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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 है, खत्म कर रहा है; वह नष्ट कर रहा है। वह आत्महंता है क्योंकि जो नहीं हो सकता, वह नहीं होगा; वह कभी नहीं हुआ है। ऐलिग्जेन्डर और नेपोलियन गुजरते हैं रास्तों से मालिक होने की कोशिश में, और दीन-दरिद्र ही मरते हैं। ठीक उलटा प्रयोग है महावीर का कि तुम मालिक होने की कोशिश छोड़ दो बाहर की तरफ / भीतर एक संसार है / भीतर एक साम्राज्य है-एक विस्तार है, एक आकाश है / तुम उसके मालिक हो / तुम उस मालकियत को 'क्लेम' कर लो। तुम उस मालकियत के दावेदार हो जाओ। लेकिन ऐसा दावा वही कर पायेगा, जो श्रद्धा से शुरू करे किसी मालिक पर; श्रद्धा से शुरू करे किसी सम्राट पर--महावीर, या बुद्ध, या कृष्ण, या क्राइस्ट, या मुहम्मद जैसे किसी मालिक पर भरोसा करे जिसमें उसे स्वामित्व दिखा हो। जिसमें उसने झलक पायी हो कि यह आदमी गुलाम नहीं है, किसी बात का गुलाम नहीं है। उस पर श्रद्धा से यात्रा शुरू होगी। तो जो ज्ञातपत्र महावीर के वचनों पर श्रद्धा रखकर सब जीवों के भीतर अपनी ही जैसी आत्मा का विचार करता है; अनुभव करता है; अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, अकाम, अप्रमाद-पंचमहाव्रतों में जो गति करता है, उनका पालन करता है; रोकता है शक्ति को व्यर्थ जाने से; आस्रवों का ध्यान रखता है, संवरण करता है; और जीवन बाहर भटक न जाये, मरुस्थल में जीवन की ऊर्जा व्यर्थ न हो, भीतर सृजनात्मक हो जाये, अपनी आत्मा को ऐसा निरंतर निरोध करता है व्यर्थ में जाने से, वही भिक्ष है। हम तो व्यर्थ के लिए आतुर होते हैं। खबर भर मिल जाए, हम दौड़ पड़ते हैं / व्यर्थ को हम न मालूम कितना मूल्य देते हैं। शायद हम कभी सोचते भी नहीं कि हम भेद करें सार्थक और व्यर्थ का; कि हम सार और असार का ठीक विवेचन करें; कि ठीक विवेक करें कि क्या सही है और क्या गलत है। शंकर ने कहा है : सार और असार को जो ठीक से पहचान लेता है, वही संन्यासी है। क्योंकि जो सार को पहचान लेता है. फिर वह असार से अपने को रोकने लगता है, संवरण करने लगता है। और जो सार को पहचान लेता है, वह चुपचाप, अनजाने ही सार की तरफ बढ़ने लगता है। गलत की तरफ जाना असम्भव है। ठीक की तरफ जाने से रुकना असंभव है। लेकिन ठीक और गलत का बोध होना चाहिए, क्या गलत है और क्या ठीक है। वह हमें जरा भी बोध नहीं है। तो महावीर कहते हैं : वह बोध भी हमें तभी पैदा होगा जब हम किसी पर श्रद्धा करें, जिसे ठीक और गलत जिसके जीवन में आ गये हैं। सूफी फकीर, बायजीद, अपने गुरु के पास गया और उसने अपने गुरु को कहा मुझे कुछ शिक्षा दें तो उसके गुरु ने कहा कि तू सिर्फ मेरे पास रह और मुझको देख, और मेरा निरीक्षण कर; उठना, बैठना, खाना, पीना, सोना सब तू मेरा देख, और मेरा निरीक्षण कर / उसी निरीक्षण से तुझे विवेक उत्पन्न होगा। बायजीद ने कहा, यह बड़ा कठिन मामला दिखता है / सीधा मुझे कह दिया होता कि क्या करूं, तो मैं कर लेता; कह दिया होता-यह मत करो, तो मैं नहीं करता। हम सब पचा-पचाया भोजन चाहते हैं। कोई हमारे लिए चबाकर हमारे मुंह में डाल दे। चबाने तक का कष्ट नहीं उठाना चाहते। लेकिन ध्यान रहे, ऐसा पचाया हुआ भोजन अपच ही कर सकता है / वह आपके जीवन में ठीक-ठीक प्रवेश नहीं कर पायेगा। बायजीद के गुरु ने ठीक कहा कि तू बस बैठ और मेरा निरीक्षण कर; मेरे पास बैठ और देख क्या-क्या होता है। बायजीद बैठ गया। पहले दिन ही एक घटना घटी। एक आदमी आया और बड़ी गालियां देने लगा; बायजीद के गुरु को बड़े अशोभन शब्द बोलने लगा। बायजीद को कई दफा हुआ कि उठकर एक हमला इस आदमी पर बोल दे। लेकिन गुरु ने कहा था, तुझे कुछ करना नहीं है। तुझे बस मुझे देखना है / तू कृपा करके बीच में कुछ मत करने लगना, क्योंकि तू यहां करनेवाला नहीं है-तू सिर्फ यहां देखना। 412 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340047
Book TitleMahavir Vani Lecture 47 Bhikshu ki Yatra Antaryatra Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size78 MB
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