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निह्नव रोहगुप्त, श्रीगुप्ताचार्य अने त्रैराशिकमत
मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
प्राचीन काळे जे श्रमणो जैन परम्परामां ज दीक्षित होवा छतां जिनेश्वर भगवन्तोनो अने तेओनां वचनोनो तिरस्कार करनार थया तेओ 'निह्नव' तरीके ओळखाया हता. वीरनिर्वाणना सातमा सैका सुधीमां आवी 'निह्नव' तरीके ओळखाती कुल आठ व्यक्तिओ थई हती. जेमां छठ्ठा निह्नव तरीके रोहगुप्त गणाय छे.
रोहगुप्तनी निह्नव बनवानी घटना संक्षेपमां जोइओ तो - रोहगुप्त अन्तरञ्जिका नामनी नगरीमा बिराजमान श्रीगुप्ताचार्यने वन्दन करवा आवे छे. त्यां आगळ पोट्टशाल नामना मेली विद्याओना जाणकार परिव्राजकनुं वाद माटेनुं आह्वान स्वीकारी तेनो पराभव करे छे अने श्रीगुप्ताचार्ये आपेली विद्याओना बळे पोट्टशालनी मेली विद्याओनो पण ते नाश करे छे. आ वादमां जीतवा माटे तेमणे जैनदर्शनने मान्य नहीं ओवी जीव, अजीव अने नोजीव – एम त्रण राशिनी प्ररूपणा करी हती, माटे ते बदल श्रीगुप्ताचार्य तेमने माफी मांगवानुं जणावे छे, जेनो रोहगुप्त अभिमानवश अस्वीकार करे छे. अटलुं ज नहीं, पण पोतानी वात साची ज हती तेवी ममत ते पकडी राखे छे. श्रीगुप्ताचार्य तेमने छ महिना सुधी समजावे छे, पण ते समजवा माटे बिलकुल तैयार न थतां तेमने 'निह्नव' तरीके जाहेर करी संघबहार मूके छे.१ ।
आ घटना परथी अटलुं तो स्पष्ट ज छे के रोहगुप्तथी श्रीगुप्ताचार्य श्रमणपर्यायमां ज्येष्ठ हता अने तेमने माटे श्रद्धेय पण हता. परन्तु रोहगुप्त श्रीगुप्ताचार्यना पोताना ज दीक्षाशिष्य हता के नहीं ते बाबतमां मतभेद छे. एक तरफ बन्ने वच्चे गुरु-शिष्यभाव हतो ओवी व्यापक प्रसिद्धि छे.२ तो बीजी बाजु कल्पसूत्रगत स्थविरावली के जे प्रायः श्रीदेवर्द्धिगणिनी रचेली छे अथवा तो तेमना समयमां रचाई छे, तेमां रोहगुप्तने आर्य महागिरिना शिष्य तरीके ओळखाववामां आव्या छे. १. घटनाना विस्तृत वर्णन माटे जुओ - वि.भाष्य - गाथा २४५१ थी आगळ २. अन्तरञ्जिकायां पुर्यां भूतमहोद्यानस्थ-श्रीगुप्ताचार्यशिष्यो रोहगुप्तो...- कल्पकिरणावली
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"थेरस्स णं अज्जमहागिरिस्स एलावच्चसगुत्तस्स इमे अट्ठ थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया हुत्था । तं जहा- थेरे उत्तरे, थेरे बलिस्सहे, थेरे धणड्डे, थेरे सिरिभदे, थेरे कोडिन्ने, थेरे नागे, थेरे नागमित्ते, थेरे छडुलूए रोहगुत्ते कोसियगुत्ते णं । थेरेहितो णं छडुलूएहितो रोहगुत्तेहिंतो कोसियगुत्तेहितो तत्थ णं तेरासिया निग्गया ।"
कल्पसूत्रनी सुबोधिका-टीकामां पण प्रस्तुत पाठनी व्याख्या दरमियान उपा. श्रीविनयविजयजीओ नीचे प्रमाणे टिप्पणी करी छ :
__ "यत्तु सूत्रे रोहगुप्त आर्यमहागिरिशिष्यः प्रोक्तः, उत्तराध्ययनवृत्तिस्थानाङ्गवृत्त्यादौ तु श्रीगुप्ताचार्यशिष्यः प्रोक्तस्ततोऽस्माभिरपि तथैव लिखितं, तत्त्वं पुनर्बहुश्रुता विदन्ति ।" ।
___ जो के उपरनी टिप्पणीमां "उत्तराध्ययनवृत्ति, स्थानाङ्गवृत्ति व. मां रोहगुप्तने श्रीगुप्ताचार्यना शिष्य जणाव्या छे' ओम कहुं छे ते वात पण थोडोक विचार मांगी ले छे.
स्थानाङ्गजीनी वृत्तिमां रोहगुप्तनो श्रीगुप्ताचार्य साथे शो सम्बन्ध हतो तेनो कोई ज उल्लेख नथी. फक्त 'श्रीगुप्ताचार्ये आम कां' तेने बदले 'गुरुओ आम कां' ओवा शब्दो प्रयोज्या छे. पण तेथी कंइ श्रीगुप्ताचार्य रोहगुप्तना गुरु ज हता अq निश्चित न थई जाय. कारण के बे श्रमणोने लगती वातमां, तेओ परस्पर गुरु-शिष्य न होवा छतां, वडील माटे 'गुरु' शब्द प्रयोजवो ओवी प्राचीन परिपाटी छे. जेमके आर्य भद्रबाहु अने आर्य स्थूलिभद्र वच्चे गुरुशिष्यभाव न होवा छतां ओ बन्नेने लगती घटनाओमां भद्रबाहुस्वामी माटे 'गुरु' शब्द प्रयोजायेलो जोवा मळे छे. कल्पकिरणावलीमां पण आर्यरक्षितना सम्बन्धमां भद्रगुप्तसूरि अने वज्रस्वामी गुरु न होवा छतां तेओने माटे 'गुरु' शब्द प्रयोजायो
उत्तराध्ययनसूत्रनी श्रीशान्त्याचार्ये रचेली टीकामां तो रोहगुप्तने स्पष्टपणे श्रीगुप्ताचार्यना 'शिष्य' नहीं, पण 'श्राद्ध' (-पूज्यभाव धरावनारा) जणाववामां आव्या छे. "तेसिं पुण सिरिगुत्ताणं थेराणं सड्डी य रोहगुत्तो नाम ।" (उत्त.
१. "भणितो य णाहिं गुरू' – तित्थोगाली - ७६०
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नि.-१७२ नी टीका). जो के जेम अत्यारे मुद्रित प्रतोमां 'सड्डी'ने सुधारीने ‘सेहो' (-शिष्य) करवामां आव्युं छे, तेम श्रीविनयविजयजीनी सामे जे आदर्श रह्यो हशे तेमां 'सेहो' पाठ होई शके. पण जेसलमेर अने पाटणनी प्राचीन ताडपत्रीय प्रतोमां तो 'सड्डी' ज पाठ छे.
ट्रंकमां, रोहगुप्त महागिरिजीना शिष्य न होय तो पण, ते श्रीगुप्ताचार्यना ज शिष्य हता ते नक्की करवुं अघरुं छे. बल्के उत्तराध्ययनवृत्तिगत उल्लेख परथी तो ते श्रीगुप्ताचार्यना स्थाने बीजा कोईना शिष्य होय ते नक्की थाय छे. माटे ओछामां ओछु, स्थविरावलीगत रोहगुप्तना महागिरिजीना शिष्य होवाना प्रतिपादन परत्वे ‘बीजे बधे तेमने श्रीगुप्ताचार्यना शिष्य कह्या छे' ओ रीते वांधो लई शकाय नहीं. हा, आ प्रतिपादनथी रोहगुप्तना सत्तासमयनी विसंगति अवश्य सर्जाय छे, पण ते विशे विचारीओ ते पूर्वे बीजी अक वात जोई लइओ.
स्थविरावलीकारे ज्यारे रोहगुप्तने महागिरिजीना शिष्य जणाव्या छे, त्यारे तेओने ओवा श्रीगुप्ताचार्यनो ख्याल होवो ज जोइओ के जे महागिरिजीना समकालीन अथवा अनुकालीन होय; कारण के रोहगुप्तने निह्नव तरीके जाहेर करनार श्रीगुप्ताचार्य छे. आ श्रीगुप्ताचार्य कोण होई शके ते विषे तपास करतां कल्प-स्थविरावलीमां ज तेनो जवाब मळी रहे छे. त्यां महागिरिजीना लघु गुरुबन्धु आर्यसुहस्तिसूरिना जे १२ पट्टशिष्योनां नाम जणावायां छे, तेमां अक 'श्रीगुप्त' नाम पण छे.
" थेरे अ अज्जरोहणे, भद्दजसे मेहगणी य कामिड्ढी । सुट्ठिय सुप्पडिबुद्धे, रक्खिय तह रोहगुत्ते य ॥ इसिगुत्ते सिरिगुत्ते, गणी य बंभे गणी य तह सोमे । दस दो अ गणहरा खलु, एए सीसा सुहत्थिस्स ॥"
आ श्रीगुप्ताचार्य हारितगोत्रीय अने चारणगणना आदिपुरुष छे.१ बनी
शके के तेओ रोहगुप्तना विद्यागुरु छे ओम स्थविरावलीकारना मनमां होय.
१.
“थेरेहिंतो णं सिरिगुत्तेहिंतो हारियसगुत्तेहिंतो इत्थ णं चारणगणे नामं गणे निग्गए" कल्प- स्थविरावली
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महागिरिजीनो स्वर्गवास वीर नि.सं. २४५ मां थयो छे. माटे निह्नव रोहगुप्त जो तेओना ज शिष्य होय तो तेमनो सत्तासमय वीरनिर्वाणनो त्रीजो सैको थाय. ज्यारे रोहगुप्तना निह्नव बनवानी घटना वीर नि.सं. ५४४मां बनी छे. २ तो ५४४ मां अस्तित्व धरावनार रोहगुप्त त्रीजा सैकाना महागिरिजीना शिष्य कई ते होई शके ? माटे रोहगुप्तना महागिरिजीना शिष्य होवाना स्थविरावलीगत प्रतिपादन परत्वे त्रण विकल्प सम्भवे छे :
१. रोहगुप्त वीर नि.सं. ५४४मां नहीं, पण त्रीजा सैकामां ज थया होय. आमे पांचमा निह्नव गाङ्गेय वीर नि.सं. २२८मां थया छे. माटे रोहगुप्त त्यार पछी गमे त्यारे थया होय तो पण तेमनो क्रमाङ्क छठ्ठो ज रहे छे.
पण आम बनवुं ओटले सम्भवित नथी के वीर नि.सं. २१५ थी २४५ महागिरिजी, २४६ थी २९१ सुहस्तिसूरिजी अने त्यारबाद सुस्थित- सुप्रतिबुद्ध संघनायक हता. तेथी तेमना समयमां जो आवी मोटी घटना बनवा पामी होत, तो संघनायक तरीके के अंक शास्त्रज्ञ श्रद्धेय पुरुष तरीके तेमने तेमां जोडावानुं अवश्य थयुं होत. पण आपणे जोइसे छीओ के रोहगुप्तना निह्नव बनवानी आखी घटनामां क्यांय तेमांथी कोईनुं नाम नथी. बल्के श्रीगुप्ताचार्य पोते ज रोहगुप्तने निह्नव तरीके जाहेर करे छे. ते दर्शावे छे के त्यारे श्रीसंघमां तेओनुं स्थान घणुं ऊंचं हशे के जे वीर - निर्वाणना त्रीजा सैकामां सम्भवित नथी बनतुं.
वळी, ज्यां ज्यां आ घटनानो समय दर्शावायो छे ते बधे ज ठेकाणे वीर नि.सं. ५४४नो ज उल्लेख छे ते पण भूलवुं न जोइओ.
२. आ विसंगतिना निराकरणमां त्रिपुटी महाराजे जैन परम्परानो इतिहास - १, पृ. १४५ पर अवुं सूचव्युं छे के स्थविरावलीमां महागिरिजीना जे आठ शिष्योनां नाम अपायां छे तेओने साक्षात् महागिरिजीना शिष्यो न समजतां महागिरिशाखाना क्रमशः पट्टधर समजवा जोइओ. तेथी रोहगुप्तनुं नाम आठमा
१. “थूलभद्दे पणयालेवं दुपन्नरस । अज्जमहागिरि तीसं" - युगप्रधानपट्टावली. स्थूलभद्रजी २१५मां स्वर्गवासी थया छे. अने त्यारबाद महागिरिजी ३० वर्ष युगप्रधानपदे रह्या छे ओवो आ पाठनो भाव छे.
"पंचसया चोयाला तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स ।
पुरिमंतरंजियाए तेरासियदिट्ठी उप्पन्ना ।” – वि. भाष्य २४५१
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क्रमे होवाथी, तेमनुं अस्तित्व, ओक पेढीना ३५-४० वर्षना हिसाबे, आठमी पेढीओ सं. ५४४मां होय तेमां कोई आश्चर्य नथी. आ कल्पनाने आधारे ज तेओओ आ ग्रन्थमा अन्यत्र रोहगुप्तने स्थविर नागमित्रना दीक्षाशिष्य जणाव्या छे.
आ निराकरण ओटले योग्य नथी जणातुं के उपरोक्त ८ नामोमां पांचमुं नाम स्थविर कौडिन्यनुं छे. (जुओ पृष्ठ १४७) अटले उपरनी कल्पनाना हिसाबे तेमने महागिरिजीनी पांचमी पेढीओ वीर-निर्वाणना चोथा सैकाना अन्तभागमां के पांचमानी शरुआतमां मूकवा पडे. हवे आ ज कौडिन्यना शिष्य अश्वमित्र चोथा निह्नव छे अने तेमना निह्नव बनवानी घटना वीर नि.सं. २२०मां मतलब के महागिरिजीनी हयातीमां बनेली छे.१ तो ओ अश्वमित्रना गुरु कौडिन्यने महागिरिजीनी पांचमी पेढीओ कई रीते गणी शकाय? माटे त्रिपुटी महाराजे सूचवेलो रोहगुप्तने महागिरिजीनी आठमी पेढीओ गणवानो उकेल वाजबी लागतो नथी.
३. सौथी वाजबी उकेल तो ओ जणाय छे के निह्नव रोहगुप्त प्रस्तुत महागिरिजीना पट्टधर स्थविर रोहगुप्तथी वास्तवमां जुदी ज व्यक्ति छे. पण नामसाम्य, कौशिकगोत्रनुं साम्य, बन्नेना काळमां अलग-अलग श्रीगुप्ताचार्यअस्तित्व व. कारणोसर स्थविरावलीकारे बन्नेने अेक ज समजी लीधा लागे छे. आपणे इतिहास तपासीशुं तो नामसाम्यने लीधे अेक व्यक्तिने लगती घटना बीजी व्यक्तिना नामे चडी गई होय अवा अनेक प्रसंगो जणाशे. उपाध्याय धर्मसागरजी जेवा बहुश्रुत भगवन्ते पण आर्य रक्ष अने आर्यरक्षित वच्चे नामनी थोडीक समानता सिवाय कशुं ज साम्य न होवा छतां बन्नेने अेक गणी लीधा होय तो रोहगुप्तनी बाबतमां पण अq बने तेमां कशुं आश्चर्य नथी.
वळी, इतिहासमां 'रोहगुप्त' नाम अक करतां वधु व्यक्तिओनुं मळे छे. आर्य सुहस्तिसूरिजीना ओक मुख्य पट्टधरनुं नाम पण आर्य रोहगुप्त छे. (जुओ पृष्ठ १४८) के जेओ महागिरिजीना शिष्य आर्य रोहगुप्तथी जुदा छे. तो निह्नव
१. वि.भाष्य-गाथा २३८९-९० २. "थेरस्स णं अज्जनक्खत्तस्स... अज्जरक्खे थेरे अंतेवासी...।" कल्पसूत्रना आ पाठनी
कल्पकिरणावलीगत व्याख्या - "अज्जरक्खे त्ति । दशपुरनगरे पुरोहितः सोमदेवस्तद्भार्या सोमरुद्रा तस्यास्तनय आर्यरक्षितनामा..."
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रोहगुप्त पण तेमनाथी जुदा ज होय अने स्थविरावलीकारे अनाभोगे तेओने अक गणी लीधा होय तेम न बने ?
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हवे आपणे श्रीगुप्ताचार्य अंगे थोडीक चर्चा करीशुं. दुस्समकालसमणसंघथयं, विचारश्रेणि जेवा ग्रन्थोमां भद्रगुप्तसूरिजी पछी अने वज्रस्वामी पहेलांना पट्टधरनुं नाम ‘श्रीगुप्ताचार्य' जणाव्युं छे. युगप्रधानपट्टावलीमां तो तेमनो १५ वर्षनो युगप्रधानपर्याय पण जणाव्यो छे. परन्तु अनी सामे कल्पसूत्रनी के नन्दिसूत्रनी स्थविरावली के जे इतिहास माटेना अत्यन्त प्राचीन अने प्रामाणिक साधन छे तेमां अने मध्यकालीन अमुक पट्टावलीओमां श्रीगुप्ताचार्यनो उल्लेख सुद्धां नथी. कथासाहित्यमां पण भद्रगुप्तसूरिजी बाद वज्रस्वामी संघनायक बन्या अवुं ज वर्णन मळे छे. परिणामे उपरोक्त ग्रन्थोमां करायेला श्रीगुप्ताचार्यना युगप्रधान होवाना उल्लेखने अप्रामाणिक समजवामां आवे छे. ओटलुं ज नहीं, तेमना अस्तित्वने पण शंकाना दायरामां मूकवामां आवे छे. १
परन्तु, अम करवुं योग्य नथी. कारण के जो रोहगुप्तने वीर नि.सं. ५४४मां निह्नव तरीके जाहेर करनार श्रीगुप्ताचार्य हता ते नक्की ज छे, तो वीर नि.सं. ५३५ के मतान्तरे ५३३मां स्वर्गवासी थयेला भद्रगुप्तसूरिजी पछी श्रीगुप्ताचार्य संघनायक बन्या हता ते वातनो इनकार करवानो रहेतो ज नथी. प्रश्न फक्त स्थविरावलीओमां तेमना अनुल्लेखनो ज छे. अने ते पण स्थविरावलीओने ध्यानथी तपासीओ तो अनुत्तरित रहेतो नथी.
आपणे त्यां जे पट्टावलीओ मळे छे ते मुख्यत्वे बे प्रकारनी छे : (१) गुरुपरम्परा - गणधरवंशने वर्णवती (२) वाचनाचार्यपरम्परा - वाचकवंशने वर्णवती. गुरुपरम्पराने लगती पट्टावलीओमां सुधर्मास्वामीथी शरु करीने प्रायः पोताना गुरुभगवन्त सुधीनी शिष्य-प्रशिष्यपरम्परानुं वर्णन होय छे. तेथी परम्परामां नहीं आवता महापुरुषोनां नाम तेमां न नोंधाय ते स्वाभाविक छे. कल्पगत स्थविरावली पण देवर्द्धिगणिनी गुरुपरम्परा ज छे. अने माटे ज प्रचलित गुरुपट्टावलीओ करतां आ स्थविरावली आर्य वज्र पछी जुदी पडी
१. वीरनिर्वाणसंवत् और जैन कालगणना पृष्ठ १३३ थी १३५
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जाय छे. कारण के वर्तमान समग्र संघ आर्य वज्रना पट्टधर आर्य वज्रसेननी सन्तति छे, ज्यारे देवर्द्धिगणी आर्य वज्रना शिष्य आर्य रथनी परम्परामां छे. हवे आ गुरुपरम्परामां आर्य वज्रना दीक्षागुरु सिंहगिरिजी होवाथी, तेमना विद्यागुरु तरीके सर्वत्र प्रसिद्ध अवा भद्रगुप्तसूरिजी- पण नाम न मळतुं होय, तो तेमां श्रीगुप्ताचार्यना उल्लेखनो तो सवाल ज क्यां रहे छे ?
वाचकवंश-पट्टावलीमा क्रमशः थयेला वाचनाचार्योनां नाम आपवामां आवे छे. आ वाचनाचार्यो संघनायक ज होय ओ जरूरी नथी. हा, संघमां तेओर्नु स्थान अवश्य आगळ पडतुं होय छे. ओ ज रीते क्रमशः थयेला बे वाचनाचार्यो परस्पर गुरु-शिष्य होय ते पण जरूरी नथी. अेक वाचनाचार्यना स्वर्गवास बाद वर्तमान श्रमणसमुदायमां जे सौथी वधु श्रुतज्ञान धरावता होय तेमने वाचनाचार्य तरीके नियुक्त करवामां आवे छे. जेम के आर्य वज्र पछी वाचनाचार्य तरीके आर्यरक्षितनुं नाम मळे छे, के जे आर्य वज्रना त्रण मुख्य पट्टधरोथी जुदा छे.
हवे, गुरुपरम्पराना वर्णनमां जेम श्रमणसंघना चोक्कस हिस्साना वडीलने ज ते जूथनी परम्परामां संघनायक तरीके वर्णववामां आवता होय छे, अने ओ संघनायक सुधर्मास्वामीजीनी जेम समग्र संघ, आधिपत्य न करता होय तो पण चोक्कस विभागना आधिपत्यने लीधे संघनायक ज गणाता होय छे, अने तेथी गुरुपट्टावलीओमां संघनायक-गुरुओनां नामोमां परस्पर घणो तफावत जोवा मळे छे; तेम वाचक परम्परामां पण मुख्य बे प्रवाह जोवा मळे छे. एक गणना अनुसार, मुख्यत्वे उत्तर-पूर्व भारतवर्षमां वर्तता श्रमणसंघना जे वाचनाचार्य बनता हता, ते वाचनाचार्य ते काळना उत्कृष्ट श्रुतधर न होय तो पण, ते क्षेत्रमा वर्तमान श्रमणसमुदायमां तेओ ज उत्कृष्ट श्रुतधर अने व्यापक प्रभाव धरावनार होवाथी, तेमने ज ते गणनामां मुख्य स्थान आपवामां आवतुं हतुं.२ माथुरी १. “थेररस णं अञ्जवइरस्स इमे तिन्नि थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया होत्था । तं
जहा- थेरे अज्ज वइरसेणिए, थेरे अज्ज पउमे, थेरे अज्ज रहे।" - कल्पस्थविरावली प्रबन्ध, पट्टावली जेवा ऐतिहासिक ग्रन्थोमां गुणसुन्दर, रेवतिमित्र जेवा महान श्रुतधर भगवन्तोना जीवनने लगती घटनाओनो उल्लेख नथी मळतो. ते वस्तु सूचवे छे के आ भगवन्तोनुं विचरणक्षेत्र बहु दूर- होवाने लीधे तेओ व्यापक जैनसमाजमां अज्ञात ज रह्या हशे. नन्दिसूत्रनी स्थविरावलीमां आ भगवन्तोनो अनुल्लेख होवाने लीधे ते सम्बन्धे प्रस्तुत अनुमान करवामां आव्युं छे.
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वाचना वखते कालगणनादि माटे आ ज वाचकगणनाने मुख्यताओ स्वीकारवामां आवी होवाथी, वाचनाचार्यनी आ गणनाने 'माथुरी युगप्रधान - पट्टावली' तरीके ओळखवामां आवे छे. नन्दि - स्थविरावली आवा प्रकारनी वाचनाचार्योनी गणना ज छे. आ स्थविरावली दूर - सुदूर क्षेत्रोमां विचरता श्रुतधर महर्षिओने गणतरीमां न लेती होवाथी बीजा प्रकारनी पट्टावलीथी जुदी पडी जाय छे.
१.
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२.
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वाचनाचार्योनी पट्टावलीना बीजा प्रकारमां कोई चोक्कस क्षेत्रमां थयेला वाचनाचार्योनी गणना नथी थती. पण ते काळे जे जे उत्कृष्ट श्रुतधर होय तेने वाचनाचार्य तरीके गणवामां आवे छे. मतलब के तेमां प्रथम बे केवलज्ञानी, पछी छ चौदपूर्वधर अने पछी दस दशपूर्वधर' - अ रीते गणतरी करवामां आवे छे. परिणामे आपणने माथुरी गणनामां नथी जोवा मळता ओवा त्रण दश पूर्वधरो - गुणसुन्दर, रेवतिमित्र अने श्रीगुप्त आ वाचनाचार्य गणनामां जोवा मळे छे. स्वाभाविक छे के आ त्रणेना काळमां वाचनाचार्य तरीके जेमनी माथुरी गणनामां गणतरी छे, तेमनां नाम आ पट्टावलीमां न ज होय. वालभी वाचनाना पक्षधरो कालगणनादिमां आ वाचनाने मुख्य करतां होवाथी आ गणना 'वालभी युगप्रधान-पट्टावली' तरीके पण ओळखाय छे. दुस्समकालसमणसंघथयं, विचारश्रेणि व. गत पट्टावलीओ वाचनाचार्योनी आ प्रकारनी गणनाने अनुसरे छे. बन्ने प्रकारनी वाचनाचार्य - गणनामां पहेलां दश नाम तो सरखां ज छे१. सुधर्मास्वामी २. जम्बूस्वामी ३ प्रभवस्वामी ४. आर्य शय्यम्भव ५. आर्य यशोभद्र ६. आर्य सम्भूतिविजय ७. आर्य भद्रबाहु ८. आर्य स्थूलिभद्र ९. आर्य महागिरि १०. आर्य सुहस्ति. त्यारबाद वज्रस्वामी सुधी बन्नेमां जे तफावत आवे छे ते नीचेना कोष्टकथी समजाशे.
माथुरी - गणना ११. बलिस्सह
वालभी- गणना
११. गुणसुन्दर
महागिरिः सुहस्ती च, सूरिः श्रीगुणसुन्दरः । श्यामार्यः स्कन्दिलाचार्यो, रेवतिमित्रसूरिराट् ॥
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श्रीधर्मो भद्रगुप्तश्च, श्रीगुप्तो वज्रसूरिराट् ।
युगप्रधानप्रवरा, दशैते दशपूर्विणः ॥ ( - कल्प-सुबोधिकामां उद्धृत)
आर्य साण्डिल्य अने आर्य स्कन्दिलने ओक ज व्यक्ति न गणीओ तो आर्य स्कन्दिलनुं नाम पण अत्रे उमेरवुं पडे.
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१२. स्वाति
१२. श्यामार्य १३. श्यामार्य
१३. स्कन्दिल' १४. साण्डिल्य
१४. रेवतिमित्र १५. समुद्र
१५. धर्म १६. मंगू
१६. भद्रगुप्त १७. धर्म
१७. श्रीगुप्त १८. भद्रगुप्त
१८. वज्र १९. वज्र
स्पष्ट छे के माथुरी गणना प्रमाणमां अप्रसिद्ध ओवा गुणसुन्दर, रेवतिमित्र अने श्रीगुप्तने गणनामां नथी लेती. पण तेने स्थाने बीजा प्रसिद्ध श्रुतधर भगवन्तोने गणे छे. ज्यारे वालभी गणना श्रुतज्ञानसम्पत्तिने ज वधु महत्त्व आपे छे.
जो के तेम करवा जतां वालभी गणनामां ओक मोटी गरबड थई गई जणाय छे. आर्य यशोभद्र पछी जेम आर्य सम्भूतिविजय अने आर्य भद्रबाहु ओम बे चौदपूर्वधरो ओक साथे वाचनाचार्य थया, तेम भद्रगुप्तसूरिजी पछी पण श्रीगुप्ताचार्य अने वज्रस्वामी ओम बे दशपूर्वधरो वाचनाचार्य थया छे. जेमां श्रीगुप्ताचार्य १५ वर्ष अने वज्रस्वामी ३६ वर्ष पट्टधर रह्या छे. माथुरी गणना तो श्रीगुप्ताचार्यने उल्लेख्या वगर सीधा वज्रस्वामीने ज भद्रगुप्तसूरिना पट्टधर दर्शावे छे. ज्यारे वालभी गणना बन्नेने अलग अलग पट्टधर गणे छे. पण आम करवामां से गरबड थई छे के, आर्य भद्रबाहुनो कुल युगप्रधानत्पर्याय २२ वर्षनो होवा छतां, गणतरी वखते तेमना समकालीन आर्य सम्भूतिविजयना ८ वर्ष बाद करीने जेम १४ वर्षनो गणवामां आवे छे तेम, वज्रस्वामीनो वाचनाचार्यपर्याय तेमना समकालीन श्रीगुप्ताचार्यना १५ वर्ष बाद करी २१ वर्षनो गणवो जोइतो हतो. पण तेने बदले वालभी गणनाकारोओ भद्रगुप्तसूरिजीना स्वर्गवास पछी श्रीगुप्ताचार्यना १५ वर्ष गणी त्यारबाद वज्रस्वामीना ३६ वर्ष गण्यां छे. जेने लीधे ओ गणना १३ वर्ष जेटली माथुरी गणनाथी जुदी पडे छे.
खरेखर तो आ रीते जोतां बे वाचनाचार्य-गणनाओ वच्चे श्रीगुप्ताचार्यनां १५ वर्षो उमेरायां होवाथी, १५ वर्षनो फेर पडवो जोइओ, पण वास्तवमा १३ १-२. आर्य स्कन्दिल अने आर्य साण्डिल्य एक ज व्यक्ति छे ओवी मान्यता छे.
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वर्षनो ज पडे छे. कारण के वीर नि.सं. ४९५ थी आरम्भातो भद्रगुप्तसूरिजीनो वाचनाचार्य-पर्याय कुल केटला वर्षनो हतो ते विशे बे मत मळे छे : 'इगयाल (-४१ वर्ष)' अने 'इगुणयाल (-३९ वर्ष)'. माथुरी गणना ४१ वर्ष स्वीकारती होवाथी ते ५३५ (४९५+४१)मां भद्रगुप्तसूरिजी, स्वर्गगमन स्वीकारे छे अने ४३६ थी ४७१ सुधी वज्रस्वामीने अने ४७२ थी ४८४ आर्यरक्षितने युगप्रधान गणे छे. ज्यारे 'इगुणयाल' स्वीकारती वालभी गणना मुजब - भद्रगुप्तसूरिजी वीर नि.सं. ४९५ थी ५३३ (४९५+३९), श्रीगुप्ताचार्य - ५३४ थी ५४८, वज्रस्वामी- ५४९ थी ५८४ अने आर्यरक्षित - ५८५ थी ५९७ - आ रीते युगप्रधानपर्याय मळे छे. मतलब के वीर नि.सं. ५३५ पछीनी तमाम घटनाओमां १३-१३ वर्षनो फेर पडे छे. कारण के श्रीगुप्तसूरिजीनां १५ वर्ष उमेरतां अने भद्रगुप्तसूरिजीनां २ वर्ष ओछां करतां १३ वर्ष वधे छे.
आ तफावत छेक देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणनी अध्यक्षतामां थयेली वालभी वाचना सुधी चालु रह्यो छे – “समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव० सव्वदुक्खप्पहीणस्स नव वाससयाइं विइक्कंताई, दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छइ । वायणंतरे पुण अयं तेणउए संवच्छरे काले गच्छइ इति दीसइ ।" (कल्प-व्याख्यान-६ना अन्तभागे)
___अर्थ- "श्रमण भगवान महावीरने निर्वाण पाम्ये नवसो वर्ष व्यतीत थयां. अने दसमा सैका ८०मुं वर्ष चाली रह्यं छे. वाचनान्तर प्रमाणे (-वालभी वाचना प्रमाणे) तो आ ९३९ वर्ष चाली रह्यं छे."
स्पष्ट छे के श्रीगुप्ताचार्यनी गणतरीथी बे वाचनाओ वच्चे जे १३ वर्षनो तफावत पड्यो हतो ते देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणनी अध्यक्षतामां थयेली वाचना सुधी चालु रह्यो हतो. अने तेने लीधे कल्पसूत्रमा बे मतोनो उल्लेख जरूरी बन्यो हतो.
वालभी गणनामा १३ वर्षनी उमेरणीथी घणी असंगतिओ सर्जावा पामी कल्पसूत्रना प्रस्तुत पाठनी व्याख्या, टीकाओमा अत्यन्त सन्दिग्ध अथवा अयुक्त रीते करवामां आवी छे. आ पाठनो अत्रे दर्शावायेलो सचोट अर्थ श्रीकल्याणविजयजीओ दर्शाव्यो छे के जे तेओनी महाप्रज्ञतानो उत्तम नमूनो छे. आ नोंधमां करवामां आवेला युगप्रधानपट्टावली, विचारश्रेणि व.ना उल्लेखो पण तेमणे लखेला ग्रन्थ - वीर निर्वाण संवत् और जैन कालगणना-मांथी लेवामां आव्या छे.
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छे. जेम के आ गणना प्रमाणे आर्यरक्षितनी दीक्षा वीर नि.सं. ५३१मां नहीं, पण ५४४मां थई गणाय. बीजी बाजु भद्रगुप्तसूरिजीनुं स्वर्गगमन ५३३मां थयुं छे, ओम आ गणना कहे छे. हवे अ तो प्रसिद्ध ज छे के भद्रगुप्तसूरिजीने अन्तसमये निर्यामणा करावनार आर्यरक्षित हता. १ पण उपरनी गणना प्रमाणे तो आर्यरक्षितनी दीक्षा ज भद्रगुप्तसूरिजीना स्वर्गवासथी ११ वर्ष पछी थाय छे, माटे भद्रगुप्तसूरिजीना अन्तिम दिवसोमां तेमनी हाजरी ज शक्य नथी बनती !
उपरान्त, गोष्ठामाहिल आर्यरक्षितजीना स्वर्गगमनना वर्षे ज निह्नव तरीके जाहेर थया छे अने आ घटना वीर नि.सं. ५८४ना वर्षे बनी छे. पण वालभीगणना प्रमाणे तो ५८४मां वज्रस्वामी कालधर्म पामे छे अने आर्यरक्षित युगप्रधान बने छे अने ५९७मां तेमनुं स्वर्गगमन थाय छे. आ संजोगोमां ५८४मां गोष्ठामाहिलना निह्नव बनवानी घटना वर्णवतां तमाम शास्त्रो करतां आ गणना विरुद्ध बने छे. आ अने आवी बीजी विसंगतिओ दर्शावे छे तेम वालभी युगप्रधान - पट्टावली क्षतियुक्त छे. छतांय माथुरी गणनामां नहीं देखातां केटलांय श्रुतधर भगवन्तोनां नाम अने हकीकतो आ गणनामां मळे छे से रीते आ गणना पण उपकारक छे.
प्रस्तुत समग्र चर्चानो निष्कर्ष से छे के (१) निह्नव रोहगुप्त महागिरिजीना शिष्य स्थविर रोहगुप्तथी जुदी अने लगभग ३०० वर्ष पछी थयेली व्यक्ति छे. (२) आ रोहगुप्त श्रीगुप्ताचार्यना विद्याशिष्य छे. कदाच श्रीगुप्ताचार्य तेमना दीक्षागुरु पण होई शके. (३) श्रीगुप्ताचार्य दशपूर्वधर भगवन्त छे अने वज्रस्वामीना समकालीन वाचनाचार्य छे. (४) तेमनो वाचनाचार्यपर्याय वीर नि.सं. ५३३ थी ५४८ नो छे. (५) युगप्रधान - पट्टावली, विचारश्रेणि व. मां तेमनो वाचनाचार्यपर्याय वज्रस्वामीनी पहेलां अलग गणवामां आवेल छे, जेने ली माथुरी - गणना अने वालभी - गणना वच्चे १३ वर्षनो फेर पडे छे.
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रोहगुप्ते वाद दरमियान द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष अने समवाय
१. पूर्वाध्ययनार्थं श्रीवज्रसमीपे गच्छन्नुज्जयिन्यां श्रीभद्रगुप्तसूरिमनशनिनं निरयामयत् कल्पकिरणावली |
वि. भाष्य - गाथा २५०९-१०
२.
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अम छ पदार्थोनी प्ररूपणा करी होवाथी ते 'षडुलूक' तरीके पण ओळखाय छे. षड्- छ पदार्थोने प्ररूपनारा उलूक- कौशिकगोत्रीय - अवो तेनो अर्थ छे. आ रोहगुप्तथी त्रैराशिकदृष्टि- जीव, अजीव अने नोजीव ओम त्रण राशि स्वीकारनारी परम्परा प्रवर्ती हती, तेथी ते 'त्रैराशिक' तरीके पण ओळखाय छे. परन्तु आ उपरान्त वि.भाष्य, उत्त.-पाइय-टीका व.मां तेमने वैशेषिक दर्शनना प्रस्थापक तरीके पण ओळखवामां आव्या छे, ते वात विचार मांगी ले तेवी छे.
सौप्रथम आपणे ते स्थळो जोई लइओ के ज्यां तेमने वैशेषिक दर्शनना प्रस्थापक गणाववामां आव्या छे – १. "तेणाभिनिवेसाओ, समइविगप्पियपयत्थमादाय ।
वइसेसियं पणीयं, फाईकयमण्णमण्णेहिं ॥" -वि.भाष्य-२५०७ २. "तेण (-रोहगुत्तेण) वेसेसियसुत्ता कया ।"
- उत्त.नियुक्ति-१७४-पाइयटीका ३. “ततः षष्ठनिह्नवास्त्रैराशिकाः, क्रमेण वैशेषिकदर्शनं च प्रकटितम् ।"
- कल्पकिरणावली आ तमाम स्थळे रोहगुप्तने वैशेषिक दर्शनना प्रस्थापक गणवामां आव्या छे. तेनी पाछळy कारण, वैशेषिक दर्शनना पायानुं तत्त्व - छ पदार्थोनी सौ प्रथम प्ररूपणा तेमणे करी से मान्यता छे. अने आ मान्यता पाछळनु कारण नीचेनो प्रसंग छे.
राजसभामां श्रीगुप्ताचार्य अने रोहगुप्त वच्चेनो वाद छ महिना सुधी चालवा छतां ज्यारे निवेडो ना आव्यो, त्यारे श्रीगुप्ताचार्ये जीव-अजीव ओम बे ज राशि होवानी वात साची छे तेनी बधाने प्रतीति कराववा माटे ज्यां आगळ देव पोतानी दिव्यशक्तिथी मांगेली वस्तु सकल विश्वमां गमे त्यां होय तो त्यांथी लावी आपे छे तेवी दुकाने (कुत्रिकापणमां) राजा-प्रजा बधांने आववा जणाव्युं. ते दुकाने गुरुओ १४४ वस्तुनी मांगणी करी. मतलब के आ १४४ वस्तु दुनियामां होय छे के नहीं ओम पूछ्युं. कारण के जो वस्तु दुनियामां क्यांय पण होय तो देव लावी ज आपवानो हतो.
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आ १४४ वस्तु नीचे मुजब हती : द्रव्य - १. पृथ्वी, २. जल, ३. अग्नि, ४. वायु, ५. आकाश, ६. काल,
७. दिशा, ८. आत्मा, ९. मन. गुण - १. रूप, २. रस, ३. गन्ध, ४. स्पर्श, ५. संख्या, ६. परिमाण, ७.
महत्त्व, ८. पृथक्त्व, ९. संयोग, १०. विभाग, ११. परत्व-अपरत्व, १२. बुद्धि, १३. सुख, १४. दुःख, १५. इच्छा, १६. द्वेष, १७. प्रयत्न.
(१७+९=२६) कर्म - १. उत्क्षेपण, २. अवक्षेपण, ३. आकुञ्चन, ४. प्रसारण, ५. गमन.
(५+२६=३१) सामान्य - १. सत्ता, २. सामान्य, ३. सामान्यविशेष. (३+३१=३८)
विशेष (३५) समवाय (३६)
आ ३६ वस्तुमांथी दरेकना चार-चार भेद - १. स्व, २. स्वाभाव, ३. नोस्व, ४. नोस्वाभाव. जेम के पृथ्वी लइओ तो १. स्व- पृथ्वी, २. स्वाभाव- जलादि, ३. नोस्व- पृथ्वीनो ओक देश ४. नोस्वाभाव- जलादिनो ओक देश. अम ३६ वस्तुना ४-४ भेद गणतां कुल १४४ वस्तु थाय. श्रीगुप्ताचार्ये आ १४४ वस्तुनी दुकानमां मांगणी करी. जवाबमां जे वस्तुओ मळी तेमां 'नोजीव' नामनो पदार्थ ना मळ्यो. कारण के जीवनो ओक पण अवयव छूटो न पडी शके अने तेथी नोजीव- आत्मानो ओक देश आपी शकाय नहीं. तेथी नक्की थयु के 'नोजीव' नामनी राशि दुनियामां छे नहीं; अने तेथी जीव, अजीव अने नोजीव ओम त्रण राशि दुनियामां होवानी रोहगुप्तनी वात खोटी ठरतां ते हार्या.
उपरना प्रसंगमां खास नोंधपात्र वात ओ छे के श्रीगुप्ताचार्य जे १४४ वस्तुओनी मांगणी करे छे, तेमांथी घणी घणी वस्तुओ जैनमतने सम्मत नथी. सामान्य, विशेष अने समवाय ओ त्रण (स्वतन्त्र) पदार्थो तो जैनमते सम्भवता ज नथी. माटे तेनी मांगणी करवानुं प्रयोजन ज होई शके के मांगणीना जवाबमां ना पाडवामां आवे अने तेथी ते वस्तुओ नथी ओ साबित थाय. पण नोजीवनी साथे ने साथे आ बधी वस्तुओना पण नास्तित्वनी सिद्धि शा माटे
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जरूरी बनी ? अ ज कारण न होय के 'ओक जूठ सो जूठने ताणे' से कहेवत मुजब रोहगुप्तने नोजीवनी सिद्धि माटे आवी बधी वस्तुओ पण कल्पवानी जरूर पडी होय अने श्रीगुप्ताचार्यने तेनो पण निषेध करवानी फरज पडी होय ? जो के आ बधां तत्त्वो रोहगुप्तने अनो पक्ष मजबूत करवामां कई रीते सहायक बन्यां होय ते आपणे नथी समजी शकता. पण जैनमतने सम्मत धर्म, अधर्म व. छ पदार्थोने स्थाने आवा छ पदार्थोनी कल्पना रोहगुप्त द्वारा ज करवामां आवी हती ते आ उपरथी चोक्कस जणाय छे. जुओ - " तेण ( - रोहगुत्तेण) छ मूलपयत्था गहिया' ( - उत्त. - पाइयटीका). जो के आ पाठ प्रमाणे तो 'गृहीत' नो अर्थ अवो पण थई शके के आवा छ पदार्थोनी कल्पना अन्य कोई दर्शनमां प्रवर्तती हशे अने तेमांथी रोहगुप्ते लीधी हशे. पण वि. भाष्यमां आवा छ पदार्थो माटे स्पष्ट 'स्वमतिविकल्पित' अवुं विशेषण आपवामां आव्युं छे के जे सूचवे छे के आ छ पदार्थोनी कल्पना रोहगुप्तनी पोतानी बुद्धिनी ज नीपज हती.
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जो रोहगुप्ते पोते ज आवा छ भावोनी कल्पना करी होय तो अवश्य तेमने वैशेषिक दर्शनना प्रस्थापक समजवा ज पडे; कारण के ओ दर्शननुं समग्र माळखुं आ छ भावोनी कल्पनाना पाया पर ऊभुं छे. पण विचारवा जेवुं अ छे के वैशेषिक दर्शनमां क्यांय जीव, अजीव अने नोजीव - ओम त्रण राशिनी कल्पना आवती नथी के जे कल्पना रोहगुप्तनुं मुख्य अवलम्बन छे. तो त्रैराशिक रोहगुप्त बे राशिने स्वीकारनारा वैशेषिक दर्शनना प्रस्थापक कई रीते होई शके ? अवुं बने के ओमनी शिष्य - सन्तति त्रण राशिनी कल्पना छोडी दीधी होय ? वि.भाष्यगत ‘फाईकयमण्णमण्णेहिं' परथी से तो स्पष्ट ज छे के ओमनी शिष्यसन्ततिओ ओमना स्थापेला वैशेषिक दर्शनने दृढमूल बनाववामां सिंहफाळो आप्यो हतो. बनी शके के दर्शनने दृढमूल बनाववानी प्रक्रिया दरमियान त्रण १. (पृष्ठ १६० साथै सम्बन्धित ) संस्कृत साहित्य का बृहद् इतिहास (ले. - पुष्पा गुप्ता, प्र. - ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली - २०११) मां वैशेषिक दर्शनने लगभग २३०० वर्ष जेटलुं प्राचीन देखाडवामां आव्युं छे. भारतीय दर्शन का इतिहास भाग १ (ले.एस. एन. दासगुप्ता, प्र.- राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर - १९७८) पृ. २८१ थी शरू थती चर्चामां साबित करवामां आव्युं छे के वैशेषिक सूत्रो बौद्धपूर्वकालीन छे, पण वैशेषिक दर्शननुं निश्चित माळखुं बहु मोडुं घडायुं छे.
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राशिनी कल्पना योग्य न जणावाथी छोडी देवामां आवी होय.
__ आ उपरान्त रोहगुप्तने वैशेषिक दर्शनना मूलपुरुष गणतां पहेला बीजी पण केटलीक समस्याओ विचारणीय छे. जो आ वात साची होय तो वैशेषिक दर्शन फक्त २००० वर्ष अगाउ अस्तित्वमां आव्यु ओम नक्की थाय. तो शुं ओ दर्शनने आटलुं अर्वाचीन गणी शकाय ?? पाइयटीकाना उल्लेख प्रमाणे जो रोहगुप्ते वैशेषिकसूत्रो रच्यां होय तो ते अत्यारे उपलब्ध वैशेषिकसूत्रो छे ते के बीजां? वैशेषिक दर्शनना आदिपुरुष तरीके कणादऋषि गणाय छे. तो आ कणादऋषि अने रोहगुप्त वच्चे शो सम्बन्ध हतो? आ बधा प्रश्नो व्यापक संशोधन मांगे छे. कल्पसूत्रनी स्थविरावलि के जे वि.भाष्य अने पाइयटीका करतां वधु प्राचीन छे, तेमां रोहगुप्तने फक्त त्रैराशिक ज कह्या छे, वैशेषिकदर्शनकार नहीं, ते खास ध्यानपात्र छे.
___वि.भाष्य - गाथा २६१७ थी २६२० सुधी निह्नवोने उद्देशीने करेलु अशनादि भोजन साधुओने कल्पे के नहीं तेनी चर्चा छे. तेमां स्पष्ट जणाव्यु छे के दिगम्बरो मिथ्यादृष्टि होवाथी अने तेमनो मत, तेमनो वेश, तेमना आचारविचार व. सर्वथा भिन्न होवाथी तेमने माटे करेलुं अशनादि साधुने कल्पे. पण बाकीना सात निह्नवोनी शिष्यसन्तति वेश, आचार-विचार व.मां प्रायः समान होवाथी अने तेमनो मत पण दिगम्बरो जेटलो जुदो न होवाथी तेमने उद्देशीने करेलुं अशनादि अमुक ज संजोगोमां साधुने कल्पे, अन्यथा नहीं. हवे रोहगुप्तना सत्तासमय अने वि.भाष्यना रचनाकाल वच्चे ५००-६०० वर्षनुं अन्तर छे. माटे जो रोहगुप्ते स्वतन्त्र दर्शन ज प्रवर्ताव्यु होत तो तेनी शिष्यसन्तति भाष्यना रचनाकाळ सुधीमां क्रमशः वेश, आचार-विचार व.मां तो घणी जुदी पडी ज होत. अटलुं ज नहीं, श्वेताम्बर-दिगम्बरो वच्चेनी मान्यताओमां जेटलुं अन्तर छे अनाथी कंइकगणुं वधारे अन्तर पण जैन-वैशेषिकना सिद्धान्तो वच्चे होवाथी, रोहगुप्तनी शिष्यसन्तति जो वैशेषिक दर्शननी अनुयायी होत तो वि.भाष्यमां जे विधान दिगम्बरोने अंगे छे, ते विधान रोहगुप्तना वंशजोवैशेषिकोने अंगे पण थयुं होत. परन्तु अq तो नथी. उपरथी रोहगुप्तने के तेना वंशजोने, दिगम्बरोनी अपेक्षाओ जैन साधुओनी वधु नजीक गण्या छे. जेना १. पृष्ठ १५९ पर छे.
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परथी त्रैराशिको तत्त्वमान्यतानी रीते जैन दर्शनथी जुदा पडवा छतां, आचारविचारमां तो जैन-बन्धारण मुजब ज वर्तता हता, तेम जणाय छे. आम, रोहगुप्त वैशेषिक दर्शनना प्रवर्तक हता के नहीं ते सन्दर्भे आ आखी प्ररूपणा विचारणीय छे ओम लागे छे.
छल्ले, रोहगुप्त वैशेषिक दर्शनना प्रस्थापक हता ते वातनी तरफदारी करतो अन्य ओक सन्दर्भ तपासी लइ. रोहगुप्त उलूकगोत्रनां हता ते सर्वप्रसिद्ध छे. हवे अमरकोशना ब्रह्मवर्गमां वैशेषिकोर्नु पर्यायवाची नाम 'औलूक्य' अपायुं छे. जेनी व्युत्पत्ति छे - उलूकस्याऽपत्यानि- शिष्यसन्तानजानीति औलूक्याः. पाठ आम छे : "वैशेषिके स्यादौलूक्यः" - आ पाठ सूचवे छे के वैशेषिकोनो आदिपुरुष 'उलूक' हतो. आ 'उलूक' ते शुं रोहगुप्त ज हशे ?
___ 'त्रैराशिक' शब्द साथे सम्बन्धित अन्य ओक सन्दर्भ नन्दीसूत्रमा सांपडे छे. त्यां दृष्टिवादना वर्णनमां दृष्टिवादगत ७ परिकर्म परत्वे नीचे प्रमाणे व्यवस्था दर्शाववामां आवी छे.
__"इच्चेइयाइं सत्त परिकम्माई छ ससमइयाइं, सत्त आजीवियाई, छ चउक्कणइयाइं, सत्त तेरासियाइं ॥"
आ पाठनी चूणि अने हारिभद्रीय टीका आम छे -
"एएसि परिकम्माणं छ आदिमा य परिकम्मा ससमइया चेव । गोसालयपवत्तिय-आजीवगपासंडिसिद्धंतमएणं पुण चुयअचुयसेणिया-परिकम्मसहिया सत्त पन्नविज्जति । इयाणिं परिकम्मे णयचिंता । तत्थ णेगमो दुविहोसंगहितो असंगहितो य, संगहिओ संगहं पविट्ठो, असंगहिओ ववहारं । तम्हा संगहो ववहारो उजुसुत्तो सद्दाइया य एक्को एवं चउरो णया । एतेहिं चउहिं णएहि छ ससमइयाइं परिकम्माइं चिंतिज्जंति । अतो भणियं छ चउक्कणइयाई भवंति। ते चेव आजीविया तेरासिया भणिया । कम्हा ? उच्यते, जम्हा ते सव्वं जगत् त्र्यात्मकमिच्छन्ति । यथा जीवोऽजीवो जीवाजीवो, लोए अलोए लोयालोए, संते असंते संतासंते एवमादि । णयचिंताए ते तिविहं णयमिच्छंति । १. अवचूरिकार 'सत्त तेरासियाई'नुं तात्पर्य जुदुं देखाडे छे – “सप्त परिकर्माणि त्रैराशिकानि
त्रैराशिकमतानुयायीनि । एतदुक्तं भवति - पूर्वं सूरयो नयचिन्तायां त्रैराशिकमतमवलम्बमानाः सप्तापि परिकर्माणि त्रिविधयाऽपि नयचिन्तया चिन्तयन्ति स्म इति ।"
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तं जहा दव्वट्ठितो पज्जवट्ठितो उभयद्वितो । अओ भणियं सत्त तेरासिय त्ति । सत्त परिकम्माइं तेरासियपासंडत्था तिविहाए णयचिंताए चिन्तयन्तीत्यर्थः ॥” आ पाठ प्रमाणे बे वातो फलित थाय छे : १. आजीविकमत अ ज 'त्रैराशिकमत' तरीके ओळखातो हतो. जीव अजीव अने जीवाजीव, लोक अलोक अने लोकालोक - ओम सर्वत्र त्रण राशि स्वीकारवाने लीधे गोशालकना अनुयायीओ ज ‘त्रैराशिक' कहेवाता हता. २. त्रैराशिको (अथवा अवचूरिना मते पूर्वसूरिओ त्रैराशिकमतने नयचिन्ता पूरतो स्वीकारीने), साते परिकर्मोने त्रण नयो – द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक अने उभयार्थिक नयथी विचारता हता. आमां सातमुं परिकर्म जैनसिद्धान्त प्रमाणे नहोतुं. ये तो आजीविक-त्रैराशिकमतने ज सम्मत हतुं, अने ओ रीते ज दृष्टिवादमां स्थान पामतुं हतुं तेमज जैनसमयसम्मत प्रथम छ परिकर्मोने नयचतुष्क - संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र अने शब्द नयोथी विचारवानी मूल जैनदर्शननी व्यवस्था हती.
आ पछी दृष्टिवादगत ‘सूत्र'नी व्यवस्था दर्शावता नन्दीसूत्रमां जणावायुं छे के “इच्चेयाइं बावीसं सुत्ताइं छिण्णच्छेयणइयाइं ससमयसुत्तपरिवाडीए सुत्ताई .... अच्छिन्नछेयणइयाइं आजीवियसुत्तपरिवाडीए... तिगणइयाइं तेरासियसुत्तपरिवाडीए... चउक्कणइयाइं ससमयसुत्तपरिवाडीए सुत्ताइं । एवामेव सपुव्वावरेणं अट्ठासीतिं सुत्ताइं भवतीति मक्खायं ॥" आनो अर्थ आम थाय छे उपर जणाव्यां ते बावीस सूत्रोने जो छिन्नच्छेदनयथी' जोवामां आवे तो ओ जैनमतने सम्मत सूत्रो बने छे अने अच्छिन्नच्छेदनयथी जोइओ तो आजीविकमतने सम्मत सूत्रो बने छे. अ ज रीते आ सूत्रोना विषयभूत अर्थने जो चार नयथी विचारीओ तो ओ सूत्रो स्वसमयसम्मत अने त्रण नयथी विचारता त्रैराशिकमतसम्मत बने छे. आम कुल मळीने ८८ सूत्रो दृष्टिवादमां समाविष्ट बने छे.
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उपरोक्त मूल नन्दीसूत्र अने तेनी टीकाओमां आवता ' त्रैराशिक ' अंगेना उल्लेख थोडोक विचार मांगे छे.
★ आजीविकमतने लगता जे निर्देशो अत्यारे उपलब्ध छे अमां अ मत त्रण राशि स्वीकारतो होय ओवो कोई ज निर्देश नथी देखातो. नन्दीनी
१.
पृष्ठ १६१ पर छे.
२. छिन्नच्छेदनय अने अच्छिन्नच्छेदनयना अर्थ माटे जुओ नन्दीनी चूर्णि - टीकाओ ।
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टीकाओने बाद करतां क्यांय त्रैराशिको माटे आजीविक के आजीविको माटे त्रैराशिक शब्द वपरायो होवानुं जाणमां नथी. खुद नन्दीना रचयिता पण बन्ने माटे अलग-अलग विधानो ज करेलां छे. तो नन्दीना टीकाकारोओ शा माटे बन्नेने अक गण्या ? आनो अर्थ ओवो समजी शकाय के जैनमतनी विरुद्ध सिद्धान्तो धरावती, अने छतांय अमना स्थापको मूलतः जैन निर्ग्रन्थ होवाने लीधे जैन आचार-विचारोथी प्रभावित तेवा प्रायः परस्पर सरखा आचार-विचार धरावती, आ बे परम्पराओ अमुक काल सुधी समान्तरपणे वहेती रही होय, अने धीरे धीरे जैनमतनी विरुद्ध ओक थती थती नन्दी - चूर्णिना समय सुधीमां परस्परमां विलीन थई गई होय अने तेथी चूर्णि, टीका व.मां आजीविको अने त्रैराशिको बन्नेने ओक गणाववामां आव्या होय ?
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अहीं ओक महत्त्वनो मुद्दो से उपस्थित थाय छे के त्रैराशिक मतनो उद्भव खरेखर क्यारथी थयो गणाय ? श्रीगणधर - विरचित दृष्टिवादनां केटलाक अंगोनो विमर्श जो त्रैराशिक मतनी विचारणा प्रमाणे थतो होय तो त्रैराशिक मतने ओछामां ओह्युं दृष्टिवादनी रचना जेटलो प्राचीन गणवो पडे. ज्यारे कल्पसूत्रनी स्थविरावलीनो “थेरेहिंतो णं छडुलूएहिंतो रोहगुत्तेहिंतो कोसियगुत्तेर्हितो तत्थ णं तेरासिया निग्गया ।" आ पाठ ओम दर्शावे छे के रोहगुप्तथी त्रैराशिक मत उद्भव्यो. आ बे परस्पर विरोधी विधानोनी संगति बे रीते शक्य छे.
(१) दृष्टिवाद साथै सम्बन्धित त्रैराशिकमत अने रोहगुप्तथी प्रस्थापित त्रैराशिक मत विभिन्न होय. १
(२) बन्ने त्रैराशिकमतनो अर्थसन्दर्भ ओक ज होय, परन्तु दृष्टिवादगत त्रैराशिक - विचारणा पोतानाथी भिन्न मतना सापेक्ष स्वीकारपूर्वक होय. ज्यारे रोहगुप्ते प्ररूपेलो त्रैराशिकमत जैनमतनी अवगणना करवा पूर्वक निरपेक्षपणे त्रण राशि स्वीकारतो होय. जो आ वात यथार्थ होय तो रोहगुप्ते सर्वथा नवो मत नहोतो प्ररूप्यो, परन्तु प्राचीन मतने ज पोतानी रीते अनुकूल स्वरूपे ओटले के अकान्तपणे स्वीकार्यो हतो ओम समजवुं जोइओ. रोहगुप्त वाद दरमियान जे मक्कमताथी ऋण राशि प्ररूपे छे ते जोतां तेमणे ऋण राशि विशे से पहेलां पण विचार्युं हशे ओम जणाय छे. बनी शके के ओ विचारणा दृष्टिवादना १. जो के नन्दीसूत्रनी टीकाओमां व्यावर्णित दृष्टिवाद - सम्बन्धित त्रैराशिकमत अने रोहगुप्तना त्रैराशिकमत वच्चे कोई तफावत नथी जणातो.
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अनुसन्धान-५८
त्रैराशिकमतने सम्बन्धित होय. नन्दीसूत्रनी चूर्णि, टीका व मां गोशालकने आजीविकमतना प्रस्थापक जणाव्या छे, पण रोहगुप्तनो त्रैराशिकमतना प्रस्थापक तरीके उल्लेख नथी कर्यो, ते पण आ सन्दर्भे विचारणीय छे.
उपरनी समग्र विचारणा दरमियान ध्यानमा राखवा जेवी बाबत अ पण छे के दृष्टिवादना वर्णनगत त्रैराशिकमतना उल्लेख सिवाय, रोहगुप्तथी पूर्वे, त्रैराशिकमतनी विद्यमानतानो कोई पुरावो नथी जडतो.
विचारणीय वात ঔ पण छे के त्रैराशिकमतनी विचारणा मुजबनां परिकर्म-सूत्रोनो समावेश शा माटे दृष्टिवादमां करवामां आव्यो ? आ परत्वे ओवी कल्पना सूझे छे के दृष्टिवादनी रचनाकाले गोशालकनो आजीविकमत विद्यमान होवाथी, अने से मतने सम्भवतः जैनमत साथे निकटनो सम्बन्ध होवाथी, दृष्टिवादगत परिकर्मसूत्रोनी विचारणा अने रचना से मत प्रमाणे पण थई होय. आम करवुं ओटले जरूरी बन्युं हशे के छिन्नच्छेदनयथी सूत्रोनी अर्थविचारणानी जे जैन परिपाटी हती तेनी सामे अच्छिन्नच्छेदनयथी सूत्रोनी अर्थविचारणा करवानी पद्धति आजीविकमते ऊभी करी होवी जोईए. आजीविकमतनी आ पद्धति सूत्रोना विशद बोधमां महत्त्वपूर्ण भाग न भजवती होय तो सारग्राही जैनाचार्योओ ओने न ज स्वीकारी होत, अने दृष्टिवादमां अने स्थान न ज आप्युं होत. अने अ ज रीते नयचतुष्कथी सूत्रार्थ विचारवानी जैनपरिपाटीनी सामे नयत्रिकथी सूत्रार्थ विचारवानी त्रैराशिकसम्मत पद्धति पण जैनाचार्योओ सापेक्षभावे स्वीकारी होय अने अ पद्धति प्रमाणेनां ' त्रैराशिक ' परिकर्मो अने सूत्रोने दृष्टिवादमां समाव्यां होय.
जो उपरनी कल्पना साची होय तो छिन्नच्छेदनय अने अच्छिन्नच्छेदनय जेम परस्पर विरुद्ध छे तेम नयचतुष्क अने नयत्रिकने पण परस्पर विरुद्ध समजवा पडे. मतलब के जेम नयत्रिकनो अर्थ द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक अने उभयार्थिक छे, तेम नयचतुष्कनो अर्थ द्रव्यार्थिक जेवा चार विभागमां विभक्त नयो ज लेवा जोइओ, ए वधु सुसंगत जणाय छे. पण ते शुं होई शके ते नयवादना जाणकारो ज बतावी शके'. बाकी टीकाकारो बतावे छे तेम चार मूल नयनी
१.
जीव, अजीव अने नोजीव ओम त्रण राशिनी सामे जीव, अजीव, नोजीव अने नोअजीव ओम जैनमते चार राशिनी वात प्रस्तुत सन्दर्भे विचारणीय छे.
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________________ फेब्रुआरी - 2012 165 (संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द) वात अन्य कोई स्थाने प्रायः देखाती नथी. सिद्धान्तमां तो मूल नय 5 के 7 जणाव्या छे. ज्यारे नैगमनो संग्रह-व्यवहारमां अन्तर्भाव करनारा सिद्धसेन दिवाकरजीना मते मूल नय 6 छे. 4 मूलनयनी वात तो कदाच 'नयचतुष्क'नी व्याख्या माटे ज कल्पवामां आवी होय तो शक्य छे. त्रैराशिकमतनी परम्परा विशे अक महत्त्वनो उल्लेख त्रिपुटी महाराजे जैन परम्परानो इतिहास-१, पृ. 277 पर कर्यो छे : "आ मत (-त्रैराशिक) छेवटे दिगम्बर परम्परामां भळी गयो हतो. भट्टारक आचार्य अकलङ्के दिगम्बर संघोनी व्यवस्था करी त्यारथी ते कुन्दकुन्दान्वयमा सामेल मनातो होय ओम लागे छे. घणो समय गया पछी आ परम्परामां त्रैराशिक आचार्य पद्मनन्दी थया छे. ते माटे पुण्याश्रवकथाकोषनी प्रशस्तिमां लख्युं छे के - ___कुन्दकुन्दान्वये ख्याते, ख्यातो देशिगणाग्रणीः / बभौ सङ्घाधिपः श्रीमान्, पद्मनन्दी त्रिराशिकः // " आम क्यांक त्रैराशिकोने वैशेषिको गणाव्या छे, क्यांक आजीविको ओ ज त्रैराशिक अम कां छे, तो त्रिपुटी महाराजे जणाव्युं छे तेम क्यांक त्रैराशिक जैनाचार्यनो उल्लेख छे. आ बधुं समग्रपणे जोतां ओम लागे छे के त्रैराशिकमतमां मूलभूत रीते आजीविक, वैशेषिक अने जैन - ओ त्रणे मतने लगतां तत्त्वो पड्यां हशे. कालक्रमे त्रैराशिक परम्परामां मे तत्त्वोने लीधे त्रण फांटा पड्या हशे. जेमां अेक फांटो आजीविकमतमां विलीन थई गयो, बीजो फांटो वैशेषिक दर्शन तरफ ढळ्यो अने त्रीजो फांटो मूल जैनमार्ग साथे पाछो जोडाई गयो. उपरोक्त परस्पर विरोधी विधानो ओ फांटाओने अनुलक्षीने लागे छे. ट्रंकमां, त्रैराशिकमत अने तेने लगतां विधानो व्यापक संशोधन मांगे छे. तज्ज्ञो आ बाबतमा प्रकाश पाथरे ओवी अपेक्षा. कल्प-स्थविरावलीगत त्रैराशिकमतनी उत्पत्तिना उल्लेख-"थेरेहिंतो णं छडुलूएहितो रोहगुत्तेहिंतो कोसियगुत्तेहितो तत्थ णं तेरासिया निग्गया।" - परथी पण त्रैराशिकमान्यता धरावती जैनश्रमण-परम्परानो उद्भव ज स्थविरावलीकार जणावे छे अम कल्पी शकाय तेम छे.