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फेब्रुआरी - २०१२
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"थेरस्स णं अज्जमहागिरिस्स एलावच्चसगुत्तस्स इमे अट्ठ थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया हुत्था । तं जहा- थेरे उत्तरे, थेरे बलिस्सहे, थेरे धणड्डे, थेरे सिरिभदे, थेरे कोडिन्ने, थेरे नागे, थेरे नागमित्ते, थेरे छडुलूए रोहगुत्ते कोसियगुत्ते णं । थेरेहितो णं छडुलूएहितो रोहगुत्तेहिंतो कोसियगुत्तेहितो तत्थ णं तेरासिया निग्गया ।"
कल्पसूत्रनी सुबोधिका-टीकामां पण प्रस्तुत पाठनी व्याख्या दरमियान उपा. श्रीविनयविजयजीओ नीचे प्रमाणे टिप्पणी करी छ :
__ "यत्तु सूत्रे रोहगुप्त आर्यमहागिरिशिष्यः प्रोक्तः, उत्तराध्ययनवृत्तिस्थानाङ्गवृत्त्यादौ तु श्रीगुप्ताचार्यशिष्यः प्रोक्तस्ततोऽस्माभिरपि तथैव लिखितं, तत्त्वं पुनर्बहुश्रुता विदन्ति ।" ।
___ जो के उपरनी टिप्पणीमां "उत्तराध्ययनवृत्ति, स्थानाङ्गवृत्ति व. मां रोहगुप्तने श्रीगुप्ताचार्यना शिष्य जणाव्या छे' ओम कहुं छे ते वात पण थोडोक विचार मांगी ले छे.
स्थानाङ्गजीनी वृत्तिमां रोहगुप्तनो श्रीगुप्ताचार्य साथे शो सम्बन्ध हतो तेनो कोई ज उल्लेख नथी. फक्त 'श्रीगुप्ताचार्ये आम कां' तेने बदले 'गुरुओ आम कां' ओवा शब्दो प्रयोज्या छे. पण तेथी कंइ श्रीगुप्ताचार्य रोहगुप्तना गुरु ज हता अq निश्चित न थई जाय. कारण के बे श्रमणोने लगती वातमां, तेओ परस्पर गुरु-शिष्य न होवा छतां, वडील माटे 'गुरु' शब्द प्रयोजवो ओवी प्राचीन परिपाटी छे. जेमके आर्य भद्रबाहु अने आर्य स्थूलिभद्र वच्चे गुरुशिष्यभाव न होवा छतां ओ बन्नेने लगती घटनाओमां भद्रबाहुस्वामी माटे 'गुरु' शब्द प्रयोजायेलो जोवा मळे छे. कल्पकिरणावलीमां पण आर्यरक्षितना सम्बन्धमां भद्रगुप्तसूरि अने वज्रस्वामी गुरु न होवा छतां तेओने माटे 'गुरु' शब्द प्रयोजायो
उत्तराध्ययनसूत्रनी श्रीशान्त्याचार्ये रचेली टीकामां तो रोहगुप्तने स्पष्टपणे श्रीगुप्ताचार्यना 'शिष्य' नहीं, पण 'श्राद्ध' (-पूज्यभाव धरावनारा) जणाववामां आव्या छे. "तेसिं पुण सिरिगुत्ताणं थेराणं सड्डी य रोहगुत्तो नाम ।" (उत्त.
१. "भणितो य णाहिं गुरू' – तित्थोगाली - ७६०