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महावीराचार्य कृत 'गणितसार-संग्रह'
-डॉ० अलेक्जेंडर वोलोदाकी
मध्यकालीन भारतीय गणित के विकास में महावीराचार्य कृत 'गणितसारसंग्रह' का विशिष्ट स्थान है जिसकी ओर विज्ञान के इतिहास विषयक ग्रंथों में पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। (उदाहरण के लिये दे० सन्दर्भ साहित्य सं० [1])। इस लेख में महावीराचार्य की विषय-वस्तु का विश्लेषण तथा मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया है।
महावीराचार्य के जीवन की बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। स्वयम् उन्होंने अपने जन्मकाल, जन्म-स्थान और माता-पिता तथा गुरुओं के विषय में कुछ नहीं लिखा है । 'गणितसारसंग्रह' के पहले अध्याय में लेखक ने किसी भारतीय शासक को संबोधन किया है जिसने सन् 814-815 से लेकर सन् 877-878 तक शासन किया था। चूंकि महावीर ने भविष्य में भी उक्त शासक की सफलता की कामना प्रकट की है इसलिये ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि इस ग्रंथ की रचना नवीं शताब्दी के मध्य में हुई होगी (दे० सन्दर्भ साहित्य सं० [1], [2], [3], [6], [7], [8], [9] )।
यह कहना कठिन है कि महावीर भारत के किस भाग में रहते थे। अधिसंख्य विद्वान उन्हें दक्षिण भारत का निवासी मानते हैं। इसका कारण यह है कि 'गणितसारसंग्रह' की संस्कृत के अतिरिक्त तीन अन्य पाण्डुलिपियों में प्रश्नों की व्याख्या तथा उनके उत्तर कन्नड़ में दिए गए हैं जिसका दक्षिण भारत में मध्य युग में बहुत प्रचार था। इस धारणा के पक्ष में एक तर्क यह भी है कि महावीर जैन धर्म के अनुयायी थे जो मुख्यतः दक्षिण भारत में अधिक प्रचलित है।
'गणितसारसंग्रह' में अंकगणित तथा रेखागणित पूरी तरह से दिए गए हैं, साथ ही बीजगणित तथा संख्या सिद्धांत के भी बहुत-से प्रश्नों पर प्रकाश डाला गया है।
गणितसारसंग्रह' की विशेषता यह है कि यह पूर्णतया गणित का ग्रंथ है जबकि महावीर से पहले के आचार्यों ने गणित को ज्योतिष की रचनाओं में मिला दिया है। महावीर से पहले की रचनाओं में प्रमुख नियम तो मिलते हैं परन्तु उदाहरण और प्रश्न नगण्य हैं।
महावीराचार्य ने नियम, उदाहरण और प्रश्न सब दिए हैं परन्तु प्रमाण इसमें भी नहीं हैं। इस दृष्टि से यह ग्रन्थ अनेक मध्ययुगीन भारतीय, अरबी और पाश्चात्य अन्यों से भिन्न नहीं है जिनमें विषय का मतांध निरूपण किया जाता था।
गणित के अधिकांश भारतीय ग्रन्थों में तीन भाग होते हैं-मुख्य भाग जिसमें नियम और प्रश्नों की शर्ते दी रहती हैं। विशेष भाग जिसमें प्रश्नों की शर्तों तथा उदाहरणों को इस तरह दिया जाता है कि परिकलन में आसानी हो; और अंत में परवर्ती आचार्यों की टीका दी जाती है। प्रत्येक भाग की अपनी-अपनी विशेषताएं होती हैं। ग्रन्थ का मुख्य भाग पद्य में होता है जिसमें लय नहीं होती परन्तु छंद का ध्यान रखा जाता है। गणित के चिह्न, रेखाचित्र और सूत्र नहीं दिए जाते हैं, संख्याओं को भी शब्दों के द्वारा व्यक्त किया जाता है। दूसरे भाग में प्रश्नों के प्रतिबंधों (शर्तों) और उदाहरणों को सारणियों या पट्टिकाओं के रूप में दिया जाता है। इस भाग में चिह्नों का व्यापक प्रयोग होता है, रेखागणित के प्रश्नों में रेखाचित्र भी दिए रहते हैं। अंतिम भाग में टीका के साथ प्रश्नों के विस्तृत हल तथा उदाहरण दिए जाते हैं और साथ में अन्य ग्रन्थों के संदर्भ और उद्धरण भी।
महावीराचार्य के ग्रन्थ में नौ अध्याय तथा 1131 श्लोक हैं। इनमें से 452 श्लोक नियमों के हैं तथा 679 श्लोकों में उदाहरण तथा प्रश्न दिए गए हैं।
*इस संक्षिप्त अनुवाद में अंकगणीत के अंत को छोड़ दिया गा। है।
जन प्राच्य विधाएं
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'गणितसारसंग्रह' मध्ययुगीन भारतीय गणित के ग्रन्थों में सबसे बड़ा है। इसका एक कारण यह है कि इसमें उदाहरणों का अंश मुख्य ग्रन्थ का 3/5वां भाग है । दूसरा कारण यह है कि महावीर ने नियम अधिक विस्तार से दिए हैं। सामान्य नियमों के अतिरिक्त महावीर ने विशिष्ट परिस्थितियों के लिये अलग-अलग नियम भी दिए हैं जो अन्य ग्रन्थों में नहीं मिलते ।
संख्याओं के लिये प्रयुक्त शब्द-चिह्न इस प्रकार हैं0-आकाश 1-चंद्र 2-नेत्र, हस्त 3-अग्नि, शिव के नेत्र 4-सागर 5-ज्ञानेन्द्रियाँ, बाण 6-ऋतु 7-शिखर, अश्व 8-सेना, हस्ति, दिशाएँ, शरीर 9-संख्याएँ, ग्रह, पदार्थ
यह शब्द-प्रणाली केवल संख्याओं को व्यक्त करने के लिये थी। इसके द्वारा पूरा प्रश्न हल करना असंभव है। इस प्रणाली को समझने के लिये प्राचीन भारतीय साहित्य, धर्म और मिथकों को अच्छी तरह जानना आवश्यक था।
भारत में गणित को बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त था। अपने इस ग्रन्थ के आरम्भ में संज्ञाधिकार प्रकरण में गणितशास्त्र की प्रशंसा में महावीराचार्य ने इस प्रकार लिखा है
लौकिके वैदिके वापि तथा सामायिकेऽपि यः । व्यापारस्तत्र सर्वत्र संख्यानमुपयुज्यते ।। कामतन्त्रेऽर्थशास्त्र च गान्धर्वे नाटकेऽपि वा। सूपशास्त्रे तथा वैद्ये वास्तुविद्यादिवस्तुषु । छन्दोऽलंकारकाव्येषु तर्कव्याकरणादिषु । कलागुणेषु सर्वेषु प्रस्तुतं गणितं परम् ॥ सूर्यादिग्रहचारेषु ग्रहण ग्रहसंयुतौ। त्रिप्रश्ने चन्द्रवृत्तौ च सर्वत्रांगीकृतं हि तत् ।। द्वीपसागरशैलानां संख्याव्यासपरिक्षिपः । भवनव्यन्तरज्योतिर्लोकल्पाधिवासिनाम् ॥ नारकाणां च सर्वेषां श्रेणीबन्धेन्द्रकोत्कराः। प्रकीर्णकप्रमाणाद्या बुध्यन्ते गणितेन ते॥
बीज गणित
संस्कृत में बीज गणित के लिए कई नाम हैं। उनमें से एक है अव्यक्त गणित अर्थात् अज्ञात राशि की गणना की कला। अंक गणित में, जिसे व्यक्त गणित भी कहते हैं, ज्ञात राशि की गणना की जाती है।
ऋण संख्याओं के क्रिया नियम जो ब्रह्मगुप्त की रचनाओं में भी मिलते हैं, महावीर ने इस प्रकार दिये हैं :-"यदि ऋण राशि को ऋण राशि से या धन राशि को धन राशि से गुणा किया जाए या उन्हें विभाजित किया जाये तो उनका फल धन राशि ही होगा।
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यदि दो में से एक राशि धन हो और दूसरी ऋण तो फल ऋण आएगा। यदि धन राशि और ऋण राशि का योग किया जाए तो फल उनके अंतर के बराबर होता है।
[9,1,50] * "दो ऋण या दो धन राशियों का योगफल क्रमश: ऋण या धन होगा। धन राशि, जिसे किसी राशि से घटाना हो ऋण बन जाती है जबकि किसी राशि से घटाई जाने वाली ऋण राशि धन हो जाती है।"
[9,I,51] धन और ऋण राशियों का वर्ग धन होता है। इन वर्गों के वर्गमूल क्रमशः धन और ऋण होते हैं। चूंकि ऋण राशि का वर्ग नहीं होता इसलिए इसके वर्गमूल भी नहीं बनाए जा सकते ।
[9,I, 52] इसी तरह के कई नियम महावीर के बाद के भारतीय गणितज्ञों ने भी दिये हैं।
विज्ञान के इतिहास में ऋण संख्याओं का सर्वप्रथम उल्लेख चीनी ग्रन्थ "गणित के नी अध्याय" के आठवें खण्ड में मिलता है। इस ग्रन्थ में ऋण संख्याओं के जोड़ने और घटाने के नियम भी दिए गए हैं। इसमें ऋण संख्याओं के लिए 'फू' शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ है-ऋण, उधार, कमी । इस दृष्टि से दोनों भाषाओं के शब्द समान ही हैं। भारत में ऋण संख्याओं की शुरुआत ईसा की आरंभिक शताब्दियों में हुई। परंतु, यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है कि ऋण संख्याएँ भारतीय गणितज्ञों की ही देन हैं या उन्होंने इन्हें चीन से ग्रहण किया।
रैखिक समीकरण प्रतिशत, गति, मूल्य की अदायगो आदि के प्रश्नों का हल करते समय या उनके नियम बनाते समय अक्सर रैखिक समीकरण का उपयोग किया जाता है। अनेक प्रकार के प्रश्नों और समस्याओं का हल अज्ञात राशि वाले रैखिक समीकरणों की मदद से निकल सकता है। उदाहरण के लिए:- "यदि किसी राशि के
3152536 अशा . अंशों का योगफल है तो वह राशि क्या है ?"
[9,III,108] इस प्रश्न को कल्पित नियम के सिद्धांत से हल किया जाता है। "अज्ञात राशि को 1 मानकर इन अंशों का योगफल निकालना चाहिए। अब यदि भागफल को इस ज्ञात योगफल से विभाजित किया जाए तो वह अज्ञात राशि मालूम की जा सकती है। [9,III,107]
एक कल्पित नियम का सिद्धांत उन प्रश्नों के लिए उपयुक्त है जो ax= तरह के समीकरणों में बदले जा सकते हैं; विशेषकर जबकि कुछ भिन्नों का योगफल 'a' हो। इस स्थिति में x के रूप में वह संख्या चुनी जा सकती है जो कि हर का गुणज हो। यदि समीकरण ax =b, हो, तो हल इस प्रकार होगा :
h
x=3x1b
उपरोक्त नियम परवर्ती अरब और यूरोपीय गणित साहित्य में भी मिलते हैं । सातवीं-आठवीं शताब्दी में बक्षाली हस्तलिपि ग्रंथ में ऐसी समस्याओं के हल दिये गए हैं जिनका समीकरण ax+b=p होता है। यदि समीकरण assbp हो, तो उसका हल x=x+PP होगा।
___ [5, पृष्ठ 371]
a
आर्यभट्ट प्रथम (10, II, 30), ब्रह्मगुप्त (11, XVIII, 43) श्रीपति, भास्कर द्वितीय और नारायण (6, अध्याय 2, पृष्ठ 40-41) ने निम्नलिखित रैखिक समीकरणों को हल करने के नियम दिये हैं :
ax+c=bx+d
ब्रह्मगुप्त का नियम इस प्रकार है :-"एक अज्ञात राशि वाले रखिक समीकरण में विपरीत क्रम से लिए गए ज्ञात पदों के अंतर को यदि अज्ञात पदों के गुणकों के अंतर से विभाजित किया जाए तो अज्ञात राशि मालूम की जा सकती है।" [6, अध्याय 2; पृष्ठ 40]
m=x, इस तरह के समीकरण से संबंधित एक प्रश्न इस प्रकार है :
१. श्री एम. रंगाचार्य की पुस्तक के संदर्भ अंग्रेजी अनुवाद के अंश के है। अनुवादक
-अनु.
जैन प्राच्य विद्याएं.
.
...
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स्तंभ की लम्बाई क्या होगी ?
1
4
3
संख्या बताए
जाती है
"यदि एक स्तंभ का
८०
x=
इस प्रश्न का हल महावीराचार्य ने इस प्रकार दिया है।
2
거
a
m
x=
1
8
भाग जमीन के अंदर है,
C
" एक राजा ने कुल आमों का
+ +...+
7)
काठें
भाग लिया, रानी ने शेष का है, तीन राजकुमारों ने प्रत्येक के शेष भाग का क्रमशः
?
इस प्रश्न को निम्नांकित रैखिक समीकरण द्वारा हल किया जा सकता है :
x-dyx-az (x-ax) - 4g [x - ax - 2 (x-ajx)] - ..=b,
इसी प्रश्न को हल करने के लिए महावीराचार्य ने निम्नलिखित नियम दिया है :
इसका हल इस प्रकार है
और नन्हें राजकुमार ने बचे हुए 3 आम लिए। जिसे मिश्रित भिन्न के प्रश्न हल करना आता हो वह आमों की कुल
[9, TV, 29-30]
b
[9. IV. 44]
( 1 - 12 ) ( 1 - as ) ... (1―an )
निम्न प्रकार के प्रश्नों को हल करने के लिए दो अज्ञात राशियों वाली दो रैखिक समीकरणों की पद्धति उपयोग में लाई
"यदि 9 नींबू और 7 सेबों का मूल्य 107 (पैसे) है 7 नींबू और 9 सेबों का मूल्य है 101 (पैसे), तो बताओ कि एक नींबू और एक सेब का मूल्य क्या होगा ?" [9, V1,140-2-142
1
नींबू के मूल्य को यदि * माना जाए और सेब के मूल्य को y तो निम्नलिखित समीकरण प्राप्त होते हैं :
{
इन समीकरणों का सामान्य रूप इस प्रकार होगा :--
{
3
9x+7y=107 7x +9y=101
पानी में, काई में और स्तंभ और 7 हाथ दिखाई दे रहा है तो
[9. IV. 5]
ax+by=c bx+ay-d
महावीराचार्य की पद्धति पर आधारित एक और प्रश्न नीचे दिया गया है।
"कुल फलों की अधिकतम संख्या से गुणा किये गये कुल फलों के अधिकतम मूल्य में से फलों की न्यूनतम संख्या से गुणा किये ये फलों के न्यूनतम मूल्य को घटाया जाता है। शेष को अधिकतम और न्यूनतम फलों की संख्या के वर्ग के अंतर से विभाजित करने पर अधिकतम फलों का मूल्य ज्ञात होता है। अन्य फलों का मूल्य कुल फलों की संख्या के मूल्य को विपरीत क्रम से गुणा
करने पर ज्ञात होता
है।”
1
[9, V1, 139 - 1
x =
ac-bd a2-b2
y=
[9.1V. 4]
ad-bc a2-b2
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छठे अध्याय के श्लोक संख्या 270-272 1⁄2 में एक रोचक प्रश्न दिया गया है : "मुर्गों की लड़ाई के समय एक दर्शक ने दोनों मुर्गों के मालिकों से एक समझौता किया पहले से उसने कहा कि यदि तुम्हारा मुर्गा जीतेगा तो तुम मुझे जीती हुई राशि दोगे और
2
कहा कि यदि तम्हारा मर्गा जीतेगा तो तम मुझे जीती
3
दूंगा। दोनों ही स्थितियों में दर्शक को 12 स्वर्ण मुद्राएं
।
उसके हारने पर मैं तुम्हें जीती हुई राशि का दूंगा। दूसरे मालिक से उसने हुई राशि दोगे और उसके हारने पर मैं तुम्हें तुम्हारी जोती हुई राशि का
3
4
मिलेंगी । प्रत्येक मालिक को कितना-कितना पुरस्कार मिलेगा ?"
दोनों मालिकों की राशियों को x और 3 मानते हुए निम्नलिखित समीकरण बनते हैं:
या सामान्यतः
X=
y =
x
d
a
b
महावीराचार्य के अनुसार इस पद्धति का हल इस प्रकार है
जैन प्राच्य विद्याएं
-
3
4
2
3
3
y=12
x=12,
6(0+d) (c+d) b− (a+b)'c
5
d (a+b) -.m (a+b).d-(c+d).a
y = 3z
* = 6z
y = m
इसी प्रकार का प्रश्न भास्कर द्वितीय के ग्रंथ में भी दिया गया है । " एक व्यक्ति ने कहा कि यदि तुम मुझे 100 रुपये दो तो मैं तुमसे दुगुना अमीर हो जाऊंगा। दूसरे ने कहा कि यदि तुम मुझे 10 रुपये दो तो मैं तुमसे छः गुना अमीर हो जाऊँगा । प्रत्येक के पास कितनी पूँजी थी ?"
[1, q 137-138] प्रश्न तीन अज्ञात
महावीराचार्य के ग्रंथ के 6-वें अध्याय में श्लोक संख्या 90/- - 12 का यह निम्नलिखित
91
2
राशियों वाली तीन समीकरणों की पद्धति से हल होता है ।
xm.
"अनार, आम और सेब, प्रत्येक के 3 नगों का मूल्य 2 पन, 5 नगों का 3 पन और 7 नगों का 5 पन है। गणित जानने वाले मेरे मित्र जल्दी से यह बताओ कि 76 पन में कितने फल खरीदोगे जिसमें आम सेब से 3 गुना और अनार से 6 गुना अधिक हों।" प्रश्न के हल के लिए समीकरण इस प्रकार है :
[ 2 x + 3
z=76
y +
'm
5 7
[9, V1, 268 --- 269 -- 1.
2
(
x, y, z - क्रमश: अनार, आम और सेब की संख्या बताते हैं । यह पद्धति बड़ी आसानी से एक अज्ञात राशि वाले समीकरण में बदली जा सकती है ।
2282660
2
1층
इस प्रश्न का उत्तर है :- कुल खरीदे गये अनार, आम और सेबों की संख्या क्रमश: 70, 35 और 11
है।
८१
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द्विघात समीकरण महावीराचार्य के ग्रन्थ में द्विघात समीकरण पर अलग से कोई अध्याय नहीं है। फिर भी कई प्रश्नों का हल केवल द्विधात समीकरणों के मूल ज्ञात करने से निकल सकता है। इस तरह का एक प्रश्न है : “ऊंटों के झुंड का - भाग जंगल में है, 15 ऊँट नदी के किनारे और शेष ऊँट जो कुल संख्या के वर्गमूल का दुगुना हैं, पहाड़ी पर हैं । ऊँटों की संख्या क्या है ?" [9, IV, 34].
झुंड में ऊँटों की संख्या x मानने पर निम्नलिखित समीकरण प्राप्त होगा :
x+20
+15=x.
अथवा
+cv x + p=x
या फिर,
(1-2)x-ef x =p
महावीराचार्य इस द्विघात समीकरण को निम्नलिखित नियम से हल करते हैं : "वर्गमूल के गुणांक के आधे भाग और मुक्त पद को भिन्न रहित इकाई में विभाजित करना चाहिए। इस प्रकार प्राप्त मुक्त पद के वर्ग के कुल योग के वर्गमूल को प्राप्त गुणांक में जोड़ना चाहिए । इस राशि का वर्ग ही अज्ञात राशि है। मूल संबंधी प्रश्नों को हल करने की रीति यही है।
[9, IV, 33] इस नियम के अनुसार हल इस प्रकार निकलेगा :
2
(2
+N
)
+_P
+ P
ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्मगुप्त को भी ज्ञात था कि द्विघात समीकरण के दो मूल होते हैं। टीकाकार पृथुदकस्वामी (सन् 860) के अनुसार इस प्रश्न पर निर्भर करता है कि मूल को जोड़ा जाए या घटाया जाए।
[6, खंड 2, पृष्ठ 75). परंतु ब्रह्मगुप्त के ग्रन्थ में मूलों के इस दोहरे अर्थ का उल्लेख नहीं है ।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, महावीराचार्य को वर्गमूलों के दोहरे अर्थ मालूम थे। इसका उपयोग निम्नलिखित प्रश्न को हल करने के नियम में किया गया है :
“मोरों के झुंड का - वां भाग, जो अपनी ही संख्या से गुणा किया हुआ है, आम के पेड़ पर बैठा है। शेष का
- वाँ भाग, स्वयं की संख्या से गुणा किया हुआ अन्य 14 मोरों के साथ 'तमाल' के पेड़ पर है। मोरों की कुल संख्या क्या है ?
[9, IV, 59] मोरों की कुल संख्या यदि हम x मान लें तो निम्नलिखित समीकरण प्राप्त होगा :
x x + 15x15x + 14=x.
या सामान्य रूप में.
ax - x + p= 0.
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इस तरह के समीकरण को हल करने का नियम है :- "अपने ही अंश से विभाजित हर तथा मुक्त पद के चौगुने के अंतर को इस हर से, जो कि अंश से विभाजित हो, गुणा किया जाता है। इसके वर्गमूल को अंश से विभाजित इस हर से जोड़ा और घटाया जाता है। इसका आधा ही अज्ञात राशि है।"
[9, IV,57]
इस तरह,
___b
//b -4p)
H
2 कुछ परिस्थितियों में जबकि द्विघात समीकरण के मूलों में से कोई एक मूल प्रश्न के उपयुक्त नहीं होता है, महावीराचार्य केवल वही मूल चुनते हैं जिसके द्वारा सही हल प्राप्त किया जा सकता है।
उच्चतम क्रम के समीकरण कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका हल एक अज्ञात राशि वाले द्विघात समीकरणों से उच्चतर समीकरणों के द्वारा निकलता है। जैसे ज्यामिति श्रेढ़ी के हर 'q' को ज्ञात करने के लिए समीकरण को हल करना होगा।
S = aq"
श्रेढ़ी का हर , V के बराबर है।
q=VE
[9, II, 97]
N-घात के मूल निकालने के नियम महावीराचार्य ने नहीं दिये हैं। स्पष्टतः ऐसे मूलों की एक चुनी हुई सूची दी जाती थी। "ज्यामिति श्रेढी का पहला पद 3 है, कुल पदों की संख्या 6 है और योगफल है 4095 । ज्यामिति धेढ़ी का हर क्या है ?" [9, 11, 102] यह प्रश्न पंचम घात के समीकरण से हल होता है।
xi =4095
3 (x + x + + x + x + 1)= 4095. यह समीकरण निम्नलिखित नियम से हल किया जाता है। “योगफल को पहले पद से विभाजित करो। प्राप्त भागफल में से प्रत्येक बार एक इकाई घटाओ। इस संख्या में जितने का भाग दिया जाएगा वही संख्या ज्यामिति श्रेढ़ी का हर होगी।" [9, 11, 101j.
वास्तव में यदि घेढ़ी के हर को x मानें तोn-1 घात का समीकरण इस प्रकार होगा:
"-1 x-1-S.
दोनों भागों को पहले पद से विभाजित करने पर और उसमें घटाने पर निम्नलिखित समीकरण प्राप्त होता है :
x से काटने पर और 1 घटाने पर जो समीकरण बना वह इस प्रकार है :
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श्रढ़ी का अजात हर जिससे अनुक्रम राशि S, S, S, ......S...., को विभाजित किया जाता है, वरण सिद्धांत के द्वारा ज्ञात हो सकता है। इस उदाहरण में x24.
चौथे अध्याय के श्लोक संख्या 54-55 में एक बहुत रोचक प्रश्न दिया गया है । "जंगल में काम कर रहे हाथियों की संख्या है : कुल हाथियों की संख्या के 2 भाग के वर्गमूल के 9 गुणे और शेष हाथियों की संख्या के 1 के वर्गमूल के 6 गुणे का योग । अब यदि इस संख्या में 24 और जोड़ा जाये तो हाथियों की कुल संख्या ज्ञात हो सकती है। वह संख्या क्या है ?
यदि मान लें कि हाथियों की कुल संख्या : हो तो चौथे घात का निम्नलिखित समीकरण प्राप्त होता है :
2+6 V3 (x--913) + 24=x. महावीराचार्य के अनुसार इसका हल निकालने के लिए दो द्विघात समीकरणों का आश्रय लेना पड़ता है। यदि _y = x-9 V3 x, हो तो द्विघात समीकरण होगा
y-6/3y =24.
1 = 60; y. =3 के मूल्य को पहले समीकरण में रखने पर निम्नलिखित समीकरण प्राप्त होता है :
x = 150; X = 24.
द्विघात समीकरण,
0
के पूर्ण मूल नहीं हैं । केवल x = 150 ही उपयुक्त है।
चौथे अध्याय के 56 वें श्लोक में दिया गया प्रश्न ४ घात के समीकरण से हल होता है। "सुअरों की एक निश्चित संख्याझुंड के - भाग के वर्गमूल की चौगुनी-जंगल में है। झुंड का एक हिस्सा-शेष संख्या के -- भाग के वर्गमूल के दुगुने का 4 गुना-पहाड़ी पर है। दूसरे हिस्से के सुअर नदी की तरफ जा रहे हैं जिनकी संख्या है शेष के आधे के वर्गमूल का 9 गुणा। इसके अलावा झुंड में 56 सुअर और हैं। कुल कितने सुअर हैं ?"
सुअरों की कुल संख्या को . मानते हुए समीकरण बनेगा :
+Vs+8 Vi(r-V) +9 VH[:-4 V -8 VI(x-4 Vi)] + 56=x.
महावीराचार्य के अनुसार, इस समीकरण का क्रमिक हल तीन द्विघात समीकरणों से निकलता है।
यदि yox-4V,
SY
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तो, ७ –8V -
-8
10
यदि 2
तो 2
9
56.
अंत में x का मान निकला 200.
a1=
a1
=y-8
भेदी
भारतीय गणित साहित्य में अंकगणित श्रेढ़ी और ज्यामिति श्रेढ़ी का प्रमुख स्थान रहा है। कुछ तरह के प्रश्न असाधारण तौर पर लोकप्रिय हुए जैसे शतरंज के आविष्कार से संबंधित प्रश्न, जिससे कि ज्यामिति श्रेढ़ी के योगफल निकाले गये जिनमें हर का मान संख्या 2 था। यही नहीं, इस तरह के ज्यामिति श्रेढ़ी के योगफल निकालने संबंधी प्रश्नों का उल्लेख प्राचीन चीनी ग्रन्थ "गणित के नौ अध्याय" में भी है।
a1 =
भेड़ी का उल्लेख बहुत सी गणित की पुस्तकों तथा नवविद्या के ग्रन्थों के गणित संबंधी अध्यायों में मिलता है। इन प्रत्थों में कभी-कभी श्रेढ़ी के नियम और प्रश्न इतनी अधिक मात्रा में हो जाते थे कि उनके लिए “श्रेढ़ी व्यवहार" का एक विशेष खंड अलग से दिया
जाता था।
d=
अंकगणित श्रेढ़ी के प्रश्नों को हल करने के नियम महावीराचार्य के अनुसार इस प्रकार थे : -
d.n
जैन प्राच्य विद्याएं
S
S
n
2.s
n
S
n
1
V
7-1
2
2
n
-
a
- (n-1). d,
2
=
10
S=
S =
9
V = (-8 V)
10
d
S=
70
25
n
1
2
अंकगणित श्रेढ़ी के योगफल और पदों की संख्या ज्ञात करने के नियम, जो उनसे पहले के गणितज्ञों ने बनाए थे, महावीराचार्य ने इस प्रकार दिये हैं:
:
[
-2a
}
[(n-1)d+2a ] n.
2
√
d+as
a1tan
2
=56.
n,
2ds+
d
-a
+11+1++--
d
d
2
[9. II, 73]
[9,11,74]
[9.11.76]
[9, 11, 75]
[9, II, 61] [9.11.62]
[9, II, 64]
[9.111.33]
८१.
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निम्नलिखित नियम बहुत ही रोचक ढंग से बनाया गया है। किसी भी संख्या वाले अंकगणित श्रेढ़ी के पदों के पहले पद के लिए संख्या 1 ली जाती है। पहले पद से घटाई हुई पदों की संख्या को पदों की संख्या और | के अंतर के आधे से विभाजित करने पर जो संख्या प्राप्त होती है उसे श्रेढ़ी का अंतर मान सकते हैं। योगफल पदों की कुल संख्या के वर्ग के बराबर हआ। यह संख्या, जिसे पदों की संख्या से गूणा किया जाता है, पदों की संख्या के धन के बराबर होती है। 19,31C, 33]
स्पष्टतः यहाँ महावीराचार्य अंकगणित श्रेढ़ी की बात कर रहे हैं।
S=
"(2k-1)=n',
k-11
S.n=n.nns. ज्यामिति श्रेढ़ी के नियम और प्रश्न आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त के ग्रन्थों में नहीं मिलते हैं। ज्यामिति श्रेढ़ी के योगफल और पद निकालने के नियम सबसे पहले महावीर ने दिये । उसके बाद श्रीधर और भास्कर द्वितीय ने इन्हें इस प्रकार प्रस्तुत किया :-- an+1=a.g"
[9, II. 93]
S
aq"-a
-1 महाबीराचार्य के ग्रंथ में इन नियमों और उनके विविध प्रकारों के उदाहरण दिये गये हैं।
संचय विन्यास छठे अध्याय के 218वें श्लोक में मिश्रित संख्याओं के संचय ज्ञात करने का सूत्र दिया गया है जो इस प्रकार है :
_ n(n-1) (n-2)...[n-(m-1)]
1.23...m इसी नियम के 3 उदाहरण हैं जिनमें से एक इस प्रकार है :-"हीरा, नीलम, पन्ना, मंगा और मोतियों के विविध प्रकार के कितने हार बनेंगे?"
[9, VI, 220] ऐसा ही सूत्र और ऐसे ही उदाहरण श्रीधर और नारायण ने भी दिये हैं।
संख्या शृखलामों का योगफल छठे अध्याय में महावीर ने संख्या शृंखला के योगफल निकालने के कुछ नियम दिये हैं। प्राकृतिक संख्या शृंखला के वर्गों का योग फल इस प्रकार हुआ :
E = 2 (n+yz Cr102
[9, IV, 296]
9,1, 296]
अंकगणित श्रेढ़ी के पदों के वर्गों का योगफल है :
Eu+k-1) dly = { [(2n=14+ +ad ] (n-1) +a }
[9, V1, 298]
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प्राकृतिक संख्या शृंखला के घनों का योगफल इस प्रकार है :
Ta = (") (n+1).
[9, VI, 301]
अंकगणित श्रेढ़ी के पदों के घनों का योगफल है :
[a+(k-1)d] =Sata-d)+Sd,
[9, VI, 303]
इसमें S का मान इसी श्रेढ़ी के पदों का योगफल है।
पहली । प्राकृतिक संख्या शृंखला के वग और धनों को निकालने की विधि का उल्लेख आर्यभट्ट प्रथम से लेकर नारायण आदि सभी भारतीय आचार्यों के ग्रंथों में मिलता है। यह विधियाँ बावीलोन और मित्र के निवासियों, नानियों और चीन के लोगों को भी ज्ञात थीं। बाद में इन विधियों का उल्लेख अरब और पश्चिम यूरोप के गणित साहित्य में भी मिलता है। यही नियम बाद में श्रीधर और नारायण के ग्रन्थों में भी मिलते हैं। [4, पृ० 233, 255]
संख्या सिद्धांत भारतीय गणितज्ञों ने संपूर्ण धन संख्याओं की एल्गोष्मि विधि बनाई जिसका उद्देश्य पहले और दूसरे घात के अनिश्चित समीकरणों का हल निकालना था। महावीर के अनुसार संपूर्ण धन संख्याओं के अनिश्वित समीकरणों को हल करने का नियम इस प्रकार है :axtC=by
[9, VII, 1152 , 13671 हल निकालने की यह विधि आर्यभट्ट प्रथम, ब्रह्मगुप्त और भास्कर द्वितीय के नियमों पर आधारित है। यह विधियाँ विस्तारपूर्वक युश्क्येविच की पुस्तक में दी गई हैं। (1, पृ० 144-147)
सामान्य नियमों के अलावा महावीर ने कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में हल निकालने की विधि भी बताई।
"दो सोने की छड़ों में, जिनका भार क्रमशः 16 और 10 है, सोने की मात्रा अज्ञात है। लेकिन दोनों को मिला देने पर सोने की मात्रा 4 है । प्रत्येक छड़ में सोने की मात्रा क्या है ?" [9, VI, 188]
यह प्रश्न निम्नलिखित अनिश्चित समीकरण में बदला जा सकता है :16x+10y-4 (16+10) यहाँ x और ' छड़ों में सोने की मात्रा है। सामान्य समीकरण इस प्रकार हुआ,
ax+by=c (a+b) या,
a(x-c)=bc-) इनका हल है,
* =c+
y=c : इस समीकरण को हल करने का नियम इस प्रकार है :
"सोने को दो अलग-अलग स्थानों पर रखें । छड़ों में सोने के ज्ञात भार को एक से विभाजित करके बारी-बारी से एक घटाने और एक जोड़ने पर सोने की मात्रा ज्ञात की जा सकती है।" इससे आगे महावीर लिखते हैं कि यदि स्वेच्छ मंख्या को पहली छड़ में सोने की मात्रा मानें तो दूसरी छड़ में सोने की मात्रा पहले की तरह मालूम की जा सकती है। [9, VI, 189] जैन प्राच्य विद्याएँ
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प्रतिशत, कप, विक्रम और कुछ दूसरी प्रकार के प्रश्नों के लिए अज्ञात पदों वाले रैखिक समीकरण प्रयोग में लाये जाते हैं। छठे अध्याय के 160 से 162वें श्लोकों में दिये गये प्रश्न से निम्नलिखित समीकरण बनता है :
Xx+*g+*g+xq=a+b«
यहाँ a, b, c, d - ज्ञात राशियाँ हैं। महावीर के अनुसार इस प्रश्न
का हल इस प्रकार है
८५
a,
a,
a2 Apt
यहाँ स्वेच्छ संख्या है।
P
- p2,
_a+b+c+d 3
Xg
a+b+c+d
X1=
m2n2 ma+n2*
_a+b+c+d 3
c,
Xg=
आर्यभट्ट प्रथम और नारायगं द्वारा दिये गये हल भी ऐसे ही हैं । ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दि के मध्य में लिखे गये “रज्जू नियमों में समीकरण +2 के परिमेय हल दिये गये हैं। संपूर्ण संख्याओं के हल सबसे पहले ब्रह्मगुप्त और फिर महावीर ने निकाले, जो इस प्रकार है :
p2q2, 2pg, p±+q2. यहाँ pg स्वेच्छ संख्याएँ हैं जो कि प्राचीन यूनानियों के भी पहले ज्ञात थीं। दो और तीन तत्त्वों से एक आकृति बनाओ !"
a+b+c+d 3
समीकरण x2 +a±=z के परिमेय हल महावीर के अनुसार इस प्रकार हैं :
(S) (5+0)
p2
a+b+c+d 3
x4=
a2
Api + pe
a
.b
2
C
d
समीकरण x 2 + y = c2 के परिमेय हल इस प्रकार हुए :
p√-p4, c
P.Vc2-p2, c.
चूंकि संख्या का चुनना कठिन न था इसलिए महावीर ने एक और हल ढूंढ निकाला।
2mn ma+ne
c, c.
सातवें अध्याय के 112 वें श्लोक में महावीर ने समीकरण प्रणाली
1121
{
[9, VII 159]
[9, V11. 9221
OVERM
95
VII.
[9, VII, 122421
mx+ny+prxy को हल करने की विधि बताई। यहाँ m. p. (0) स्वेच्छ संख्याएं हैं।
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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यदि तीनों राशियाँ, जो कि x +yi- समीकरण के उपयुक्त हों, तब समीकरण इस प्रकार होगा :
mxz+ny, +pz=R इस स्थिति में प्रणाली का हल इस प्रकार है :
xxl_R - R
R
rxv1
y=Y1 rx1y1
ZlR
xiy इसी विधि से महावीर निम्नलिखित प्रश्न हल करते हैं। "एक आयत का क्षेत्रफल उसके परिमाप के बराबर है। उसकी भजाओं का माप बताओ।" [9, VII, 115] “एक आयत का क्षेत्रफल उसके विकर्णों के माप के बराबर है। उसकी भुजाएँ किसके बराबर हैं ?"
[9, VII, 11511 पहले प्रश्न में प्राप्त समीकरण प्रणाली इस प्रकार है :
Sx+y==
। 2x+2y=xy, दूसरे में,
S xi+yl=z
z=xy a-b2, 2ab, t+b° को पाइथेगोरस संख्याएँ मानते हुए पहली समीकरण प्रणाली का हल इस प्रकार होगा :
2 (a-b)+4ab 2(a-b2)+4ab 2ab
-
2 (a-b)+4ab
.
2ab (d-b3)
(2-2),
और दूसरी प्रणाली का हल,
a+be d +bp (a+b) 2ab , -
b 2ab (a-b2) महावीर, भास्कर द्वितीय और नारायण ने कई उदाहरण दिये हैं जो कि तीसरे घात के अनिश्चित समीकरण बनाते हैं। उदाहरण के लिए, महावीर के अनुसार अंकगणित श्रेढ़ी के योगफल से पहले पद, पदों की संख्या और श्रेढ़ी का अंतर ज्ञात किया जा सकता है । इस प्रश्न का हल 3 अज्ञात राशियों वाले अनिश्चित समीकरणों से प्राप्त होगा ।
_s= [+ dy-1)]...
हल करने का नियम इस प्रकार है :
योगफल को उसके किसी भी भाजक से, जो कि पदों की संख्या होगा, विभाजित करो। स्वेच्छ संख्या को भागफल से घटाओ, घटाने पर जो संख्या आएगी वह पहला पद होगी। प्राप्त अंतर कुल पदों की संख्या के आधे से विभाजित, जो कि 1 से घटाया गया , श्रेढ़ी का अंतर कहलाता है। [9, VII,78] जैन प्राच्य विद्याएं
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क्षेत्रफल का माप ज्यामिति के अध्याय के आरंभ में महावीर लिखते हैं कि क्षेत्रफल का माप दो प्रकार का होना चाहिए-व्यावहारिक आवश्यकताओं के लिए सन्निकट पाप और यथार्थ माप ।
गणित में पारंगत विद्वान कई प्रकार की आकृतियों से परिचित हैं जिनमें त्रिकोण, चतुर्भुज और वक्र देखाओं से बनी आकृतियाँ शामिल हैं। [9, VII, 2-3]
इसके बाद आकृतियों के प्रकार का विवरण दिया गया है जैसे, त्रिकोण तीन प्रकार के होते हैं, चतुर्भुज 5 प्रकार के और वक्र रेखाओं से बनी आकृतियाँ 8 प्रकार की होती हैं । बाकी सभी आकृतियाँ इन्हीं आकृतियों से बनती हैं। गणितज्ञों के अनुसार त्रिकोण तीन प्रकार के होते हैं-समबाहु, समद्विबाहु और विषमबाहु । चतुर्भुज समबाहु, दो बराबर भुजाओं वाले, दो विपरीत बराबर भुजाओं वाले, तीन बराबर भुजाओं वाले और विषमबाहु होते हैं। वृत्त, अर्धवृत्त, आयतवृत्त, कम्बुकावृत्त, निम्नवृत्त, उन्नतवृत्त, बाह्य वलय और भीतरी वनय-यह वक्र रेखाओं से बनी आकृतियों के प्रकार हैं। [9, VII, 4-6 |
इसके बाद महावीर ने प्रत्येक सन्निकट और यथार्थ आकृतियों के लिए सूत्र बनाए ।
त्रिकोण और चतुर्भुज के सन्निकट क्षेत्रफल ज्ञात करने का नियम इस प्रकार है-“विपरीत भुजाओं के योगफल के आधे का गुणनफल, त्रिकोण और चतुर्भुज के क्षेत्रफल के बराबर होता है। [9, VIL, 7] ब्रह्मगुप्त ने त्रिकोण और चतुर्भुज के क्षेत्रफल ज्ञात करने के लिए सन्निकट सूत्र बनाये जो क्रमशः इस प्रकार हैं :
s=2 और, s= at bd चतुर्भुज का सन्निकट क्षेत्रफल ज्ञात करने का सूत्र मिस्र के विद्वानों को भी ज्ञात था। इसी सूत्र के लिए महावीर ने 11 उदाहरण दिये हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं :"एक त्रिभुज की पार्श्व भुजा, विपरीत भुजा और आधार का माप है 8 दंड । बताओ उसका सन्निकट क्षेत्रफल क्या है ?"
[9, VII, 8] "दो समान भुजाओं वाले एक त्रिभुज की समान भुजाओं की लंबाई है 77 दंड । आधार की लंबाई है 22 दंड और 2 हस्त । त्रिभुज का क्षेत्रफल क्या है ?" [9, VII, 9]
“3 समान भुजाओं वाले एक चतुर्भुज की प्रत्येक समान भुजा का माप 100 दंड है. आधार का माप है 8 दंड और 3 हस्त। चतुर्भुज का क्षेत्रफल बताओ।" [9. VII, 15] चतुर्भुज का यथार्थ क्षेत्रफल है. S== p-a) (p-b)(p-C) (p-d).
[9, VII, 50]
Sa+c
चित्र : 1
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
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महावीर कहते हैं कि यदि चतुर्भुज विषमबाहु है तब दूसरे सूत्र का उपयोग नहीं किया जा सकता । पहला सूत्र ब्रह्मगुप्त और श्रीधर ने दिया। [4, पृ० 239]
छठे अध्याय के 84वें श्लोक में चतुर्भुज के विकर्ण निकालने के सूत्र दिये गये हैं।
विकर्ण ==
tac + bd) kab+cd)
ad + bc
विकर्ण-
/fac-+-bd iad+bc)
[9, VII, 54]
ab+cd
यह सभी सूत्र चक्रीय चतुर्भुजों के लिए उपयुक्त हैं । इन सूत्रों को समझने के लिए निम्नलिखित उदाहरण दिये गये हैं :
"एक समान भुजाओं वाले चतुर्भुज की भुजाओं का माप 5 है। बताओ कि विकर्ण का माप और यथार्थ क्षेत्रफल क्या है ?" [9, VII, 55]
"तीन समान भुजाओं वाले एक चतुर्भुज की प्रत्येक भुजा का माप है 13 का वर्ग, और आधार 407 है। विकर्ण, ऊँचाई और क्षेत्रफल बताओ।" [9, VII, 58]
“एक वृत्त की परिधि का माप उसके व्यास का 3 गुना है। उसके अर्धव्यास के वर्ग का तिगुना वृत्त का क्षेत्रफल है। गणितज्ञों के अनुसार अर्धवृत्त का क्षेत्रफल और अर्धपरिधि का माप उपयुक्त परिणामों का आधा होता है।" [9, VIL, 19]
इस तरह,
1=3d, S =
...d..
चित्र : 2 यहां T 2 3 है। यदि 12/10 हो तो महावीर सही सूत्र इस तरह बताते हैं :1 = + lode, S = /10 (1)
[9, VII, 60] बहुत-से उदाहरण इन्हीं सूत्रों से हल किये जाते हैं । आयतवृत्त का परिमाप और क्षेत्रफल निकालने का नियम इस प्रकार है :-लघुव्यास के आधे से बढ़ाया हुआ और 2 से गुणा किया हुआ दीर्घव्यास ही आयतवृत्त का परिमाप होता है। परिमाप में गुणा किया हुआ लघुव्यास का चौथा भाग आयतवृत्त का क्षेत्रफल होता है। [9, VIL,21]
चित्र : 3
जन प्राच्य विद्याएं
३१
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क्षेत्रफल होगा
दीर्घव्यास को और लघुव्यास को 6 मानते हुए महाबीर के अनुसार परिमाप हुआ 20 +6, और आयतवृत्त का
b
(2a+b)
4
परिमाप और क्षेत्रफल निकालने के सही सूत निम्नलिखित नियम से प्राप्त किये जा सकते हैं
"लघुव्यास के वर्ग के छः गुने और दीर्घव्यास के वर्ग के दुगुने को जोड़ो। इसका वर्गमूल वृत्त के परिमाप के बराबर हुआ । परिमाप को लघुव्यास के चौथे भाग से गुणा करने पर आयतवृत्त का सही क्षेत्रफल निकाला जा सकता है। [9, VII, 63]
1=V6b* +-4a2
s=N
6b2+4a2
यह स्पष्ट है कि आयतवृत्त का क्षेत्रफल निकालने का सूत वत्त के क्षेत्रफल निकालने के सूत्र से ही बना है ।
d
4
S===
२
1,
वृत्त की परिधि और आयतवृत्त की परिधि निकालने के सूत्रों में भी साम्य है ।
1= √ 10d2 = N6d2 +4ds.
-
महावीर निम्नलिखित उदाहरण देते हैं।
" एक आयतवृत्त के दीर्घव्यास की लंबाई है 36 और लघुव्यास की लंबाई 12 है। उसका परिमाप और क्षेत्रफल बताओ ।" [9. VII. 64]
म० रंगाचार्य [9] और उनके बाद जी० सारठीन [8, खंड 1, पृष्ठ 570] के अनुसार एक आयतपुरा दीर्घवृत ही होता है। इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं हुआ जा सकता है ।
सीप के आकार की आकृति (कम्बुकावृत) का, जो कि दो जुड़े हुए विभिन्न व्यास वाले अर्धवृत्तों से बनती है, सन्निकट परिमाप और क्षेत्रफल वृत्त के लिए बने नियमों से निकाले जा सकते हैं ।
-:
8
चित्र: 4
3
" अधिकतम चौड़ाई से सीप के मुंह की चौड़ाई का आधा घटाने पर और 3 से गुणा करने पर आकृति का परिमाप ज्ञात होता है । इस परिमाप के आधे के वर्ग के एक तिहाई को यदि सीप के मुंह की चौड़ाई के आधे के वर्ग के से गुणा किया जाय तो सीप का क्षेत्रफल ज्ञात होगा ।" [9, VII, 23]
4
अधिकतम चौड़ाई अर्थात् दीर्घवृत्त के व्यास को व और सीप के मुंह की चौड़ाई को 6 मानते हुए परिमाप होगा,
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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1=3(a- th),
और क्षेत्रफल,
इस सूत्र के लिए निम्नलिखित उदाहरण दिया गया है : 'सीप के दीर्घव्यास का माप है 18 हस्त और सीप के मंह की चौड़ाई है 4 हस्त। उसका परिमाप और क्षेत्रफल बताओ।"
[9, VII, 24] यदि TRV10 हो तो सही सूत्र इस प्रकार होगा,
___= ( 4-1 ) 0
SE
| 4/62
4)
V 10
[9, VII, 65
निम्न और उन्नत वृत्त की सतह (जैसे कि यज्ञ-कुण्ड और कछुए की पीठ की सतह होती है) का क्षेत्रफल निकालने का सूत्र है :-"परिधि के एक चौथाई को यदि व्यास से गुणा किया जाये तो निम्न और उन्नत वृत्त की सतह का क्षेत्रफल ज्ञात होता है।"
[9,VII,25]
चित्र:5
यह सत्र आयत या चपटे गोलार्ध के लिए है क्योंकि सामान्य गोलार्ध का क्षेत्रफल होगा
चित्र: 6
जैन प्राच्य विद्याएँ
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भीतरी और बाहरी वलय के क्षेत्रफल इस प्रकार होंगे :-"भीतरी व्यास को वलय की चौड़ाई से जोड़ने पर और फिर 3 तथा वलय की चौड़ाई से गुणा करने पर बाहरी वलय का क्षेत्रफल ज्ञात होता है। यदि व्यास से वलय की चौड़ाई को जोड़ने की बजाय घटाया जाए तो भीतरी वलय का क्षेत्रफल प्राप्त होगा।" [9, VIL, 28]
Sबाहरी =3 (d + a) a
भीतरी = 3 (d-a) a यहाँ d = व्यास, a = वलय की चौड़ाई और 63 है। यदि II10 हो तो यथार्थ क्षेत्रफल ज्ञात किया जा सकता है।
___[9. VII, 671 जौ, मुरज, पणव और वज्र की तरह की आकृतियों का क्षेत्रफल प्राप्त करने के लिए उनके मध्य भाग की चौड़ाई और किनारों से ली गई चौड़ाई के योग के आधे को लंबाई से गुणा किया जाता है। [9. VII, 32]
आकार क्षेत्र (यवाकार क्षेत्र)
मुरजाकार क्षेत्र
'epHo
мураджа
पण्वाकार क्षेत्र
>
बयाकार क्षेत्र
वज्राकार क्षेत्र
панава
ваджра
चित्र:7 यदि a = आकृति के मध्य की चौड़ाई, a = एक किनारे से ली गई चौड़ाई और b = लंबाई हो तो
s-4 + boy
2
अर्थात् सभी आकृतियाँ आयताकार रूप में बदल दी जाती हैं जिनमें प्रत्येक की औसत चौड़ाई और आरंभिक लंबाई ली जाती है।
यह नियम और चतुर्भुज का क्षेत्रफल ज्ञात करने के नियम में परस्पर संबंध है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह दोनों ही नियम समान परिस्थितियों में बनाये गये हैं। श्रीधर कृत "पतिगणित" के एक अज्ञात टीकाकार ने वज्र के आकार की आकृति को दो बराबर समलंबों के रूप में दिखाया है जो कि एक दूसरे के साथ निम्नतम आधारों के द्वारा जुड़े हैं। [4, पृष्ठ 238].
चार उदाहरण इसी नियम के लिए दिये गये हैं। "जौ के आकार की आकृति की लंबाई है 80, और मध्य भाग की चौड़ाई 40 है। जौ का क्षेत्रफल क्या होगा ?" [9, VIL, 33]
"मुरज के आकार की आकृति का क्षेत्रफल बताओ यदि उसकी लंबाई 80 दंड, किनारों से ली गई चौड़ाई 20 दंड और मध्य भाग की चौड़ाई 40 दंड हो।" [9, VIL, 34].
"पणव के आकार की आकृति का क्षेत्रफल क्या होगा यदि उसकी लंबाई है 77 दंड, दो किनारों में से प्रत्येक से ली गई चौड़ाई हो 8-8 दंड, और मध्य भाग की चौड़ाई हो 4 दंड।" [9, VII, 35] “यदि वज्र के आकार की आकृति की लंबाई है 96 दंड, मध्य भाग सुई की नोक के बराबर है और किनारों से ली गई
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चौड़ाई है 13 दंड तो उसका क्षेत्रफल बताओ ।" [9, VII, 36]
3
"धनुष के समान आकृति का क्षेत्रफल बान और प्रत्यंचा की लंबाई को जोड़ने और फिर बाण की लंबाई के आधे से गुणा करने पर प्राप्त होता है बाग की लंबाई के वर्तमूल के पांच गुने में प्रत्यंचा की लंबाई के वर्ग को जोड़ने से धनुष की लंबाई पता चलती है ।" [9, VII, 43]
इस सूत्र में वृत्त 'खंड और इसी वृत्तखंड से प्राप्त जीवा की लंबाई प्राप्त करने के सन्निकट सूत दिये हुए हैं जहां धनुष, प्रत्यंचा, बाण क्रमशः वृत्त के चाप, जीवा और व्यास के खंड हैं । व्यास का यह खंड वृत्तखंड के भीतर होता है और जीवा पर लंग लोग है।
चित्र : 8
"धनुष और प्रत्यंचा की लंबाई के वर्गों का अंतर पाँच से विभाजित करने पर और फिर इसका वर्गमूल निकालने पर बाण की लंबाई ज्ञात करने के लिए बाण की लंबाई के वर्ग को 5 से गुणा करके, धनुष की लंबाई के वर्ग से घटाओ और फिर इस अंतर का वर्गमूल निकालो।" [9. VII. 45
reis = (a + h). ~/.
S वृत्त
1 = √ Sh2 + 2,
2'
12
a=
-
h=v
a == √ 12
5h 2,
1, a, h क्रमश: चाप, जीवा और व्यास का खंड हैं।
इन सूत्रों से निम्नलिखित प्रश्न हल किये जा सकते हैं,
h
a2
5
"धनुष के समान आकृति में प्रत्यंचा की लंबाई है 26 और बाण की लंबाई 13 है । क्षेत्रफल और धनुष की लंबाई बताओ।" [9. VII, 44 ].
"यदि इसी धनुष के बाण की लंबाई अथवा प्रत्यंचा की लंबाई अज्ञात हो तो दोनों का मान बताओ ।" [9, VII 46] सही सूत्र इस प्रकार होंगे,
1 = V6h2 + a 2, h = V 12
a2
6
√ 12 6h2,
S वृतखंड=2" √ 10
"पहिए के रिम की जैसी आकृति का क्षेत्रफल भीतरी और बाहरी परिधि के जोड़ के आधे को पहिए की पीड़ाई से गुणा करने पर ज्ञात होता है । इसका आधा अर्धचंद्र आकृतियों का क्षेत्रफल होगा. [9. VII. 721
जैन प्राच्य विद्याएँ
70/1/
[9, VII, 70.
73/1/
74 - 1
६५
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चित्र :9 यदि 1, I, और a क्रमश: भीतरी परिधि, बाहरी परिधि और पहिए की चौड़ाई हों तो क्षेत्रफल होगा,
[9, VII, 803
महावीर सही क्षेत्रफल दूसरी तरह से प्राप्त करते हैं ।
s = + a / 10.
यदि 1=3d हो तो ऊपर दिया गया सूत्र आसानी से समझा जा सकता है ।
"एक वृत्त का क्षेत्रफल व्यास के वर्ग से घटाने पर उस आकृति का क्षेत्रफल प्राप्त होता है जो कि चार बराबर परस्पर सटे हुए वृत्तों के भीतरी भाग में बनती है। [9. VII, 82
इस तरह, यदि d= व्यास हो तो वक्र आकृति ABCD का क्षेत्रफल होगा,
वास्तव में, d= वर्ग EFGH का क्षेत्रफल है, -4 4 बराबर वक्र आकृतियों (AEB, BFC, CGD,DHA) का क्षेत्रफल है। यह आकृतियाँ क्रमशः AOB, BOC, COD और DOA के बराबर हैं अर्थात् यह क्षेत्रफल उन चार बराबर परिधियों वाली भीतर बनी आकृतियों का है जो एक दूसरे को छू रही हैं।
निम्नलिखित उदाहरण इस सूत्र से हल किया जाता है : 'यदि वृत्तों का ब्यास 4 हो तो चार समान परस्पर सटे हुए वृत्तों के बीच के भाग की आकृति का क्षेत्रफल बताओ।"
9. VII, 83
]
आचार्यरत्न श्री देशमूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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चित्र : 10 महावीर के ग्रन्थ के आठवें खंड में परम्परा से चली आ रही भारतीयों की गणना करने की कला का विवरण है जो कि कई कार्यों से संबंधित हैं, जैसे कुआँ खोदना, लकड़ी की चिराई, शहतीरों के ढेर में उनकी कुल संख्या ज्ञात करना, आदि । इसी संदर्भ में प्रिज्म और गोले के आयतनों का भी उल्लेख किया गया है। प्रिज्म के आकार में खोदे गये एक गड्ढे का आयतन उसके आधार के क्षेत्रफल को गहराई से गुणा करने पर प्राप्त होगा। चोटी से आधार तक की ऊँचाई को इस आयतन में जोड़ने पर और उसे मापों की संख्या से विभाजित करने पर प्रिज्म के आयतन का औसत मान प्राप्त होता है। [9, VIII, 4].
इसी सूत्र से हल होने वाले चार प्रश्नों में से एक निम्नलिखित है। "एक गड्ढे के आधार का आकार त्रिकोण है। इस त्रिकोण की प्रत्येक भुजा का माप 32 हस्त और गहराई 36 हस्त और 6 अंगुल है । आकृति का आयतन बताओ। [9, VIII, 6]
गोले का आयतन निम्नलिखित सूत्र से निकाला जा सकता है। अर्धव्यास के घन के आधे को से गुणा करने पर गोले का सन्निकट आयतन प्राप्त होता है। इस प्राप्त संख्या को 9 से गुणा करने पर और 10 से विभाजित करने पर गोले का यथार्थ आयतन प्राप्त होता है । [ 9, VIII 881] इस तरह गोले का सन्निकट आयतन होगा,
()
और यथार्थ आयतन :
v=I (4)
महावीर का सूत्र भास्कर द्वारा लिखे गये सूत्र की अपेक्षा इस सही हल से अधिक मिलता है.
लेकिन श्रीधर के सूत्र से अधिक सही हल निकाला जा सकता है___y = 4R (1 + है)
[4, पृष्ठ 154]. उपसंहार भारतीय गणित में महावीर का क्या स्थान है ? जैसे कि पहले ज्ञात हो चुका है कि महावीर का ग्रन्थ उससे पहले की नक्षत्र विद्या संबंधी कृतियों में लिखे गए गणित के खण्डों से बड़ा है । ऐसा संभव है कि महावीर के ग्रन्थ में दी गई बहुत सी बातें आर्यभट्र प्रथम, ब्रह्मगुप्त और भास्कर प्रथम को ज्ञात थीं। परन्तु बहुत से नियमों की रचना आर उनके उदाहरणों की जानकारी हमें महावीर द्वारा प्राप्त होती है ।
“गणितसारसंग्रह" पहला ग्रंथ है जिसमें निम्नलिखित नियम दिये गए हैं :जैन प्राच्य विद्याएं
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विभाजन के नियम
संख्या को वर्ग और घन में बदलने की विशिष्ट परिस्थितियाँ, भिन्न के घन और घनमूलों को प्राप्त करने की विधि, अनुपात के नियम, और
प्रतिशत और सोने की शुद्धता ज्ञात करने के नियम ।
महावीर उन आरंभिक गणितज्ञों में से हैं जिन्होंने दो अज्ञात राशि वाली दो रैखिक समीकरणों की प्रणाली अनिश्चित रैखिक समीकरणों की प्रणाली, और दूसरे घात की अनिश्चित समीकरण प्रणाली को हल करने के नियम बनाए। इसके अतिरिक्त उन्होंने कई अज्ञात राशि वाले रैखिक समीकरणों को हल करने की मौलिक विधियों, चौबे और आठवें घात के समीकरणों के मूल निकालने की विधि, अंकगणित श्रेढ़ी के पहले पद और श्रेढ़ी का अंतर ज्ञात करने की विधि और ज्यामिति श्रेढ़ी के किसी भी पद और योगफल को प्राप्त करने की विधि भी बनाई ।
भारतीय गणित के इतिहास में महावीर ने सबसे पहले बताया कि लघुत्तम समान गुणज क्या है। महावीर ने ही धन संख्याओं के वर्गमूलों के दोहरे अर्थ बताए और यह भी बताया कि ऋण संख्याओं के वर्गमूल नहीं प्राप्त किए जा सकते हैं ।
महावीर और उनके बाद के गणितज्ञों के ग्रंथों में श्रीधर ने “गणितसारसंग्रह " से कई नियम और प्रश्न लिए हैं। नारायण के ग्रन्थों में भी मिलते हैं। सातवीं-नवीं शताब्दी में अज्ञात है।
गहरा संबंध है। विशेषकर श्रीधर पर महावीर का बहुत प्रभाव है। वैसे ही प्रश्न और नियम आर्यभट्ट प्रथम, श्रीपति, भास्कर द्वितीय और ब्रह्मगुप्त के बाद महावीर के शिष्यों ने जो काम किया वह अभी तक
५.
संदर्भ साहित्य
० प० युश्क्येविच इस्तोरिया मातेमाविकी व सरयेदनिये वेका, मास्को, १६६१.
१.
२. द० या० स्त्रोइक, कास्की ग्रोचेर्क इस्तोरी मातेमातिकी, इ० ब० पोग्रेविस्स्की द्वारा जर्मन से अनूदित और संवद्धित, मास्को, १६६४.
३. क० प्र० रिव्निकोव, इस्तोरिया मातेमातिकी, खण्ड १, मास्को, १९६०.
४. श्रीधर, पतिगणित प्रो० फ० वोल्कोवा तथा प्र० इ० बोलोदारकी द्वारा संस्कृत से अनूदित प्र० इ० बोलोदारकी द्वारा परिचयात्मक लेख और
६.
७.
"
रूसी से अनुवाद -- सुश्री मंजरी सहाय अनुवाद संशोधन - प्रो० हेमचंद पांडे
टिप्पणियां
“ फीजिको - मते मातीचेस्किये नऊकि व स्नानाख वोस्तोका" १९६६, विपु०, I (IV), पृ० १४१-२४६.
अ० प० यूक्येविच और ब० प्र० रोजेन्पयेल्द, मातेमातिका व स्वानाख वोस्तोका व सरयेदनिये वेका “ईज इस्तोरी नऊकि इ तेनिक व स्त्रानाख वोस्तोका, " १९६०, विपु० I, पृ० ३४६-४२१.
B. Datta, A.N. Singh, History of Hindu Mathematics, Vol. 1-2, Bombay, 1962.
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८.
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e. M. Rangācārya, The Ganita - Sara - Sangraha of Mahāvīrācārya, Ed. with English translation and notes, Madras, 1912.
१०. W.E. Clark, The Aryabhatiya of Aryabhata, An Ancient Indian Work on Mathematics and Astronomic, Chicago, 1930.
99. "Algebra with Arithmatics and Mensuration from the Sanskrit of Brahmagupta and Bhascara" Translated by H.T. Colebrooke, London, 1817.
१२. “ The Maha - Bhāskariya by Bhāskara I” Ed. and translated into English with notes and comments by K.S. Shukla, Lucknow, 1960.
१३. “ The Maha-Siddhanta by āryabhata II”, Ed. with explanatory notes by Sudhakara Dwivedi, Benaras, 1910: १४. “ The Ganita tilaka by Sripati", Ed. with comment of Simhatilaka Suri by H.R. Kapadia, Baroda, 1935. १५. “The Ganita- Kaumudi by Nārāyana", Pt. 1, Ed. by Padmakara Dwvedi Jyautishacharya, Benaras, 1936.
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Sumatiharsa Gani and Some Other Jaina Jvotisis
-Prof. David Pingree
Sumatiharsa Gani was a member of the Añcalagacchal who flourished in Rajasthan in the early seventeeth century. Between about 1610 and 1621 he composed commentaries on a number of jyotisa texts; in this paper, which is based on the information given at the beginning and end of the surviving commentaries, on a perusal of those manuscripts presently accessible to me, and on the colophons, an attempt is made to elucidate the history of his life and to establish bis relationships to other members of the Añcalagaccha.
His surviving works are the following:
I. A vșitti on the Vivāhapatala composed by Brahmārka or Brahmāditya of the Vālalya family before 1605, the date of the oldest known manuscript; this Brahmaditya may be identical with the author of the Prašnajñana, also named Brahmärka or Brahmāditya, who was the son of Mokşeśvara and the grandson of Jyotiḥsüdana;3 he belonged to the Balambha (read Bālalya ?) family. For the Vivāhapatalavrtti I have used the fragmentary manuscript at Harvard, Sanskrit 405, which consists of ff. 5-16 and 18-19 containing I 14-111 41 and III 45-V 10. The colophons to this manuscript, which begin : ity amcalikamahopadhyāyaśri 5 sriharsaratnaganinām sisyapamditavādirājasumatiharsaratnaganiviracitāyām, inform us of the fact that Sumatiharsa's teacher was the obscure Mahopadhyaya Harsaratna Gani. The only indication of a date in this manuscript is a horoscope which can be dated 5 October 1576 and provides an early terminus post quem; one wonders if it is the horoscope of Sumatiharsa himself (it is entitled simply srijan malagnam).
Planets
Text (sidereal)
Computation (tropical)
Saturn Jupiter Mars Sun Venus Mercury Moon Node
Sagittarius Leo Capricorn Libra Libra Libra Pisces Aries
Sagittarius 26° Virgo 6° Aquarius 7° Libra 22° Libra 25° Libra 25° Pisces 27° Aries 30°
1.
2.
This gaccha, founded in 1166, had branches at Jaisalmer, Udayapura, Jirāuala in Sirohi, and Nagara in Marwar, as well as at other localities in Rajasthan; see K.C. Jain, Jainism in Rajasthan, Sholapur 1963, p. 59. D. Pingree, Census of the Exact Sciences in Sanskrit (henceforth CESS), Philadelphia 1970 and following, A4, 261b. CESS, A4, 2610-262b.
3.
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Note that the ayanāmsa in 1576 was about 14', which places all of the tropical longitudes within the sidereal Jongitudes indicated in the text.
II. The Subodha, a vịtti on the Jātakakarmapaddhati composed by Sripati in about 1050.1 The final verses are edited below on the authority of manuscripts in this British Library (Or. 5208) and in the LD Jnstitute (2538) :
śrīmadañcalagano'sti vivekacchedako bhuvi muniśasarojaḥ mānasah pravitatāgamapakṣo dūrato gatakubodhavipakşah 11 jayanti hi cidānandā mahānandapradāyinah śrimanto 'traikakaiyaņasāgará mānasaukasah 11 asamś ca tacchāsanakärino budhaḥ śriharsaratnābhidhapăthakottamā siddhāntapāțiganitādikāgamajñānapraviņā viditā yaśasvinaḥ 11 siddhāntabrahmatulyādigrahasādhanahetave sukhopāyaḥ kṛto yaiḥ susisyāņām anukampaya 11 tacchisyena vinirmame sumatiyuggharsena satpaddhateh vșttair daivavidām sukhārthajanani śrīmadguror bhāvataḥ srimatpārsvasivaprasattinibhștā padmavati pattane varse rămamunīšaşodaśamite subhre 'śvaşaşthidine 11
These verses begin by extolling the Añcalagaccha and its leader, the well-known and prolific author, Kalyānasagara Süri, one of whose patrons was Bhoja, Mahārāja of Kaccha from 1631 to 1645.2 There still survive a number of manuscripts copied during his spiritual rule of the Ancalagaccha, which I list below in chronological order. Praśāsti refers to Amộtalāla Maganalāla Saha, Sríprašastisangraha, Ahmedabad 1936, Vol. 2.
1. Prasasti p. 173 no. 690. Santinathacaritra. Copied for Māņikyalābha, pupil of Jayalābha Gani, pupil of Gajalābba Gani, on Thursday 7 November 1611 during rule of Kalyāņasāgara.
2. LDI 2631. Punyapalakathanaka. Copied by Kalyānasagara's pupil, Matinidhana, in 1614.
3. Berlin or. fol. 2591.3 Camda pannatti. Copied by Rājasika, a resident of Navyanagara, at the command of Kalyānasāgara on 21 February 1620.
4. LDI 5692. Jyotişaratnamala of Sripati. Copied by Jñānsekhara, the pupil of Kalyāṇasāgara's pupil, Saubhāgyasāgara Sūri, at Bhujadranga in 1620.
5. Prasasti p. 187 no. 745. Daśavaikalikasütra. Copied for Sāngāka, a resident of Bhujanagara, in 1621 during the reign of Kalyānasāgara.
6. Prasasti p. 188 no. 748. Simhasanadyātrimśikā. Copied by Jñānasāgara, pupil of Viracandra, at Mändavi on Friday 14 September 1621 during the reign of Kalyäņasāgara.
7. Prasasti p. 188 no. 749. Uttaradhyayanasūtra. Copied for Hirajika, a resident of Pattananagara, and given to Lāvanyasāgara by Kalyāṇasägara on Thursday 3 October 1622.
1. The Jatakakarmapaddhati was also commented on by Sumatiharsa's contemporary, Krsna, at Kāśi, this.
was published by J.B. Chaudhari, Calcutta 1955. See also CESS A2, 55a-55b, and A4, 596-60a. 2. NCC vol. 3, pp. 259-260. 3. CESS A4, 387a. 900
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8. LDI 7836. Uttarādhyayanasūtra. Copied for Kastūrāi, wife of Sürā, a resident of Bhinnamala, and given to Visalakirti Gaņi by Kalyānasāgara in 1625.
9. Prasasti p. 195 no. 682. Uttarādhyayanasútra. Given to Ratnasimha Gaņi by Kalyāṇasāgara at Rädrahănagara on Wednesday 20 June 1627.
10. Prasasti p. 209 no. 748. Candarājāno rāsa. Copied for Devamurti, pupil of Premaji Gani, at Bhujanagara in 1641 during the rule of Kalyaņasägara.
11. LDI (255. Lilävart of Bhāskaral with a vștti. Copied by Bhuvanasekhara Gani, pupil of Bhāvasekhara Gani, at Bhujanagara in 1652 during the rule of Kalyānasagara.
12. LDI 3181. Subhasitaślokasangraha of Sakalakirti. Copied by Amimuni 1656 during the rule of Kalyānasāgara.
13. LDI 8402. Sūtrakstanga. Copied Bhāvasekhara Gaņi, pupil of Vivekasekhara Gani, at Navānagara in 1657 during the rule of Kalyäņasāgara.
14. Prašasti p. 226 no. 834. Upadešacintāmani with a vrtti. Copied by Bhāvasekhara Gani, pupil of Vivekasekhara Gani, at Añjara on 5 November 1660 during the rule of Kalyānasāgara.
These 14 manuscripts establish the fact that Kalyāṇasāgara was the head of the Ancalagaccha for about 50 years; nos. 3. 4, and 11 further confirm his interest (and that of the Ancalagaccha) in jyotiḥśāstra. The scribe of nos. 13 and 14, Bhāvašekhara Gani, copied another manuscript of the Sripatipaddhati with Sumatiharsa's Subodha in the LD Institute (891) for Bhuvanasekhara, the scribe of no. 11, at Sivapurinagara in 1693.
The next pādas extol Sumatiharşa's guru, Harṣaratna, as a teacher of astronomy (sidhānta) and mathematics (pātiganita) and as the commentator on, among other, unnamed works, the Brahmatulya or Karanakutūhala of Bhaskara. Unfortunately, no copy of the commentary has yet been located, nor is any other work of Harsaratna known to be extant.
Finally, Sumatiharsa states that he completed his vrtti on the Sripatipaddhati at Padmavati on 6 October 1616. This Padmavati probably the same as that in which Dhanarāja wrote, as we shall see shortly; it has been identified with Puşkara Dear Ajmer). The epithet śrīmatpārsvasivaprasattinibhṛtā makes one think it possible that Padmavati is Vindhyávali (modern Bijaulia) on the Revā River in the Ūparamāla range between Chitor and Bundi; for it was a center of the worship of Pārsvanātha and of Siva,' but so also was Puşkara. More will be said of this below.
III. The Karika, a tikä on the Tajikasāra composed by Haribhadra or Haribhatta, apparently in 1523. I have used manuscript 2541C of the India Office Library; the following edition of the final verses is based on that manuscript together with others at Gottingen (Kielhorn 121) and the LD Institute (6664):
subodhā sripatimahadevibrahmárkaparvaņām 1 etasyā vrttayo jñeyāḥ svasarā hşdayamgamaḥ Il varse śailahayāngabhūparimite māse tatha phālgune pak se suklatare tithau daśamite srikherava pūrvare räjye śrimati vişnudāsanrpater vairibhavsnde harer vsttim brigurubarsaratnakrpayā samantanämäkarot 11 gurubāndhavaratnähvadirghāyurdhanarājayoḥ nirantarāgrahād esa racitä tanutác ciram 11
1. CESS A4, 300b. 2. CESS A+, 322a-326a. 3. K.C. Jain, Ancient Cities and Towns of Rajasthan, Delhi 1972, p. 104. 4. Ibid. pp 400-404.
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Sumatiharsa here lists his previous commentaries as being on the Sripatipaddhati (no. II), the Mahadevi composed by Mahādeva in 1316, the Vivahapatala of Brahmärka (no 1), and the Byhatparvamala composed by Purusottama before 1490. It is regrettable that two of these four are no longer in existence. He then states that he completed the Karika at Kheravä on 21 February 1621 during the reign of Visnudāsa Nrpati, a ruler of whom I have so far succeeded in discovering no other trace. Sumatiharsa himself here assumes the title Samanta or feudatory. Finally, he claims to have written this tīkā upon the insistence of Ratpa, a relative of his guru, Harsaratna, and of Dhanarāja, whom we will discuss later. The colophon to the Karikā names Harșaratna's guru Mahopadhyāya Udayarāja Gani; this information is also given in the colophon of the next work.
In the text itself Sumatiharșa uses as his example the horoscope of an individual born on 7 May 1535 and his fifty-ninth anniversary horoscope, dated 7 May 1594.
Planets
Text
Computation (7 May 1535)
Text
Saturn Jupiter Mars Sun Venus Mercury Moon Node
Cancer Aquarius Pisces Taurus Taurus Taurus Cancer Cancer
Leo 4° Pisces 5o Aries 12° Taurus 26° Gemini 10° Gemini 6° Cancer 25° Cancer 21°
Cancer Aquarius Gemini Taurus Taurus Taurus Aries Taurus
Computation (7 May 1594) Leo 6° Aquarius 26° Cancer 5° Taurus 26° Taurus 230 Gemini 11 Aries 26° Taurus 20°
IV. The Ganakakumudakaumudi, a commentary on the Karanakutūhala composed by Bhaskara in 1183. This is the only work of Sumatiharşa's to have been printed; the edition by Madhava Sastri Purohita was published at Bombay ip 1901. I have also consulted the two Harvard manuscripts, Sanskrit 37 and 1105. The eighth introductory verse is :
śrīsripatividitakeśavapaddhati dve brahmārkaśīghrakhagasiddhim atho vivrtya ! mālā ca parvasahitā bịhatīti tasyāḥ särasya täji kadhuro vivsti apudyām 11
This adds to the previously known commentaries on the Srīpatipaddhati, the Vivāhapatala, the Mahā devi (sighrakhagasiddhi), the Brhatparvamala, and the Tajikasāra, one on the Jätakapaddhati of Keśava" as is the case with so many other of Sumatiharsa's works no manuscript of this one is presently available.
At the end of the ţikā are the following verses :
vindhyadrim nikasă puri suviditā sarvarddhi vrddhyānvită tannetāsti bhatah svavamsatilakaś caulukyavamsodbhavah susriviramade sunītinipuno hemādrir eväparo yo 'bhūd yāvanabhüpatin sthiratarán pronmülya rājanyake!
1. CESS, A4, 374a-376b. 2. CESS, A4, 209b. 3. CESS, A4, 3222-326a. 4. CESS, A2, 666-70b; A3, 24a; and A4, 64-65a.
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veläkhye khalu mantrini priyavrse dāna prasak tau sati mängalyädrikalämite gatavati srivikramät samvati i måse prausthapade vināyakatithau daityejya vāre vare cakre Srigurubhāvatan sumatiyuggharsena caisa muda 11
The city near the Vindhyadri one might again guess to be it. yavali, ne moriern Bijauia in Mewar: this, however, was ruled by the Paramāras, whereas Sumatiharsa's lon! claimed to he l bo This chieftain, Viramadeva, a second Hemādri who beat the Muslims, remains totally obscure to me, though several Rajput rulers bearing this name are known. The date given for the completion of the Ganakakumudakaumudi is Friday 10 August 1621. Within the text are examples for Saturday 21 February 1596; Thursday 11 March 1596: Monday 13 October 1600; Saturday 20 June 1601; Friday 26 September 1617; Tuesday U November 1617: Friday 14 November 1617; Wednesday 29 November 1620; and Tuesday 17 July 1621.
V. A vrtti on the Horāmakaranda of Gunākara. Of this unusual work (it seems to be the only extant commentary on the Horāmakaranda) there is only one extant manuscript, no. 3368 in the Oriental Institute. Baroda, which is incomplete and which I have not as yet been able to consult. Sumatiharsa's interest in the Horāmakaranda is attested to by his citations from it in his výtti on the Sripatipaddhati; it should also be noted that Rajasekhara, the pupil of Buddhisekhara Gani, the pupil of Bhāvšekhara Gani (who is probably the Bhāvasekhara Gani connected with manuscripts 11, 13, and 14 in the list of manuscripts associated with Kalyānasāgara Gani), copied one of the LD Institute's manuscripts (6510) of Gunākara's work in 1678--perhaps from Sumatiharsa's copy.
This raises again the possibility--already apparent in the list of Kalyānasāgara manuscripts-of the existence of a School of jyotihśästrins in the Añcalagaccha during the seventeenth century. Further evidence in this direction is provided by the Mahādevidipika, a vrtti on Mahādeva's Mahadevi (also commented on by Sumatiharşa, though his vịtti is lost) composed by Dhanaraja of the Añcalagaccha at Padmavati in 1635. This Dhanarāja is undoubtedly the scholar who urged Sumatiharsa to compose his Karikä on Haribhadra's Tajikasära, and Padmavati then is identical with the locality in which Sumatiharsa wrote his Subodha. For the Mahadevidipika I have used manuscript 689 at the Oriental Institute, Baroda.
The upasamhāra gives the date, place, and circumstances of Dhanarāja's composition : varse netran avangabhūparimite jyeșthasya pakşe site 'stamyam sadguņaprkthamannarayutе padmavatipattanei räjä hy utkațavairināgadamano rasprodavamśodbhavaḥ sriman srigajasimha bhüpativaro 'sti śrimaror mandale | jaine säsana evam añcalagane satsajjanaiḥ samstute kalyanodadhisürayaḥ śubhakarä nandantu bhūmandale tatseväkarabhojarājaga nayo vidvadvarä väcakā asan sarvasudhimanahkamalinisambodhane bhänavah || khetānam ki purā krtā budhamahadevena yā sārani tasyā daivavidām sukharthajananim vrttim varām vistaram tacchişyo dhanarāja evam akarod dharsena bahvädarair bahvarthaiḥ sahitām ca panditapadăd aptaprasakter guroh ||
In these verses Dhanarāja informs us that he was the pupil of Bhojarāja Gani (called Bhuvanarāja Gani in the colophon), who honoured Kalyānasagara Sûri, the ruler of the Ancalagaccha, and that he
1. CESS A2, 1276-128b; A3, 31b; and A4, 81a. 2. CESS, A3, 124a-124b, and A4, 1176.
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________________ Couried the Mchaderepika at Padmavai on 13 May 1635 while the Rastroda Gajasimha was ruling Marwar (1619-1638); the word harsena in the last verse may be an oblique reference to Sumatibarsa or to Harsaratna. It is necessary now to consider again the question of the identification of Padmavati. That Puskara was called by this name in Jaina circles seems to be well attested; and Puskara, like Vindhyavali. had both Jaina and Saiva temples. However, Ajmer (and Puskara almost certainly went with it) was in the possession of the Moghuls from 1556 till 1720, and this fact makes it difficult to explain Dhanaraja's claim to be writing under Gajasimha in 1635, unless some sort of control over it had been granted to Gajasimha as a faithful supporter of the Moghuls. Vindhyavali, on the other hand, has some fainous Saiva temples dating back to the period of the Cauhanas, and an image of Parsvanatha was manifested there in the twelfth century: this fits in very well with the epithet given to Padmavati by Sumatiharsa in the Subodha, but neither is it known that Vindhyavali was called Padmavati nor was it ever in Marwar territory. Thus, the identification of Puskara with Padmavati must remain the more fikely explanation of the facts though Dhanaraja's mention of Gajasirnha remains a problem. This is not the only problem of the Mahadevidipika. For in this work not only does Dhanaraja refer to Thursday 9 March 1637, but also in several different places computations are given for Sirohi in 1063 (the Baroda manuscript was copied a year earlier, in 1662). This date--Saka 1585- is confirmed by the statement that it is 480 years from Saka 1105, the epoch of Bhaskara's Karanakutuhala. The explanation for its occurrence must lie in the fact that 480 years is eight cycles of sixty years, though none of them begins with Mahadeva's epoch, 1318 (Saka 1240). What Dhanaraja's connections with Sirohi might be are not as yet evident. But we do possess some remnants of his activities as a teacher of jyotisa in the form of manuscripts copied by his successors in the Ancalagaccha; these are listed in the Sriprasastisangraha utilized previously. 1. p. 238 no. 888. The Saspancasika of Psthuyabas! with the vstti of Bhattotpala." Copied by Subhagyaraja, the pupil of Harsaraja, the pupil of Dhanaraja on Sunday 25 April 1669. The same scribe had the Jambucaritra copied on Saturday 27 March 1669; p. 239 no. 884. Copied by Jinaraja, the 2. p. 277 no. 1061. The Vasantarajasakuna of Vasantaraja with a vrtti. pupil of Hirananda, the pupil of Dhanaraja on Wednesday 18 September 1706. One final monument that these Jaina jyotisis of Ancalagaccha have left is one of the manuscripts of Dhanaraja's Mahadevidipika preserved at the LD Institute (7129). For it was copied by Buddhisekhara Gani, the pupil of Bhavasekhara Gani, at Rajanagara in 1672 for Rajasekhara Gani of the Ancalagaccha; Rajasekhara, as we have seen, was the scribe of a manuscripts of the Horamak aranda and the pupil of Buddhisekhara. I have little doubt that future explorations of jyotisa manuscripts from Rajasthan will reveal much more concerning the activities of these teachers, commentators, and scribes of jyotisa works, though Sumatiharsa will undoubtedly remain their outstanding representative. 1. CESS, A4, 2126-221b. 2. CESS, A4. 277b-281b. 3. Prohably that of Bhanucandra: see CESS, A4, 292a-292b. आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ