________________ आत्म-सूत्र : 1 अप्पा कत्ता विकात्त य, दुक्खाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठि सुपट्ठिओ।। पंचिन्दियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च। दुजयं चेव अप्पाणं, सव्वमप्पे जिए जिय।। आत्मा ही अपने सुख और दुख का कर्ता है तथा आत्मा ही अपने सुख और दुख का नाशक है। अच्छे मार्ग पर चलनेवाला आत्मा मित्र है और बुरे मार्ग पर चलनेवाला आत्मा शत्रु / पांच इन्द्रियां, क्रोध, मान, माया, और लोभ तथा सबसे अधिक दुर्जेय अपनी आत्मा को जीतना चाहिए / एक आत्मा को जीत लेने पर सब कुछ जीत लिया जाता है। 140 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.