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________________ भिक्षु की यात्रा अंतर्यात्रा है बीसवां प्रवचन 401
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________________ भिक्षु-सूत्र : 1 रोइय-नायपुत्त-वयणे, अप्पसमे मन्नेज छप्पि काए। पंच य फासे महव्वयाई, पंचासवसंवरे जे स भिक्खू / / सम्मदिट्ठि सया अमूढे, अस्थि हु नाणे तवे संजमे य / तवसा धुणइ पुराणपावगं, मण-वय-कायसुसंवुडे जे स भिक्खू / / जो ज्ञातपुत्र-भगवान महावीर के प्रवचनों पर श्रद्धा रखकर छह प्रकार के जीवों को अपनी आत्मा के समान मानता है, जो अहिंसा आदि पांच महाव्रतों का पूर्णरूप से पालन करता है, जो पांच आस्रवों का संवरण अर्थात निरोध करता है, वही भिक्षु है। जो सम्यग्दर्शी है, जो कर्तव्य-विमूढ़ नहीं है, जो ज्ञान, तप और संयम का दृढ़ श्रद्धालु है, जो मन, वचन और शरीर को पाप-पथ पर जाने से रोक रखता है, जो तप के द्वारा पूर्व-कृत पाप-कर्मों को नष्ट कर देता है, वही भिक्षु है। 402
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________________ जा अज्ञात है, जो अननुभूत है, जो अदृश्य है, जिसे हमने अब तक जाना नहीं, जिसका कोई भी स्वाद हमें उपलब्ध नहीं हुआ, जिसकी एक भी किरण से हम परिचित नहीं हैं—उसकी खोज कैसे शुरू हो? उसे हम खोजें कैसे? खोज के लिए भी थोड़ा-सा परिचय जरूरी है, उस दिशा में हम बढ़ें, उस दिशा की थोड़ी-सी झलक चाहिए। और उस यात्रा में हम अपने पूरे जीवन को लगा दें, यह तो तभी हो सकता है, जब जीवन से मूल्यवान है—वह अज्ञात, ऐसी हमारी प्रतीति हो / पर ऐसी कोई प्रतीति नहीं है, इसलिए श्रद्धा अति मूल्यवान हो जाती है। श्रद्धा का अर्थ समझ लेना चाहिए। श्रद्धा का अर्थ है कि हमें कुछ भी पता नहीं परमात्मा का, हमें कुछ भी पता नहीं मोक्ष का, हमें कुछ भी पता नहीं कि मनुष्य के भीतर शरीर को पार करनेवाली कोई आत्मा भी है। लेकिन हमें ऐसे व्यक्ति से हमारा मिलन हो सकता है, जिसकी मौजूदगी उस अज्ञात की हमें खबर दे; ऐसे व्यक्ति के हम संपर्क में आ सकते हैं, जो परमात्मा को देख पा रहा है, जो मुक्त है, और जिसकी चेतना शरीर के पार जा चुकी है, जा रही है। ऐसे व्यक्ति में हमें झलक मिल सकती है। वह झलक सीधी नहीं होगी; प्रत्यक्ष नहीं होगी। परोक्ष होगी, उस व्यक्ति के माध्यम से होगी। लेकिन इसके अतिरिक्त धर्म की यात्रा में और कोई उपाय नहीं है। ऐसे व्यक्ति की निकटता में हमें जो प्रतीति होती है, उसका नाम श्रद्धा है। ___ महावीर को जब लोग देखते हैं तो एक बात तय हो जाती है...अगर देखते हैं तो, अगर सुनते हैं तो; अगर आंखें बन्द किये हैं और कान बंद किये हैं, और उन्होंने तय कर रखा है कि वे अपने से ऊपर कुछ भी नहीं देखेंगे क्योंकि अपने से ऊपर कुछ भी देखते ही पीड़ा शुरू होती है, संताप शुरू होता है, चिंता का जन्म होता है। जैसे ही हमें दिखाई पड़ता है कि कोई हमसे पार है, और हम जहां खड़े हैं, वही जीवन की अंतिम मंजिल नहीं है, वैसे ही बेचैनी शुरू होगी; प्यास जगेगी, और हमें चलना पड़ेगा; बैठे-बैठे फिर काम नहीं चल सकता / इस भय से कि कहीं यात्रा न करनी पड़े, हम अपने से ऊपर देखते ही नहीं। अगर महावीर जैसा व्यक्ति हमारे करीब भी आ जाए, तो हम उसे झुठलाने की सब तरह से कोशिश करते हैं। लेकिन अगर कोई सरलता से, सहजता से महावीर, बुद्ध या कृष्ण को देखे तो एक बात पक्की हो जायेगी कि हम जैसे हैं, यह हमारा अंतिम होना नहीं है; यह हमारी नियति नहीं है, हमारा भविष्य महावीर में प्रगट हो जायेगा। जिस आनंद से भरे हुए महावीर खड़े हैं, जिस मौन और शांति का उनके चारों तरफ वर्षण हो रहा है, उनकी आंखों से जिस अलौकिक की झलक आ रही है, उनके शब्दों से जिस शून्य का स्वर उठ रहा है, वह हमारा भी भविष्य हो सकता है; हम भी उस जगह कभी हो 403
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 सकते हैं, ऐसी प्रतीति का नाम श्रद्धा है। __ श्रद्धा का अर्थ अंधापन नहीं है। और श्रद्धा का अर्थ हर किसी को मान लेना नहीं है। श्रद्धा का अर्थ है ऐसे ग्राहक, रिसेटिव, संवेदनशील चित्त की अवस्था, जब हमसे पार का कोई व्यक्तित्व निकट हो तो हम उसके प्रति बंद न हों, खुले हों, हम तैयार हों उसके साथ थोड़ा दो कदम चलने को–क्योंकि वह किन्हीं रास्तों पर चला है, जो हमसे अपरिचित हैं, उसने कुछ जाना है, जो हमने नहीं जाना; उसने कुछ देखा है, जिसके लिए हम अभी अंधे हैं; उसको कुछ स्वाद मिला है, जिसका हमें कोई भी पता नहीं है, उसके साथ दो कदम चलने का नाम श्रद्धा है। और प्राथमिक यात्रा उसके साथ ही शुरू होगी। जीवन जटिल है; एक बड़ी पहेली है। और उसमें सबसे बड़ी जटिलता है और यह है कि हम जहां हैं, वहां से हिलने में हमें तकलीफ होती है। चाहे हम दुख में ही क्यों न हों, दुख को छोड़ने में भी तकलीफ होती है। क्योंकि दुख परिचित है, अपना है, और छोड़कर जहां हम जायेंगे, वह होगा अपरिचित, अनजान; वहां भय लगता है। अनजान रास्तों पर जाने में भय लगता है, इसलिए हम अनजान रास्तों पर नहीं जाते। और अगर हम जाने-माने रास्तों पर ही भटकते रहे तो हम एक वर्तुल में घूम रहे हैं; जो जाना है, उसे ही फिर से...उसे फिर-फिर जान लेंगे, लेकिन जीवन में कोई नया सूरज, इस जीवन में कोई नया जन्म संभव नहीं होगा। हम पिटी हुई लकीर पर घूमते रहेंगे। श्रद्धा का अर्थ है, किसी के साथ अनजान में उतरने का साहस / यह किसी के साथ ही होगा; क्योंकि उस दूसरे को देखकर भरोसा आ जायेगा। और उस दूसरे के व्यक्तित्व में ऐसे लक्षण हैं, जो भरोसा दिला सकते हैं। अगर महावीर कहते हैं कि एक ऐसा आनंद है, जिसका कोई अंत नहीं होता; एक ऐसे आनंद की अवस्था है, जहां दुख की एक तरंग नहीं उठती, तो हम महावीर को देखकर भी अनुभव कर सकते हैं। महावीर का पूरा जीवन सामने है। वहां दुख की एक भी तरंग नहीं है; दुख के सब अवसर हैं तो भी महावीर को दुखी करना असंभव है। सब तरह की कोशिश की गयी है कि उन्हें दखी किया जाए, लेकिन सभी कोशिश असफल हो गयी। जिस व्यक्ति को दुखी नहीं किया जा सकता, एक बात पक्की है कि उसे कुछ मिल गया है, जो हमारे सब दुखों के पार चला जाता है / वह किसी नये केन्द्र पर प्रतिष्ठित हो गया है। कोई एक नयी तरह की सेंट्रिंग उसके भीतर हो गयी है, जिसे हम हिला नहीं पाते / हम तो हिल जाते हैं हवा के थोड़े-से झोंके से, झोंके का खयाल भी आ जाए, तो हिल जाते हैं। महावीर अकंप हैं। कैसा भी तूफान हो उनके चारों तरफ, कितनी ही बड़ी आंधी उठे, महावीर के भीतर कोई आंधी प्रवेश नहीं कर पाती / निश्चित ही, कोई बहुत गहन केंद्र उन्हें उपलब्ध हो गया है। पर हमें वह केंद्र दिखाई नहीं पड़ता; सिर्फ महावीर दिखाई पड़ते हैं। और महावीर को देखकर उस केंद्र का अनुमान हो सकता है। वह अनुमान हमारी श्रद्धा बनेगा। लेकिन इस श्रद्धा के लिए महावीर के प्रति खुले होना जरूरी है। अगर आप आलोचक की तरह महावीर के पास जाते हैं, तो आप पहले से ही धारणाएं बनाकर जा रहे हैं। आपकी धारणाएं आपके जाने हुए जगत से संबंधित हैं, महावीर एक नये जगत के पथिक हैं; ऐसा समझें कि किसी और लोक के व्यत्ति हैं। आपकी भाषा, आपका अनुभव उन पर कुछ भी लागू नहीं होता / तो जो भी आप अपनी धारणाओं को लेकर उनके संबंध में सोचेंगे, वह गलत होगा। उस गलती से महावीर को कोई हानि होनेवाली नहीं है / स्मरण रहे, उस गलती से आप बंद हो जायेंगे, और श्रद्धा का जो अंकुरण हो सकता था, वह नहीं हो पायेगा। श्रद्धा इस जगत में सबसे अनूठी बात है, प्रेम से भी अनूठी; क्योंकि प्रेम तो वासना के प्रवाह में जग जाता है; श्रद्धा निर्वासना के प्रवाह में जगती है। जैसे-जैसे व्यक्ति की वासना सबल होती है, प्रगाढ़ होती है, प्रेम जग जाता है। प्रेम एक प्राकृतिक घटना है, जिसमें शरीर के कोष्ठ भाग लेते हैं / वह एक बायलाजिकल, एक जैविक घटना है। आपको कुछ करना नहीं पड़ता / बच्चा जवान होता है, और उसके चारों तरफ प्रेम पकने लगता है। वह प्रेम में गिरेगा। 404
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________________ भिक्षु की यात्रा अंतर्यात्रा है श्रद्धा एक अर्थ में प्रेम-जैसी है, और एक अर्थ में प्रेम से बिलकुल उलटी है। श्रद्धा अलौकिक घटना है, क्योंकि शरीर का कोई भी कण उससे सहयोगी नहीं होता। और अगर वैज्ञानिक जांच करे, तो आपके प्रेम का तो फारमूला निकाल लेगा कि आपके शरीर में किन हारमोन्स के कारण प्रेम पैदा होता है। लेकिन श्रद्धा का कोई फारमूला वैज्ञानिक नहीं निकाल सकता। कितना ही श्रद्धालु की जांच की जाए, उसके भीतर ऐसा कोई भौतिक तत्व नहीं मिलेगा, जिसके कारण श्रद्धा समझी जा सके। श्रद्धा बेबझ है। लेकिन श्रद्धा घटी है। और श्रद्धा ऐसी घटी है कि लोगों ने अपने परे जीवन को उस पर दांव पर लगा दिया है। जिनके जीवन में श्रद्धा घटी है उन्होंने उसे जीवन से भी ज्यादा मूल्यवान पाया है; अन्यथा कौन जीवन को नष्ट करेगा? कौन पूरे जीवन को दांव पर लगा देगा? जीवन को दांव पर लगाना बताता है कि जीवन के भीतर कछ ऐसा भी घट सकता है, जो जीवन के पार जाता है; जीवन की सीमा में जिसकी कोई परिभाषा नहीं है। श्रद्धा मनुष्य के जीवन में अलौकिक फूल है; इस पृथ्वी पर किसी और लोक का अवतरण है। और जब आप का हृदय आंदोलित होता है श्रद्धा से, तो आप पृथ्वी के हिस्से नहीं रह जाते; ग्रैविटेशन-जमीन की कशिश से आप मुक्त हो जाते हैं। लेकिन उस घटना ? एक बात समझ लेनी जरूरी है कि उस घटना के लिए पाजिटिवली, विधायक रूप से कुछ भी नहीं किया जा सकता; नकारात्मक रूप से कुछ किया जा सकता है। ___ आप प्रेम करने के लिए क्या कर सकते हैं? क्या आप चेष्टा करके प्रेम कर सकते हैं? अगर आपसे कहा जाए कि इस व्यक्ति को प्रेम करो, और आपके भीतर प्रेम न घट रहा हो, तो क्या आप प्रेम करके बता सकते हैं? क्या प्रेम का अनुभव पैदा हो सकता है चेष्टा से? प्रेम का अनुभव भी चेष्टा से पैदा नहीं होता। आप सिर्फ इतना ही कर सकते हैं कि बाधा न डालें। व्यक्ति को निकट आने दें, खुद को निकट पहुंचने दें, आंतरिकता बढ़ने दें। आप कुछ और कर नहीं सकते / घट जाए, घट जाए; न घटे, न घटे-आपके हाथ की बात नहीं है। __ श्रद्धा और भी कठिन है। क्योंकि प्रेम के लिए तो शरीर में एक धक्का है, एक ज्वार है, एक चोट है; शरीर भी मांग कर रहा है। श्रद्धा तो शरीर की मांग नहीं है; श्रद्धा आत्मा की मांग है। और जैसे प्रेम शरीर की घटना है, ऐसे श्रद्धा आत्मा की घटना है। और जब हम प्रेम तक को पैदा नहीं कर पाते, तो श्रद्धा को पैदा करना तो बहुत मुश्किल है। तो आप क्या करें? __ आप अपने को छोड़ें। एक लेट-गो, एक विश्राम चाहिए। जहां श्रद्धा पैदा हो सकती हो, उस व्यक्ति के पास आपका एक विश्राम से भरा हुआ चित्त चाहिए। आपका द्वार खुला रहे / आप सूरज को घसीटकर मकान के भीतर नहीं ला सकते; लेकिन सूरज बाहर हो, और दरवाजा बंद हो, तो सूरज दरवाजा तोड़कर भीतर आयेगा नहीं / आप दरवाजा खुला छोड़ सकते हैं / सूरज बाहर होगा, उसकी किरणें भीतर आ जायेंगी। किरणों को बांधकर लाने का कोई उपाय नहीं है, लेकिन किरणों को आप आने से न रोकें, इतना काफी है। इसलिए मैं कहता हूं, श्रद्धा का जन्म नकारात्मक है। __ आप महावीर, बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट के करीब रह चुके हैं। इस जमीन पर कोई भी नया नहीं है। न मालूम कितने तीर्थंकर और अवतार आपके पास से गुजर चुके हैं। लेकिन आपने श्रद्धा का मौका नहीं दिया। आपके ऊपर, जैसे उलटे घड़े पर से पानी बह जाए, ऐसे ही श्रद्धा की सारी संभावनाएं बह गयी हैं / निश्चित ही, अपने को समझा लेते हैं। जब महावीर आपके पास होते हैं, तो आप-आप अपने को समझा लेते हैं कि आदमी ही ऐसा नहीं है कि श्रद्धा पैदा हो। ध्यान रहे, महावीर से कोई संबंध नहीं है श्रद्धा का; श्रद्धा का संबंध आपसे है। वह आपकी निजी घटना है। हो जाये, तो महावीर 405
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 का रस आप में प्रविष्ट हो जाये; महावीर की धुन आप में समा जाये, महावीर की शराब आप में भी उतर जाये-वह नशा, वह मस्ती। लेकिन आप समझा लेते हैं कि नहीं, श्रद्धा योग्य आदमी नहीं है; इसलिए अभी अपने को खुला रखना ठीक नहीं। आपको श्रद्धा योग्य आदमी कभी भी न मिलेगा; क्योंकि वह उसे ही मिलता है, जो खुला हुआ है। ध्यान रखें, एक आंखें बंद किये हुए आदमी रास्ते पर चलता हो और वह कहे कि अभी सूरज निकला नहीं; जब निकलेगा, तब मैं आंखें खोलूंगा; जब प्रकाश होगा तब मैं आंखें खोलूंगा, लेकिन जिसने आंखें नहीं खोली, उसे पता भी कैसे चलेगा कि प्रकाश कब है? ___आप महावीर, बुद्ध, कृष्ण के करीब से गुजरते वक्त सोचते हैं, अभी सूरज कहां है? अभी महावीर के लिए आप बहुत से कारण खोज लेते हैं कि श्रद्धा की कोई जरूरत नहीं है / अश्रद्धा के लिए आप सब तरह के कारण खोज लेते हैं। और अश्रद्धा के लिए कारणों से रोकना असंभव है। मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक सुबह अपने घर से बाहर निकला, और देखा कि पुराने मित्र पंडित रामचरणदास रास्ते से गुजर रहे हैं। नसरुद्दीन ने जाकर उसके कंधे पकड़ लिये और कहा, 'पंडितजी, हद्द हो गयी! मैंने तो सुना कि आप मर चुके! तीन दिन हो गये, मैं तो रो भी लिया। मैंने तो सब दुख झेल लिया; रात सो नहीं सका तीन दिन, खबर मिली कि आप मर गये हैं।' रामचरणदास ने कहा, 'भूल जाओ! अब तो मैं सामने खड़ा हूं जिन्दा, अफवाह रही होगी।' नसरुद्दीन ने कहा, 'इम्पासिबल, असंभव! क्योंकि जिस आदमी ने मुझे कहा है, उस पर मेरी श्रद्धा आप से ज्यादा है-जितनी श्रद्धा मेरी आप पर है—दैट मैन इज मोर रिलायबल दैन यू।' जिंदा आदमी भी अगर सामने खड़ा हो, और श्रद्धा न हो, तो उसको जीवन दिखाई नहीं पड़ सकता।। श्रद्धा हो तो असत्य में भी जीवन का अंकुरण हो जाता है, श्रद्धा न हो तो सत्य भी निर्जीव हो जाता है। और श्रद्धा आपकी घटना है, उसका किसी और से संबंध नहीं है। श्रद्धेय से श्रद्धा का कोई संबंध नहीं है, श्रद्धालु से संबंध है। घटना आपके भीतर घटती है। अगर आप श्रद्धालु हैं, तो महावीर को आप हर काल में खोज ही लेंगे; और अगर आप श्रद्धालु नहीं हैं, तो कितने ही महावीर कतारबद्ध होकर आपके पास से निकलते रहें, उनसे आपका कोई संबंध नहीं हो सकता। इसलिए एक बनियादी बात खयाल में ले लें. अश्रद्धा के लिए तैयारी मत करें: उससे कछ लाभ होनेवाला नहीं है। श्रद्धा की तैयारी रखें, उससे कोई हानि होनेवाली नहीं है / अश्रद्धा से जो महानतम है, वह खो जायेगा; और श्रद्धा से जो महानतम है, उसका द्वार खुलेगा। लेकिन हम बड़े सचेत रहते हैं कि कहीं श्रद्धा न हो जाए। - एक मित्र एक दिन मुझे सुनने आये। फिर मुझे उन्होंने पत्र लिखा कि मैं अब दुबारा सुनने नहीं आ सकूँगा, क्योंकि मुझे डर लगता है कि कहीं श्रद्धा पैदा न हो जाए; आपकी बातों से कहीं श्रद्धा पैदा न हो जाए, नहीं तो मेरा पूरा जीवन अस्त व्यस्त हो जायेगा / मैं भयभीत हो गया हूं, इसलिए अब मैं तब तक सुनने नहीं आऊंगा, जब तक जीवन को बदलने की पूरी तैयारी न हो। यह तैयारी कब होगी? कैसे होगी? और इस तैयारी को कल पर छोड़ने की जरूरत क्या है? कुछ भय है। श्रद्धा से भय है, जैसा प्रेम से भय है। आदमी प्रेम करने से डरता है / क्योंकि प्रेम करते ही दूसरा व्यक्ति बड़ा मूल्यवान हो जाता है। और प्रेम में पड़ते ही दूसरा व्यक्ति इतना मूल्यवान हो जाता है कि अपना मूल्य भी कम हो जाता है। प्रेम से आदमी डरते हैं: प्रेम से भयभीत होते हैं। प्रेम खतरनाक है। इसलिए बहत लोग तो प्रेम करते ही नहीं, सिर्फ प्रेम का दिखावा करते हैं / इन्हीं समझदार लोगों ने विवाह की संस्था ईजाद की। बिना प्रेम में पड़े काम वासना का संबंध स्थापित हो जाये, विवाह का मतलब यही है / क्योंकि प्रेम में खतरा है, डर है। और दूसरा आदमी शक्तिशाली हो जाता है, और हम एक उलझन में पड़ जाते हैं। विवाह में कोई डर नहीं है, प्रेम 406
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________________ भिक्षु की यात्रा अंतर्यात्रा है की घटना ही नहीं घटती / बिना प्रेम के दो व्यक्ति साथ रहने लगते हैं और एक-दूसरे के शरीर का उपयोग करने लगते हैं। विवाह चालाक, चतुर लोगों की ईजाद है। इसलिए विवाह में जो भरोसा करते हैं, वे प्रेम में पड़नेवाले लोगों को पागल कहते हैं। उनके हिसाब से वे बिलकुल ठीक कहते हैं। क्योंकि उनको गणित नहीं आता, तर्क नहीं आता। वे बिलकुल भूल कर रहे हैं। प्रेम में झंझट में पड़ेंगे, लेकिन जो झंझट में पड़ने से बचता है, वह जीवित ही नहीं रह जाता; और जितनी झंझट से बचता है, उतना मुर्दा होता चला जाता है / मरा हुआ आदमी बिलकुल झंझट में नहीं होता। आपको झंझट से बिलकुल हंड्रेड परसेंट बचना हो-सौ प्रतिशत, तो आप मर जायें; आप जिन्दा न रहें। श्वास लेने में भी खतरा है इन्फेक्शन का, डर है बीमारी का। उठने-बैठने में खतरा है। __ जीना बड़ा खतरनाक है। और जो आदमी जितना ज्यादा जीना चाहता है, उतने बड़े खतरे में उसे उतरना होगा। प्रेम बडा खतरा है-शिखर छूते हैं आप, लेकिन खाई में गिरने का डर भी पैदा हो जाता है। जो आदमी सपाट जमीन पर चलता है—विवाह सपाट जमीन है, उसमें कभी कोई गिरता नहीं / कोई शिखर भी नहीं छूता गौरीशंकर के, कोई गिरता भी नहीं। लेकिन जो गौरीशंकर के शिखर पर चढ़ने की कोशिश कर रहा है, वह खतरा हाथ में ले रहा है। लेकिन ध्यान रहे, जहां खतरा इतना बड़ा होता है, जैसा गौरीशंकर के नीचे की खाई, उस खतरे की चुनौती में ही जीवन भी अपने पूरे शिखर पर उठता है। जिसके जीवन में एडवेन्चर नहीं है, दुस्साहस नहीं है, वह आदमी जीवित ही नहीं है। वह पैदा ही नहीं हुआ। वह अभी अपनी मां के गर्भ में है। अभी वहां से उसका छुटकारा नहीं हुआ। प्रेम खतरे में ले जाता है। लेकिन, श्रद्धा महाखतरे में ले जाती है। क्योंकि प्रेम तो एक साधारण व्यक्ति का भरोसा है; और श्रद्धा एक असाधारण व्यक्ति का भरोसा है / प्रेमी तो हमें इस जगत के बाहर नहीं ले जायेगा; इसके भीतर ही परिभ्रमण होगा-श्रद्धेय हमें इस जगत के बाहर ले जाने लगेगा। वह हमें उठाने लगेगाउन अछूती ऊंचाइयों की तरफ, जिनको कभी-कभार ही सदियों में कोई आदमी छ पाता है। वासना प्रेम का खतरा उठाने की तैयारी करवा देती है। श्रद्धा उस अनंत, असीम, अनजान, अज्ञात, और अज्ञात ही नहीं, अज्ञेय घटना के लिए साहस दे देती है। श्रद्धा में भय है सिर्फ एक : अपने को खोने का भय / श्रद्धा में अहंकार खोयेगा। क्योंकि श्रद्धा का अर्थ है, आप अपने अहंकार को कहीं छोड़ रहे हैं और किसी को कह रहे हैं कि आज से तुम मेरी आंख हुए, अब मैं तुम्हारे द्वारा देखूगा; तुम मेरे कान हुए, तुम्हारे द्वारा मैं सुनूंगा; तुम मेरे हृदय हुए, तुम्हारे द्वारा मैं धड़दूंगा। अब मैं गौण हुआ छाया की तरह, तुम मेरी आत्मा हो गये। श्रद्धा का अर्थ है : किसी व्यक्ति में प्रकाश की घटना को अनुभव करके अपने को उस प्रकाश के साथ जोड देना; उसकी छाया बन जाना / लेकिन वासना से भरा व्यक्ति, अनंत वासनाओं से भरा हुआ व्यक्ति अपने अहंकार को छोड़ने से डरता है। क्योंकि अहंकार के छूटते ही सारी वासनायें भी गिरती हैं और अहंकार को हम बढ़ाये जाना चाहते हैं, जब तक कि असंभव ही न हो जाए। सुना है मैंने, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन ज्यादा पी गया है और मधुशाला में लड़ने के मिजाज से भर गया; लड़ने का मूड आ गया। तो उसने खड़े होकर चारों तरफ देखा और कहा कि इस मधुशाला में अगर कोई हो माई का लाल तो बाहर निकल आये, उसे मैं चारों खाने अभी चित्त कर दूं! लेकिन किसी ने उस पर ध्यान न दिया / और लोग भी अपने नशे में लीन थे। उससे उसकी हिम्मत बढ़ी और उसने कहा कि छोड़ो, मधुशाला में क्या रखा है! इस पूरे गांव में भी अगर कोई माई का लाल हो तो खबर कर दो। फिर भी किसी ने ध्यान न दिया तो उसकी आवाज और बढ़ गयी, और उसने कहा, 'इस पूरे देश में, अगर किसी ने अपनी मां का दूध पिया हो तो प्रगट हो जाये!' फिर भी कोई प्रगट न हुआ। तो उसने कहा, 'इस पूरी पृथ्वी पर है कोई मर्द?' एक आदमी जो बड़ी देर से सुन रहा था, उसे बड़ी हैरानी हुई कि यह आदमी बढ़ता ही चला जा रहा है। तो उसने अपना गिलास 407
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 सरकाया और आकर मुल्ला को दो-चार घूसे मारे / मुल्ला नशे में तो था ही, जमीन पर गिर पड़ा / वह आदमी उसकी छाती पर बैठ गया। मुल्ला सोचने लगा, और उसने उस आदमी से कहा, 'लगता है मैं जरा अपनी सीमा से आगे बढ़ गया-आइ रेकंन आइ हैव गान बियान्ड माई लिमिट-उतर भाई, देश तक ही हम दावा करते हैं; नीचे उतर, पृथ्वी का हम दावा ही छोड़ते हैं।' __ आपका अहंकार भी बढ़ता चला जाता है, जब तक कि आप उस जगह नहीं पहुंच जाते, जहां अड़चन हो जाती है, जहां उलझ जाते हैं। लेकिन पीछे हटना भी बहुत मुश्किल है। आगे बढ़ नहीं पाते; पीछे हटना बहुत पीड़ा देता है, चोट देता है-अटके रह जाते हैं। अनुभव में भी आने लगे कि सीमा से बढ़ गये तो भी मुल्ला नसरुद्दीन जैसी हालत में आप नहीं होते कि वापस इतनी बाहर सरलता से लौट जायें। दावे को मुकरना, छोड़ना बहुत कठिन हो जाता है। ___ हम सब दावों के साथ जी रहे हैं। अहंकार बाधा बनता है, क्योंकि हमने इतनी घोषणायें कर रखी हैं। हर आदमी ने अपने मन में सोच रखा है कि है ही नहीं पृथ्वी पर कोई जिसके सामने मैं झुकू / चाहे आपको पता हो चाहे न पता हो, ये मन की धारणा है। और आपका मन ऐसा सोचता है कि मुझसे श्रेष्ठ हो भी कोई कैसे सकता है! ऐसी धारणा से भरा हुआ अहंकार श्रद्धा को कैसे उपलब्ध होगा! श्रद्धा का अर्थ ही है इस बात की प्रतीति कि मुझसे महान की संभावना है। और यह संभावना आपको क्षुद्र नहीं बनाती, क्योंकि यह आपके भी महान होने का द्वार खोलती है। __ महावीर पर श्रद्धा आपके महावीर होने की संभावना बनेगी ही / अपने पर ही श्रद्धा से आप जो हैं, वही रह जायेंगे। जैसे बीज अपने पर ही भरोसा कर ले और आस-पास के वृक्षों को देखकर भी अनदेखा कर दे, तो फिर उसमें अंकुर कैसे फूटे! अंकुर फूटता है अज्ञात की उठान से, उमंग से। फिर, समर्पण-श्रद्धा एक तरह का विश्राम है। आपके चित्त में इतना कोलाहल है कि विश्राम कहां है? इसलिए जो लोग श्रद्धा को उपलब्ध हो जाते हैं, उनकी शांति देखने जैसी है। क्योंकि उन्हें फिर कोई अशांत नहीं कर सकता / असल में उन्होंने अशांति का कारण ही किसी और के हाथ में सौंप दिया। किसी और के चरणों में जाकर उन्होंने कह दिया कि सारा बोझ अब मैं छोड़ता हूं, अब 'तू' समझ। ऐसा सदा होनेवाला नहीं है, लेकिन प्राथमिक चरण में बड़ा बहुमूल्य है। धीरे-धीरे तो शिष्य गुरु से मुक्त हो जाता है। अगर गुरु से शिष्य मुक्त न हो पाये, तो गुरु सदगुरु नहीं था। गुरु की पूरी चेष्टा यह है कि शिष्य जल्दी-से-जल्दी उससे मुक्त हो जाये; अपनी यात्रा पर निकल जाये, जहां श्रद्धा की कोई जरूरत नहीं / क्योंकि सत्य का प्रकाश स्वयं आने लगता है। अपनी आंखों से देखने लगे; क्योंकि खों से कितना भी देखा जाये, तो भी धुंधला ही होगा। अपने पैरों से चलने लगे; क्योंकि मोक्ष तक कोई भी दूसरे के कंधों पर सवार होकर नहीं पहुंच सकता। लंगड़े-लूलों के लिए वहां कोई जगह नहीं है। लेकिन प्राथमिक चरण में किसी का सहारा बड़ा कीमती हो जाता है। वह सहारा वैसे ही है, जैसे एक दीये की निकटता से दूसरे दीये में ज्योति पकड़ जाती है, फिर तो दूसरा दीया अपनी यात्रा पर खुद चल पड़ता है। फिर तो पहला दीया बुझ भी जाए, तो भी दूसरे दीये को कोई बाधा नहीं आती। फिर पहला दीया खो भी जाए, तो भी दूसरा दीया अपनी यात्रा पर होता है। श्रद्धा प्राथमिक है—पहला स्पार्क, एक पहली चोट-जहां पहली अग्नि पैदा होती है, वहीं उपयोगी है। अंततः उसका कोई उपयोग नहीं, लेकिन प्रथम का बड़ा मूल्य है। चित्त बहुत ज्यादा वासना से ग्रस्त हो, तो हम विश्राम नहीं कर पाते / और जब तक विश्राम न कर पाये मन, तब तक हम इकट्ठे नहीं हो पाते। यह थोड़ा समझ लेना जरूरी है। ___ हम बंटे कटे रहते हैं। महावीर पर थोड़ी श्रद्धा भी होती है, थोड़ी अश्रद्धा भी होती है, थोड़ा उनके विपरीतवाला जो कह रहा है, उस पर भी थोड़ा भरोसा होता है; थोड़ा अपने पर भी भरोसा होता है। ऐसा खण्ड-खण्ड होते हैं। लेकिन श्रद्धा अखण्ड ही हो सकती है, 408
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________________ भिक्षु की यात्रा अंतर्यात्रा है खण्ड-खण्ड नहीं। आप अगर बहुत खण्डों में बंटे हैं, तो आप की हालत ऐसी है, जैसे किसी व्यक्ति के बहुत से परिचित हों, लेकिन मित्र कोई भी न हो। लेकिन परिचित और मित्र में बड़ा फर्क है / एक्वेन्टेन्स-परिचय, परिचय है, ऊपरी है / मित्रता एक गहन संबंध है, एक आंतरिक तीव्रता है-एक मिलन है, जहां एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति में प्रविष्ट हो जाता है। ___तो आप बहुत व्यक्तियों से परिचित हो सकते हैं, वह मित्रता नहीं है। और आप बहुत खण्डों में बंटे हो सकते हैं-थोड़ी श्रद्धा महावीर पर भी, थोड़ी श्रद्धा बुद्ध पर भी, थोड़ी श्रद्धा कृष्ण पर भी लेकिन किसी से भी मित्रता न बनेगी। इस सदी में इस तरह का एक खतरा हुआ है। कुछ अति समझदार लोगों ने, लोगों को ऐसा समझाना शुरू किया है कि महावीर भी वही कहते हैं, कृष्ण भी वही कहते हैं, बुद्ध भी वही कहते हैं, यह बात निहायत गलत है / और उन सभी का मतलब एक है / यह सबको लीप पोत देने जैसा है। उनके मतलब बड़े भिन्न हैं। उनकी मंजिल एक है, उनके रास्ते बड़े भिन्न हैं—अंतिम परिणाम एक है। लेकिन अंतिम परिणाम से क्या लेना-देना? आप वहां अभी हैं नहीं। जहां आप हैं, वहां महावीर और बुद्ध बिलकुल भिन्न हैं, जैसे पूरब-पश्चिम / जहां आप हैं, वहां कृष्ण और क्राइस्ट बिलकुल भिन्न हैं। वहां अगर आपने खिचड़ी बनाने की कोशिश की, जिसको कुछ लोग 'धर्म-समन्वय' कहते हैं- वह खिचड़ी है, समन्वय नहीं है। और खिचड़ी में भी कुछ पौष्टिक तत्व हो-है! इस धर्मों की खिचड़ी में कोई पौष्टिक तत्व नहीं रह जाता; क्योंकि आप सभी रास्तों की खिचडी नहीं बना सकते / चलना तो एक ही रास्ते पर पड़ता है। और जब आप एक रास्ते पर चलते हैं, तब उचित है कि सभी रास्तों से आपका चित्त हट जाये ताकि पूरी शक्ति एक प्रवाह से लग जाए। लेकिन जो चित्त खण्डित है बहुत चीजों में, वह कोई श्रद्धा पैदा नहीं कर पाता / जो कहता है, हमारी श्रद्धा सभी में है, समझना कि उसकी श्रद्धा किसी में भी नहीं है। असल में आपको अगर सबमें से किसी से भी श्रद्धा का संबंध जोड़ने से बचना हो, तो सबमें श्रद्धा करना--करना अच्छा है। आज सुबह कुरान भी पढ़ ली, थोड़ी गीता भी पढ़ ली, और फिर पीछे गीत गा लिया—'अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान।' ___ नहीं, गीता और कुरान बड़े भिन्न रास्तों पर जाते हैं। और गीता मांगती है पूरी श्रद्धा, और कुरान भी मांगता है पूरी श्रद्धा; महावीर भी मांगते हैं पूरी श्रद्धा। श्रद्धा का यह अर्थ नहीं है कि आप अंधे हो जायें। श्रद्धा का अर्थ यह है कि आप पूरे महावीर के साथ खड़े हो जायें, अधूरे खड़े होने का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन हम सब चीजों में अधूरे हैं। न तो हमने कभी प्रेम किसी को ऐसे किया है कि पूरी पृथ्वी से हमारा सारा प्रेम सिकुड़कर एक धारा में बहने लगे; न हमने कभी मित्रता ऐसी की है कि हमारे पूरे जीवन का प्रकाश, हमारे पूरे जीवन की ऊर्जा एक ही व्यक्ति के साथ गहनता से जुड़ जाये। ___ इसका यह मतलब नहीं है कि सब दुश्मन हो जायेंगे। जिंदगी बड़ी बेबूझ है। अगर आप एक व्यक्ति से इतने गहरे जुड़ जायें जितना कि जुड़ सकते हैं, आप सारे जगत के प्रति मैत्रीपूर्ण हो जायेंगे। लेकिन मित्रता एक से होगी। वह एक द्वार होगा सारे जगत के प्रति मैत्री का / अगर आप एक व्यक्ति से इतना प्रेम कर लें कि आप भल ही जायें; यह संभावना ही खो जाये कि यह प्रेम किसी खंड में बंट सकत है, तो आप सारे जगत के प्रति प्रेम से भर जायेंगे। इस व्यक्ति के माध्यम से वह प्रेम की गंगा बहेगी और सारे जगत में फैल जायेगी, लेकिन बहेगी सदा गंगोत्री से / गंगोत्री पर द्वार बड़ा सकरा होता है; होगा ही। श्रद्धा भी अगर एक पर हो जाए, तो धीरे-धीरे श्रद्धा का प्रकाश सब तरफ पड़ने लगेगा, लेकिन धारा एक से ही बहेगी। हम इतने खण्डित हैं, इस कारण किसी तरह के विश्राम को उपलब्ध नहीं होते। मैंने सुना है, मनसविद कहते भी हैं, अनेक लोग सो 409
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 तक नहीं पाते रात में, और उसका कुल कारण इतना है कि मन इतना बंटा होता है, और नींद एक को आ सकती है, भीड़ को नहीं आ सकती। अगर आप एक हैं, तो सो जायेंगे; अगर भीड़ खड़ी है मस्तिष्क में, तो कैसे सोयेंगे? __ आपका कोई हिस्सा अभी सिनेमा देखने जाना चाहता है; कोई हिस्सा किताब पढ़ना चाहता है; कोई हिस्सा ध्यान करना चाहता है; कोई हिस्सा सोना चाहता है; कोई हिस्सा कह रहा है कि क्यों रात बरबाद कर रहे हो सोकर? ऐसे तो जिंदगी खराब हो जायेगी। अगर आदमी साठ साल जिये, तो बीस साल तो नींद में ही नष्ट हो जाते हैं—भोग लो, जिंदगी हाथ से जा रही है। तो चलो किसी क्लब-घर में, किसी नृत्य-घर में। पच्चीस खंड हैं, उस कारण आप नहीं सो पा रहे हैं। नींद तक असम्भव हो गयी / क्योंकि नींद के लिए भी थोड़ी एकजुटता चाहिए। प्रेम और भी मुश्किल हो गया है। क्योंकि जब नींद के लिए एकजुटता चाहिए, तो प्रेम के नशे के लिए तो और भी गहरी एकजुटता चाहिए। श्रद्धा करीब-करीब-करीब-करीब खो गयी है, क्योंकि उसके लिए बहुत ही अखण्डता चाहिए। मुल्ला नसरुद्दीन पूछता है अपने मनसविद से कि मैं सो नहीं पाता, कोई उपाय मुझे बतायें / सब विचार करके उसके मनसविद ने कहा कि तुम्हें थोड़ी विश्राम की कला सीखनी होगी। तो रात आज तुम स्नान करके आराम से बिस्तर पर लेट जाना और फिर अपने शरीर से थोड़ी बात करना, और शरीर को थोड़ी आज्ञा देना / अंगूठे से शुरू करना; कहना, पैर के अंगूठे सो जाओ-~~-टोज, नाउ गो टु स्लीप / और तब अनुभव करना / फिर कहना-पंजे सो जाओ, फिर पैर सो जाओ। ऐसे ऊपर बढ़ते जाना और आखिर में सिर तक आना / और फिर अंत में आंखों के लिए कहना-'नाउ आइज गो टु स्लीप।' और आंखों तक आते-आते तुम सो ही चुके होगे। नसरुद्दीन भागा हुआ घर आया। कई दिन से सो नहीं पाया था। रात की राह देखी, स्नान किया, बिस्तर ठीक से तैयार किया, फिर लेट गया अपने बिस्तर पर। पत्नी स्नान करने बाथरूम में चली गयी। वह लेट गया अपने बिस्तर पर और उसने शुरू किया, जैसा मनसविद ने कहा था ।पैर से शुरू किया कि-नाउ टोज गोटू स्लीप; नाउ फीट गोट स्लीप, नाउमाइ लेग्स गोट स्लीप; माइ हिप्स...और ऐसे-ऐसे वह बढ़ता गया ऊपर / वह बस करीब-करीब आ ही रहा था, जब वह कहनेवाला था कि मेरा सिर, माइ हेड, गो टु स्लीप, पत्नी नहाकर बाथरूम से बाहर निकली। उसे देखकर ही उसने जोर से अपने हाथ अपने शरीर पर मारे और कहा, 'एवरीबडी अवेक इमीजियेटली-एवरीबडी अवेक-सब जाग जाओ। वासना सोने तक नहीं देती, तो वासना समर्पण कैसे करने देगी! वासना विश्राम तक में नहीं उतरने देती, तो वासना श्रद्धा मैं कैसे उतरने देगी! क्योंकि श्रद्धा परम विश्राम है, जहां मन कुछ भी नहीं चाह रहा है, और जहां मन कहता है, अब कुछ चाहना भी नहीं है, अब सिर्फ होना है-जस्ट बीइंग। अब सिर्फ मैं होना चाहता है। मेरी कोई चाह नहीं है। तब महावीर से संबंध जडता है। अब हम इस सूत्र में उतरें। 'जो ज्ञातपुत्र-भगवान महावीर के प्रवचनों पर श्रद्धा रखकर छह प्रकार के जीवों को अपनी आत्मा के समान मानता है, जो अहिंसा आदि पांच महाव्रतों का पूर्णरूप से पालन करता है, जो पांच आस्रवों का संवरण अर्थात निरोध करके जीता है, वही भिक्षु है।' ___ 'भिक्षु' शब्द को थोड़ा खयाल में ले लेना चाहिये क्योंकि जगत में सिर्फ भारत अकेला देश है जिसने भिक्षु को सम्राट के भी ऊपर रखा है / वैसी घटना पृथ्वी पर कहीं नहीं घटी। यह घटना अलौकिक है। सम्राट से ऊपर पृथ्वी पर कहीं भी कोई नहीं रहा है। सिर्फ भारत अकेला देश है, जहां हमने सम्राट के ऊपर भिक्षु को स्थापित किया है / क्योंकि सम्राट भोग का शिखर है, और भिक्षु त्याग का / सम्राट चीजों को संग्रह करता चला गया है, सब कुछ संग्रह करता चला गया है पागल की तरह, और भिक्षु ने अपने को बचाया है; बाकी कुछ भी नहीं बचाया है। सम्राट वस्तुओं को इकट्ठा कर रहा है, भिक्षु सिर्फ अपनी आत्मा को इकट्ठा कर रहा है। सम्राट चीजों में खोया हुआ 410
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________________ भिक्षु की यात्रा अंतर्यात्रा है है, भिक्षु चीजों से अपने को मुक्त कर रहा है ताकि अपने में प्रवेश कर सके / सम्राट की यात्रा बहिर्यात्रा है; भिक्षु की यात्रा अन्तर्यात्रा है। ___ "भिक्षु' शब्द परम आदरणीय है। भिक्षु का अर्थ है कि अब जिसके पास अपना कहने योग्य कुछ भी नहीं सिवाय स्वयं के होने के। जो किसी चीज का मालिक नहीं रहा है। जिसका कोई पजेशन नहीं / जिसका कोई परिग्रह नहीं / जो कहता है, मेरा कुछ भी नहीं है; सिर्फ मै हं, जिसके पास एक दाना भी अपना कहने को नहीं है। जिसका सब-कुछ संसार का है और जिसने एक भेद रेखा स्पष्ट अनुभव कर ली है कि मेरा मैं ही अकेला हो सकता हूं, कोई संपदा मेरी नहीं हो सकती; क्योंकि जब मैं नहीं था, जब संपदा थी, महल थे, जमीन थी, जायदाद थी, हीरे थे, मोती थे; जब मैं नहीं रहूंगा, तब भी वे होंगे; मैं व्यर्थ ही बीच में अपना परिग्रह स्थापित करके परेशान हूं। उससे हीरे-मोती परेशान नहीं होते, उससे मैं ही परेशान होता हूं। जब आप मर जायेंगे तो आपका घर नहीं रोयेगा; बड़ा मजा है। लेकिन आपका घर जल जाये तो आप रोयेंगे। मालिक कौन है? आपका हीरा खो जाये, तो हीरा आपकी जरा भी चिंता नहीं करेगा। हीरा सोचगा ही नहीं कि आप कहां खो गये / आप जैसे बहुत लोग आये और खो गये। लेकिन आप बड़ी मुश्किल में पड़ जायेंगे / और आप सोचते थे कि आप मालिक हैं / मालिक मुश्किल में पड़ता है। __नहीं, जिन चीजों को हम सोच रहे हैं, हम उनके मालिक हैं, वे हमारी मालिक हो गयी हैं। मालकियत हमारा बिलकुल वहम है, असत्य है। इसलिए इस देश ने भिक्षु को सर्वोत्तम जीवन की आखिरी ऊंचाई का फूल कहा है, जहां एक व्यक्ति यह अनुभव कर लेता है कि परिग्रह का कोई उपाय नहीं है / वस्तूयें किसी की भी नहीं हो सकती हैं। सिर्फ एक ही घटना है जो मेरी हो सकती है; वह मेरी आत्मा लेकिन हम बड़े अजीब लोग हैं / हम सब चीजों पर दावा करते हैं, सिर्फ उस एक पर दावा नहीं करते, जिस पर दावा हो सकता है। इसलिए अगर ठीक से समझें तो अर्थ यह हआ कि हम बहत चीजों के मालिक नहीं हो पाते. बहत चीजों के प्रति भिखारी हो जाते हैं। असल में तो हम भिखारी हैं, लेकिन हमको मालिक होने का खयाल है। महावीर जिसको भिक्षुकहते हैं, वही मालिक है। लेकिन, वह हम सब अपने को मालिक कहते हैं, इसलिए महावीर ने उसे मालिक कहना उचित नहीं समझा-क्योंकि उससे भ्रांति होगी। हम सभी अपने को मालिक समझते हैं, तो हम सबको ठीक चोट देने के लिए महावीर और बुद्ध दोनों ने उस परम घटना को भिक्षु कहा / बुद्ध अपने को 'भिक्षु' कहते हैं, जिनके पास अपनी मालकियत है; और हम अपने को 'मालिक' कहते हैं, जो वस्तुओं के गुलाम हैं। तो जिस दुनिया में गुलाम अपने को मालिक समझते हों, यह उचित ही है कि मालिक अपने को भिक्षु कहे; नहीं तो भाषा में बड़ी गड़बड़ हो जायेगी। ___ इसलिए हिंदुओं का जो शब्द है, स्वामी, वह जैनों और बौद्धों ने चुनना पसंद नहीं किया / वह शब्द बिलकुल सही है—एकदम सही है। 'स्वामी' का अर्थ है : 'मालिक'.जो अपना सचमच मालिक है। हिंदुओं ने अपने संन्यासी को स्वामी कहा। बिलकुल ठीक कहा। यही ठीक है। लेकिन बुद्ध और महावीर ने उलटा शब्द चुना, 'भिक्षु' / उनका व्यंग गहरा है / वे यह कह रहे हैं कि यहां तो सभी अपने को 'स्वामी' समझ रहे हैं, यहां तुम भी अपने को स्वामी कहोगे तो भाषा बड़ी गड़बड़ हो जायेगी। और जहां सभी पागल अपने को स्वस्थ समझते हों; वहां स्वस्थ आदमी को अपने को पागल कहना ही उचित है। __ कौन है भिक्षु? सच में जो मालिक हो गया। लेकिन सच की मालकियत सिर्फ अपने पर हो सकती है, और किसी पर भी नहीं हो सकती। और जब तक कोई व्यक्ति दूसरे पर मालकियत करने की कोशिश करता है, तब तक अपने जीवन का अपव्यय करता है। वह शक्ति व्यर्थ जा रही है। उसका कोई अर्थ नहीं होनेवाला है। वह कहीं भी पहुंचेगा नहीं। वह सिर्फ अपने को रिक्त कर रहा है, चुका रहा 411
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 है, खत्म कर रहा है; वह नष्ट कर रहा है। वह आत्महंता है क्योंकि जो नहीं हो सकता, वह नहीं होगा; वह कभी नहीं हुआ है। ऐलिग्जेन्डर और नेपोलियन गुजरते हैं रास्तों से मालिक होने की कोशिश में, और दीन-दरिद्र ही मरते हैं। ठीक उलटा प्रयोग है महावीर का कि तुम मालिक होने की कोशिश छोड़ दो बाहर की तरफ / भीतर एक संसार है / भीतर एक साम्राज्य है-एक विस्तार है, एक आकाश है / तुम उसके मालिक हो / तुम उस मालकियत को 'क्लेम' कर लो। तुम उस मालकियत के दावेदार हो जाओ। लेकिन ऐसा दावा वही कर पायेगा, जो श्रद्धा से शुरू करे किसी मालिक पर; श्रद्धा से शुरू करे किसी सम्राट पर--महावीर, या बुद्ध, या कृष्ण, या क्राइस्ट, या मुहम्मद जैसे किसी मालिक पर भरोसा करे जिसमें उसे स्वामित्व दिखा हो। जिसमें उसने झलक पायी हो कि यह आदमी गुलाम नहीं है, किसी बात का गुलाम नहीं है। उस पर श्रद्धा से यात्रा शुरू होगी। तो जो ज्ञातपत्र महावीर के वचनों पर श्रद्धा रखकर सब जीवों के भीतर अपनी ही जैसी आत्मा का विचार करता है; अनुभव करता है; अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अकाम, अप्रमाद-पंचमहाव्रतों में जो गति करता है, उनका पालन करता है; रोकता है शक्ति को व्यर्थ जाने से; आस्रवों का ध्यान रखता है, संवरण करता है; और जीवन बाहर भटक न जाये, मरुस्थल में जीवन की ऊर्जा व्यर्थ न हो, भीतर सृजनात्मक हो जाये, अपनी आत्मा को ऐसा निरंतर निरोध करता है व्यर्थ में जाने से, वही भिक्ष है। हम तो व्यर्थ के लिए आतुर होते हैं। खबर भर मिल जाए, हम दौड़ पड़ते हैं / व्यर्थ को हम न मालूम कितना मूल्य देते हैं। शायद हम कभी सोचते भी नहीं कि हम भेद करें सार्थक और व्यर्थ का; कि हम सार और असार का ठीक विवेचन करें; कि ठीक विवेक करें कि क्या सही है और क्या गलत है। शंकर ने कहा है : सार और असार को जो ठीक से पहचान लेता है, वही संन्यासी है। क्योंकि जो सार को पहचान लेता है. फिर वह असार से अपने को रोकने लगता है, संवरण करने लगता है। और जो सार को पहचान लेता है, वह चुपचाप, अनजाने ही सार की तरफ बढ़ने लगता है। गलत की तरफ जाना असम्भव है। ठीक की तरफ जाने से रुकना असंभव है। लेकिन ठीक और गलत का बोध होना चाहिए, क्या गलत है और क्या ठीक है। वह हमें जरा भी बोध नहीं है। तो महावीर कहते हैं : वह बोध भी हमें तभी पैदा होगा जब हम किसी पर श्रद्धा करें, जिसे ठीक और गलत जिसके जीवन में आ गये हैं। सूफी फकीर, बायजीद, अपने गुरु के पास गया और उसने अपने गुरु को कहा मुझे कुछ शिक्षा दें तो उसके गुरु ने कहा कि तू सिर्फ मेरे पास रह और मुझको देख, और मेरा निरीक्षण कर; उठना, बैठना, खाना, पीना, सोना सब तू मेरा देख, और मेरा निरीक्षण कर / उसी निरीक्षण से तुझे विवेक उत्पन्न होगा। बायजीद ने कहा, यह बड़ा कठिन मामला दिखता है / सीधा मुझे कह दिया होता कि क्या करूं, तो मैं कर लेता; कह दिया होता-यह मत करो, तो मैं नहीं करता। हम सब पचा-पचाया भोजन चाहते हैं। कोई हमारे लिए चबाकर हमारे मुंह में डाल दे। चबाने तक का कष्ट नहीं उठाना चाहते। लेकिन ध्यान रहे, ऐसा पचाया हुआ भोजन अपच ही कर सकता है / वह आपके जीवन में ठीक-ठीक प्रवेश नहीं कर पायेगा। बायजीद के गुरु ने ठीक कहा कि तू बस बैठ और मेरा निरीक्षण कर; मेरे पास बैठ और देख क्या-क्या होता है। बायजीद बैठ गया। पहले दिन ही एक घटना घटी। एक आदमी आया और बड़ी गालियां देने लगा; बायजीद के गुरु को बड़े अशोभन शब्द बोलने लगा। बायजीद को कई दफा हुआ कि उठकर एक हमला इस आदमी पर बोल दे। लेकिन गुरु ने कहा था, तुझे कुछ करना नहीं है। तुझे बस मुझे देखना है / तू कृपा करके बीच में कुछ मत करने लगना, क्योंकि तू यहां करनेवाला नहीं है-तू सिर्फ यहां देखना। 412
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________________ भिक्षु की यात्रा अंतर्यात्रा है तो उसे बड़ी तकलीफ हो रही है। उसका दिल तो उस आदमी को देखने का हो रहा है, जो गालियां दे रहा है। लेकिन आज्ञा उसे हुई थी कि वह गुरु को देखे। __ गलत को देखने का मन होता है। ठीक में ज्यादा रस नहीं मालूम पड़ता / गुरु चुपचाप बैठा है। वहां देखने योग्य भी कुछ नहीं लगता। गुरु शांत बैठा है। बायजीद को बड़ी बेचैनी होती है। उसका दिल तो वहां देखने का होता है। लेकिन फिर वह अपने को समझाता है कि देखू गुरु को ही, इस आदमी से मुझे सीखना भी क्या है जो मैं देखू / यह असार है। फिर गुरु ने भी कहा है कि मुझे ही देखो। गुरु बैठा है, चुप / वह हंसता रहता है / वह आदमी गालियां देकर चला जाता है, बायजीद अपने गुरु से पूछता है कि इस आदमी ने इतनी गालियां दीं और आप चप-चाप बैठे रहे? उसके गरु ने कहा कि त सबह यहां नहीं था, अब कल सुबह तझे पता चल जायेगा। क्योंकि सुबह-सुबह एक भक्त मेरा यहां आता है और मेरी इतनी प्रशंसा करता है कि तराजू के एक पलड़े को बिलकुल जमीन से लगा देता है / यह उसको ठीक कर गया है / यह मुझे बिलकुल बैलेंस कर गया है। यह आदमी बड़ा गजब का है। यह कभी-कभी आता है। __दूसरे दिन सुबह वह आदमी आया और प्रशंसा के पुल बांधने लगा। बायजीद का फिर मन हुआ उसकी बातें सुनने का, लेकिन उसने खयाल रखा कि वह गुरु को देखे। भक्त के चले जाने के बाद गुरु ने बायजीद से कहा, 'तूने देखा? जगत एक संतुलन है। वहां प्रशंसा भी है, वहां गाली भी है, प्रशंसा से फूल मत जाओ, गाली से पीड़ित मत हो जाओ। वे दोनों एक-दूसरे को काटकर अपने आप शुन्य हो जायेंगे। तुम अपनी जगह रहो, तुम बेचैन मत हो-न गाली देनेवाले से कुछ प्रयोजन है, न प्रशंसा करनेवाले से कुछ प्रयोजन है। वे दोनों आपस में निपट रहे हैं। तुम अलग ही हो-बायजीद से कहा, 'तू बस मुझे देखता रह और उसी देखने में से तुझे सार का पता चलने लगेगा। और उसी सार पर तू चल पड़ना, और असार से अपने को बचाना / क्योंकि मन असार की तरफ खींचता है / क्योंकि मन बिना असार के जी नहीं सकता। कचरा ही उसका भोजन है। अपने को रोकना असार की तरफ जाने से, संवरित करना / सार की तरफ अपने को ले जाना साधना है।' तो महावीर कहते हैं, वही भिक्षु है, जो श्रद्धापूर्वक देखे-जैसा महावीर जीते हैं। महावीर के लिए जीवन तो सहज है, क्योंकि उन्हें सबके भीतर एक ही आत्मा का दर्शन होता है; आपको नहीं होता। तो महावीर का जो जीवन है, उस जीवन को गौर से देखकर, उसको आत्मीयता से अपने साथ संभालकर, सार को पहचानकर वैसे ही जीवन में बहने का जो प्रयास है...! प्रथम में वह प्रयास ही होगा। शुरू-शुरू में चेष्टा करनी पड़ेगी; धीरे-धीरे खुद भी दिखाई पड़ने लगेगा। महावीर की आंखों की फिर जरूरत न होगी। फिर भिक्षु स्वयं अपनी यात्रा पर चल पड़ेगा। महावीर के पास दस हजार भिक्षुओं का समूह था / जैसे-जैसे कोई भिक्षु पक जाता था, वैसे-वैसे महावीर उससे कह देते कि अब तू, जो तुझे मिला है, उसे बांटने निकल जा। अब मेरे पास होने की जरूरत नहीं है। अब मेरे सहारे की कोई आवश्यकता नहीं है। ठीक वैसे ही, जैसे छोटे बच्चे को मां-बाप चलाते हैं, तो मां हाथ पकड़ लेती है / यह कोई जीवनभर का उपक्रम नहीं है कि मां जीवन भर हाथ पकड़े रहे / कुछ मां नहीं छोड़ती हैं। वे दुष्ट हैं, खतरनाक हैं; वे बच्चे की जान ले लेती हैं। कुछ बाप चाहते हैं कि लड़के का हाथ सदा ही पकड़े रहें। वे सदा चाहते हैं कि वे ही लड़के को चलाते रहें। वे बाप नहीं हैं, वे __लेकिन पहले दिन जब बच्चा खड़ा होता है, तो मां या बाप उसका हाथ अपने हाथ में ले लेते हैं। भलीभांति जानते हुए कि बच्चे के पैर खुद ही थोड़े दिनों में समर्थ हो जायेंगे-समर्थ हैं, लेकिन अभी बच्चे को आत्मश्रद्धा नहीं है; अभी बच्चे को भरोसा नहीं है कि मैं चल पाऊंगा। वह अभी डरता है / वह कभी चला नहीं है / उसे चलने का कोई अनुभव नहीं है। वह भयभीत होता है / इस भय के कारण कहीं वह ऐसा न हो कि घसीटता ही रहे और चले न, उसका भय भर कम करना है। नहा ह, व दुश्मन हैं। 413
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 श्रद्धा से पैरों में चलने की ताकत नहीं आयेगी। सिर्फ बाप हाथ पकड़े है तो लड़का शक्तिपूर्वक खड़ा हो जायेगा, क्योंकि वह सोचेगा कि जब हाथ पकड़े हैं तो मैं निश्चिंत हूं, गिरूंगा तो वह बचायेगा। और एक बार उसके पैर चलने लगे, बहुत जल्दी उसे अनुभव हो जायेगा कि बाप का हाथ मुझे नहीं चला रहा है, मेरे पैर चला रहे हैं। फिर लड़का खुद ही अपने हाथ को अलग करना चाहेगा, क्योंकि खुद पैरों पर खड़े होने का आनंद ही और है। लेकिन सदगुरु चाहता ही है कि जल्दी से जल्दी वह अपना हाथ छुड़ा ले। इसलिए सदगुरु पूरी कोशिश करता है कि शिष्य का हाथ छोड़ दे। असदगुरु शिष्य का हाथ जोर से पकड़ लेता है, असदगुरु इसलिए हाथ पकड़ लेता है कि उसको चलाये-शिष्य चले, इसमें उसका रस नहीं है। शिष्य उस पर निर्भर रहे, उसमें उसका रस है। __ इसलिए मां-बाप बन जाना बहुत आसान है, सब में मातृत्व और पितृत्व पाना बहुत कठिन है; क्योंकि मां-बाप तो पशु भी बन जाते हैं। उसमें कुछ बहुत बड़े गुण की जरूरत नहीं है। लेकिन फिर कब बच्चे को चलते वक्त छोड़ देना है, कब उसको अपने पैरों पर धक्का दे देना है, कब उसको मुक्त कर देना है निर्भरता से, इस कला को जानने का नाम ही मातृत्व और पितृत्व है। ठीक पिता वही है, जो जल्दी से जल्दी बच्चे को स्वतंत्र कर दे, मुक्त कर दे; उस जगह खड़ा कर दे, जहां वह खुद चल सकता है। लेकिन हमें भी मजा आता है कि कोई हम पर निर्भर हो। क्योंकि कोई निर्भर हो तो हमको लगता है कि हम भी कुछ हैं। मां-बाप को दुख होता है, जब बच्चा उनसे मुक्त होता है। मां पीड़ा पाती है, जब बच्चा अपने पैरों पर चलने लगता है। __ उसे पता नहीं है, साफ नहीं है। पहले तो वह बहुत खुश होती है कि बच्चा अपने पैरों चल रहा है। लेकिन उसे पता नहीं है। क्योंकि यह पैरों पर चलना तो प्राथमिक घटना है। अभी आगे और बहुत आयामों में बच्चा अपने पैरों पर चलेगा। कल तक वह अपनी मां की गोद में बैठ जाता था छिपके; जल्दी ही वह शर्म अनुभव करने लगेगा; वह मां की गोद में नहीं बैठना चाहेगा। वह मां के साथ सोता था रात; जल्दी ही वह अपना अलग बिस्तर मांग करेगा कि वह अलग सोना चाहता है / तब मां को पीड़ा शुरू हो जाएगी। इस जगत में मां के अतिरिक्त कोई भी स्त्री उसके लिए मूल्यवान नहीं थी, लेकिन शीघ्र ही कोई स्त्री उसके लिए मां से ज्यादा मूल्यवान हो जायेगी। मां की तरफ पीठ हो गयी। मां दिक्कत देनी शुरू करेगी। सास-बहुएं जो लड़ रही हैं; उसके पीछे यह मां की झंझट है। वह बेटा, जो उसका एक मात्र प्रेमी था, वह अचानक एक दूसरी स्त्री ने उसे छीन लिया। तो बह सास को निरंतर ही दुश्मन की तरह मालूम पड़ती है। वह कितना ही अपने को समझाये, उसे लगता है उसका बेटा छीन लिया गया। __ यह मां ठीक मां नहीं है / इसे मां होने की कला का पता नहीं है / इसे आनंदित होना चाहिए कि बेटा अब पूरी तरह मुक्त हो गया; परी तरह गर्भ के बाहर हो गया। अब दुसरी स्त्री महत्वपूर्ण हो गयी। बेटा अब स्वयं एक यूनिट, एक इकाई बन गया। अब वह खुद परिवार बना सकता है। मां से जुड़ा हुआ, उसके पल्ले को पकड़े हुए जो बेटा है, वह यूनिट नहीं है। शिष्य जब तक गुरु न हो जाये, तब तक गुरु को चैन नहीं है; क्योंकि जब तक वह गुरु न हो जाये, तब तक धर्म उसके आस-पास फैल नहीं सकता; तब तक उसका अपना परिवार निर्मित नहीं हो सकता / तो गुरु चाहेगा कि जल्दी शिष्य श्रद्धा से मुक्त हो / लेकिन श्रद्धा से वे ही मुक्त हो सकते हैं, जिन्होंने श्रद्धा की है। आप यह मत सोचना कि हम पहले से ही मुक्त हैं; झंझट में ही क्यों पड़ना कि पहले श्रद्धा में पड़ो और फिर मुक्त हो जाओ। जब मुक्त ही होना है, तो श्रद्धा ही क्यों करूं? तो आप श्रद्धा से कभी मुक्त न हो पायेंगे। ऐसा हो रहा है। जे. कृष्णमूर्ति को सुननेवालों को ऐसी भ्रांति पैदा होती है। जे. कृष्णमूर्ति जो कह रहे हैं, बिलकुल ठीक कह रहे हैं। वही गुरु का काम है कि वह व्यक्ति को श्रद्धा से मुक्त करे। लेकिन एक पहलू खोया हुआ है / और सुननेवाला बहुत प्रसन्न हो रहा है कि 414
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________________ भिक्षु की यात्रा अंतर्यात्रा है मैं किसी पर भी श्रद्धा नहीं करता; मैं ठीक उसी अवस्था में पहुंच गया हूं, जिसकी कृष्णमूर्ति बात कर रहे हैं। ___ महावीर और कृष्णमूर्ति की, दोनों की बात अगर आपके जीवन में मिल जाये, तो ही आप पूरे हो पायेंगे। महावीर प्राथमिक बात कह रहे हैं, क्योंकि प्रथम से ही शुरू करना है। कृष्णमूर्ति अंतिम बात कह रहे हैं, जहां पूरा करना है / वह कहना ठीक है / लेकिन जिनसे वे कह रहे हैं, उनमें अकसर गलत लोग हैं। उनमें वे ही लोग हैं, जो श्रद्धा करने में असमर्थ हो गये हैं। जिनकी श्रद्धा बिलकुल सूख गयी है। जो नपुंसक हैं श्रद्धा की दृष्टि से, इंपोटेंट हैं। जिनमे कोई संभावना नहीं है। जो अपने को समर्पित कर ही नहीं सकते, वे कृष्णमूर्ति को सनकर प्रसन्न होते हैं। वे कहते हैं, तब हमारे लिए भी मार्ग है। कोई चिन्ता की बात नहीं / किसी को गरु बनाने की जरूरत नहीं, अपने ही पैरों पर चलना है। ये वे ही छोटे बच्चे हैं, जो अभी पालने में पड़े हैं, और जिनको कोई समझा दे कि बाप का हाथ मत पकड़ना, क्योंकि हाथ पकड़ने से आदमी निर्भर हो जाता है - ये बच्चे झूलनों में ही पड़े रह जायेंगे; और ये जिन्दगीभर घुटनों से ही सरकते रहेंगे। अतः कोई जो खड़ा है अपने पैरों पर, और कोई जो इनसे काफी बड़ा है, जो इनको भरोसा दे सके; जिसको देखकर इनको आस्था आये और इनको लगे कि ठीक है, जब यह आदमी खड़ा है, और इतना शक्तिशाली आदमी खड़ा है, तो इस पर भरोसा करना उचित है। बाप से ज्यादा शक्तिशाली आदमी बेटे के लिए और कोई नहीं होता / मुल्ला नसरुद्दीन के जीवन में एक उल्लेख है / उसका बेटा बडा होने लगा। एक दिन उसने अपने बेटे को कहा कि तू इस सीढ़ी से ऊपर चढ़ जा। बेटा ऊपर चढ़ गया। वह सदा मुल्ला नसरुद्दीन की बात मानता था। बेटे के ऊपर चढ़ जाने के बाद नसरुद्दीन ने सीढ़ी अलग कर ली, और बेटे से कहा कि अब तू कूद पड़। बेटे ने कहा कि कूद पडूं? हाथ-पैर टूट जायेंगे! नसरुद्दीन ने कहा कि मैं मौजूद हूं, तेरा पिता। मैं तुझे संभाल लूंगा / कूद पड़ डर मत / लड़के ने बड़ी हिम्मत बांधी कई बार, और फिर रुक गया। उसने कहा, 'लेकिन दूरी काफी है। अगर जरा चूका, तो हड्डी-पसली एक हो जायेगी।' नसरुद्दीन ने कहा कि जब मैं मौजूद हूं, तो तू डरता क्यों है? लड़का हिम्मत करके, बाप पर भरोसा करके कूद गया।कूदते ही नसरुद्दीन दूर हो गया। लड़का नीचे गिरा, दोनों पैर लहूलुहान हो गये। उस लड़के ने कहा कि क्या मतलब? नसरुद्दीन ने कहा, अपने बाप पर भी अब भरोसा मत करना / अब किसी पर भरोसा नहीं, अपने बाप का भी नहीं। अब तुझे मैं स्वतंत्र करता हूं। अब तू अपनी बुद्धि से चल / अब बहुत हो गया। एक दिन गुरु भी कहेगा कि कूद पड़, अब किसी पर भरोसा नहीं। लेकिन यह संभावना तभी है, जब भरोसा पैदा हुआ हो। श्रद्धा चाहिए, ताकि अंततः श्रद्धा से मुक्त हुआ जा सके। और जो श्रद्धा नहीं कर पाते, वे श्रद्धा-मुक्ति को कभी उपलब्ध नहीं होते। कृष्णमूर्ति को सुननेवाले लोग श्रद्धा से कभी मुक्त नहीं हो सकेंगे। यह बात बड़ी उलटी मालूम पड़ेगी लेकिन जिन्होंने श्रद्धा ही नहीं की, वहां उनके पास मुक्त होने को भी कुछ नहीं है। महावीर पर श्रद्धा करनेवाला मुक्त हो सकेगा, क्योंकि मुक्त होना श्रद्धा के भीतर ही छिपा है। ___ 'जो सम्यकदर्शी है; जो कर्तव्य-विमूढ़ नहीं है, जो ज्ञान, तप और संयम का दृढ़ श्रद्धालु है, जो मन, वचन, और शरीर को पाप-पथ पर जाने से रोक रखता है; जो तप के द्वारा पूर्व-कृत, पाप-कर्मों को नष्ट कर देता है; वही भिक्षु है।' ___ 'जो सम्यकदर्शी है'—यह शब्द महावीर को बहुत प्रिय है। यह शब्द है भी बड़ा मूल्यवान - राइट विजन / सम्यक दर्शक - जिसे ठीक-ठीक देखने की कला आ गयी। जिसकी आंखों पर से सारे पर्दे और धारणायें अलग हो गयीं। जिसकी आंखें नग्न और शुद्ध हो गयीं; और जो देखता है तो देखते वक्त अपने आरोपण नहीं करता, उसका नाम है, 'सम्यक दृष्टि / ' हम जब भी देखते हैं तो हमारा आरोपण हो जाता है। हम जो देखते हैं उसमें हम अपने को मिश्रित कर लेते हैं। हमारा देखना शुद्ध 415
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 नहीं है। जब आप किसी स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हैं, तो आपको स्त्री सुंदर दिखाई पड़ती है। मनसविद से पूछे, वह कहता है कुछ और। आप कहते हैं, स्त्री सुंदर है / इसलिए मैं प्रेम में पड़ गया; और मनसविद कहता है, आप प्रेम में पड़ गये, इसलिए यह स्त्री सुंदर दिखाई पड़ रही है / क्योंकि यह स्त्री और किसी को सुंदर दिखाई नहीं पड़ रही है / यह अगर सुंदर होती-आब्जेक्टिव्हली, तो सारा जगत इसके प्रेम में कभी का पड़ गया होता; आपको मौका भी नहीं मिलता / इतने दिन तक यह प्रतीक्षा करती रही, कोई प्रेम में नहीं पड़ा। आपकी यह राह देखती रही! उसका कारण है, क्योंकि जो प्रेम में पड़ जाए, उसी को यह सुंदर दिखाई पड़ेगी। सौंदर्य प्रेम का प्रोजेक्शन है। आप अपने प्रेम को आरोपित करते हैं किसी चेहरे पर, किसी शरीर पर। और ऐसा मत समझना कि यह स्त्री सदा सुंदर रहेगी। हो सकता है, कल ही यह असुंदर हो जाये / यह कल वही रहेगी, जो आज है। लेकिन तुम्हारा प्रेम अगर तिरोहित हो गया तो यह असुंदर हो जायेगी। ___ हम सभी चीजें आरोपित कर रहे हैं। जहां आपको साधुता दिखाई पड़ती है, वह भी आपका आरोपण है / यह बड़े मजे की बात है, अगर मुसलमान साधु जैन के सामने खड़ा हो, तो जैन को वह साधु नहीं मालूम होता / जैन का साधु हिंदू को साधु नहीं मालूम पड़ता, हिंदू का साधु, बौद्ध को साधु नहीं मालूम पड़ता / बौद्ध भिक्षु, बौद्ध का साधु जैनियों को साधु नहीं मालूम होता / निश्चित ही, साधुता वहां नहीं है। साधुता कुछ हमारी धारणा में है, जो हम आरोपित करते हैं। अब जैसे देखें-बौद्ध का साधु मांसाहार कर लेता है; शर्त एक ही है कि मरे हुए जानवर का मांस हो—अपने-आप मर गये जानवर का मांस हो / बात तर्कयक्त मालम पडती है। क्योंकि बद्ध ने कहा, मारने में हिंसा है। अगर कोई किसी गाय को मारकर खाता है, तो हिंसा कर रहा है। लेकिन गाय अपने से मर गयी तब इसके मांस को खाने में क्या हिंसा है? बात साफ है। लेकिन बुद्ध का भिक्षु जब मांस खाता है तो जैन का मुनि तो सोच ही नहीं सकता कि यह आदमी...और साधु! इससे ज्यादा असाधु और क्या होगा; मांसाहार कर रहा है। बौद्ध भिक्षु कहता है, गाय मर गयी, और उसका मांस न खाओ तो इतने भोजन को तुम व्यर्थ ही नष्ट कर रहे हो। यह किसी के काम आ सकता था। इस भोजन को नष्ट करना हिंसा है। बड़ा कठिन है। तो हमारी धारणा पर निर्भर है कि हमारी धारणा क्या है। अगर गांधीजी के आश्रम में जायें तो चाय पीना वर्जित है। सिर्फ राजगोपालाचार्य के लिए विशेष सुविधा गांधीजी करते थे। उनके लिए छूट थी, क्योंकि समधी थे; इसलिए छूट रखनी जरूरी भी थी। वे दिनभर चाय पीते थे। चाय पाप है। __ लेकिन सारी दुनिया के बौद्ध भिक्षु चाय पीते हैं; ध्यान करने के पहले चाय पीते हैं, फिर ध्यान करते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, चाय सजग करती है, और सजगता ध्यान में ले जाने में सहयोगी है। बात में थोड़ी जान मालूम पड़ती है,क्योंकि चाय थोड़ा सजग तो करती ही है, शरीर को थोड़ा ताजा तो करती है। उसमें निकोटिन होता है / निकोटिन खून में दौड़कर थोड़ी गति बढ़ाता है। खून में थोड़ी गति आती है; आदमी थोड़ा ताजा हो जाता है। ___ बौद्ध भिक्षु पहले उठकर चाय पीयेगा, फिर ध्यान में लगेगा-क्यों? वह कहता है, सुस्ती के साथ ध्यान करना ठीक नहीं है, ताजगी के साथ करना ठीक है। तो चाय धर्म का हिस्सा है। और जापान में हर घर में चाय का कमरा अलग है-संपन्न घर में। और चाय के कमरे का वही प्रतिष्ठा है, जो मंदिर की होती है / क्योंकि जो जगाये, वही मंदिर है। अब बड़ा मश्किल है। और जापानी घर में, कुलीन, सुसंपन्न घर में, सुबह चाय का वक्त, या सांझ चाय का वक्त प्रार्थना का समय है। और जिस ढंग से जापानी चाय पीते हैं, वह निश्चित ही प्रार्थनापूर्ण है / वे शांतिपूर्ण ढंग से चाय के कमरे में बैठते हैं / वहां कोई बातचीत नहीं करेगा, क्योंकि बातचीत व्याघात है। सब लोग मौन होकर भीतर आयेंगे। गहिणी खास तरह के कपड़े पहने होगी, जो उसी कमरे में 416 Jain Education Internationa
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________________ भिक्षु की यात्रा अंतर्यात्रा है पहनने के लिए बनाये गये हैं-बिलकुल ढीले, साधु-वेश के। फिर वह चाय बनाना शुरू करेगी। और चाय बनाना पूरा एक रिचुअल है, जैसे पूजा कर रही हो / एक-एक चीज को इतनी व्यवस्था से करेगी, और सारे लोग बैठकर निरीक्षण करेंगे। केतली उबलने लगेगी। चाय की धीमी-धीमी आवाज आने लगेगी। और सब शांत बैठकर उस चाय की आवाज को सुन रहे हैं। ___ यह भी ध्यान का हिस्सा हो गया। फिर वह चाय जब दी जायेगी तो उसको बड़े पवित्र भाव से ग्रहण करना है, वह पूजा है / फिर उस चाय की चुस्कियां लेते वक्त ध्यान रखना है कि सजगता बढ़े और चाय के बाद ध्यान में उतर जाना है। ___अब बड़ा मुश्किल है। किसको साधु कहिये, किसको असाधु कहिये? मुसलमान फकीर को देखकर हम मान नहीं सकते कि साधु है। मुसलमान फकीर हमारे संन्यासी को देखकर नहीं मान सकता कि साधु है। मुहम्मद ने नौ विवाह किये-नौ ! हम तो एक के लिए भी महावीर को आज्ञा नहीं दे सकते / महावीर ने विवाह किया है, ऐसा लगता है। लेकिन उनका एक सम्प्रदाय, दिगम्बर, मानता है कि नहीं किया / क्योंकि दिगम्बर सम्प्रदाय को यह बात ही बेहूदी लगती है कि महावीर और विवाह करे! यह बात ही बेहूदी है। किया भी हो- लगता है कि किया है, क्योंकि उनकी लड़की के नाम का उल्लेख है; उनके दामाद के नाम का उल्लेख है। अगर महावीर ने विवाह न किया होता तो उनकी लड़की के नाम का और उनके दामाद के नाम का उल्लेख कहां से आ जाता? और कौन फिक्र करता है कि झूठ उनका विवाह करवाओ! लेकिन माननेवालों को जरा पीड़ा लगती है क्योंकि बड़ी सख्ती से उसने ब्रह्मचर्य की धारणा को पकड़ा है, और अपनी धारणा को वह महावीर पर आरोपित करता है, उनको विवाह नहीं करने देता। मुहम्मद नौ विवाह करते हैं, तो दिगम्बर जैन सोच भी नहीं सकता कि मुहम्मद में कुछ भी हो सकता है। वह सोचेगा, उससे तो हम ही बेहतर, कम से कम एक ही विवाह किया है। लेकिन अगर मुसलमान से पूछे, जिसने मुहम्मद को प्रेम किया है और श्रद्धा की है, तो वह कहेगा कि मुहम्मद की यह साधुता है। ___ बड़ा मुश्किल है! क्योंकि मुहम्मद के वक्त में अरब में स्त्रियों की संख्या चार-गुनी ज्यादा थी पुरुषों से। क्योंकि पुरुष युद्ध में जाते, सैनिक बनते, कट जाते, पिट जाते, मर जाते; स्त्रियां बढ़ती चली जातीं। तो सारा मुल्क व्यभिचार में डूबा था। जहां एक पुरुष हो, चार स्त्रियां हों-सोचें, वहां क्या हालत होगी। सारा मुल्क व्यभिचार में था। तो मुहम्मद ने नियम बनाया कुरान में कि चार विवाह प्रत्येक व्यक्ति करे, कर सकता है, ताकि उस व्यभिचार से छुटकारा हो। और मुहम्मद से जिस स्त्री ने भी निवेदन किया--विधवायें, गरीब स्त्रियां, उन्होंने सबसे विवाह कर लिया-नौ विवाह किये, और इन सभी नौ स्त्रियों को मुहम्मद ध्यान, पूजा और प्रार्थना की तरफ ले गये। आपकी कितनी स्त्रियां हैं, यह सवाल नहीं है। आप उनको कहां ले जा रहे हैं, यह सवाल है। अपनी स्त्री को आप अपने साथ नरक ले जायेंगे। वह भी साथ दे रही है। दोनों का कोआपरेशन है। दोनों नरक की यात्रा कर रहे हैं। दोनों एक ही गाड़ी के दो पहिये हैं; नरक की तरफ जा रहे हैं। ___ मुहम्मद उन नौ स्त्रियों को, जितनी ऊंचाई तक ले जाया जा सकता है, ले गये / और मुहम्मद का विवाह निश्चित ही, आप जैसा विवाह करते हैं, वैसा विवाह नहीं है, क्योंकि मुहम्मद की उम्र थी चौबीस वर्ष, उन्होंने जब पहला विवाह किया, और उस स्त्री की उम्र थी चालीस वर्ष / चौबीस वर्ष के जवान लड़के से पूछिये कि वह चालीस वर्ष की बूढ़ी स्त्री से शादी करने को तैयार है? चालीस वर्ष मुहम्मद के जमाने के, अब के नहीं है, क्योंकि अब तो चालीस वर्ष में भी स्त्री उतनी बूढ़ी नहीं हो पाती। मुहम्मद के वक्त में तो चालीस वर्ष खातमा था क्योंकि तब अठारह या बीस साल औसत उम्र थी। चालीस साल तो आखिरी बात थी। चालीस साल की स्त्री से जवान लड़के का विवाह करना 417
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 साधुता थी। बड़ा मुश्किल है। हां, पुरुष अपने से छोटी उम्र की लड़की से शादी करना एकदम आसान पाता है; चाहता ही है कि करे, लेकिन अपने से बड़ी उम्र की लड़की से शादी करना बड़ा उलटा मालूम होता है। लेकिन मुहम्मद ने किया। निश्चित ही, यह विवाह साधारण कामुक-यौन संबंध नहीं था। और जिस पहली स्त्री से उन्होंने विवाह किया, उस स्त्री ने सबूत भी दिया; क्योंकि वही स्त्री पहली मुसलमान होनेवाली थी-पहली / जिस दिन इलहाम हुआ मुहम्मद को, जिस दिन कुरान की पहली आयत उन पर उतरी, तो वे इतने घबड़ा गये, क्योंकि वे बिलकुल गैर पढ़े-लिखे थे, और बहुत सीधे-साधे आदमी थे। उन्होंने कभी सोचा नहीं था कि परमात्मा की कोई शक्ति मुझे अपना वाहन चुन सकती है। वे इतने घबड़ा गये कि उनके हाथ-पैर कंपने लगे। वे घर आकर कम्बल ओढ़कर सो गये / उनकी पत्नी ने कहा कि तुम्हें हुआ क्या? तुम बिलकुल ठीक गये थे। उन्होंने कहा कि पूछ ही मत / तीन दिन तू मुझसे बात ही मत कर / मैं बहुत घबड़ा गया हूं। तीन दिन में वे आश्वस्त हुए। हिम्मत उन्होंने जुटायी कि मैं कहूं / क्योंकि उन्हें लगा कि लोग क्या कहेंगे कि एक गंवार, अपढ़, मुहम्मद यह पैगम्बर हो गया! अहंकार-लोग कहेंगे कि अहंकारी हो गया। मैं सीधा-साधा आदमी, पैगम्बर होने की कभी सोची भी नहीं। तीन दिन बाद उन्होंने अपनी पत्नी को डरते हुए कहा कि तू किसी से कहना मत / मेरे भीतर कुछ घटा है। और मैं वही नहीं रहा, जो मैं था। और कोई आवाज मुझ पर उतरी है, जो अनंत की मालूम पड़ती है, परमात्मा की; मुझे पता नहीं है, किसकी है। लेकिन आवाज बलशाली है, और उसने मुझे पूरी तरह तोड़ डाला है और बदल दिया है। तू किसी को कहना मत, खादीजा! खादीजा को श्रद्धा आ गयी महम्मद की आंखों में देखकर-और उसने कहा कि तम मझे दीक्षित करो, खादीजा पहली मुसलमान थी। उसने भरोसा किया। यह प्रेम, यह विवाह साधारण यौन तल पर नहीं था। यह प्रेम-विवाह, सच में पूछा जाये, तो गुरु-शिष्य के तल पर ही था / यह श्रद्धा का ही एक संबंध था। ___ पर मुश्किल है। हम सोच नहीं सकते; क्योंकि अपनी धारणा हम आरोपित करते हैं। हमारी अपनी साधु की धारणा है, वह हम आरोपित करते हैं। जब कोई आदमी उस धारणा में फिट बैठ जाता है, ठीक बैठ जाता है, तो हम कहते हैं, 'साध'; नहीं बैठता, तो 'असाधु'। महावीर सम्यक-दी उसको कहते हैं, जो अपनी धारणायें दूसरों पर नहीं लादता / जो दूसरों को देखता है, जैसे वे हैं-निष्पक्ष; हर चीज को वैसा ही देखता है, जैसी वह है। जो अपनी तरफ से कोई ताल-मेल नहीं बिठाता। जो अपने को चीजों में नहीं डालता। बड़ी हैरानी होगी; आपकी जिन्दगी बदल जाए, अगर आप सम्यक-दर्शी हो जायें। क्योंकि तब आपके हाथ में कोहिनूर कोई रख दे, तो आप वही देखेंगे, जो है; कोहिनूर का इतिहास नहीं पढ़ेंगे। आप समझ भी नहीं पायेंगे कि कोई सैकड़ों लोग मर गये हैं इसके पीछे—इस पत्थर के पीछे / आप कहेंगे, यह पत्थर ही है। ___एक छोटे बच्चे को कोहिनूर दे दें, वह थोड़ी देर में खेल-खालकर, फेंककर भूल जायेगा; क्योंकि उसके पास कोई प्रोजेक्शन नहीं है अपना डालने को। लेकिन आपके हाथ में कोहिनूर आ जाए तो आप दीवाने हो जायेंगे। फिर आप चैन से नहीं रह सकते; फिर रात सो नहीं सकते। फिर आप पागल हो जायेंगे / वह पागलपन कौन पैदा कर रहा है? कोहिनूर पैदा कर रहा है, आप कुछ धारणा कोहिनूर पर डाल रहे हैं, लेकिन कोहिनूर तो पत्थर है। और अगर पत्थर हंसते हैं, तो जरूर हंसते होंगे आदमियों पर कि आदमी भी कैसे पागल हैं कि पत्थरों के पीछे इस बुरी तरह उलझे हैं! इस बुरी तरह पागल हैं! हम अपनी धारणायें हर चीज में डाल रहे हैं, और हर चीज को हम वैसा देखते हैं, जैसा हम देखना चाहते हैं; वैसा नहीं जैसी वह 418
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________________ भिक्षु की यात्रा अंतर्यात्रा है है। वस्तुयें जैसी अपने में हैं, उनको शुद्धता से देखने का नाम सम्यकदृष्टि है / और जो व्यक्ति वस्तुओं को वैसा ही देखने लगे, जैसी वे हैं—वह मुक्त होना शुरू हो जाता है, क्योंकि फिर उसे कोई भी नहीं बांध सकता। जिसकी दृष्टि मुक्त है, उसकी आत्मा को बांधने का कोई उपाय नहीं है। 'जो सम्यकदृष्टि है, जो अमूढ़ हैं...!' मूढ़ता एक तरह की मूर्छा है, जिसमें हम सोये-सोये चलते हैं जैसे होश नहीं है; क्या कर रहे हैं, इसका कुछ पता नहीं है; क्या हो रहा है, इसका कुछ पता नहीं है-किये जा रहे हैं। आप अपनी जिंदगी से कभी एक दिन की छुट्टी ले लें, चौबीस घंटे की बिलकुल छुट्टी ले लें और बैठकर सोचें कि आप क्या कर रहे हैं? यह क्या हो रहा है? आप कहां हैं? आप सारी ताकत लगाये दे रहे लेकिन कहां पहुंचने के लिए? कोई मंजिल है? कुछ इससे उपलब्ध होनेवाला है? कुछ सार इससे निकलेगा? कभी निकला है किसी को? लेकिन दौड में इतने उलझे हैं कि सोचने की फुरसत कहां है! ___ मुल्ला नसरुद्दीन पैंतालीस साल तक नौकरी करता रहा / पैंतालीस साल बाद जब वह रिटायर हो गया, तो एक दिन उसने पत्नी से कहा कि चाय बहुत ज्यादा गर्म है / इतनी ज्यादा गर्म चाय मुझे बिलकुल पसंद नहीं। उसकी पत्नी ने कहा, 'हद्द करते हो, नसरुद्दीन! पैंतालीस साल इससे भी ज्यादा गर्म चाय तुम पीते रहे; कभी तुमने कहा क्यों नहीं?' उसने कहा, 'फुरसत कहां थी; अब रिटायर हो गया हूं, अब फुरसत है। अब तुझे बताता हूं कि एक दिन भी मैं इतनी गर्म चाय नहीं पीना चाहता।' __आप जिंदगी के आखिर में बैठकर पायेंगे कि जो आप क्या करना चाहते थे, वह तो किया नहीं, और जो करना नहीं चाहते थे, वह करते रहे। फरसत भी नहीं थी कि सोच लेते। अगर आपको आज ही पता चल जाये कि कल सुबह आप समाप्त हो जायेंगे, आपकी जिंदगी का पूरा मूल्यांकन बदल जायेगा। तत्काल आप सोचेंगे कुछ चीजें जो आपने सदा से करना चाहा और टालते रहे; और कुछ चीजें जिन्हें आप सदा करना चाहते थे, चाहेंगे कि अब बन्द कर दें-उनका अब कोई सार नहीं है। लेकिन असलियत यही है कि अगला क्षण भरोसे का नहीं है। आप अगले क्षण समाप्त हो सकते हैं; कल तो बहुत दूर है, अगले क्षण आप समाप्त हो सकते हैं। लेकिन मूढ़ता है। एक मूर्छा है, चले जा रहे हैं। भीड़ में धक्कम-धुक्का है; और भी सब लोग जा रहे हैं, उसी में हम भी चले जा रहे हैं। अगर अकेले भी रास्ते पर होते, तो शायद थोड़े आप चौंकते / इतनी बड़ी भीड़ चली जा रही है, जरूर कहीं जा रही होगी। इतने पैर, इतने हाथ, चारों तरफ लोग दबाये दे रहे हैं; सब भागम-भाग, इतनी प्रतिस्पर्धा है कि ये जरूर कहीं पहुंच रहे होंगे। और हमें इतना भरोसा है अपने चारों तरफ की भीड़ पर, उनके शब्दों पर, उनकी इच्छाओं, वासनाओं पर कि वे वासनाग्रस्त लोग हमें भी उन्हीं वासनाओं से भर देते हैं। नसरुद्दीन जिस दफ्तर में काम करता था। एक दिन जब वह अपने आफिस में आया तो देखा कि उसकी टेबल पर एक तार रखा है। तो वह भागा, तार में खबर थी कि यौर मदर हेज एक्सपायर्ड-तुम्हारी मां चल बसी है, शीघ्र पहुंचो; तो वह स्टेशन पर पहुंच गया। स्टेशन पर उसके ही दफ्तर के एक क्लर्क ने उससे आकर कहा कि क्षमा करिये, मैं आपको बहुत ढूंढ़ता रहा, आप मिले नहीं। मेरी मां मर गयी है, तार घर से आया है। आपकी टेबल पर मैं वह तार छोड़ आया हं। __नसरुद्दीन ने कहा, 'धत तेरे की / यही मैं सोचता था कि मेरी मां को मरे तो दस साल हो गये, तार आज क्यों आया है। लेकिन तार ने ही ऐसी हालत पैदा कर दी कि मैंने कहा, कुछ भी हो, कुछ न कुछ होगा मामला, जाना जरूरी है।' ___अभी यहां कोई जोर से चिल्ला दे कि आग लग गई, तो आपके हृदय की धड़कन बढ़ जायेगी, पैर तैयार हो जायेंगे भागने को। फिर कोई खबर भी दे दे कि आग नहीं लगी, आप बैठ भी जायें, तो भी हृदय थोड़ी देर तक धड़कता ही रहेगा। सांस जोर से चलती रहेगी, 419
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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 पसीना थोड़ा आता ही रहेगा। सपने तक में आप घबड़ा जाते हैं, तो जगकर भी थोड़ी देर घबड़ाये रहते हैं। चारों तरफ की भीड़ घबड़ायी हुई है। चारों तरफ के लोग भागे जा रहे हैं अंधों की तरह-उस में आप भी भागे जा रहे हैं। महावीर इसको 'मूढ़ता' कहते हैं / संन्यासी तो वही है, जो इस मूढ़ता के बाहर आ जाए / वही भिक्षु है / अमूढ़-जो जग जाये और जो जिंदगी की भीड़ के धक्के में न जिये, बल्कि होशपूर्वक सोचे और जिये; देखे और जिये; निर्णय करे और चले, ऐसे ही न चलता जाये। __ बेहतर है कुछ न करना, बजाय कुछ करने के जो कि मूढ़ है, जो कि अंधा है। अच्छा है रुक जायें कुछ देर के लिए; कुछ न करें, खाली छोड़ दें और एक दफा जिंदगी को पुनर्विचार कर लें, रिकन्सिडरेशन कर लें; और एक दफा लौटकर पिछला इतिहास देख लें अपना कि क्या कर रहे हैं, कहां जा रहे हैं-अगर सफल भी हो जायेंगे तो कहां पहुंचेंगे, क्या उपलब्ध हो जायेगा? ऐसी मूढ़ता तोड़ने की जब तक कोई तैयारी न करे, तब तक उसके जीवन में संन्यास नहीं उतरता / संन्यास या भिक्षु होने की संभावना उतरती है मूढ़ता का सिलसिला तोड़कर अमूढ़ होने से; होश से भरने से / जो होश से भर जाता है, वह नये पाप नहीं करता / सब पाप मूढ़ता में किये जाते हैं। जो होश से भर जाता है, वह भविष्य के पापों की योजना नहीं करता, क्योंकि सभी योजनायें मूढ़ता में की जाती हैं। जो होश से भर जाता है, उसके होश की अग्नि उसके अतीत के किये गये पापों को भी जलाने लगती है। लेकिन मूढ़ आदमी अभी तो पाप करता ही है, भविष्य की योजना भी बनाता है और अतीत के लिए भी दुखी रहता है। ___ मुल्ला मरते वक्त जो वक्तव्य दिया था, वह याद रखने जैसा है। पुरोहित ने उससे पूछा कि नसरुद्दीन, अगर तुम्हें फिर से जिंदगी मिले, तो तुमने जो पाप किये हैं, क्या तुम उसे फिर से करना चाहोगे? नसरुद्दीन ने कहा, 'निश्चय ही. लेकिन जरा जल्दी शरू करूंगा! इस बार काफी देर कर दी।' परोहित तो समझा भी नहीं। उस परोहित ने कहा कि प्रार्थना करो परमात्मा से, पश्चाताप करो। क्या पागलपन की बात कह रहे हो? नसरुद्दीन ने कहा, 'पश्चाताप मैं भी कर रहा है, लेकिन उन पापों के लिए नहीं. जो मैंने किये हैं: बल्कि उन पापों के लिए. जो मैं नहीं कर पाया; नाहक चूक गया; जिंदगी हाथ से निकल गयी।' ___ मूढ़ता अतीत में भी पाप करना चाहती है, जो कि जा चुका; जहां अब कुछ नहीं किया जा सकता। होशपूर्वक व्यक्ति भविष्य के पापों की योजना छोड़ देता है, वर्तमान के पापों से उसका हाथ अलग हो जाता है, अतीत के पाप उसके इस होश की अग्नि में गिरने लगते हैं, जलने लगते हैं; कुसंस्कार अपने आप जल जाते हैं। उनका जो प्रतिफल है, वह भोग लिया जाता है। मैंने किसी को गाली दी थी, तो मैं गाली पा लूंगा; भोग लूंगा / वह दुख, वह कांटा छिदेगा, उसे मैं साक्षी-भाव से सुन लूंगा और समझूगा कि एक सौदा, एक संबंध, एक लेन-देन पूरा हो गया। इस आदमी से अब हमारा कुछ लेना-देना न रहा। में ऋण से मुक्त हो गया। अतीत धीरे-धीरे होश की अग्नि में जल जाता है। और जिस दिन न कोई अतीत का पाप पकडता है: न भविष्य की कोई कामना पकड़ती है; न वर्तमान में कोई पाप की मूढ़ता होती है, उस दिन व्यक्ति जहां होता है वहीं संन्यास है, वहीं भिक्षु का स्वरूप है। पांच मिनट रुकें। कीर्तन करें, फिर जायें। 420