Book Title: Mahavir Vani Lecture 35 Aap hi Hai Apne Param Mitra
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
Catalog link: https://jainqq.org/explore/340035/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप ही हैं अपने परम मित्र आठवां प्रवचन 139 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-सूत्र : 1 अप्पा कत्ता विकात्त य, दुक्खाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठि सुपट्ठिओ।। पंचिन्दियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च। दुजयं चेव अप्पाणं, सव्वमप्पे जिए जिय।। आत्मा ही अपने सुख और दुख का कर्ता है तथा आत्मा ही अपने सुख और दुख का नाशक है। अच्छे मार्ग पर चलनेवाला आत्मा मित्र है और बुरे मार्ग पर चलनेवाला आत्मा शत्रु / पांच इन्द्रियां, क्रोध, मान, माया, और लोभ तथा सबसे अधिक दुर्जेय अपनी आत्मा को जीतना चाहिए / एक आत्मा को जीत लेने पर सब कुछ जीत लिया जाता है। 140 . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पछा है कि संकल्प और समर्पण के मार्गों को न मिलाया जाये, ताल-मेल न बिठाया जाये, ऐसा आपने कहा। लेकिन, महावीर-वाणी की चर्चा जिससे शुरू हुई उस नमोकार मन्त्र के शरण-सूत्र में समर्पण का स्थान है / और आप भी जिस भांति ध्यान के प्रयोग करवाते हैं, उसमें संकल्प से शुरुआत होती है और चौथे चरण में समर्पण पर समाप्ति / तो इन दोनों में कोई ताल-मेल है या नहीं? ___ संकल्प और समर्पण में तो कोई ताल-मेल नहीं है साधना की पद्धतियों में; समर्पण की अपनी पूरी पद्धति है, संकल्प की अपनी पूरी पद्धति है। लेकिन मनुष्य के भीतर ताल-मेल है। इसे थोड़ा समझना पड़े। __ऐसा मनुष्य खोजना मुश्किल है जो पूरा संकल्पवान हो / ऐसा मनुष्य भी खोजना मुश्किल है, जो पूरा समर्पण की तैयारी में हो। मनुष्य तो दोनों का जोड़ है। एम्फेसिस का फर्क हो सकता है। एक व्यक्ति में संकल्प ज्यादा है, समर्पण कम, एक व्यक्ति में समर्पण ज्यादा, संकल्प कम! इसे हम ऐसा समझें। जैसा मैंने कहा कि समर्पण स्त्रैण चित्त का लक्षण है. संकल्प परुष चित्त का / लेकिन मनसविद कहते हैं कि कोई पुरुष पुरा पुरुष नहीं, कोई स्त्री पूरी स्त्री नहीं / आधुनिकतम खोजें कहती हैं कि हर मनुष्य के भीतर दोनों हैं। पुरुष के भीतर छिपी हुई स्त्री है, स्त्री के भीतर छिपा हुआ पुरुष है। जो फर्क है स्त्री और पुरुष में, वह प्रबलता का फर्क है, एम्फैसिस का फर्क है। इसलिए पुरुष स्त्री में आकर्षित होता है, स्त्री पुरुष में आकर्षित होती है। __कार्ल गुस्ताव जुंग का महत्वपूर्ण दान इस सदी के विचार को है। उनकी अन्यतम खोजों में जो महत्वपूर्ण खोज है, वह है कि प्रत्येक पुरुष उस स्त्री को खोज रहा है, जो उसके भीतर ही छिपी है, और प्रत्येक स्त्री उस पुरुष को खोज रही है, जो उसके भीतर ही छिपा है। और इसलिए यह खोज कभी पूरी नहीं हो पाती। ___ जब आप किसी को पसन्द करते हैं तो आपको पता नहीं कि पसंदगी का एक ही अर्थ होता है कि आपके भीतर जो स्त्री छिपी है या पुरुष छिपा है, उससे कोई पुरुष या स्त्री बाहर मेल खा रही है; इसलिए आप पसन्द करते हैं। लेकिन वह मेल पूरा कभी नहीं हो पाता, क्योंकि आपके भीतर जो प्रतिमा छिपी है, वैसी प्रतिमा बाहर खोजनी असम्भव है। इसलिए कभी थोड़ा मेल बैठता है, लेकिन फिर मेल टूट जाता है / या कभी थोड़ा मेल बैठता है, थोड़ा नहीं भी बैठता है। इसी के बीच बाहर सब चुनाव है / लेकिन चुनाव की विधि क्या 141 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 है? हमारे भीतर एक प्रतिमा है, एक चित्र है, उसे हम खोज रहे हैं कि वह कहीं बाहर मिल जाये। ___ तो एक तो उपाय यह है कि हम उसे बाहर खोज लें, जो कि असफल ही होनेवाला है। और एक सुख है, जो मेरे भीतर की स्त्री से बाहर की स्त्री का मेल हो जाये तो मझे मिलता है। वह क्षणभंगर है। फिर एक और मिलन भी है कि मेरे भीतर का पुरुष मेरे भीतर की स्त्री से मिल जाये / वह मिलन शाश्वत है। सांसारिक आदमी बाहर खोज रहा है, योगी उस मिलन को भीतर खोजने लगता है। और जिस दिन भीतर की दोनों शक्तियां मिल जाती हैं, उस दिन पुरुष-पुरुष नहीं रह जाता, स्त्री-स्त्री नहीं रह जाती / उस दिन दोनों के पार चेतना हो जाती है। उस दिन व्यक्ति खण्डित न होकर अखण्ड आत्मा हो जाता है। __ तो जब हम कहते हैं कि संकल्प का मार्ग, तो इसका मतलब हुआ कि जो व्यक्ति बहुलता से पुरुष है, गौण रूप से स्त्रैण है, उसका मार्ग है। लेकिन उसके मार्ग पर भी थोड़ा-सा संकल्प, संकल्प के पीछे थोड़ा-सा समर्पण होगा, क्योंकि वह जो छाया की तरह उसकी स्त्री है, उसका भी अनुदान होगा। और जो व्यक्ति समर्पण के मार्ग पर चल रहा है, उसके भी भीतर छिपा हुआ पुरुष है, और छाया की तरह संकल्प भी होगा। इसका क्या-व्यक्ति के भीतर क्या ताल-मेल है? साधनाओं में कोई ताल-मेल नहीं है। इसे ऐसा समझें। जब कोई व्यक्ति समर्पण के लिए तय करता है, तब यह तय करना तो संकल्प है। अगर आप तय करते हैं कि किसी के लिए सब कुछ समर्पित कर दें, तो अभी समर्पण का यह जो निर्णय आप ले रहे हैं, यह तो संकल्प है / इतने संकल्प के बिना तो समर्पण नहीं होगा। जो व्यक्ति तय करता है कि मैं संकल्प से ही जीऊंगा, जो निर्णय करता हूं, उसको ही श्रम से पूरा करूंगा, यह संकल्प से शुरुआत हो रही है। लेकिन जो निर्णय किया है वह निर्णय कुछ भी हो सकता है। उस निर्णय के प्रति पूरा समर्पण करना पड़ेगा। ___ जो संकल्प से शुरू करता है उसे भी समर्पण की जरूरत पड़ेगी। जो समर्पण से शुरू करता है उसे भी संकल्प की जरूरत पड़ेगी, लेकिन वे गौण होंगे, छाया की तरह होंगे। व्यक्ति तो दोनों का जोड़ है, स्त्री-पुरुष का। इसलिए क्या महत्वपूर्ण है आपके भीतर, वह आपकी साधना-पद्धति होगी। लेकिन दोनों साधना पद्धतियां अलग होंगी। दोनों के मार्ग, व्यवस्थाएं, विधियां अलग होंगी। ___ मैं जिस साधना पद्धति का प्रयोग करता हूं, वह संकल्प से शुरू होती है। लेकिन पद्धति वह समर्पण की है। लेकिन कोई भी समर्पण संकल्प से ही शुरू हो सकता है, लेकिन संकल्प सिर्फ शुरुआत का काम करता है। और धीरे-धीरे समर्पण में विलीन हो जाना होता है। लेकिन पद्धति वह समर्पण की है। __ पूछा जा सकता है कि फिर जो लोग संकल्प की ही पद्धति पर जानेवाले हैं, उनका इस पद्धति में क्या होगा? संकल्प की पद्धति पर जानेवाले लोग कभी लाख में एकाध होता है, करोड़ में एकाध होता है। क्योंकि संकल्प की पद्धति में जाने का अर्थ है, अब किसी का कोई भी सहारा न लेना / संकल्प के मार्ग पर वस्तुतः गुरु की भी कोई आवश्यकता नहीं है, शास्त्र की भी कोई आवश्यकता नहीं है, विधि की भी कोई आवश्यकता नहीं है, इसलिए कभी करोड़ में एक आदमी...और यह आदमी भी इसलिए संकल्प पर जा सकता है कि अनेक-अनेक जीवन में उसने समर्पण के मार्ग पर इतना काम कर लिया है कि अब बिना गुरु के, बिना विधि के, वह स्वयं ही आगे बढ़ सकता है। ___ इस सदी में कृष्णमूर्ति ने संकल्प के मार्ग की प्रबलता से बात की है। इसलिए वे गुरु को इनकार करते हैं, शास्त्र को इनकार करते हैं, विधि को इनकार करते हैं। कृष्णमूर्ति जो कहते हैं, बिलकुल ही ठीक है, लेकिन जिन लोगों से कहते हैं, उनके बिलकुल काम का नहीं है। और इसलिए खतरनाक है। कृष्णमूर्ति शायद ही किसी व्यक्ति को मार्ग दे सके हों। हां, बहुत लोग जो मार्ग पर थे, उनको वे विचलित जरूर कर सके हैं। होगा 142 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप ही हैं अपने परम मित्र ही, अगर करोड़ में एक व्यक्ति संकल्प के मार्ग पर चल सकता है तो संकल्प की चर्चा खतरनाक है / क्योंकि वह जो करोड़ हैं, जो नहीं चल सकते, वे भी सुन लेंगे / और संकल्प के मार्ग का जो बड़ा खतरा यह है कि अहंकारियों को बड़ा प्रीतिकर लगता है कि ठीक है-न गुरु की जरूरत, न विधि की, न शास्त्र की--में काफी है। यह अहंकार को बहुत प्रीतिकर लगता है। तो करोड़ लोग अगर सुनेंगे, उनमें से एक चल सकता है। और बड़े मजे की बात यह है कि वह एक जो चल सकता है, शायद ही कृष्णमूर्ति को सुनने जायेगा / वह जायेगा ही क्यों? वह जो चल सकता है, वह जायेगा नहीं क्योंकि वह चल ही सकता है। और जो नहीं चल सकते हैं, वे ही जायेंगे। और सुनकर उन सबको यह भ्रम पैदा होगा कि हम अकेले ही चल सकते हैं / न किसी गुरु की जरूरत, न किसी शास्त्र की, न विधि की। वे केवल भटकेंगे और परेशान होंगे। क्योंकि अगर उन्हें गुरु की जरूरत न होती तो वे कृष्णमूर्ति के पास भी न आये होते। यह किसी की तलाश में उनका आना ही बताता है कि वे अपनी तलाश में अकेले नहीं जा सकते। लेकिन उनके मी तृप्ति मिलेगी क्योंकि गुरु बनाने में विनम्र होना जरूरी है। गुरु इनकार करने में कोई विनम्रता की आवश्यकता नहीं। विधि स्वीकार करने में कुछ करना पड़ेगा। कोई विधि नहीं है तो कुछ करने का सवाल ही समाप्त हो गया / काहिल, सुस्त, अहंकारी, कृष्णमूर्ति से प्रभावित हो जायेंगे। और वे बिलकुल गलत लोग हैं / उनसे तो यह बात की ही नहीं जानी चाहिए। और बड़ा मजा यह है कि कृष्णमूर्ति भी जहां पहुंचे हैं, बिना गुरु के नहीं पहुंचे हैं। इस सदी में किसी व्यक्ति को अधिकतम गुरु मिले हों तो वह कृष्णमूर्ति हैं / ऐनीबिसेंट जैसा गुरु, लीडबीटर जैसा गुरु खोजना बहुत मुश्किल है। लेकिन एक उपद्रव हुआ, और वह उपद्रव यह था कि कृष्णमूर्ति ने इन गुरुओं को नहीं खोजा था, इन गुरुओं ने कृष्णमूर्ति को खोजा, यही उपद्रव हो गया। और ये गुरु इतनी तीव्रता में थे, इतनी जल्दी में थे किन्हीं कारणों से-एक बहुत उपद्रवी सदी की शुरुआत हो रही थी और धर्म का कोई निशान भी न बचे, इसका भी डर था / और लीडबीटर और ऐनीबिसेन्ट और उनके साथी इस कोशिश में थे कि धर्म की जो शुभ्रतम ज्योति है, वह कहीं से प्रगट हो सके / तो वे किसी की तलाश में थे कि कोई व्यक्ति पकड़ लिया जाये, जो इस काम के लिए आधार बन जाये, मीडियम बन जाये। - कृष्णमूर्ति को उन्होंने चुना / कृष्णमूर्ति पर वर्षों मेहनत की; कृष्णमूर्ति को निर्मित किया, कृष्णमूर्ति को बनाया, खड़ा किया। कृष्णमूर्ति जो कुछ भी हैं, उसमें निन्यानबे प्रतिशत उनका दान है। लेकिन खतरा यह हुआ कि कृष्णमूर्ति ने स्वयं चुना नहीं था, वे चुने गये थे। और अगर हम अच्छा भी किसी को बनाने की चेष्टा करें, और यह उसकी मर्जी न रही हो, यह स्वेच्छा से न चुना गया हो, तो वह आज नहीं कल अच्छे बनानेवालों के भी विपरीत हो जायेगा। उन्होंने इतनी चेष्टा की कृष्णमूर्ति को निर्मित करने की कि यही चेष्टा कृष्णमूर्ति के मन में प्रतिक्रिया बन गयी / गुरु उनको बोझ की तरह मालूम पड़े, जिन्होंने जबर्दस्ती उन्हें बदलने की कोशिश की, ऐसा उन्हें लगा / वह प्रतिक्रिया बन गयी। वह आज भी उसका सखा संस्कार उनके ऊपर रह गया / वह आज भी उन्हीं के खिलाफ बोले जाते हैं। जब कृष्णमूर्ति गुरु के खिलाफ बोलते हैं तो आपको खयाल में भी नहीं आता होगा कि वह लीडबीटर के खिलाफ बोल रहे हैं, ऐनीबिसेंट के खिलाफ बोल रहे हैं। बहुत देर हो गयी उस बात को हुए / लेकिन वह बात जो गुरुओं ने उनके साथ की है, उनको बदलने की जो सतत अनुशासन देने की चेष्टा वह उनको गुलामी जैसी लगी, क्योंकि वह स्वेच्छा से चुनी नहीं गयी थी। उसके खिलाफ उनका मन बना रहा। __वे कहते चले गये हैं। उनको सुननेवाला वर्ग है, और वह वर्ग चालीस साल में कहीं नहीं पहुंच रहा है / वह सिर्फ शब्दों में भटकता रहता है। क्योंकि जो सुनने आता है, वह गुरु की तलाश में है। और जो वह सुनता है वह यह है कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है / वह मान लेता है कि गुरु की जरूरत नहीं है और फिर भी कृष्णमूर्ति को सुनने आता चला जाता है। वर्षों तक फिर सुनने की कोई जरूरत नहीं है, अगर गुरु की कोई भी जरूरत नहीं / और यह भी बड़े मजे की बात है कि यह भी एक गुरु से सीखी हुई बात है कि गुरु की कोई भी 143 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 जरूरत नहीं है। यह भी खुद की बुद्धि से आयी हुई बात नहीं है। यह भी एक गुरु की शिक्षा है कि गुरु की कोई भी जरूरत नहीं है। इसको भी जो स्वीकार कर रहा है, उसने गुरु को स्वीकार कर लिया। लेकिन करोड़ों में कभी एकाध आदमी जरूर ऐसा होता है, वह भी अनंत जन्मों की यात्रा के बाद / उसे पता हो या न हो। __ कल ही एक मित्र मलाया से मुझे मिलने आये। तो मलाया में एक महत्वपूर्ण घटना घटी है, सुबुह / और मुहम्मद सुबुह नाम के एक व्यक्ति पर अचानक, अनायास प्रभु की ऊर्जा का अवतरण हुआ / लेकिन मुसलमान मानते हैं कि एक ही जन्म है / इसलिए मुहम्मद सुबुह को भी लगा कि मुझ साधारण आदमी पर परमात्मा की कृपा हुई है। उनके माननेवाले भी यही मानते हैं कि यह सिर्फ एक संयोग की बात है कि मुहम्मद सुबुह चुना गया। मैंने उनसे कहा, हम ऐसा नहीं मान सकते। कोई आकस्मिक घटना नहीं होती / सिर्फ मुसलमान थियोलाजी के कारण पाक सुबुह को लगता है कि अचानक मुझ पर प्रभु की कृपा हुई। लेकिन यह जन्मों-जन्मों की साधना का परिणाम है, नहीं तो यह हो नहीं सकता। तो जब कभी कोई व्यक्ति अचानक भी संकल्प की स्थिति में आ जाता है, तब भी वह यह न सोचे कि गुरुओं का हाथ नहीं है। हजारों-हजारों गुरुओं का हजारों-हजारों जन्मों में हाथ है। ___ पानी को कोई गरम करता है, सौ डिग्री पर भाप बनता है, निन्यानबे डिग्री तक तो भाप नहीं बनता। लेकिन जिस अंगार ने निन्यानबे तक पहुंचाया है, उसके बिना सौवीं डिग्री भी नहीं आती। सौवीं डिग्री पर भाप बनकर उड़ता हुआ पानी सोच सकता है कि निन्यानबे डिग्री तक तो मैं कुछ भी नहीं था, सिर्फ पानी था / यह जो घटना घट रही है, अचानक घट रही है, लेकिन शून्य डिग्री से सौ डिग्री तक की जो लम्बी यात्रा है, उस यात्रा में न मालूम कितने ईंधन ने साथ दिया है। आखिरी घटना आकस्मिक घटती मालूम होती है; लेकिन इस जगत में कुछ आकस्मिक नहीं है। नहीं तो विज्ञान का कोई उपाय न रह जायेगा। हिन्दू चिन्तन इसलिए बहुत गहरा गया है और उसने कहा कि इस जगत में कुछ भी आकस्मिक नहीं है। अगर कृष्णमूर्ति अचानक ज्ञान को उपलब्ध होते हैं तो यह भी अचानक हमें लगता है। या पाक सबह पर अचानक प्रभ की अनुकम्पा मालम होती है, तो यह भी हमें लगता है, अचानक हआ। जन्मों-जन्मों की तैयारी है। __निन्यानबे प्वाइंट नौ तक भी पानी, पानी ही होता है। फिर एक प्वाइंट और भाप हो जाता है। तो पाक सुबुह को निन्यानबे प्वाइंट नौ तक भी पता नहीं है कि भाप बनने का क्षण करीब आ गया। जब भाप बनेंगे, तभी पता चलेगा। तब एकदम आकस्मिक लगेगा, कि क्षणभर पहले मैं एक साधारण दुकानदार था, कि साधारण कर्मचारी था, एक साधारण आदमी था, बाल-बच्चेवाला, पत्नीवाला, कुछ पता नहीं था, अचानक यह क्या हो गया? यह भी अचानक नहीं है। पीछे कार्य-कारण की लम्बी श्रृंखला है, और वह लम्बी है श्रृंखला, बहुत लम्बी है। ___ तो हजारों जन्मों के बाद कभी कोई व्यक्ति इस हालत में भी आ जाता है कि स्वयं ही खोज ले। क्योंकि अब एक ही बिन्दु की बात रह जाती है। सब तैयारी पूरी होती है। जरा-सा संकल्प, और यात्रा शुरू हो जाती है। लेकिन यह पहुंचने में भी न मालूम कितने समर्पणों का हाथ है। जो व्यक्ति कभी-कभी अचानक समर्पण को उपलब्ध हो जाता है. उसके पीछे भी न मालम कितने संकल्पों दोनों का गहरे में जोड़ है। पद्धतियां अलग-अलग हैं, व्यक्ति अलग नहीं है। आज एक व्यक्ति मेरे पास आता है, कहता है कि सब समर्पण करता हूं। लेकिन सब समर्पण करना कितना बड़ा संकल्प है, इसका आपको पता है? इससे बड़ा कोई संकल्प क्या होगा? और यह इतना बड़ा संकल्प कर पाता है, इसका अर्थ हुआ है कि इसने बहुत छोटे-छोटे संकल्प साधे हैं, तभी इस योग्य हुआ है कि इस परम संकल्प को भी करने की तैयारी कर लेता है। 144 . Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप ही हैं अपने परम मित्र पद्धतियों में कोई मेल नहीं है, लेकिन व्यक्ति तो एक है। बल का, एम्फैसिस का फर्क हो सकता है। तो आपको जो खोजना है वह पद्धतियों में मेल नहीं खोजना है। आपको जो खोजना है वह अपनी दशा खोजनी है कि मेरे लिए संकल्प ज्यादा या समर्पण ज्यादा उपयोगी है, और मेरे प्राण किसमें ज्यादा सहजता से लीन हो सकेंगे। ___ मगर यह भी थोड़ा कठिन है, क्योंकि हम अपने को धोखा देने में कुशल हैं, इसलिए यह कठिन है। पर अगर कोई व्यक्ति आत्म-निरीक्षण में लगे, तो शीघ्र ही खोज लेगा कि क्या उसका मार्ग है। अब जो व्यक्ति चालीस साल से कृष्णमूर्ति को सुनने बार-बार जा रहा हो और फिर भी कहता हो, मुझे गुरु की जरूरत नहीं, वह खुद को धोखा दे रहा है / वह सिर्फ शब्दों का खेल कर रहा है / चुकता बातें कृष्णमूर्ति की दोहरा रहा है और कहता है कि गुरु की मुझे कोई जरूरत नहीं है / गुरु की कोई जरूरत नहीं है तो यह सीखने कृष्णमूर्ति के पास जाने का कोई प्रयोजन नहीं है। अपने तईं एक पल खड़ा नहीं हो सकता। साफ है कि समर्पण इसका मार्ग होगा, मगर अपने को आत्मवंचना कर रहा है। __एक आदमी कहता है कि मैं तो समर्पण में उत्सुक हूं। एक मित्र ने मुझे आकर कहा कि मैंने तो मेहरबाबा को समर्पण कर दिया था, तक कुछ हुआ नहीं। तो यह समर्पण नहीं है, क्योंकि आखिर में तो यह अभी सोच ही रहा है, कि कुछ हुआ नहीं। अगर समर्पण कर ही दिया था, तो हो ही गया होता। क्योंकि समर्पण से होता है, मेहरबाबा से नहीं होता / इसमें मेहरबाबा से कुछ लेना-देना नहीं है। मेहरबाबा तो सिर्फ प्रतीक हैं। वह कोई भी प्रतीक काम देगा, राम, कृष्ण कोई भी काम दे देगा। उससे कोई मतलब नहीं है। राम न भी हुए हों, न भी हों तो भी काम दे देगा। महत्वपूर्ण प्रतीक नहीं है, महत्वपूर्ण समर्पण है। ___ यह आदमी कहता है, मैंने सब उन पर छोड़ दिया, लेकिन अभी कुछ हुआ नहीं। लेकिन की गुंजाइश समर्पण में नहीं है। छोड़ दिया, बात खत्म हो गयी। हो, न हो, अब आप बीच में आनेवाले नहीं हैं। तो यह धोखा दे रहा है अपने को / यह समर्पण किया नहीं है। लेकिन सोचता है कि समर्पण कर दिया और अभी हिसाब-किताब लगाने में लगा हुआ है। समर्पण में कोई हिसाब-किताब नहीं है। अगर हिसाब-किताब ही करना है तो संकल्प; अगर हिसाब-किताब नहीं ही करना है, तो समर्पण। ___ और जब एक दिशा में आप लीन हो जायें, तो वह जो दूसरा हिस्सा आपके भीतर रह जायेगा छाया की तरह, उसे भी उसी के उपयोग में लगा दें। इसे उसके विपरीत खड़ा न रखें / इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। आपके भीतर थोड़ा-सा संकल्प भी है, बड़ा समर्पण है। आप समर्पण में जा रहे हैं तो अपने संकल्प को समर्पण की सेवा में लगा दें। उसको विपरीत न रखें, नहीं तो वह कष्ट देगा। और आपकी सारी साधना को नष्ट कर देगा। अगर आप संकल्प की साधना में जा रहे हैं और समर्पण की वृत्ति भी भीतर है, जो कि होगी ही, क्योंकि अभी आप अखण्ड नहीं हैं, एक नहीं हैं, बंटे हुए हैं, टूटे हुए हैं। दूसरी बात भी भीतर होगी ही। तो आपके भीतर जो समर्पण है, उसको भी संकल्प की सेवा में लगा दें। ___ इसलिए महावीर ने शब्द प्रयोग किया है, आत्मशरण / महावीर कहते हैं; दूसरे की शरण मत जाओ, अपनी ही शरण आ जाओ। संकल्प का अर्थ हआ कि मेरे भीतर जो समर्पण का भाव है, वह भी मैं अपने ही प्रति लगा दं, अपने को ही समर्पित हो जाऊं। वह भी बचना नहीं चाहिए, वह सक्रिय काम में आ जाना चाहिए। ध्यान रहे, हमारे भीतर जो बच रहता है बिना उपयोग का, वह घातक हो जाता है, डिस्ट्रक्टिव हो जाता है। हमारे भीतर अगर कोई शक्ति ऐसी बच रहती है जिसका हम कोई उपयोग नहीं कर पाते, तो वह विपरीत चली जाती है / इसके पहले कि हमारी कोई शक्ति विपरीत जाये, उसे नियोजित कर लेना जरूरी है। नियोजित शक्तियां सृजनात्मक हैं, क्रिएटिव हैं। अनियोजित शक्तियां घातक हैं, डिस्ट्रक्टिव हैं, 145 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 विध्वंसक हैं। तो जो संकल्प कर रहा है, उसे समर्पण को भी संकल्प के कार्य में लगा देना चाहिए / हजार मौके आयेंगे जब संकल्प का उपयोग समर्पण के साथ हो सकता है। जैसे एक आदमी ने संकल्प किया कि मैं चौबीस घंटे खड़ा रहूंगा / तो अब संकल्प के प्रति पूरा समर्पित हो जाना चाहिए, अब चौबीस घंटे में एक बार भी सवाल नहीं उठाना चाहिए कि मैंने यह क्या किया, करना था कि नहीं करना था / अब पूरा समर्पित हो जाना चाहिए। अपने ही संकल्प के प्रति अपना पूरा समर्पण कर देना चाहिए / अब चौबीस घंटे यह सवाल नहीं है। एक आदमी ने संकल्प किया कि किसी के चरण पकड़ लिये, यही आसरा है, तो फिर अब बीच-बीच में सवाल नहीं उठाने चाहिए संकल्प से कि मैंने ठीक किया कि नहीं ठीक किया, कि यह मैं क्या कर रहा हूं। अब सारे संकल्प को इसी समर्पण में डुबा देना चाहिए। तो मेरे भीतर कोई अनियोजित हिस्सा नहीं बचे, तो मैं साधक हूं। अगर अनियोजित हिस्सा बच जाये तो मैं संदेह से घिरा रहूंगा, और अपने को ही अपने ही हाथ से काटता रहूंगा। खुद की विपरीत जाती शक्ति व्यक्ति को दीन कर देती है। खुद की सारी शक्तियां समाहित हो जायें तो व्यक्ति को शक्तिशाली बना देती हैं। तो जब मैंने कहा. संकल्प और समर्पण के मार्गों का ताल-मेल मत करना. तो मेरा मतलब यह नहीं है कि आप अपने भीतर की शक्तियों का ताल-मेल मत करना / संकल्प के मार्ग पर चलें तो समर्पण के मार्ग की जो विधियां हैं, उनका उपयोग मत करना / आपके भीतर जो समर्पण की क्षमता है, उसका तो जरूर उपयोग करना / जब समर्पण के मार्ग पर चलें तो संकल्प की जो विधियां हैं, वे फिर आपके लिए नहीं रहीं। लेकिन आपके भीतर जो संकल्प की क्षमता है, उसका पूरा उपयोग करना। मैं समझता हूं, मेरी बात आपको साफ हई होगी। जैसे कि एक आदमी एलोपैथिक दवाएं लेता है, एक आदमी होम्योपैथिक दवाएं लेता है या एक आदमी नेचरोपैथी का इलाज करता है। पैथीज को मिलाना मत / ऐसा मत करना कि एलोपैथी की भी दवा ले रहे हैं, होम्योपैथी की भी दवा ले रहे हैं और नेचरोपैथी भी चला रहे हैं। इसमें बीमारी से शायद ही मरें, पैथीज से मर जायेंगे। बीमारी से बचना आसान है, लेकिन अगर कई पैथी का उपयोग कर रहे हैं तो मरना सुनिश्चित है। जब एलोपैथी ले रहे हों, तो फिर शुद्ध एलोपैथी लेना, फिर बीच में दूसरी चीजों को बाधा मत डालना / जब होम्योपैथी ले रहे हों तो पूरी होम्योपैथी लेना, दूसरी चीज को बाधा मत डालना। लेकिन चाहे एलोपैथी लें. चाहे होम्योपैथी लें. चाहे नेचरोपैथी लें, भीतर वह जो क्षमता है ठीक होने की, उसका पूरा उपयोग करना। वह एलोपैथी के साथ जुड़े कि होम्योपैथी के साथ, कि नेचरोपैथी के साथ, यह अलग बात है, लेकिन भीतर वह जो ठीक होने की क्षमता है, उसका पूरा उपयोग करना। आप कहेंगे, वह तो हम करते ही हैं। जरूरी नहीं है। कुछ लोग ऊपर से दवा लेते रहते हैं और भीतर बीमार रहना चाहते हैं, तब बड़ी मुश्किल हो जाती है। अगर बीमारी आपकी तरकीब है, तो दवा आपको ठीक नहीं कर पायेगी। आप कहेंगे, कौन आदमी बीमार रहना चाहता है? आप गलती में हैं। फिर आपको मनुष्य के मन का कोई भी पता नहीं है। __ मनसविद कहते हैं कि सौ में से पचास प्रतिशत बीमारियां बीमारों के आह्वान हैं, वे उन्होंने बुलायी हैं / बचपन से बीमारी का सिखावन हो जाता है / बच्चा अगर स्वस्थ है, घर में कोई ध्यान नहीं देता है। बच्चा अगर बीमार है, सारे घर का केन्द्र हो जाता है / बच्चा समझ लेता है एक बात कि जब भी केन्द्र होना हो, बीमार हो जाना जरूरी है। और बच्चा ही नहीं सीख लेता, आपके भीतर छिपा है वह बच्चा। आपको भी खयाल होगा. पत्नी पति को देखकर कल्हने लगती है. पहले नहीं कल्ह रही थी। पति पत्नी को देखकर एकदम सिर पर हाथ रखकर लेट जाता है। अभी बिलकुल ठीक था। 146 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप ही हैं अपने परम मित्र क्या, मामला क्या है? अगर सिर में दर्द था, तो कमरे में जब कोई नहीं था तब भी कूल्हना चाहिए था / अगर कूल्हना बीमारी से आ रहा है, तो किसी से क्या लेना-देना! लेकिन दूसरे को देखकर बीमारी एकदम कम-बढ़ क्यों होती है? रस है बीमारी में। ___ और मनसविद कहते हैं कि स्त्रियों की तो अधिक बीमारियां उस रस से पैदा होती हैं, क्योंकि उनको और कोई उपाय दिखायी नहीं पड़ता कि कैसे वह पति का आकर्षण कायम रखें / पहले तो उन्होंने सौंदर्य से रख लिया, सजावट से रख लिया। थोड़े दिन में वह बासा हो जाता है, परिचित हो जाता है। तो अब पति का ध्यान किस तरह आकर्षित करना! तो स्त्रियां बीमार रहना शुरू कर देती हैं। उनको भी पता नहीं है कि वह क्यों बीमार हैं? तो वह दवा भी लेंगी, लेकिन बीमारी में रस भी जारी रहेगा। तो दवा भी जारी रहेगी और भीतर से उनका दवा के लिए सहयोग भी नहीं है। वह ठीक होना नहीं चाहतीं। क्योंकि ठीक होते ही, वह जो ध्यान पति दे रहा था, वह विलीन हो जायेगा। जब पत्नी बीमार है तो पति खाट के पास आकर बैठता भी है, सिर पर हाथ भी रखता है। जब वह ठीक है तब कोई हाथ नहीं रखता, कोई ध्यान भी नहीं देता। अगर दुनिया में बीमारी कम करनी है तो बच्चों के साथ जब वे बीमार हों तब बहत ज्यादा प्रेम मत दिखाना / क्योंकि वह खतरनाक है। बीमारी और प्रेम का जुड़ना बहुत खतरनाक है / बीमारी से ज्यादा बड़ी बीमारी आप पैदा कर रहे हैं / बच्चे जब स्वस्थ हों, तब उनके प्रति प्रेम प्रकट करना और ज्यादा ध्यान देना / जब बीमार हों, तब थोड़ी तटस्थता रखना / तब उतना प्रेम, उतना शोरगुल मत मचाना / लेकिन जब कोई बीमार होता है। तब हम एकदम वर्षा कर देते हैं। जब कोई ठीक होता है, तो हमें कोई मतलब नहीं। _हम भी सोचते हैं कि जब ठीक है, तब मतलब की बात क्या? लेकिन आपको पता नहीं, आपका यह ध्यान बीमारी का भोजन है। इसलिये बच्चा जब भी चाहेगा कि कोई ध्यान दे, चाहे वह कितना ही बड़ा हो जाये, तब वह बीमारी को निमंत्रण देगा / यह निमंत्रण भीतरी होगा। दवा ऊपर से लेगा और भीतर ठीक नहीं होना चाहेगा। तब उपद्रव हो जायेगा। तो चाहे एलोपैथी लें, चाहे कोई पैथी लें, एक काम सब में जरूरी होगा कि अपना पूरा भाव ठीक होने का जोड़ दें। चाहे संकल्प के मार्ग पर चलें, चाहे समर्पण के मार्ग पर, जो भी आपकी ऊर्जा है वह सारी की सारी उस मार्ग पर जोड़ दें। दो मार्गों को नहीं जोडना है, साधक को भीतर अपनी दो ऊर्जाओं को जोडना है। ये दोनों ऊर्जाएं जडकर किसी भी मार्ग पर चली जाये तो यात्रा अन्त तक पहुंच जायेगी। भीतर तो ऊर्जाएं बंटी रहें और आदमी मार्गों को जोड़ने में लगा रहे तो कभी भी नहीं पहुंच पायेगा। पैथीज जुड़कर जहर हो जाती हैं / अलग-अलग अमृत हैं। दो मार्ग जुड़कर भटकानेवाले हो जाते हैं। अलग-अलग पहुंचानेवाले हैं। __ एक मित्र ने पूछा है कि परमात्मा शब्द में नहीं, सत्य में है, ऐसा आपसे जाना / मैं भी इन शब्दों के जाल से छूटना चाहता हूं। लेकिन डर लगता है। डूबते को तिनके का सहारा है। गीता के पाठ से लगता है, सब ठीक चल रहा है। अगर छोड़ दूं तो आध्यात्मिक पतन न हो जाये। कहीं पापी न हो जाऊं। यह भय स्वाभाविक है। लेकिन इसे समझ लें। अगर मुझे सुनकर ही जाना कि शब्द में सत्य नहीं, अगर मुझे सुनकर ही जाना तो मुझसे तो शब्द ही सुने होंगे। तब खतरा है। तब गीता छूट सकती है, मैं पकड़ जाऊं / और गीता छोड़कर मुझे पकड़ने में कोई सार नहीं है / फिर तो पुराने को ही पकड़े रहना बेहतर है। क्योंकि पकड़ का अभ्यास है। नाहक बदलने से क्या सार होगा। __ मुझे सुनकर ही न जाना हो, मुझे सुनकर भीतर यह बोध जगा हो, मेरा सुनना केवल निमित्त रहा हो, मेरे सुनने से ही यह बात भीतर पैदा न हुई हो, मेरे सुनने का ही कुल जमा परिणाम न हो, मेरा सुनना केवल बाहर से निमित्त बना हो और भीतर एक बोध का जन्म हुआ 147 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 हो कि शब्द में कोई सत्य नहीं है / तब मेरे शब्द में भी सत्य नहीं है और गीता के शब्द में भी सत्य नहीं है। तब सत्य साधना में है, स्वयं के अनुभव में है। अगर ऐसा हुआ हो तो गीता को छोड़ने में कोई भी भय न लगेगा। क्या भय है? अगर भीतर ही यह बोध हो गया तो छोड़ने में जरा भी भय न लगेगा / बोध के लिए कोई भय नहीं है / भय का कारण यह है कि मेरा शब्द लग रहा है प्रीतिकर / तो अब गीता के शब्द को छोड़ना है। जगह खाली करनी है, तब मेरे शब्द को भीतर रख पायेंगे / इससे भय लग रहा है कि इतना पुराना शब्द, इसको छोड़ना और नये शब्द को पकड़ना। पुराना तिनका छोड़ना और नये तिनके को पकड़ने में भय लगेगा। क्योंकि पुराना तिनका, तिनका नहीं मालूम पड़ता, नाव मालूम पड़ता है, इतने दिन से पकड़ा हुआ है। जब उसको छोड़ेंगे और नये तिनके को पकड़ेंगे तो नया तिनका अभी तिनका दिखायी पड़ेगा। धीरे-धीरे वह भी नाव बन जायेगा / जैसे-जैसे आंख बन्द होने लगेगी, वह भी नाव मालूम पड़ने लगेगा। इसलिए पुराने को नये से बदलने में भय लगता है। क्योंकि पुराने के साथ तो सम्मोहन जुड़ जाता है। नये के साथ सम्मोहित होना पड़ेगा, वक्त लगेगा, समय लगेगा / जितनी देर समय लगेगा उतने दिन भीतर एक भय और घबराहट रहेगी। ___ नहीं, कोई गीता के शब्द को मेरे शब्द से बदलने की जरूरत नहीं है / सब शब्द एक जैसे हैं। अगर बदलना ही है तो सत्य से शब्द को बदलना / लेकिन सत्य है आपके भीतर, न मेरे शब्द में है, न गीता के शब्द में है, न महावीर के शब्द में है। इनके शब्द भी आपके भीतर की तरफ इशारा हैं / वह जो मील का पत्थर कह रहा है, मंजिल आगे है, तीर बना हुआ है; उस मील के पत्थर में कोई मंजिल नहीं है। वह सिर्फ इशारा है। और सब इशारे छोड़ देने पड़ते हैं तो ही यात्रा होती है। मील के पत्थर को छाती से लगाकर कोई बैठ जाये तो हम उसे पागल कहेंगे। लेकिन गीता को कोई छाती से लगाकर बैठा हो तो हम उसको धार्मिक आदमी कहते हैं। गीता मील का पत्थर है, कृष्ण के द्वारा लगाया गया पत्थर है, इशारा है / मैं भी एक पत्थर लगा सकता हूं, वह भी इशारा बनेगा। आप एक पत्थर छोड़कर दसरा पत्थर पकड लें, इससे कोई हल नहीं है। थोडी राहत भी मिल सकती है। जैसा कि मरघट लोग ले जाते हैं अर्थी को, तो एक कंधे से दूसरे पर रख लेते हैं। थोड़ी देर राहत मिलती है क्योंकि एक कंधा थक गया, दूसरे पर रख लिया। अगर कृष्ण से आप थक गये हैं तो मुझे रख सकते हैं। लेकिन थोड़ी देर में मुझसे थक जायेंगे। जब कृष्ण से ही थक गये तो मुझसे कितनी देर बचेंगे बिना थके / मुझसे भी थक जायेंगे, फिर कंधा बदलना पड़ेगा। कंधे तो बदलते-बदलते जन्म बीत गये। कितने कंधे आप बदल नहीं चुके / कंधे बदलने से कोई सार नहीं है। इशारा! इशारा क्या है? इशारा इतना ही है कि जो कहा जाता है, वह केवल प्रतीक है। जो अनुभव किया जाता है, वही सत्य है। आपने प्रेम का अनुभव किया और कहा कि मैंने प्रेम जाना / लेकिन जो सुन रहा है आपके शब्द, वह आपके शब्द सुनकर प्रेम नहीं जान लेगा। __मैंने कहा, पानी मैंने पिया और प्यास बुझ गयी। अब मेरे वचन को पकड़कर आपकी प्यास नहीं बुझ जायेगी। पानी पीएंगे तो प्यास बझ जायेगी / पानी शब्द में पानी बिलकल भी नहीं है। तो कितना ही पानी शब्द को पीते रहें, प्यास न बझेगी। धोखा हो भी सक कि आदमी अपने को समझा ले कि इतना तो पानी पी रहे हैं—पानी शब्द, पानी शब्द सुबह से शाम तक दोहरा रहे हैं। कहां की प्यास? यह भी हो सकता है कि पानी शब्द में इतनी तल्लीनता बढ़ा लें कि प्यास का पता न चले, लेकिन प्यास बुझेगी नहीं। और जब भी पानी शब्द की रटन छोड़ेंगे, भीतर की प्यास का पता चलेगा, कि प्यास मौजूद है। पानी पीना पड़ेगा, पानी शब्द से कुछ हल नहीं है। __ इसलिए भय लगेगा, अगर शब्द से शब्द को बदलना है। लेकिन कोई भय की जरूरत नहीं, अगर शब्द को सत्य से बदलना है। लेकिन सत्य कहीं बाहर से मिलनेवाला नहीं है-न कृष्ण से, न महावीर से, न बुद्ध से। सत्य है छिपा आपके भीतर / ये सारे कृष्ण, 148 . Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप ही हैं अपने परम मित्र बुद्ध, महावीर, एक ही काम कर रहे हैं कि जो भीतर छिपा है, उसकी तरफ इशारा कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि तुम हो सत्य / __रिन्झाई से किसी ने आकर पूछा,बुद्ध क्या हैं? रिन्झाई ने कहा, तुम कौन हो? कोई संगति नहीं मालूम पड़ती / बेचारा पूछ रहा है कि बुद्ध कौन हैं? बुद्ध क्या हैं? बुद्धत्व का क्या अर्थ है? और रिन्झाई जो उत्तर दे रहा है, हमें भी लगेगा, क्या उत्तर दे रहा है। वह उत्तर नहीं दे रहा है, वह एक दूसरा सवाल पूछ रहा है। वह कह रहा है कि तुम कौन हो? लेकिन जवाब उसने दे दिया। वह यह कह रहा है कि बद्ध कौन हैं. इसे तम तब तक न जान पाओगे, जब तक तम यह न जान लो कि तम कौन हो। वह यह कह रहा है. तम ही हो बद्ध, और तुम्हीं पूछ रहे हो! तो रिन्झाई ने कह रखा था कि अगर कोई पूछेगा बुद्ध के बाबत तो ठीक नहीं होगा। क्योंकि बुद्ध ही बुद्ध के बाबत पूछे, यह उचित नहीं है। __रिन्झाई ने तो बड़ी हिम्मत की बात कही। सारी दुनिया में उसके वचन का कोई मुकाबला नहीं है / और कई धर्मशास्त्री और पण्डित तो उसका वचन सुनकर बिलकुल घबरा जाते हैं। ऐसा लगता है कि इससे ज्यादा अपवित्र बात और क्या होगी। खुद बुद्ध को मानने वाले लाखों लोग रिन्झाई का वचन सुनने में समर्थ नहीं हैं। लेकिन अगर बुद्ध ने सुना होता तो बुद्ध नाच उठे होते। रिन्झाई अपने शिष्यों से कहता था, इफ ऐनी व्हेयर यू मीट द बुद्धा, किल हिम इमीजिएटली-अगर कहीं बुद्ध मिल भी जायें तो फौरन सफाया कर देना, खात्मा कर देना, एक मिनट बचने मत देना। किसी ने रिन्झाई से कहा कि क्या कह रहे हैं आप, खात्मा कर देना! तो रिन्झाई ने कहा, जब तक तुम बाहर के बुद्ध का खात्मा न करोगे, तुम्हें अपने बुद्ध का पता नहीं चलेगा। और जब तक तुम्हें बाहर बुद्ध दिखायी पड़ रहा है, तब तक तुम भ्रांति में हो / जिस दिन तुम्हें भीतर दिखायी पडेगा उसी दिन...। तो मिल जायें अगर बद्ध, तो तम खात्मा कर देना, और मैं तुमसे कहता हैं। रिन्झाई ने कहा, मेरे वचन को याद रखना और खत्म करते वक्त बुद्ध से भी कह देना कि रिन्झाई ने ऐसा कहा है, और बुद्ध भी इसको पसंद करेंगे। रिन्झाई बड़े अधिकार से कह रहा है क्योंकि रिन्झाई ठीक वहीं खड़ा है, जहां गौतम बुद्ध खड़े हैं। कोई फर्क नहीं है। __ रिन्झाई अपने शिष्यों से कहता था कि तुम्हारे मुंह में बुद्ध का नाम आ जाये तो कुल्ला कर लेना, साफ कर लेना, मुंह गंदा हो गया। शिष्य घबरा जाते थे, वे कहते थे, आपसे ऐसी बातें सुनकर मन बड़ा बेचैन है, यह आप क्या कहते हैं! वह कहता, जब तक तुम्हें लगता है कि बुद्ध के नाम-स्मरण से कुछ हो जायेगा, तब तक भीतर के बुद्ध की तुम खोज कैसे करोगे? और जब बुद्ध ही बुद्ध का नाम ले रहा है, तो इससे ज्यादा बुद्धूपन और क्या है? / नहीं, बुद्ध हों, कृष्ण हों, महावीर हों, उनके इशारे-पर हम हैं पागल / हम इशारे पकड़ लेते हैं। और जिस तरफ इशारा है, वह जो भीतर छिपा है, उसकी कोई फिक्र नहीं करते। __ कोई भय नहीं है, और जब पता ही चल गया कि तिनके को पकड़े हुए हैं, तो छोड़ने में डर क्या है? तिनके को पकड़े रहो, तो भी डूबोगे। शायद अकेले बच भी जाओ, क्योंकि आदमी को अगर कोई भी सहारा न हो तो तैर भी सके / और सोच रहा है कि तिनका सहारा है, तब पक्का डूबेगा / कोई तिनका तो बचा नहीं सकता। लेकिन तिनके की वजह से तैरेगा भी नहीं। छोड़ो, जब पता चल गया कि तिनका है, तो अब पकड़ने में कोई सार नहीं है / जब तक नाव मालूम होती थी, तभी तक पकड़ने में कोई सार था। छोड़ो, तैरो। बेसहारा होना एक लिहाज से अच्छा है। झूठे सहारे किसी काम के नहीं हैं। लेकिन एक बहुत मजे की बात है, जो आदमी परमरूप से बेसहारा हो जाता है उसे परम सहारा मिल जाता है / वह तो भीतर ही छिपा है आपके, जिसके सहारे की जरूरत है। तिनके की कोई जरूरत नहीं है, वह जो भीतर छिपा है वही सहारा है। शब्द को छोड़ो, शास्त्र को छोड़ो। इसलिए नहीं कि शास्त्र कुछ बुरी बात है, बल्कि इसीलिए कि उसको पकड़कर कहीं ऐसा न हो कि सब्स्टीट्यूट जो है, परिपूरक 149 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 जो है, उससे ही तृप्ति हो जाये / कहीं ऐसा न हो कि शब्द से ही राजी हो जायें। खतरा है बड़ा शब्द के साथ / सत्य के साथ कोई खतरा नहीं है। लेकिन हमें सत्य के साथ खतरा मालूम होता है, शब्द के साथ कोई खतरा नहीं मालूम होता / क्या कारण है? एक ही कारण है कि शब्द के साथ चुपचाप जीने में सुविधा रहती है-कोई उपद्रव नहीं, कोई परिवर्तन नहीं, कोई क्रांति नहीं। पढ़ते रहो गीता रोज और करते रहो जो करना है। और मजे से करो, क्योंकि हम तो गीता पढ़नेवाले हैं। दिल खोलकर पाप करो, क्योंकि आखिर तीर्थ किसलिए हैं? नहीं तो तीर्थ क्या करेंगे, अगर आप पाप न करोगे। मंदिर किसलिए हैं, अगर पाप न करोगे, तो पूजा का क्या सार है, और फिर परमात्मा किसलिए है? दया के लिए ही, रहमान, दयालु / तो अगर आप पाप ही न करोगे तो परमात्मा का, वह रहमान होने का क्या होगा? रहीम होने का क्या होगा? वह दया किस पर करेगा? किस पर रहम खायेगा? उस पर कुछ दया करो और पाप करो, ताकि वह आप पर रहम खा सके! इसलिए आदमी शब्दों में जीता रहता है / और जिन्दगी? जिन्दगी वृत्तियों में, वासनाओं में विक्षिप्त दौड़ती रहती है / शब्द को छोड़ने का अर्थ केवल इतना ही है कि जिन्दगी को देखो, शब्दों में मत उलझे रहो और अगर चाहिए है किसी दिन स्वतंत्रता, मुक्ति, आनन्द, तो जिन्दगी को बदलो। शब्दों को बदलने से कुछ भी होनेवाला नहीं है। अब सूत्र। 'आत्मा ही अपने सुख और दुख का कर्ता है तथा आत्मा ही अपने सुख और दुख का नाशक भी। अच्छे मार्ग पर चलने वाला आत्मा मित्र है, और बुरे मार्ग पर चलनेवाला आत्मा शत्रु है।' __ महत्वपूर्ण बात महावीर ने कही है कि आप ही अपने शत्रु हो, आप ही अपने मित्र / कोई दूसरा शत्रु नहीं है, और कोई दूसरा मित्र भी नहीं। दूसरे से छुटकारा हमारा हो जाये, इसकी चिन्ता ही महावीर को है / दूसरे पर हम जिम्मेवारियां रखना छोड़ दें, यह सारे उनके वचनों का सार है. और सारी जिम्मेवारी अपने ऊपर ले लें। ___ महावीर कहते हैं कि जब तुम ठीक मार्ग पर चलते हो , तो तुम अपने ही मित्र हो, और जब तुम गलत मार्ग पर चलते हो तो तुम अपने ही शत्रु हो। इसे हम थोड़ा समझें। अगर मैं किसी पर क्रोध करता हूं तो पता नहीं, उसे दुख पहुंचता है या नहीं। यह कोई पक्का नहीं है, लेकिन मुझे दुख मैं देता हूं, यह पक्का है। अगर मैं महावीर को गाली दूं तो महावीर को कोई दुख नहीं पहुंचता / लेकिन गाली देने में मैं तो पीड़ित होता ही हूं। क्योंकि गाली शांति से नहीं दी जा सकती। उसके लिए उबलना और जलना जरूरी है, रातें खराब करना जरूरी है, आगे पीछे दोनों तरफ चिन्ता, बेचैनी, जलन, क्योंकि तभी वह जलन और बेचैनी ही तो गाली बनेगी। वह जो मेरे भीतर पीड़ा होगी, वही जब इतनी भारी हो जायेगी कि उसे सम्भालना मुश्किल हो जायेगा, तभी तो मैं किसी को चोट पहुंचाऊंगा। ब मैं किसी को चोट पहुंचाता हं तो खद को चोट पहंचाये बिना नहीं पहुंचा सकता। असल में जब भी मैं किसी को चोट पहुंचाता हूं, उसके पहले ही मैं अपने को चोट पहुंचा लेता हूं। मेरा घाव भीतर न हो तो मैं दूसरे को घाव करने जा नहीं सकता / घाव ही घाव करवाता है। कभी सोचें कि आप बिलकल शांत, आनंदित, और अचानक किसी को गाली देने लगें तो आपको खद हंसी आ जायेगी कि यह क्या हो रहा है, और दूसरे को भी गाली मजाक मालूम पड़ेगी, गाली नहीं मालूम पड़ेगी। गाली की तैयारी चाहिए, उसकी बड़ी साधना है। पहले साधना पड़ता है, पहले मन ही मन उसमें काफी पागलपन पैदा करना पड़ता है। पहले मन ही मन सारी योजना बनानी पड़ती है। ध्यान र 150 . Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप ही हैं अपने परम मित्र और जब आप इतने तैयार हो जाते हैं भीतर कि अब विस्फोट हो सकता है, तभी। कोई बम ऐसे ही नहीं फूटता, पीछे भीतर बारूद चाहिए। असल में बम फूटता ही इसलिए है कि भीतर विक्षिप्त बारूद मौजूद है। और जब आप भी फूटते हैं तो भीतर बारूद आपको निर्मित करनी पड़ती है। जब एक आदमी किसी पर क्रोध करता है, तो अपने को दुख देता है, पीड़ा देता है, वह अपना शत्रु है। बुद्ध ने भी ठीक यही बात कही है कि बड़े पागल हैं लोग. दसरों की भलों के लिए अपने को सजा देते हैं। आपने गाली दी मझे. यह भल आपकी रही. और मैं अपने को सजा देता हूं क्रोधित होकर / क्रोधित होकर आपको सजा दे सकता हूं, यह कोई जरूरी नहीं है। अपने को सजा देता हूं। गलती थी आपकी, चोट अपने को पहुंचाता हूं-तब मैं अपना ही शत्रु हूं। अगर हम अपना जीवन खोजें तो हमें पता लगेगा कि हम चौबीस घण्टे अपनी शत्रुता कर रहे हैं। ___ दो तरह के शत्रु हैं जगत में / एक, वे जो भोग की दिशा में भूल करते हैं, वे अपने को सजा दिये जा रहे हैं, अपने को सताये चले जा रहे हैं. अपने को काटे जा रहे हैं. मारे जा रहे हैं। फिर तो वे इतने आदी हो जाते हैं कि वे समझते भी हैं कि अब यह नहीं करना, फिर भी रुक नहीं पाते। ___ अभी मेरे पास एक युवक को लाया गया। एल.एस.डी. और मारीजुआना और सब तरह के ड्रग्ज ले लेकर उसने ऐसी हालत कर ली है, अब तो वह दिन में दो दफा इंजेक्शन अपने हाथ से लगा ले, तभी जी पाता है, नहीं तो जिन्दगी बेकार मालूम पड़ती है / सारे हाथों में छेद हो गये हैं, सारा खून खराब हो गया है, सारे शरीर पर फोड़े-फुसियां, रोग फैल गये हैं। अब वह कहता है कि मैं रुकना चाहता हूं, लेकिन कोई उपाय नहीं। जब सुबह होती है तो जिन्दगी बेकार मालूम पड़ती है, जब तक कि मैं एक इंजेक्शन और न लगा लूं। आज यूरोप और अमरीका के अनेक-अनेक अस्पताल भरे हुए हैं ऐसे युवक-युवतियों से जो बिलकुल पागल हो गये हैं, अपनी हत्या कर रहे हैं, रोज जहर डाल रहे हैं। लेकिन अब वे यह भी जानते हैं कि अब हम जो कर रहे हैं, यह करने योग्य नहीं है। अब हम मरेंगे इसमें, यह भी जानते हैं। लेकिन रुक भी नहीं सकते। जब सुबह आती है तो बस, नहीं लगाये बिना जिन्दगी बेकार मालूम पड़ती है, लगाओ तो लगता है, अपनी हत्या कर रहे हैं। क्या हो गया इनको? लेकिन, यह जरा अतिशय रूप है। कर हम भी यही रहे हैं। जरा हमारे डोज़ हल्के हैं, छोटे हैं। इनके डोज़ मजबूत हैं। हम भी रोज-रोज जहर लेते हैं, लेकिन होम्योपैथिक डोज़ हैं हमारे, इसलिए पता नहीं चलता। रोज लेते रहते हैं। उसके बिना हमारा भी नहीं चलता / कभी एक महिना बिना क्रोध किये देखें, तब पता चलेगा कि चलता है इसके बिना कि नहीं। वह भी डोज़ है, क्योंकि क्रोध होने से शरीर में विषाक्त द्रव्य छट जाते हैं और खन पागल हो जाता है। यह आपको करना पड़ता है बार-बार / यह आदमी बाहर से इंजेक्शन लेकर भीतर जहर डाल रहा है और आप भीतर की ग्रंथियों से जहर को ले रहे हैं, लेकिन फर्क कुछ भी नहीं है / दस-पांच दिन कामवासना से बच जाते हैं तो बुखार मालूम होने लगता है, भारी हो जाती है वासना ऊपर / किसी तरह शरीर की शक्ति को बाहर फेंका जाये तो ही हल्कापन लगेगा, नहीं तो नहीं लगेगा। फेंककर अनुभव होता है, कुछ सार पाया नहीं। लेकिन दो-चार दिन बाद फिर फेंके बिना कोई रास्ता नहीं मालूम पड़ता। क्या कर रहे हैं हम जिन्दगी के साथ? महावीर कहते हैं, हम अपने शत्रु हैं। भोग में भी हम शत्रुता कर रहे हैं, क्योंकि भोग से कभी आनन्द पाया नहीं। एक बात को सूत्र समझ लें कि जहां से दुख ही मिलता हो, उस मार्ग का अर्थ है कि हम अपने साथ शत्रुता कर रहे हैं। जहां से आनन्द कभी मिलता ही न हो, वहां से मित्रता का क्या अर्थ? जिन्दगी में आपने दुख ही पाया है। सारी जिन्दगी दुख से भरी हुई है। इस दुख से भरी जिन्दगी का 151 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 अर्थ क्या है? कि हम जिन भी रास्तों पर चल रहे हैं, जो भी कर रहे हैं जीवन में, वह सब अपने साथ शत्रुता है। लेकिन हम अपने को बचा लेते हैं। हम कहते हैं, दूसरे शत्रु हैं, इसलिए तकलीफ पा रहे हैं। यह बचाव है, यह पलायन है, यह होशियारी है आदमी की कि वह कहता है कि दूसरों की वजह से। इस तरह वह टाल देता है, असली कारण को छिपा लेता है और दुख भोगता चला जाता है। __ अगर मैं यह मानता हूं कि दूसरे मेरे शत्रु हैं, इसलिए मैं दुख पा रहा हूं, तो फिर मेरे दुख से छुटकारे का कोई उपाय नहीं है, किसी जगत में, किसी व्यवस्था में मुझे रहना हो, मैं दुखी रहूंगा। क्योंकि मैंने मौलिक कारण ही छोड़ दिया और एक झूठे कारण पर अपनी नजर बांध ली। लेकिन, एक और भी शत्रुता है, जो इस तरह के शत्रु कभी-कभी इससे ऊब जाते हैं तो करते हैं। आदमी भोग में अपने को सताता है, यह सुनकर हैरानी होगी। हम तो सोचते हैं, भोग में आदमी बड़ा सुख पाता है / भोग में आदमी अपने को सताता है, फिर इससे ऊब जाता है तो फिर त्याग में अपने को सताता है। पहले खब खा-खाकर अपने को सताया। आदमी ज्यादा खा-खाकर अपने को सता रहा है। फिर इससे ऊब गया, परेशान हो गया, तो फिर उपवास कर-कर के अपने को सताना शुरू कर देता है, लेकिन सताना जारी रखता है / पहले क्रोध कर-कर के अपने को सताया, दूसरों पर क्रोध कर-कर के, फिर अपने पर क्रोध करना शुरू कर देता है, फिर अपने को सताता है। तो जिनको हम त्यागी कहते हैं, अकसर वे शीर्षासन करते हुए भोगी होते हैं। उनमें कोई अन्तर नहीं होता है, सिर्फ खोपड़ी वे नीचे कर लेते हैं, पैर ऊपर कर लेते हैं / वे भी आप ही जैसे लोग हैं, लेकिन खड़े होने का ढंगउन्होंने उल्टा चुना है। पहले एक आदमी स्त्रियों के पीछे दौड़-दौड़कर अपने को सताता है, फिर स्त्रियों से दूर भाग-भाग कर सताना शुरू कर देता है। लेकिन अपने को सताना जारी रखता है। और दोनों से दुख पाता है। __ मैं ऐसे संन्यासी को नहीं मिल पाया खोज-खोजकर, जो कहे कि संन्यास लेकर मैं आनंदित हो गया हूं। इसका क्या मतलब हुआ फिर? संसारी दुखी हैं, यह समझ में आनेवाली बात है। ये संन्यासी क्यों दुखी हैं? एक बड़े जैन मुनि से मेरी बात हो रही थी। बड़े आचार्य हैं, आनंद की कोई उन्हें खबर नहीं है। दुख ही दुख का पता है / तो संसारी दुखी है, छोड़ो, क्षमा योग्य है / सब छोड़कर जो त्यागी खड़ा हो गया, यह भी दुखी है। संसारी की तरकीब है कि वह कहता है, मैं दुखी हूं दूसरों के कारण / और त्यागी की तरकीब यह है कि वह कहता है, दखी हं मैं पिछले जन्मों के कारण / मगर दोनों कशल हैं, कहीं और टाल देते हैं। संसारी टाल देता है दसरे लोगों पर. संन्यासी टाल देता है दूसरे जन्मों पर / संसारी भी मानता है, मैं जैसा हूं बिलकुल ठीक हूं, दूसरे गलत हैं। यह त्यागी भी मानता है कि मैं तो अब बिलकुल ठीक हूं, लेकिन पिछले जन्मों में जो किया है, वह दुख भोगना पड़ रहा है। दोनों का तर्क एक ही है, ये कहीं टाल रहे हैं। - यह बड़े मजे की बात है कि कोई अगर आपसे कहे कि आप अभी पापी हो, तो दुख होता है। और कहे कि पिछले जन्मों का पाप है, तो दुख नहीं होता। क्या मामला है? पिछले जन्म अपने मालूम ही कहां पड़ते हैं! इतना डिस्टेंस है, इतना फासला है कि जैसे किसी और के हों। होगा, इसको तो छोड़ दें, आदमी का मन कैसा है, उसे समझें। ___ अगर मैं आपसे कहूं, आपने कल भी मुझे गीत सुनाया और आज भी मुझे गीत सुनाया और मैं कहूं कि कल का गीत बढ़िया था, तो आपको दुख होता है। क्योंकि कल से भी संबंध टूट गया। आज मैं आपका अपमान कर रहा हूं, मैं कह रहा हूं कि आज का गीत बढ़िया नहीं था, कल का गीत बढ़िया था। कल तो दूर हो गया। अगर मैं आपसे यह कहूं कि आज का गीत कल से भी बढ़िया है तो खशी होती है. दोनों गीत आपके हैं। आज का गीत कल से बढिया है. खशी होती है. और मैं कहता हं. कल का गीत आज था तो दुख होता है। क्यों? क्योंकि आप अभी के क्षण से अपने को जोड़ते हैं। कल के क्षण से अपने को तोड़ चुके हैं। वह तो जा चुका 152 : Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप ही हैं अपने परम मित्र तो जब कल इतना दूर हो जाता है, तो पिछला जन्म तो बहुर दूर है / हुआ कि नहीं हुआ, बराबर है; किसी और का / बड़े मजे से कह सकते हैं कि पिछले जन्म में पापी था / पाप किये, इसलिए दुख भोग रहा हूं। लेकिन अभी? अभी बिलकुल ठीक हूं। फिर भी दुख भोग रहा हूं, दूसरों के कारण, दूसरे जन्मों के कारण; लेकिन दूसरा शब्द महत्वपूर्ण है। चाहे वह जन्म हों, चाहे लोग हों। जो व्यक्ति इस भाषा में सोच रहा है वह महावीर के सूत्र को नहीं समझा अभी / महावीर कहते हैं, दुख भोग रहे हो तो तुम अभी अपने शत्रु हो / उसी शत्रुता के कारण हम दुख भोग रहे हैं / दुख लाक्षणिक है, तुम्हारी शत्रुता का अपने साथ। ___ कल एक मित्र आये थे, वे जैन संन्यासी साधुओं की तरफ से खबर लाये थे, कुछ साधुओं की तरफ से कि वह वहां से छूटना चाहते हैं, उस जंजाल से / मैंने कहा, जंजाल! वे छूटना चाहते हैं, लेकिन हिम्मत भी नहीं है छूटने की। क्योंकि जब संन्यास लिया था तो बड़ा स्वागत समारंभ हुआ था, और जब छोड़ेंगे तो अपमान होगा, निंदा होगी। लोग कहेंगे, पतन हो गया / इसलिए हिम्मत भी नहीं है, लेकिन वहां बड़ा दुख पा रहे हैं / तो उन्होंने आपके पास खबर भेजी है कि अगर आपकोई उनका इंतजाम करवा दें तो वहां से निकल आयें।। मैंने कहा, क्या इन्तजाम चाहते हैं? इन्तजाम के लिए ही वहां भी गये थे। अगर साधुता के लिए गये होते तो वहां भी साधता खिल जाती / इन्तजाम के लिए वहां भी गये थे। और इन्तजाम साधु का बढ़िया है। संन्यासी का संसारी से ज्यादा अच्छा इन्तजाम है। कुछ शर्ते उसको पूरी करना पड़ती हैं। तो हजार शर्ते, संसारी को भी पूरी करनी पड़ती हैं। लेकिन उसका इन्तजाम बढ़िया है। और संसारी को योग्यताएं होनी चाहिए. तब थोडा बहत इन्तजाम कर पाता है। साध के लिए एक ही योग्यता काफी है कि उन्होंने संसार छोड़ दिया। बाकी सब तरह की अयोग्यता चलेगी। मझे साध मिलते हैं, वे कहते हैं कि आपकी बात ठीक लगती है और हम इस उपद्रव को छोडना चाहते हैं। लेकिन अभी जो हमारे पैर छूते हैं, कल वे हमें चपरासी की भी नौकरी देने को तैयार न होंगे। और वे ठीक कहते हैं, ईमानदारी की बात है। देखें अपने साधुओं की तरफ, अगर कल ये साधारण कपड़े पहनकर आपके द्वार पर आ जायें और कहें कि कोई काम वगैरह दे दें, तो आप उनको काम देनेवाले नहीं हैं। पूछेगे कि सर्टिफिकेट लाओ। पिछली जगह कहां काम करते थे, वहां से कैसे छोड़ा? पुलिस स्टेशन में तो नाम नहीं है! लेकिन इन्हीं साध के चरण छने जाते हैं तब इन सबकी इन्क्वायरी की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि चरण छने का खर्चा ही नहीं, न कुछ आपको झंझट, न कुछ। पांव छूये, अपने रास्ते पर गये। कुछ लेना-देना नहीं है। ___ जो लोग संसार से भागते हैं बिना संसार को समझे वे भोग के विपरीत त्याग में पड़ जाते हैं। भोग के विपरीत जो त्याग है, वह त्याग नहीं है, वह भी शत्रुता है / भोग के ऊपर जो त्याग है-भोग के विपरीत नहीं, भोग के पार जो त्याग है, भोग को छोड़ना नहीं पड़ता और त्याग को ग्रहण नहीं करना पड़ता। भोग समझपूर्वक गिरता जाता है और त्याग खिलता जाता है-भोग के पार, बियान्ड / भोग के विपरीत, अपोजिट नहीं / उसी तल पर नहीं, उस तल के पार / भोग की समझ से जो त्याग निकलता है, भोग के दुख से जो त्याग निकलता है, इनमें फर्क है। ___ भोग के दुख से जो त्याग निकलता है वह फिर दुख हो जाता है। दुख से दुख ही निकल सकता है / भोग की समझ-और भोग में क्यों दुख पाया? भोग के कारण नहीं, दूसरे के कारण दुख पाया, यह जब खयाल आता है तो आदमी भोग के पार हो जाता है। महावीर कहते हैं, जो इस तरह का आदमी है वह अपना मित्र है। साधु को महावीर अपना मित्र कहते हैं, असाधु को शत्रु / लेकिन परीक्षण क्या है कि आप अपने मित्र हैं? मित्र का क्या परीक्षण है? __ जिससे सुख मिले, वह मित्र है और जिससे दुख मिले वह शत्रु है / अगर आपको अपने से ही सुख नहीं मिल रहा है तो आप शत्रु हैं। अपने से ही आपको सुख मिलने लगे तो आप मित्र हैं। लेकिन आपको कोई ऐसी बात पता है, जब आपको अपने से सुख मिला 153 . Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 हो? एकाध ऐसा क्षण आपको खयाल है? जब आप अचानक अपने से सुखी हो गये हों? _ नहीं, कभी कोई मकान सुख दिया, कभी कोई लाटरी सुख दी, कभी कोई स्त्री सुख दी, पुरुष सुख दिया, कभी कोई हीरा सुख दिया, कभी कोई आभूषण सुख दिया, कभी कोई कपड़ा सुख दिया। ___ कभी आपको ऐसा खयाल है कि आपने भी अपने को सुख दिया हो? ऐसी कोई याद है? बड़ी हैरानी की बात है, हमने कभी अपने को आज तब सुख नहीं दिया। हमें पता ही नहीं कि खुद को सुख देने का क्या मतलब होता है। सुख का मतलब ही दूसरे से जुड़ा हुआ है। तब एक बड़ी मजेदार दुनिया बनती है। जिस दुनिया में कोई आदमी अपने को सुख नहीं दे पा रहा है, उस दुनिया में सब एक दूसरे को सुख दे रहे हैं / पत्नी पति को सुख दे रही है, पति पत्नी को सुख दे रहा है / न पति अपने को सुख दे पा रहे हैं, न पत्नी अपने को सुख दे पा रही है और जो आपके पास है ही नहीं, वह आप कैसे दूसरे को दे रहे हैं, बड़ा मजा है। जो है ही नहीं, वह आप दसरे को दे रहे हैं। इसलिए आप सोचते हैं. दे रहे हैं। दसरे तक पहंचता ही नहीं। पहंचेगा कैसे? इसलिए पत्नी कहे चली जाती है कि तुम मुझे सुख नहीं दे रहे हो, पति कहे चला जाता है कि तू मुझे सुख नहीं दे रही है। मैं तुझे सुख दे रहा हूं, और तू मुझे सुख नहीं दे रही है। हम सब एक दूसरे से कह रहे हैं कि हम सुख दे रहे हैं और तुम सुख नहीं दे रहे हो / सारी शिकायत यही है जिन्दगी की, सारा शिकवा यही तो है कि कोई सुख नहीं दे रहा है और हम इतना बांट रहे हैं। और आप अपने तक को दे नहीं पाते, और दूसरों को बांट रहे हैं। __ थोड़ा अपने को दें। और ध्यान रहे, जो अपने को दे सकता है, उसे दूसरों को देना नहीं पड़ता। उसके आसपास की हवा में दूसरे सुखी हो सकते हैं, हो सकते हैं, हो नहीं जाते। वह भी उनकी मर्जी है। नहीं तो महावीर के पास खड़े होकर भी आप दुखी ही होंगे। लोग इतने कुशल है दुख पाने में, कहीं से भी दुख खोज लेंगे। उनको मोक्ष भी भेज दो तो घड़ी दो घड़ी में वे सब पता लगा लेंगे कि क्या-क्या दुख है / मोक्ष भी उनसे बच नहीं सकता / यह जो महावीर वगैरह कहते हैं मोक्ष में आनन्द ही आनन्द है, इनको पता नहीं आदमियों का / असली आदमी पहुंच जायें तब पता चलेगा कि वहां दुख ही दुख बता देंगे कि इसमें क्या आनन्द है। ___ महावीर ने मोक्ष की बात कही है कि 'सिद्ध शिला' पर शाश्वत आनन्द है। बर्टेन्ड रसल को इससे बहुत दुख हुआ। बर्टेन्ड रसल ने लिखा है कि 'शाश्वत'! सदा रहेगा! फिर कभी उससे छुटकारा न होगा! फिर बस आनन्द ही आनन्द में रहना पड़ेगा! फिर बदलाहट नहीं होगी! इससे मन बहुत घबराता है। ___ बर्टेन्ड रसल ने कहा है कि इससे तो नरक बेहतर / कम से कम अदल-बदल तो कर सकते हैं। और यह क्या कि सिद्ध शिला पर बैठे हैं, न हिल सकते, न डुल सकते, और आनन्द ही आनन्द बरस रहा है / कब तक? कितनी देर बर्दाश्त करिएगा? थोड़ा सोचें आप भी, आपको भी लगेगा कि प्रास्पेक्ट्स बहुत अच्छे नहीं हैं। इसमें से भी दुख दिखायी पड़ने लगेगा कि नहीं-कभी तो 'जस्ट फार ए चेंज', कभी तो कुछ और उपद्रव भी होना चाहिए, बस आनन्द ही आनन्द! मिठास ज्यादा हो जायेगी। इतनी हम न झेल पायेंगे। हमें थोड़ा तिक्त, नमकीन भी चाहिए। थोड़ा कड़वा, तो उससे थोड़ा जीभ सुधर जाती है। और फिर स्वाद लेने के लिए तैयार हो जाती है। हमें दुख भी चाहिए तो ही हम सख को अनुभव कर पायेंगे। तो महावीर का जो परम आनन्द है. वह बर्टेन्ड रसल को भयदायी म पड़ा, पड़ेगा। हमको भी पड़ेगा। वह तो हम बिना समझे कहते रहते हैं कि हे भगवान, कब मोक्ष होगा? अभी पता नहीं कि मोक्ष का मतलब क्या है? अगर हो जाये मोक्ष तो बस एक ही प्रार्थना रहेगी, हे भगवान, मोक्ष के बाहर जाना कब हो? ___ आदमी अपना दुश्मन है, और जब तक उसकी यह दुश्मनी अपने से नहीं टूटती, उसके लिए कोई आनन्द नहीं है। आदमी अपना मित्र हो सकता है। बड़ी स्वार्थ की बात मालूम पड़ेगी कि महावीर कहते हैं अपने मित्र हो जाओ। लेकिन, स्वार्थ की बात है नहीं, क्योंकि 154 . Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप ही हैं अपने परम मित्र जो अपना ही मित्र नहीं है, वह किसी का भी मित्र नहीं हो सकता। __महावीर कहते हैं, खुद पहले आनन्द को उपलब्ध हो जाओ, यह काफी है। खुद ज्योतिर्मय हो जाओ, प्रकाशित हो जाओ, तभी सोचना कि किसी दूसरे के घर में भी प्रकाश डाल दें। खुद का दीया बुझा हुआ, दूसरों के दीये जलाने चल पड़ते हैं। उस झगड़े में अकसर ऐसा होता है कि दूसरे का भी जल रहा हो थोड़ा बहुत तो बुझा आते हैं। क्योंकि अपने वुझे दीये को जो जला हुआ मानता है, जब तक आपका न बुझा दे, तब तक उसको भी जला हुआ नहीं मानेगा। जब बुझ जाता है, तब वह कहता है, जला दिया। अब निश्चिंत हुए। हम सब एक दूसरे को बुझाने की कोशिश में लगे हैं। खुद बुझे हुए हैं। यही होगा, और कुछ हो भी नहीं सकता। ____ 'पांच इन्द्रियां, क्रोध, मान, माया और लोभ तथा सबसे अधिक दुर्जेय अपनी आत्मा को जीतना चाहिए। एक आत्मा को जीत लेने पर सब कुछ जीत लिया जाता है।' ___ यह एक मित्र हो जाये, जो भीतर छिपा है मेरे / इस एक से ही ताल-मेल बन जाये, इस एक से ही प्रेम हो जाये, यह एक ही मैं जीत लं, तो महावीर कहते हैं; सब जीत लिया। इस एक को जीत लेने को महावीर कहते हैं-सब जीत लिया। सारा संसार जीत लिया मगर दुर्जेय है बहुत। कहते हैं, क्रोध, मान, मोह, लोभ-ये कठिन हैं, इनको जीतना / लेकिन और भी कठिन है स्वयं को जीतना / क्या कठिनाई होगी स्वयं को जीतने की? स्वयं को जीतने की कठिनाई सूक्ष्म है / क्रोध को जीतने की कठिनाई स्थूल है, ग्रास है। हम भी समझते हैं कि क्रोध को जीतना चाहिए। जो क्रोधी है, वह भी मानता है कि क्रोध को जीतना चाहिए। जो लोभी है, वह भी मानता है कि लोभ को जीतना चाहिए, क्योंकि लोभ से दुख मिलता है, इसलिए कोई भी जीतना चाहता है / क्रोध से दुख मिलता है-क्रोधी को भी मिलता है। वह भी मानता है कि गलती है हमारी, कष्ट पाते हैं, और जीतना चाहिए, और महावीर ठीक कहते हैं। __महावीर ठीक कहते हैं कि इसका कुल कारण इतना है कि वह क्रोध से दुख पाता है। क्रोध को जीतने में उसका जो रस है वह दुख को जीतने में है। लोभ से भी दुख पाता है, इसलिए कहता है कि ठीक कहते हैं महावीर / दुख जीतना चाहिए। लोभ में दुख है, लेकिन रस उसका दुख जीतने में है। __ फिर यह स्वयं को जीतना अति कठिन क्यों है? महावीर कहते हैं, दुर्जेय / क्योंकि आपको खयाल ही नहीं है कि आपने स्वयं से कभी दुख पाया, यही सूक्ष्मता है / जिस-जिस से दुख पाया, उसको तो हम जीतना चाहते हैं / न जीत पाते हों, कमजोरी है। लेकिन आपको यह खयाल में ही नहीं है, स्मरण ही नहीं है कि आपने अपने से दख पाया है। हालांकि सब दख आपने अपने से पाया। ___ इसलिए स्वयं को जीतने का कोई सवाल ही नहीं उठता। हम सोचते हैं, स्वयं से तो हमने कभी दुख पाया नहीं, दूसरे से दुख पाया है। दुश्मन को जीतना चाहिए; जो दुख देता हो, उसको सफाया कर देना चाहिए। __ अपने से हमने कभी दुख पाया नहीं, यद्यपि पाया सदा अपने से है। तो फिर तरकीब है हमारे मन की एक कि दुख पाते हैं अपने से, आरोपित करते हैं सदा दूसरों पर / दूसरे को सदा शत्रु बना लेते हैं, ताकि खुद को शत्रु न बनाना पड़े। और दूसरे को मिटाने में लग जाते हैं। यह सारी दृष्टि बदले, तो ही व्यक्ति धार्मिक होता है / हटा लें दूसरों पर, जहां-जहां आपने फैलाव किया है, जहां-जहां आपने अड्डे बना रखे हैं दुखों के–हटा लें वहां से। दुख का घाव भीतर है। वह आप ही हैं दुख / वहां लौट आयें / और जब भी दुख मिले, तो जिसने दुख दिया है उसको भूल जायें। जिसको दुख मिलता है, उसी को देखें। जिसको दुख मिलता है, वही दुख का कारण है। जो दुख देता है, वह दुख का कारण नहीं है। 155 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-वाणी भाग : 2 यह फैलेसी है, यह भ्रांति है। सदा भीतर लौट आयें। कोई गाली दे, तो हमारा ध्यान, पता है कहां जाता है? देनेवाले पर जाता है / सदा जब कोई गाली दे तो ध्यान वहां जाये, जिसको गाली दी गयी है। जब कोई क्रोध में आग-बबूला हो, तो उस पर ध्यान न दें, उस क्रोध का जो परिणाम आप पर हो रहा है, भीतर जो क्रोध उबल रहा है, उस पर ध्यान दें। जब भी कहीं कोई आपको लगे कि ध्यान का कारण बाहर है, तत्काल आंख बन्द कर लें और ध्यान को भीतर ले जायें, तो आपको अपने परम शत्रु से मिलन हो जायेगा। वह आप ही हैं। और जिस दिन आपको अपने परम शत्र से मिलन होगा, उसी दिन आप जीतने की यात्रा पर निकलेंगे। ___ और मजा यह है कि स्वयं को न जानने से ही वह शत्रु है / और जैसे-जैसे ध्यान भीतर बढ़ने लगेगा, वैसे-वैसे स्वयं का जानना बढ़ने लगेगा / और जो शत्रु था, वह एक दिन मित्र हो जायेगा / जो जहर है, वह अमृत हो जाता है, सिर्फ ध्यान के जोड़ को बदलने की बात है। सारी कीमिया. सारी अल्केमी एक है। टांसफर आफ अटेंशन, ध्यान का हटाना / गलत जगह ध्यान दे रहे हैं, और जहां देना चाहिए, वहां नहीं दे रहे हैं। ___ बस, इतना ही हो पाये कि मैं ध्यान आब्जेक्ट से हटाकर सब्जेक्ट पर बदल दूं, विषय से हटा लूं, विषयी पर चला जाऊं। जो कुछ भी हो रहा है, मेरा जगत मैं हूं, और सारे कारण मेरे भीतर हैं। अपमान हो, सुख हो, दुख हो, प्रीति हो, सम्मान हो, जो कुछ भी हो, तत्काल मौके को मत चूकें / फौरन ध्यान को भीतर ले जायें और देखें, भीतर क्या हो रहा है। जल्दी ही भीतर का शत्रु मिल जायेगा। फिर ध्यान को बढ़ाये चले जायें / उसी शत्रु के भीतर छिपा हुआ परम मित्र भी मिल जायेगा / उस परम मित्र को महावीर ने आत्मा कहा है। वह परम मित्र सबके भीतर छिपा है, लेकिन हमने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया है। आज इतना ही। कीर्तन करें, और फिर जायें / 156 .