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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 जो है, उससे ही तृप्ति हो जाये / कहीं ऐसा न हो कि शब्द से ही राजी हो जायें। खतरा है बड़ा शब्द के साथ / सत्य के साथ कोई खतरा नहीं है। लेकिन हमें सत्य के साथ खतरा मालूम होता है, शब्द के साथ कोई खतरा नहीं मालूम होता / क्या कारण है? एक ही कारण है कि शब्द के साथ चुपचाप जीने में सुविधा रहती है-कोई उपद्रव नहीं, कोई परिवर्तन नहीं, कोई क्रांति नहीं। पढ़ते रहो गीता रोज और करते रहो जो करना है। और मजे से करो, क्योंकि हम तो गीता पढ़नेवाले हैं। दिल खोलकर पाप करो, क्योंकि आखिर तीर्थ किसलिए हैं? नहीं तो तीर्थ क्या करेंगे, अगर आप पाप न करोगे। मंदिर किसलिए हैं, अगर पाप न करोगे, तो पूजा का क्या सार है, और फिर परमात्मा किसलिए है? दया के लिए ही, रहमान, दयालु / तो अगर आप पाप ही न करोगे तो परमात्मा का, वह रहमान होने का क्या होगा? रहीम होने का क्या होगा? वह दया किस पर करेगा? किस पर रहम खायेगा? उस पर कुछ दया करो और पाप करो, ताकि वह आप पर रहम खा सके! इसलिए आदमी शब्दों में जीता रहता है / और जिन्दगी? जिन्दगी वृत्तियों में, वासनाओं में विक्षिप्त दौड़ती रहती है / शब्द को छोड़ने का अर्थ केवल इतना ही है कि जिन्दगी को देखो, शब्दों में मत उलझे रहो और अगर चाहिए है किसी दिन स्वतंत्रता, मुक्ति, आनन्द, तो जिन्दगी को बदलो। शब्दों को बदलने से कुछ भी होनेवाला नहीं है। अब सूत्र। 'आत्मा ही अपने सुख और दुख का कर्ता है तथा आत्मा ही अपने सुख और दुख का नाशक भी। अच्छे मार्ग पर चलने वाला आत्मा मित्र है, और बुरे मार्ग पर चलनेवाला आत्मा शत्रु है।' __ महत्वपूर्ण बात महावीर ने कही है कि आप ही अपने शत्रु हो, आप ही अपने मित्र / कोई दूसरा शत्रु नहीं है, और कोई दूसरा मित्र भी नहीं। दूसरे से छुटकारा हमारा हो जाये, इसकी चिन्ता ही महावीर को है / दूसरे पर हम जिम्मेवारियां रखना छोड़ दें, यह सारे उनके वचनों का सार है. और सारी जिम्मेवारी अपने ऊपर ले लें। ___ महावीर कहते हैं कि जब तुम ठीक मार्ग पर चलते हो , तो तुम अपने ही मित्र हो, और जब तुम गलत मार्ग पर चलते हो तो तुम अपने ही शत्रु हो। इसे हम थोड़ा समझें। अगर मैं किसी पर क्रोध करता हूं तो पता नहीं, उसे दुख पहुंचता है या नहीं। यह कोई पक्का नहीं है, लेकिन मुझे दुख मैं देता हूं, यह पक्का है। अगर मैं महावीर को गाली दूं तो महावीर को कोई दुख नहीं पहुंचता / लेकिन गाली देने में मैं तो पीड़ित होता ही हूं। क्योंकि गाली शांति से नहीं दी जा सकती। उसके लिए उबलना और जलना जरूरी है, रातें खराब करना जरूरी है, आगे पीछे दोनों तरफ चिन्ता, बेचैनी, जलन, क्योंकि तभी वह जलन और बेचैनी ही तो गाली बनेगी। वह जो मेरे भीतर पीड़ा होगी, वही जब इतनी भारी हो जायेगी कि उसे सम्भालना मुश्किल हो जायेगा, तभी तो मैं किसी को चोट पहुंचाऊंगा। ब मैं किसी को चोट पहुंचाता हं तो खद को चोट पहंचाये बिना नहीं पहुंचा सकता। असल में जब भी मैं किसी को चोट पहुंचाता हूं, उसके पहले ही मैं अपने को चोट पहुंचा लेता हूं। मेरा घाव भीतर न हो तो मैं दूसरे को घाव करने जा नहीं सकता / घाव ही घाव करवाता है। कभी सोचें कि आप बिलकल शांत, आनंदित, और अचानक किसी को गाली देने लगें तो आपको खद हंसी आ जायेगी कि यह क्या हो रहा है, और दूसरे को भी गाली मजाक मालूम पड़ेगी, गाली नहीं मालूम पड़ेगी। गाली की तैयारी चाहिए, उसकी बड़ी साधना है। पहले साधना पड़ता है, पहले मन ही मन उसमें काफी पागलपन पैदा करना पड़ता है। पहले मन ही मन सारी योजना बनानी पड़ती है। ध्यान र 150 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.340035
Book TitleMahavir Vani Lecture 35 Aap hi Hai Apne Param Mitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size70 MB
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