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________________ भिक्षु की यात्रा अंतर्यात्रा है तो उसे बड़ी तकलीफ हो रही है। उसका दिल तो उस आदमी को देखने का हो रहा है, जो गालियां दे रहा है। लेकिन आज्ञा उसे हुई थी कि वह गुरु को देखे। __ गलत को देखने का मन होता है। ठीक में ज्यादा रस नहीं मालूम पड़ता / गुरु चुपचाप बैठा है। वहां देखने योग्य भी कुछ नहीं लगता। गुरु शांत बैठा है। बायजीद को बड़ी बेचैनी होती है। उसका दिल तो वहां देखने का होता है। लेकिन फिर वह अपने को समझाता है कि देखू गुरु को ही, इस आदमी से मुझे सीखना भी क्या है जो मैं देखू / यह असार है। फिर गुरु ने भी कहा है कि मुझे ही देखो। गुरु बैठा है, चुप / वह हंसता रहता है / वह आदमी गालियां देकर चला जाता है, बायजीद अपने गुरु से पूछता है कि इस आदमी ने इतनी गालियां दीं और आप चप-चाप बैठे रहे? उसके गरु ने कहा कि त सबह यहां नहीं था, अब कल सुबह तझे पता चल जायेगा। क्योंकि सुबह-सुबह एक भक्त मेरा यहां आता है और मेरी इतनी प्रशंसा करता है कि तराजू के एक पलड़े को बिलकुल जमीन से लगा देता है / यह उसको ठीक कर गया है / यह मुझे बिलकुल बैलेंस कर गया है। यह आदमी बड़ा गजब का है। यह कभी-कभी आता है। __दूसरे दिन सुबह वह आदमी आया और प्रशंसा के पुल बांधने लगा। बायजीद का फिर मन हुआ उसकी बातें सुनने का, लेकिन उसने खयाल रखा कि वह गुरु को देखे। भक्त के चले जाने के बाद गुरु ने बायजीद से कहा, 'तूने देखा? जगत एक संतुलन है। वहां प्रशंसा भी है, वहां गाली भी है, प्रशंसा से फूल मत जाओ, गाली से पीड़ित मत हो जाओ। वे दोनों एक-दूसरे को काटकर अपने आप शुन्य हो जायेंगे। तुम अपनी जगह रहो, तुम बेचैन मत हो-न गाली देनेवाले से कुछ प्रयोजन है, न प्रशंसा करनेवाले से कुछ प्रयोजन है। वे दोनों आपस में निपट रहे हैं। तुम अलग ही हो-बायजीद से कहा, 'तू बस मुझे देखता रह और उसी देखने में से तुझे सार का पता चलने लगेगा। और उसी सार पर तू चल पड़ना, और असार से अपने को बचाना / क्योंकि मन असार की तरफ खींचता है / क्योंकि मन बिना असार के जी नहीं सकता। कचरा ही उसका भोजन है। अपने को रोकना असार की तरफ जाने से, संवरित करना / सार की तरफ अपने को ले जाना साधना है।' तो महावीर कहते हैं, वही भिक्षु है, जो श्रद्धापूर्वक देखे-जैसा महावीर जीते हैं। महावीर के लिए जीवन तो सहज है, क्योंकि उन्हें सबके भीतर एक ही आत्मा का दर्शन होता है; आपको नहीं होता। तो महावीर का जो जीवन है, उस जीवन को गौर से देखकर, उसको आत्मीयता से अपने साथ संभालकर, सार को पहचानकर वैसे ही जीवन में बहने का जो प्रयास है...! प्रथम में वह प्रयास ही होगा। शुरू-शुरू में चेष्टा करनी पड़ेगी; धीरे-धीरे खुद भी दिखाई पड़ने लगेगा। महावीर की आंखों की फिर जरूरत न होगी। फिर भिक्षु स्वयं अपनी यात्रा पर चल पड़ेगा। महावीर के पास दस हजार भिक्षुओं का समूह था / जैसे-जैसे कोई भिक्षु पक जाता था, वैसे-वैसे महावीर उससे कह देते कि अब तू, जो तुझे मिला है, उसे बांटने निकल जा। अब मेरे पास होने की जरूरत नहीं है। अब मेरे सहारे की कोई आवश्यकता नहीं है। ठीक वैसे ही, जैसे छोटे बच्चे को मां-बाप चलाते हैं, तो मां हाथ पकड़ लेती है / यह कोई जीवनभर का उपक्रम नहीं है कि मां जीवन भर हाथ पकड़े रहे / कुछ मां नहीं छोड़ती हैं। वे दुष्ट हैं, खतरनाक हैं; वे बच्चे की जान ले लेती हैं। कुछ बाप चाहते हैं कि लड़के का हाथ सदा ही पकड़े रहें। वे सदा चाहते हैं कि वे ही लड़के को चलाते रहें। वे बाप नहीं हैं, वे __लेकिन पहले दिन जब बच्चा खड़ा होता है, तो मां या बाप उसका हाथ अपने हाथ में ले लेते हैं। भलीभांति जानते हुए कि बच्चे के पैर खुद ही थोड़े दिनों में समर्थ हो जायेंगे-समर्थ हैं, लेकिन अभी बच्चे को आत्मश्रद्धा नहीं है; अभी बच्चे को भरोसा नहीं है कि मैं चल पाऊंगा। वह अभी डरता है / वह कभी चला नहीं है / उसे चलने का कोई अनुभव नहीं है। वह भयभीत होता है / इस भय के कारण कहीं वह ऐसा न हो कि घसीटता ही रहे और चले न, उसका भय भर कम करना है। नहा ह, व दुश्मन हैं। 413 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340047
Book TitleMahavir Vani Lecture 47 Bhikshu ki Yatra Antaryatra Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size78 MB
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