________________ भिक्षु की यात्रा अंतर्यात्रा है खण्ड-खण्ड नहीं। आप अगर बहुत खण्डों में बंटे हैं, तो आप की हालत ऐसी है, जैसे किसी व्यक्ति के बहुत से परिचित हों, लेकिन मित्र कोई भी न हो। लेकिन परिचित और मित्र में बड़ा फर्क है / एक्वेन्टेन्स-परिचय, परिचय है, ऊपरी है / मित्रता एक गहन संबंध है, एक आंतरिक तीव्रता है-एक मिलन है, जहां एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति में प्रविष्ट हो जाता है। ___तो आप बहुत व्यक्तियों से परिचित हो सकते हैं, वह मित्रता नहीं है। और आप बहुत खण्डों में बंटे हो सकते हैं-थोड़ी श्रद्धा महावीर पर भी, थोड़ी श्रद्धा बुद्ध पर भी, थोड़ी श्रद्धा कृष्ण पर भी लेकिन किसी से भी मित्रता न बनेगी। इस सदी में इस तरह का एक खतरा हुआ है। कुछ अति समझदार लोगों ने, लोगों को ऐसा समझाना शुरू किया है कि महावीर भी वही कहते हैं, कृष्ण भी वही कहते हैं, बुद्ध भी वही कहते हैं, यह बात निहायत गलत है / और उन सभी का मतलब एक है / यह सबको लीप पोत देने जैसा है। उनके मतलब बड़े भिन्न हैं। उनकी मंजिल एक है, उनके रास्ते बड़े भिन्न हैं—अंतिम परिणाम एक है। लेकिन अंतिम परिणाम से क्या लेना-देना? आप वहां अभी हैं नहीं। जहां आप हैं, वहां महावीर और बुद्ध बिलकुल भिन्न हैं, जैसे पूरब-पश्चिम / जहां आप हैं, वहां कृष्ण और क्राइस्ट बिलकुल भिन्न हैं। वहां अगर आपने खिचड़ी बनाने की कोशिश की, जिसको कुछ लोग 'धर्म-समन्वय' कहते हैं- वह खिचड़ी है, समन्वय नहीं है। और खिचड़ी में भी कुछ पौष्टिक तत्व हो-है! इस धर्मों की खिचड़ी में कोई पौष्टिक तत्व नहीं रह जाता; क्योंकि आप सभी रास्तों की खिचडी नहीं बना सकते / चलना तो एक ही रास्ते पर पड़ता है। और जब आप एक रास्ते पर चलते हैं, तब उचित है कि सभी रास्तों से आपका चित्त हट जाये ताकि पूरी शक्ति एक प्रवाह से लग जाए। लेकिन जो चित्त खण्डित है बहुत चीजों में, वह कोई श्रद्धा पैदा नहीं कर पाता / जो कहता है, हमारी श्रद्धा सभी में है, समझना कि उसकी श्रद्धा किसी में भी नहीं है। असल में आपको अगर सबमें से किसी से भी श्रद्धा का संबंध जोड़ने से बचना हो, तो सबमें श्रद्धा करना--करना अच्छा है। आज सुबह कुरान भी पढ़ ली, थोड़ी गीता भी पढ़ ली, और फिर पीछे गीत गा लिया—'अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान।' ___ नहीं, गीता और कुरान बड़े भिन्न रास्तों पर जाते हैं। और गीता मांगती है पूरी श्रद्धा, और कुरान भी मांगता है पूरी श्रद्धा; महावीर भी मांगते हैं पूरी श्रद्धा। श्रद्धा का यह अर्थ नहीं है कि आप अंधे हो जायें। श्रद्धा का अर्थ यह है कि आप पूरे महावीर के साथ खड़े हो जायें, अधूरे खड़े होने का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन हम सब चीजों में अधूरे हैं। न तो हमने कभी प्रेम किसी को ऐसे किया है कि पूरी पृथ्वी से हमारा सारा प्रेम सिकुड़कर एक धारा में बहने लगे; न हमने कभी मित्रता ऐसी की है कि हमारे पूरे जीवन का प्रकाश, हमारे पूरे जीवन की ऊर्जा एक ही व्यक्ति के साथ गहनता से जुड़ जाये। ___ इसका यह मतलब नहीं है कि सब दुश्मन हो जायेंगे। जिंदगी बड़ी बेबूझ है। अगर आप एक व्यक्ति से इतने गहरे जुड़ जायें जितना कि जुड़ सकते हैं, आप सारे जगत के प्रति मैत्रीपूर्ण हो जायेंगे। लेकिन मित्रता एक से होगी। वह एक द्वार होगा सारे जगत के प्रति मैत्री का / अगर आप एक व्यक्ति से इतना प्रेम कर लें कि आप भल ही जायें; यह संभावना ही खो जाये कि यह प्रेम किसी खंड में बंट सकत है, तो आप सारे जगत के प्रति प्रेम से भर जायेंगे। इस व्यक्ति के माध्यम से वह प्रेम की गंगा बहेगी और सारे जगत में फैल जायेगी, लेकिन बहेगी सदा गंगोत्री से / गंगोत्री पर द्वार बड़ा सकरा होता है; होगा ही। श्रद्धा भी अगर एक पर हो जाए, तो धीरे-धीरे श्रद्धा का प्रकाश सब तरफ पड़ने लगेगा, लेकिन धारा एक से ही बहेगी। हम इतने खण्डित हैं, इस कारण किसी तरह के विश्राम को उपलब्ध नहीं होते। मैंने सुना है, मनसविद कहते भी हैं, अनेक लोग सो 409 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org