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शुक
(मूल अने भाषांतर सहित)
( सने १९३५ )
॥ श्रीजिनाय नमः ॥
|| मित्रानंदमंत्रिचरित्रम् ॥
(कर्ता - श्रीवर्धमानसूरि) --: छपावी प्रसिद्ध करनारःपण्डित हीरालाल हंसराज - जामनगर.
मुद्रक:- श्रीजैन भास्करोदय प्रिन्टिंग प्रेस. किंमत ०-८-०
(द्वितीयावृत्तिः)
(वीरसंवत् २४६१ )
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मित्रानंद
॥ श्रीजिनाय नमः ॥
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॥श्रीमित्रानंदचरित्रम्॥
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(कर्ता-श्रीवर्धमानसूरि) भाषांतरकर्ता तथा छपावी प्रसिद्ध करनार–पण्डित श्रावक हीरालाल हंसराज (जामनगरवाला)
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कुव्यावृतीनां स्नानादेस्त्यागो ब्रह्मव्रतं तपः। आहुः शिक्षाव्रतमिदं तृतीयं पौषधाभिधम्॥१॥ अर्थः-कनिष्ट व्यापारोनो, तथा स्नान आदिकनो त्याग ब्रह्मचर्यव्रत, पालन, तथा तप, तेने पोषधनामनुं त्रीजु शिक्षाबत कहेलुं छे ॥१॥
तत्तु शुद्धोक्तचारित्रिव्रतवत्परिपाल्यते । अहोरात्रमथाशेषां रात्रि यावजितेन्द्रियैः ॥ २ ॥
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मित्रानंद
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॥२॥
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__ अर्थः-वळी ते पौषधव्रतने वर्णवेला शुद्ध दीक्षित मुनिना वतनीपेठे जितेंद्रियो एक रात्रिदिवस सुधी, अथवा समस्त रात्रि पर्यंत पाले छे. ॥२॥
भवोरगमदच्छेदे पौषवत्पौषधव्रतम् । आपत्तापभिदे मित्रानन्दमन्त्रिपरिव ॥३॥ अर्थ:-संसाररूपी सर्पना मदनो नाश करवामां पोषमास सरखं पौषधवत मित्रानंद नामना मंत्रीश्वरनी पेडे दुःखना संतापनो नाश करनारुं छे. ॥३॥
धर्मनिर्मलमत्यर्थमर्थविद्योति विद्यते । पुरं पुष्पपुरं पुष्पचापचापलपेशलम् ॥ ४ ॥ अर्थ:-ते मित्रानंदमंत्रिनुं उदाहरण नीचे प्रमाणे छे-धर्मथी निर्मल, अत्यंत द्रव्यना तेजवा , तथा कामदेवनी चपलताथी मनोहर लागतुं पुष्पपुर नामर्नु नगर छे ।। ४ ॥
तत्र युद्धसुधासत्रममित्रवसुधाभृताम् । बभूव भूविभुर्भानुर्जितभानुः स्वतेजसा ॥५॥ अर्थ:-ते नगरमां शत्रुराजाओने युद्धरूपी अमृतनी दानशाला सरखो, तथा पोताना तेजथी मूर्यने पण जीतनारो भानुनामे | राजा हतो ॥ ५॥
मन्त्री तस्य धरित्रीन्दोमित्रानन्द इति श्रुतः। अजायत धियां पात्रं छात्रीकृतवृहस्पतिः ॥६॥ अर्थः-ते राजाने बुद्धिना भाजन सरखो, तथा शिष्यरूप कस्ल छे बृहस्पतिने जेणे, एवो मित्रानंद नामनो प्रख्यात मंत्री हतो.
मध्येसदः कदाप्युच्चनरेन्द्रसचिवेन्द्रयोः । व्यवसायस्य पुण्यस्य प्रतिष्ठानेऽभवत्कलिः॥७॥
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मित्रानंद
॥ ३ ॥
अर्थ:- एक दिवसे मनमां ते राजा तथा मन्त्रीश्वरवच्चे उद्यमवाद तथा पुण्यवादना स्थापनाना संबंधमां क्लेश उत्पन्न थयो. ॥७॥ कुधाथ वसुधानाथः प्रोवाच सचिवं प्रति । व्यवसायः प्रमाणं न प्रमाणं पुण्यमेव चेत् ||८|| ततः स्वपुण्यमाहात्म्यात्त्वं पुण्यबलगर्वितः । गृहाण मम राज्यद्विमित्थं संवर्धिमत्सरः || ९ || अर्थ :- पछी ते राजाए क्रोधथी मंत्रीने कां के, जो उद्यम प्रमाणभूत न होय, अने पुण्यज प्रमाणभूत होय ॥ ८ ॥ तो पोताना पुण्यना माहात्म्यथी पुण्यना वलथी गर्विष्ट थयेलो तुं आरीते वृद्धि पातेला मत्सरवाळो थइने मारां राज्यनी समृद्धि लड़ ले ? ||९|| पुरीमध्याद्भवन्तमनुयास्यति । तत्कण्ठ (तृषितोऽसौ मत्खङ्गः पास्यति शोणितम् ॥ १०॥ अर्थ:- बळी जे कोइ नगरमांथी तारी पाछळ आवशे, तेना कंठमांथी मारी आ तरसी तलवार रुधिर पीशे ॥ १० ॥
गच्छ तुच्छमते तूर्ण पूर्ण कुरु निजं वचः । गृहे न हन्त हन्तव्यमित एवान्यतो व्रज ॥ ११ ॥
अर्थ :- हे तुच्छबुद्धि ! तुं तुरत अहींथी चाल्यो जा ? अने तारी शरत पूरी कर ? वळी अरे! तारे हवे घेर पण न जर्बु, अहींथीज बीजे क्यांक चोल्यो जा? ॥। ११ ॥
इति क्षितिपतेराज्ञां विज्ञाय सचिवाग्रणीः एकाक्येव दृढावेशोऽचलद्देशान्तरं प्रति ।। १२ ।।
अर्थ:- प्रथमज करेल भूगमन तथा आपत्तिमते अद्भुत उद्यमवाळो तथा गिरींद्रनीपेठे उंचो, एवो ते मंत्री (पोताना) बन्ने पगोवडेज नगरमांथी निकळी चालवा लाग्यो । १२ ॥
पद्भ्यामेवादिभूचारविपद्भयामद्भुतोद्यमः । स निःससार नगरान्नगराज इवोन्नतः ॥ १३ ॥
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चरित्रं
॥ ३ ॥
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मित्रानंद
अर्थः-अत्यंत पुण्यशाली एवा ते मंत्रीए चालतां थकां अत्यन्त थाकी जतां मध्याह्नकाले चंद्रनीपेठे क्रोडोगमे कलापोथी रचेलां
| एक सरोवरने जोयुं ॥ १३ ॥ ॥४॥
गच्छन्नतुच्छपुण्योऽसौ श्रान्तो मध्यन्दिनेऽधिकम् । ददर्शन्दोरिव कलाकोटीभिर्घटितं सरः॥१४॥ अर्थः-चपल मोजांओरूपी हाथोना समूहवाळु जे तळाव, तृषातुरथयेला पाणीओने जाणे बोलाववामाटे होय नही! तेम भम. | राओना गंभीर नादवाळा, कमलोना मिषथी क्रोडगमे मुखोने धारण करतु हतुं ॥ १४ ॥
यल्लोललहरीहस्तगणं भृङ्गघनस्वनाः । आहातुं तृषितान्वक्त्रकोटीरब्जच्छलादधौ ॥ १५॥ HI अर्थः-ते तळावमां स्नानपान करीने पालपर वृक्षनी नीचे बेठेला ते मंत्रीए आगळ आकाशमाथी एकदम उतरेला (एक) पुरु- | छपने जीयो. ॥ १५ ॥
स कृतलानपानोऽत्र स्थितः पाल्यां तरोस्तले । नभसो रभसोत्तीर्णमपश्यत्पुरुषं पुरः॥१६॥ MI अर्थ:-आ मणि सन्ध्याकाळे तने वांछित सैन्य आपशे, अने पाछळथी पण तेने पूजवाथी ते घणी लक्ष्मी आपशे, ॥१६॥ एम
संध्यायां चिन्तितं सैन्यं दास्यत्येष मणिस्तव । पश्चादपि श्रियं भूरि पूरयिष्यति पूजितः॥१७॥ कहीने शृं? शृं? एम बोलता, तथा अति आश्चर्य पामेला ते मन्त्रीना हाथमां चिंतामणि रत्न मूकीने ते दिव्यपुरुष आकाशमांगें | चाल्यो गयो.॥ १७॥
इत्युक्त्वा किं किमित्युक्तेरुचैश्चित्रस्य मन्त्रिणः । पाणौ चिन्तामणि मुक्त्वा स द्यां दिन्यनरोगमत्॥१८॥
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मित्रानंद
॥ ५ ॥
अर्थः- पछी रोमांचित शरीरवाळो ते मंत्री कमलोवडे घणा वखतसुधी ते मणिने पूजीने, तथा पछी सैन्यनो समूह रचीने संध्या काळे (पोताना) नगर तरफ गयो. ॥ १८ ॥
अथाब्जैर्मणिमभ्यर्च्य रोमाञ्चितवपुश्चिरम् । विरचय्य चमूचक्रं सायं सोऽगात्पुरं प्रति ॥ १९ ॥ अर्थः- पछी ते मित्रानंदमंत्रीए हाथी, घोडा तथा रथोना समूह सहित डंकाओनी गर्जना करीने ते सैन्योथी ते नगरने | घायो ॥ १९ ॥
राजवाजिरथाभोगमग्न निस्वाननिस्वनः । तैर्बलैर्वलयामास मित्रानन्दोऽथ तत्पुरम् ॥ २० ॥
अर्थः- आ नगरीने कोणे घेरो घाल्यो छे ? ए जाणवाने राजाए बातमीदारोने मोकल्या, तेओने जोइ मंत्रीए कहुं के, ||२०|| कचकार पुरीरोधमिति बोधकृते नृपः । हरिकान्प्रेरयामास तान्प्रेक्ष्य सचिवोऽब्रवीत्॥२१॥
अर्थः- अरे ! भुजाबलना गर्वथी नष्ट थयेल छे. घणा भाग्योना समूहनी उत्पत्ति जेनी एवा ते राजाने तमारे मारा कहेवाथी एम कहे के, ॥ २१ ॥
भुजागर्वपराभूतभूरिभाग्यभरोद्भवः । अये मद्वचसा वाच्यो भवद्भिरिति भूपतिः ॥ २२ ॥
अर्थ :- पुण्यथी प्राप्त थयेल छे, सैन्यनो समूह जेने एवो ते मित्रानंद आवी पहोंच्यो छे, अने तुं तो पोताना पराक्रमयी जगतने पण दबावनारो छे, माटे तेनी साथे लडवाने बहार आव ? ।। २२ ।।
पुण्यात सैन्यसंदर्भो मित्रानन्दः समागमत् । विक्रमाक्रान्तविश्वोऽसि संप्रहतु बहिर्भव || २३ ||
चरित्रं
॥ ५ ॥
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मित्रानंद
॥ ६॥
अर्थ:- एम कहने, तथा तेओने शिरपात्र आपीने मंत्रिए मोकलेला ते बातमीदारोए पछी (त्यांथी) जइने राजाने सघळी खरेखरी हकीकत जणावी. ॥ २३ ॥
एवमाभाष्य संभूष्य प्रहिताः सचिवेन ते । गत्वा व्यज्ञपयन्राज्ञे सर्वमथ यथातथम् ॥ २४ ॥
अर्थः- पछी ते चतुर राजा शांत थड़ने केटलाक माणसो सहित परवार्यो थको, मित्रानंद पोते रह्यो हतो, त्यां गयो ॥ २४ ॥ स्वस्थ भूयाथ भृजानिः कैश्चित्परिवृतो जनैः । कृती तत्र ययौ यत्र मित्रानन्दः स्वयं स्थितः ||२५|| अर्थः- ते मंत्री आगळ राजाने जोइने उभो थयो, केमके सज्जनोनो फक्त नजरे देखवासुधीज इष्टजन प्रतेनो विरोध होय छे. अभ्युत्स्थौ तदा मन्त्री निर्माल्य नृपतिं पुरः । इष्टे हि दर्शनं यावद्विरोधो युज्यते सताम् ||२६|| अर्थ :- पछी प्रणामपूर्वक (मंत्रीए ) राजाए सिंहासनपर बेसाडयो, त्यारे ते राजाए पण बलात्कारे पोताना अर्ध आसनपर ते | मंत्रीने बेसाडीने कां के ॥ २६ ॥
प्रणिपत्याथ पृथ्वीन्दुर्निष्कपीठे निवेशितः । बलादर्द्धासने स्वस्य सचिवं न्यस्य सोवदत् ||२७|| अर्थः- शौर्य आदिकना उद्यमथी पण पुण्यज उत्तम छे, केमके पुण्यशालीओ पासे उद्यमवंतो नोकर थइने रहे छे, ॥२७॥ वरेण्यं पुण्यमस्त्येव शौर्यादिव्यवसायतः । पुण्यभाजां हि जायन्ते किंकरा व्यवसायिनः ॥ २८ ॥
अर्थः- आ आखो सैन्यनो समूह (जे तमोने प्राप्त थयो ते खरेखर) तमारा पुण्यना उदयने सूचवनारो छे, के जेथी हुं तमारी पासे तमारो स्वामी छतां पण नोकर सरखो लागुं छु. ॥२८॥
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चरित्रं
॥ ६ ॥
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मित्रानंद
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भवद्भाग्योदयः कश्चिदयमीदृक्चमूचयः । येनाहं तव भर्तापि भृत्यद्भवामि तेऽग्रतः ॥ २९ ॥ किं त्वसावियती भूतिर्बभूव भवतः कुतः । इत्युक्तो भूभुजा मन्त्री स्वचरित्रम चीक थत् ॥ ३० ॥ अर्थः- परंतु तमोने आ आटली समृद्धि क्यांथी प्राप्त थइ एम राजाए पूछवाथी ते मंत्रीए पोतानुं वृत्तांत कही संभळाव्युं. ३०
अथ विस्मयविस्मेर नेत्रपत्रजनेचितः । मित्रानन्देन सानन्दः पृथ्वीन्दुः प्राविशत्पुरम् ||३१||
अर्थः- पछी आर्यथी विकस्वर थयेलां नेत्रोवाळा लोकोथी जोवाएला ते राजा आनंदधी ते मित्रानंद मंत्रीसहित नगमां दाखल थयो. ॥३१॥
उपायैः फलितं श्रीभिर्मणिमाहात्म्यतोऽधिकम् । ववृधे च नरेन्द्रेण मन्त्रिगो मैत्र्यमद्भुतम् ||३२||
अर्थ:- पछी ते मणिना प्रभावनी उद्यम अने लक्ष्मीथी अधिक फलद्रुप थयेली ते राजासानी मंत्रनी मित्राइ आश्चर्यकारक रीते वृद्धि पामवा लागी ॥ ३२ ॥
कदापि भानुभूपेन सहोत्तंसितसंसदम् । आरादारामिकोऽभ्येल तं धर्मज्ञं व्यजिज्ञपत् ॥ ३३ ॥
अर्थः- पछी एक दिवसे ते भानुराजासहित राजसभाने शोभावता एवा ते धर्मिष्ट मंत्रीनी पासे वनरक्षक मालीए तुरत आवीने कां के, ॥३३॥
दिष्टया वर्धसे स्वामिनङ्गी धर्म इवागमत् । मुनिः सुमन्धरो नाम ज्ञानी लीलावनीं तव ॥ ३४ ॥
अर्थ :- हे स्वामी ! आजे (हुं आपने ) आनंदथी वधामणी आधुं हुं के, देहधारी धर्मसरखा सुमंधर नामना ज्ञानीमुनि आपना aisaani पधार्या छे. ||३४||
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चरित्रं
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मित्रानंद
॥८॥
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प्रीत्याथ तस्मै दत्वाङ्गभूषणानि क्षणेन सः। जगामारामजगतीं जगतीपतिना समम् ॥३५॥ अर्थ:-तेज वखते आनंदथी तेने शरीरपरना आभूषणो आपीने क्षणवारमांज ते मित्रानंदमंत्री राजासहित ते बगीचानी | भूमिमां गयो. ॥३॥
- मुनि नेत्रामृतं नेत्ररापीय नृपमन्त्रिणौ । नत्वाथ न्यविशेतां तौ पातुं कर्णामृतं वचः ॥३६॥ __ अर्थः-मछी ते राजा तथा मंत्री, नेत्रोने अमृतसमान एवा ते मुनिराजने नेत्रोवडे जोइने, तथा नमीने, कर्णोमां अमृत समान, एवी तेमनी वाणी सांभळवाने बेठा. ॥३६॥
मुनीशं देशनान्तेऽथ पप्रच्छ पृथिवीपतिः। धन्यस्य कथमस्यामन्विपत्कालेऽपि संपदः॥३७॥ अर्थः-पछी धर्मदेशनाने अंते राजाए ते मुनिराजने पूछ्यु के, आ भाग्यशाली मंत्रीने आपत्तिसमये पण संपदा केम प्राप्त थइ? ३७ ।
___ अथाचष्ट मुनिः स्पष्टविभवा भुवि भाति पूः। धन्यभारच्युतेव द्यौः पद्मनेत्रेति विश्रुता॥३८॥ ___ अर्थ:-त्यारे ते मुनिराजे कह के, प्रगट वैभवाळी, तथा भाग्यशालीओना भारथी जाणे नीचे आवी पडी होय नही ! एवी | देवलोकसरखी "पद्मनेत्रा' नामनी प्रसिद्ध नगरी पृथ्वीपर शोभे छे. ॥३८॥
तत्रादित्य इति क्षमापस्तत्प्रसादास्पदं धनी । श्रेष्ठी सुदत्त इत्यासीजिनधर्मधुरन्धरः ॥ ३९ ॥ अर्थ:-ते नगरीमां आदित्यनामनो राजा हतो, ते राजानी कृपाना स्थानरूप, तथा नैनधर्मीओमा अग्रेसर सुदत्तनामे धन| वान शेठ हतो. ॥३९॥
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मित्रानंद
चरित्रं
॥९॥
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सोऽन्यदा पापरोगाणामौषधं पौषधं श्रितः । तस्थौ निशि निशान्तेऽसौ शान्तेन मनसा रसात्॥४०॥ अर्थः--एक दिवसे ते शेठे पापोरूपी रोगो मटाडवाने औषधसरखा रात्रिपौषधनो स्वीकार कर्यो, अने रात्रिने छेडे ते आनंदथी शांत चित्ते रह्यो. ॥४०॥
तदा कश्चिदवस्वापविद्यावेदी तदोकसि । भूरिभीमपरीवारः माविशत्तस्कराग्रणीः ॥ ११ ॥ अर्थ:-ते वखते तेना घरमा अवस्वापिनी विद्या जाणनारो, तथा घणा भयंकर परीवारवाळो कोइक म्होटो चोर दाखल थयो.४१
विद्या चौरस्मृता लोकं तत्रामृर्छयताखिलम् । सुदत्ते सा नमस्कारनन्नध्याने तु नास्फुरत् ॥४२॥ ___अर्थः-पछी ते चोरे याद करेली विद्याए त्यांना सर्व लोकोने मूर्छित कर्या, परंतु नवकारमंत्रना ध्यानमा रहेला सुदत्तशेठपर ते विद्याए असर करी नही. ॥४२॥
तं पश्यन्तमपश्यन्त एकान्तस्थं मलिम्लुचाः। जगृहुस्तद्गृहद्रव्याण्यखिलानस्खलन्मुदः ॥४३॥ अर्थः-एकांतमा रहेला, तथा जोता एवा ते शेठने नही जोता एवा ते चोरोए अत्यंत हर्षित थइने तेना घरमांथी सघळू द्रव्य ग्रहण कयु. ॥४३॥
द्राग्भञ्जन्ति स्म मञ्जूषाः कपाटोघमपाटयन् । द्रव्याय स्पष्टयामासुरपी भूमिगृहाण्यपि ॥ ४४ ।। अर्थ-तेओ तुरत पेटीभो भांगवा लाग्या, कमाडोनोसमूह तोडी पाडवा लाग्या, तथा द्रव्य मेळवावा माटे भोयरांभो पण | खोलवा लाग्या. ॥४४॥
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चरित्रं
मित्रानंद ॥१०॥
अहो महात्मनस्तस्य धर्मावष्टम्भयन्त्रितम् । जातेऽप्युत्पातजातेऽस्मिन्न ध्यानाचलितं मनः ।।४५॥ ___ अर्थ:-अहो! आवो सघळो उत्पात थया छतां पण ते महात्मानुं धर्मना आलंबनमा आसक्त थयेलं मन ध्यानथी चलायमान थयु नही, ॥४५॥
अमागतेष्वथागत्य गृहत्सु धनपद्धतीः । तेषु यातेषु च ध्यानभेदोऽभूत्तस्य न कचित् ॥ ४६ ॥ __अर्थ:-वळी ते चोरोना आव्या पहेलां, आवीने धनश्रेणी लेतां, तथा ते लेइने गयाबाद पण ते शेठना ध्यानमा कोइपण रीते भंगाण थयु नही ॥ ४६॥
जने शोचत्यथोनिद्रे धननाशं निशात्यये । व्यलसदिनकृत्येषु श्रेष्ठी पारितपौषधः॥४७॥ अर्थः-पछी रात्री वीत्याबाद जागेलां (घरना) माणसो द्रव्यना नाश माटे शोक करवा लाग्या, त्यारे ते शेठ तो पौषधपारीने [पोताना] नित्यकार्योमा जोडाइ गया. ॥४७॥
क्रमादर्जयतो भाग्यभङ्गीसङ्गीकृतात्मनः । धनधोरणयस्तस्य भूरयोऽप्यभवन्पुनः॥४८॥ अर्थ:-भाग्योनी श्रेणिमा जोडेलो छे आत्मा जेणे, एवा ते शेठने अनुक्रमे व्यापार करता थकां फरीने पाछी घणी धननी | श्रेणिओ प्राप्त थइ. ॥४८॥
स कदाचिदवस्वापविद्याविचौरचक्रराट् । एकं तल्लोप्तो हारं विक्रेतु प्राप तां पुरीम् ॥४९॥ अर्थः-पछी एक दिवसे अवस्वापिनी विद्याने जाणनारो ते चोरशिरोमणि ते चोरेली वस्तुओमाथी एक हार वेचवामाटे ते
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| अ क्रमादळमनो भाग्यमल्लीसची कत्तात्मनः, धमाधोरणायमस्तस्यु भयोपप्पभवन्तनः ॥ ॥ पाली पणी धननी
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मित्रानंद
॥११॥
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नगरीमा आयो. ॥४९॥
तं हारं श्रेष्टिनस्तस्य वणिक्पुत्रो धनाभिधः । उपलक्ष्यार्पयामास तलारक्षाय तस्करम् ॥५०॥ अर्थः-त्यारे धननामना एक वणिक्पुत्रे (वाणोतरे) शेठनो ते हार ओळखीने ते चोरने कोटवाळने सौंपी दीघो, ॥५०॥
तविज्ञाय दूतं गत्वा श्रेष्ठी तत्र कृपामयः । स्वं वणिक्पुत्रमाक्षिप्य तलारक्षमदोऽवदत् ॥५१॥ अर्थः-ते हकीकत जाणीने ते दयालु शेठे तुरत त्यां जइने, तथा पोताना ते वाणोतरने धमकावीने, कोटवाळने एम कयु के,॥२१
धनोऽयं नव जानाति चौरव्यतिकरात्पुरा । अस्मै महात्मने मूल्यान्मया हारोऽयमर्पितः ।। ५२ ॥ अर्थः-आ धनने कइ खबरज नथी, केमके चोरी थया पहेलांज में आ महात्माने आ हार किम्मत लेइ वेचातो आप्यो छे.॥५२।।
तदयं मुच्यतां मास्मिन्नुच्यतां चौर्यदुर्यशः । रोहिणीयोगमात्राकि स्यात्कलङ्कीन्दुबद्रविः ॥ ५३ ।। ___ अर्थः-माटे आने छोडीद्यो? अने तेनापते चोरीनो अपजश न बोलो? केमके फक्त रोहिणीना योगथी मूर्य शं चंद्रनीपेठे | कलंकीत थइ शके? ॥५३॥
द्वादशवतधर्तायं नासत्यं वदतीयथ । सुदत्तवचसामुश्चत्तलारक्षो मलिम्लुचम् ॥ ५४॥ अर्थः-हवे बार व्रतो धारण करनारो आ सुदत्त जूठं बोले नही, एम विचारी ते मुदत्तना वचनथी कोटवाळे ते चोरने छोडीमेल्या. ।
असत्यमपि तत्सत्यं यत्प्राणिहितमित्यसौ । असत्ययापि वाचामुं श्रेष्ठी चौरम मुमुचत् ॥ ५५ ॥ अर्थः-असत्य छतां पण जे पाणिओने हितकारी छे ते सत्य छे, एम विचारी असत्य वचनथी पण शेठे ते चोरने छोडाव्यो.
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मित्रानंद
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चरित्रं
॥१२॥
॥१२॥
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श्रेष्ठी तं भोजयित्वा च वरे दत्त्वा च चीवरे । नाकृत्येषु मतिः कृत्येत्युक्त्वा च प्राहिणोत्कृती॥५६॥ अर्थः-वळी ते चतुर शेठे तेने भोजन करावीने, तथा वे उत्तम वस्त्रो आपीने, (हवे पछी) अकार्यों करवामां बुद्धि करवी नही एम कही रवाना कर्यो. ॥५६॥
श्रेष्ठीन्दोरुपकारेण शिक्षया च द्रवन्मनाः । किं स्थाद कृत्यमित्येष विज्ञातुं धारयन्धियम् ।। ५७ ॥
निर्यन्पुरावहिर्भागभूमौ शुभ्रप्रभाभिधम् । धर्मोपदेशान्ददतं मुनिराजमलोकत ।। ५८ ॥ ____ अर्थ:--ते उत्तम शेठे करेला उपकारथी, तथा तेमनी शिखामणथी कोमल हृदयवाळा थएला ते चोरे " अकार्य शं होय? " ए जाणवाने बुद्धि धारण करतां थकां, ॥५७ ॥ नगरमाथी निकळीने बहारनी भूमिना भागमा धर्मनो उपदेश देता शुभ्रमभनामना मुनिराजने जोया. ॥५८॥
श्रुत्वा तद्देशनां ज्ञातकृत्याकृत्यविवेचनः । मुनीन्दोस्तस्य पादान्ते दीक्षा दक्षोऽयमग्रहीत् ॥१९॥ अर्थः-तेमनो उपदेश सांभळीने जाणेल छे कार्य आकार्यनो विवेक जेणे एवा ते चतुर चोरे ते मुनिराजनी पासे दीक्षा लीधी. ५०/
चारित्रं शुद्धमासेव्य सौऽधर्मोसै सुरोऽभवत् । सुदत्तस्तु विपद्यायमभवत्सचिवस्तव ॥ ६ ॥ अर्थ:-पछी ते शुद्ध चारित्र पाळीने सौधर्म देवलोकमां देव थयो, अने ते सुदत्त पण मरण पामीने आ तारो मंत्री थयो. ॥६॥
संपत्सु ह्रियमाणासु यदभन न पौषधम् । पदे पदे तदत्रायं विचित्राः प्राप संपदः॥११॥ अर्थः-संपत्ति चोराया छतां पण (तेणे) पौषधव्रत भाग्युं नही, तेथी अहीं पगले पगले ते विविध प्रकारनी संपदा पाम्यो.॥३१॥
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चरित्रं
॥१३॥
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मित्रानंद
स तु चौरः सुरीभूतः स्मरन्नुपकृतीः कृती। चिन्तार्ताय ददौ रत्नं प्रस्तावं प्राप्य मन्त्रिणे ॥६२।।
अर्थ-देवभव पामेला ते कृतज्ञ चोरे पण उपकारने याद करीने प्रसंग मेळवी आ चिंतातुर थयेला मंत्रीने रत्न आप्यु. ॥६२| ॥१३॥
प्रभो द्रक्ष्यति त मन्त्रीत्युक्ते राज्ञा मुनिर्जगो । मन्त्रिणो जीवितान्ते तदर्शनं भावि मुक्तये ॥६३॥ अर्थ:-हे भगवन् ! ते देवने मंत्री शु जोइ शकशे? एम राजाए कहेबाथी ते मुनिए कहूं के मंत्रिना जीवने अंते मोक्ष मेळववामां साधनरूप ते देवनुं तेने दर्शन थशे. ॥६३॥
यतो नन्दीश्वरे देवानन्तुमस्याभिलाषिणः । समयज्ञसुरानीतविमानस्थस्य गच्छतः ॥ ६४ ॥
शुद्धध्यानलयस्यान्तकृतकेवलितायुजः । लवणाब्धेरुपर्येवं मुक्तिभूप भविष्यति ।। ६५ ।। अर्थ:-हे राजन् ! केमके नंदीश्वर द्वीपमा रहेली (तीर्थकरमभुओनी शाश्वती प्रतिमाओने) वांदवानी इच्छावाळा, तथा समयने जाणनारा ते देवे लावेलां विमानमां बेसीने जता, ॥ ६४ ॥ अने निर्मल ध्यानमा रहेला, तथा अंतकृत केवलिपणुं पामेला आ मंत्रीनो लवणसमुद्र उपरज मोक्ष धशे. ॥६५॥
इत्याकर्ण्य मुनेर्वाचमुदश्चद्धर्मबुद्धयः । सर्वेऽप्युर्वीश्वराधास्ते सानन्दा मन्दिरण्यगुः॥६६॥
अर्थः-एरीतनी मुनिनी वाणी सांभळीने प्रगट थयेली धर्मबुद्धिवाळा, राजाभादिक तेश्रो सघळा आनंद सहित [पोतपोताने] ४ स्थानके गया. ॥६६॥
एवं प्राकपुण्यपूर्णद्विमित्रानन्दनिदर्शनात् । भजन्तु भवपेषाय पौषधे सुधियो धियम् ॥ ६७ ॥
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मित्रानंद
चरित्रं
॥१४॥
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___ अर्थः-रीते पूर्व करेला पुण्यथी मळेली समृद्धिवाळा मित्रानंद मंत्रिना उदाहरणथी उत्तम बुद्धिवानोए संसारनुं छेदन करवा| माटे पौषध व्रतमा बुद्धिने धारण करवी. ॥६७॥
इति पौषधव्रतविचारे मित्रानन्दकथा.।। एरीते पौषत्रतविचार उपर मित्रानंदनी कथा कही.
॥१४॥
आ चरित्र श्रीवर्धमानमूरिए रचेला वासुपूज्यचरित्रमाथी ओधरीने तेनुं गुजराती भाषांतर करी
छपावी प्रसिद्ध करेल छे.
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अर्थः-एरीतनी राजानी आज्ञा जाणीने ते मंत्रीश्वर पण अत्यंत आवेशमा आवीने एकलोज परदेशाते चाली निकळ्यो. ॥१२॥
आ चरित्रमा पृष्ट ३ मां श्लोक १२नो अर्थ रहीजतां नीचे प्रमाणे वांचवी अने १२ श्लोकनो जे अर्थ छापेल छे ते १३मा | श्लोकनो समजवो एम अनुक्रम २९ श्लोक सुधी समजवो पाना ६ सुधी फेर छपायेल छे. त्यार पछी बराबर छे.
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________________ PISICII DUCISIONSCIOHOISISIDICISICI eget PISICIOSICICIS శారాణాశాడా! PSICHO" SIC इति श्रीमित्रानंदमंत्रिचरित्रं समाप्तम् 6 . Forfirifichi... . . . .picFififififf.c.68.. .G. . ..69.16.6.66.66.66. 6 GF.G.68.6 GIMUSICIANCICICNSIGIONOCIDIOUSIC!