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________________ आप ही हैं अपने परम मित्र पद्धतियों में कोई मेल नहीं है, लेकिन व्यक्ति तो एक है। बल का, एम्फैसिस का फर्क हो सकता है। तो आपको जो खोजना है वह पद्धतियों में मेल नहीं खोजना है। आपको जो खोजना है वह अपनी दशा खोजनी है कि मेरे लिए संकल्प ज्यादा या समर्पण ज्यादा उपयोगी है, और मेरे प्राण किसमें ज्यादा सहजता से लीन हो सकेंगे। ___ मगर यह भी थोड़ा कठिन है, क्योंकि हम अपने को धोखा देने में कुशल हैं, इसलिए यह कठिन है। पर अगर कोई व्यक्ति आत्म-निरीक्षण में लगे, तो शीघ्र ही खोज लेगा कि क्या उसका मार्ग है। अब जो व्यक्ति चालीस साल से कृष्णमूर्ति को सुनने बार-बार जा रहा हो और फिर भी कहता हो, मुझे गुरु की जरूरत नहीं, वह खुद को धोखा दे रहा है / वह सिर्फ शब्दों का खेल कर रहा है / चुकता बातें कृष्णमूर्ति की दोहरा रहा है और कहता है कि गुरु की मुझे कोई जरूरत नहीं है / गुरु की कोई जरूरत नहीं है तो यह सीखने कृष्णमूर्ति के पास जाने का कोई प्रयोजन नहीं है। अपने तईं एक पल खड़ा नहीं हो सकता। साफ है कि समर्पण इसका मार्ग होगा, मगर अपने को आत्मवंचना कर रहा है। __एक आदमी कहता है कि मैं तो समर्पण में उत्सुक हूं। एक मित्र ने मुझे आकर कहा कि मैंने तो मेहरबाबा को समर्पण कर दिया था, तक कुछ हुआ नहीं। तो यह समर्पण नहीं है, क्योंकि आखिर में तो यह अभी सोच ही रहा है, कि कुछ हुआ नहीं। अगर समर्पण कर ही दिया था, तो हो ही गया होता। क्योंकि समर्पण से होता है, मेहरबाबा से नहीं होता / इसमें मेहरबाबा से कुछ लेना-देना नहीं है। मेहरबाबा तो सिर्फ प्रतीक हैं। वह कोई भी प्रतीक काम देगा, राम, कृष्ण कोई भी काम दे देगा। उससे कोई मतलब नहीं है। राम न भी हुए हों, न भी हों तो भी काम दे देगा। महत्वपूर्ण प्रतीक नहीं है, महत्वपूर्ण समर्पण है। ___ यह आदमी कहता है, मैंने सब उन पर छोड़ दिया, लेकिन अभी कुछ हुआ नहीं। लेकिन की गुंजाइश समर्पण में नहीं है। छोड़ दिया, बात खत्म हो गयी। हो, न हो, अब आप बीच में आनेवाले नहीं हैं। तो यह धोखा दे रहा है अपने को / यह समर्पण किया नहीं है। लेकिन सोचता है कि समर्पण कर दिया और अभी हिसाब-किताब लगाने में लगा हुआ है। समर्पण में कोई हिसाब-किताब नहीं है। अगर हिसाब-किताब ही करना है तो संकल्प; अगर हिसाब-किताब नहीं ही करना है, तो समर्पण। ___ और जब एक दिशा में आप लीन हो जायें, तो वह जो दूसरा हिस्सा आपके भीतर रह जायेगा छाया की तरह, उसे भी उसी के उपयोग में लगा दें। इसे उसके विपरीत खड़ा न रखें / इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। आपके भीतर थोड़ा-सा संकल्प भी है, बड़ा समर्पण है। आप समर्पण में जा रहे हैं तो अपने संकल्प को समर्पण की सेवा में लगा दें। उसको विपरीत न रखें, नहीं तो वह कष्ट देगा। और आपकी सारी साधना को नष्ट कर देगा। अगर आप संकल्प की साधना में जा रहे हैं और समर्पण की वृत्ति भी भीतर है, जो कि होगी ही, क्योंकि अभी आप अखण्ड नहीं हैं, एक नहीं हैं, बंटे हुए हैं, टूटे हुए हैं। दूसरी बात भी भीतर होगी ही। तो आपके भीतर जो समर्पण है, उसको भी संकल्प की सेवा में लगा दें। ___ इसलिए महावीर ने शब्द प्रयोग किया है, आत्मशरण / महावीर कहते हैं; दूसरे की शरण मत जाओ, अपनी ही शरण आ जाओ। संकल्प का अर्थ हआ कि मेरे भीतर जो समर्पण का भाव है, वह भी मैं अपने ही प्रति लगा दं, अपने को ही समर्पित हो जाऊं। वह भी बचना नहीं चाहिए, वह सक्रिय काम में आ जाना चाहिए। ध्यान रहे, हमारे भीतर जो बच रहता है बिना उपयोग का, वह घातक हो जाता है, डिस्ट्रक्टिव हो जाता है। हमारे भीतर अगर कोई शक्ति ऐसी बच रहती है जिसका हम कोई उपयोग नहीं कर पाते, तो वह विपरीत चली जाती है / इसके पहले कि हमारी कोई शक्ति विपरीत जाये, उसे नियोजित कर लेना जरूरी है। नियोजित शक्तियां सृजनात्मक हैं, क्रिएटिव हैं। अनियोजित शक्तियां घातक हैं, डिस्ट्रक्टिव हैं, 145 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340035
Book TitleMahavir Vani Lecture 35 Aap hi Hai Apne Param Mitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size70 MB
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