है कि नियुक्तियाँ भी लगभग तीसरी-चौथी शती विकास हुआ है। कल्पसूत्र स्थविरावली में जो आचार्य परम्परा प्राप्त की रचना हैं। होती है, उसमें भगवान् महावीर की परम्परा में प्राचीनगोत्रीय श्रुत-केवली ज्ञातव्य है कि नियुक्तियों में भी परवर्ती काल में पर्याप्त रूप भद्रबाहु के अतिरिक्त दो अन्य ‘भद्र' नामक आचार्यों का उल्लेख प्राप्त से प्रक्षेप हुआ है, क्योंकि दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन की होता है- 1. आर्य शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्यभद्र और अगस्त्यसिंहचूर्णि में मात्र 54 नियुक्ति गाथाओं की चूर्णि हुई है, जबकि 2. आर्य कालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र। वर्तमान में दशवैकालिकनियुक्ति में प्रथम अध्ययन की नियुक्ति में 151 संक्षेप में कल्पसूत्र की यह आचार्य परम्परा इस प्रकार हैगाथाएँ हैं। अत: नियुक्तियाँ आर्यभद्रगुप्त या गौतमगोत्रीय आर्यभद्र की महावीर, गौतम, सुधर्मा, जम्बू, प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, संभूति, रचनाएँ हैं। विजय, भद्रबाहु (चतुर्दशपूर्वधर), स्थूलिभद्र (ज्ञातव्य है कि भद्रबाहु इस सम्बन्ध में एक आपत्ति यह उठाई जा सकती है कि नियुक्तियाँ एवं स्थूलिभद्र दोनों ही संभूतिविजय के शिष्य थे।), आर्य सुहस्ति, वलभी वाचना के आगमपाठों के अनुरूप क्यों हैं? इसका प्रथम उत्तर सुस्थित, इन्द्रदिन्न, आर्यदिन, आर्यसिंहगिरि, आर्यवज्र, आर्य वज्रसेन, तो यह है कि नियुक्तियों का आगम पाठों से उतना सम्बन्ध नहीं है, आर्यरथ, आर्य पुष्यगिरि, आर्य फल्गुमित्र, आर्य धनगिरि, आर्यशिवभूति, जितना उनकी विषयवस्तु से है और यह सत्य है कि विभिन्न वाचनाओं आर्यभद्र (काश्यपगोत्रीय), आर्यकृष्ण, आर्यनक्षत्र, आर्यरक्षित, आर्यनाग, में चाहे कुछ पाठ-भेद रहे हों किन्तु विषयवस्तु तो वही रही है और आर्यज्येष्ठिल, आर्यविष्णु, आर्यकालक, आर्यसंपलित, आर्यभद्र नियुक्तियाँ मात्र विषयवस्तु का विवरण देती हैं। पुनः नियुक्तियाँ मात्र (गौतमगोत्रीय), आर्यवृद्ध, आर्य संघपालित, आर्यहस्ती, आर्यधर्म, प्राचीन स्तर के और बहुत कुछ अपरिवर्तित रहे आगमों पर हैं, सभी आर्यसिंह, आर्यधर्म, षाण्डिल्य (सम्भवत: स्कंदिल, जो माथुरी वाचना आगम ग्रन्थों पर नहीं है और इन प्राचीन स्तर के आगमों का के वाचनाप्रमुख थे) आदि। गाथाबद्ध जो स्थविरावली है उसमें इसके स्वरूप-निर्धारण तो पहले ही हो चुका था। माथुरीवाचना या वलभी बाद जम्बू, नन्दिल, दुष्यगणि, स्थिरगुप्त, कुमारधर्म एवं देवर्द्धिक्षपकश्रमण वाचना में उनमें बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। आज जो नियुक्तियाँ के पाँच नाम और आते हैं। हैं वे मात्र आचारांग, सूत्रकृतांग, आवश्यक, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ज्ञातव्य है कि नैमित्तिक भद्रबाह का नाम जो विक्रम की छठी दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, बृहत्कल्प पर हैं। ये सभी ग्रन्थ विद्वानों की शती के उत्तरार्ध में हुए हैं, इस सूची में सम्मिलित नहीं हो सकता दृष्टि में प्राचीन स्तर के हैं और इनके स्वरूप में बहुत अधिक परिवर्तन है। क्योंकि यह सूची वीर निर्वाण सं. 980 अर्थात् विक्रम सं. 510 नहीं हुआ है। अत: वलभीवाचना से समरूपता के आधार पर नियुक्तियों में अपना अन्तिम रूप ले चुकी थी। को उससे परवर्ती मानना उचित नहीं है। इस स्थविरावली के आधार पर हमें जैन परम्परा में विक्रम की उपर्युक्त समग्र चर्चा से यह फलित होता है कि नियुक्तियों के छठी शती के पूर्वार्ध तक होने वाले भद्र नामक तीन आचार्य के नाम कर्ता न तो चतुर्दशपूर्वधर आर्य भद्रबाहु हैं और न वाराहमिहिर के मिलते हैं- प्रथम प्राचीनगोत्रीय आर्य भद्रबाहु, दूसरे आर्य शिवभूति भाई नैमित्तिक भद्रबाहु। यह भी सुनिश्चित है कि नियुक्तियों की रचना के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्य भद्रगुप्त, तीसरे आर्य विष्णु के प्रशिष्य छेदसूत्रों की रचना के पश्चात् हुई है। किन्तु यह भी सत्य है कि नियुक्तियों और आर्यकालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र। इनमें वराहमिहिर का अस्तित्व आगमों की देवर्द्धि के समय हुई वाचना के पूर्व था। के भ्राता नैमित्तिक भद्रबाहु को जोड़ने पर यह संख्या चार हो जाती अत: यह अवधारणा भी भ्रान्त है कि नियुक्तियाँ विक्रम की छठी सदी है। इनमें से प्रथम एवं अन्तिम को तो नियुक्तिकर्ता के रूप में स्वीकार के उत्तरार्द्ध में निर्मित हुई हैं। नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र की रचना के नहीं किया जा सकता है, इस निष्कर्ष पर हम पहुँच चुके हैं। अब पूर्व आगमिक नियुक्तियाँ अवश्य थीं। शेष दो रहते हैं-१. शिवभूति के शिष्य आर्यभद्रगुप्त और दूसरे अब यह प्रश्न उठता है कि यदि नियुक्तियों के कर्ता श्रुत केवली आर्यकालक के शिष्य आर्यभद्र। इनमें पहले हम आर्य धनगिरि के पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु तथा वाराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु प्रशिष्य एवं आर्य शिवभूति के शिष्य आर्यभद्रगुप्त के सम्बन्ध में विचार दोनों ही नहीं थे, तो फिर वे कौन से भद्रबाहु हैं जिनका नाम नियुक्ति करेगें कि क्या वे नियुक्तियों के कर्ता हो सकते हैं? के कर्ता के रूप में माना जाता है। नियुक्ति के कर्ता के रूप में भद्रबाहु की अनुश्रुति जुड़ी होने से इतना तो निश्चित है कि नियुक्तियों का क्या आर्यभद्रगुप्त नियुक्तियों के कर्ता हैं? सम्बन्ध किसी “भद्र" नामक व्यक्ति से होना चाहिए और उनका अस्तित्व नियुक्तियों को शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय भद्रगुप्त की लगभग विक्रम की तीसरी-चौथी सदी के आस-पास होना चाहिए। रचना मानने के पक्ष में हम निम्न तर्क दे सकते हैंक्योंकि नियमसार में आवश्यक की नियुक्ति, मूलाचार में नियुक्तियों१. नियुक्तियाँ उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ से विकसित के अस्वाध्याय काल में भी पढ़ने का निर्देश तथा उसमें और भगवती श्वेताम्बर एवं यापनीय दोनों सम्प्रदायों में मान्य रही हैं, क्योंकि यापनीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org