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केटलीक लघुरचनाओ
___- शी.
फुटकळ पत्रोमांथी जडेली थोडीक लघु गुर्जर काव्यरचनाओ अहीं प्रस्तुत छे. तेनो सामान्य परिचय -
प्रथम गौतमस्वामि-चउपई छे. भगवान महावीरना प्रथम शिष्य गौतम स्वामी, तेमां वर्णन छे. कर्ता मुनि जयसागर छे. रचना १८मा शतकनी के तेथी मोडी होय तेम जणाय छे.
बीजी रचना गहुँली छे, ते भगवान महावीरनां पांचमा शिष्य अने वर्तमान जैन श्रमण परम्पराना आदि आचार्य-गुरु सुधर्मस्वामीनी स्तुतिरूप छे. त्रीजी रचना पण सुधर्मस्वामीनी गहुंली ज छे. आचार्यना गुण ३६ छे. ते ३६ पण ३६ रीते गणावी शकाय छे. तेमांथी चार रीतनी छत्रीशी आ गहुंलीमां वर्णवाई छे. तेथी ज तेने 'षट्त्रिंशकाचतुष्कगर्भितगूहलीगीत' एवं नाम आपेल छे. गहुंली सार्वजनिक चीज गणाती होई तेमां तेना रचनार- नाम लगभग नथी
होतुं.
___ चोथी रचना छे तो गहुंली ज, पण तेनुं नाम 'सौधर्मगणधरभास' एवं अपायुं छे. तेमां पण आचार्यना गुणोनी छत्रीशी- ज वर्णन छे. उपरांत तेमां कुंकुमनी गहुंली रचीने ते ऊपर अक्षत पाथरीने ते ऊपर श्रीफल मूकवारूप गहुंली-रचनानुं पण वर्णन थयुं छे, जे ध्यानार्ह छे.
__पांचमी रचना 'गौतम भास' नामे, गौतमस्वामीनी गहंली छे. आमां पण त्रीजी कडीमां कंकुनो साथीओ करी, ते पर अक्षत पूरी गहुँली काढवानी प्रथानो निर्देश छे. क्यांय साथीआ साथे सिद्धशिला आलेखवानो निर्देश नथी ते खास नोंधपात्र जणाय छे.
२-३-४-५ ए चारे रचनाओमां, छेल्ली कडीमां 'जिनशासन' शब्द अचूक आवे छे, ते ऊपरथी ते चारे एक ज कर्तानी रचना होवानुं अनुमान थाय छे. आ रचनाओ पण १९मा शतकनी होवानुं लाग्युं छे.
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अनुसन्धान-५५
श्रीगौतमस्वामि-चउपई ॥ गोयमसामी गुणनिलउ सोहगसिरि उरि हार । आराहउ आणंद भरि सुयकेवल सिणगार ॥१॥
चुपई ॥ गिरूया गणहर गोयमसामि रिद्धि वृद्धि जसु लीधइ नामि । रातिदिवस मुझ एह उच्छाइ प्रय(ह) उठी प्रणमुं तसु पाय ॥२॥ ब्रह्मवंशभूषण वसुभूति पुहवि प्रीया नररतन प्रसूति । इंद्रभूति तसु नामि पुत्र बीजो गोयम नाम पवीत ॥३॥ दउढ सहस तापस एक पात्र खीरि जिमाडी ततक्षण मात्र । ते वरीया न्याणे ततक्षिणा ए जाणे प्रभुनी दक्षिणा ॥४॥ दक्षण हस्त सिद्धि जस होय स जसु दीखइ तसु केवल होइ । आप पासि अणहूइ दान गोयम दीजइ इणि परि न्यान ॥५॥ वीरवयण अष्टापद शृंगि सोवनमय जिणहर उत्तंगि । जिण नीयलबधी वंदी देव केवल[ल]छि मनावी सेव ॥६॥ हेमकमल ऊपरि अणुसर्या सहस पचा[स]सुं परवर्या । चउवीसे जिन पूजा करी प्रभ(भु) ध्याउ उत्तम तप आदरी ॥७॥ आदि प्रणमंतां मायाबीज श्रीअरिहंतमनंतर लीज । गोयमसामी आगलि नमु मंत्र एह दीवाली-समु ॥८॥ गोयमनामइ लाभई राज गोयमनामइ सीझइ काज । नवनिधि अष्टमहासिद्धि मिलइ दोष गलइ सिवि संकट टलइ ॥९॥ कामधेनि घरि-अंगणि रमइ सुप्रसन्न जउ गोयम किमइ । क्षुद्रोपद्रव जाइ टली भावविभूषण न आवइ वली ॥१०॥ सिद्धि बुधि बहु लबधि भर्या तु गोयम चिंतामणि सर्या । जु तमे इच्छउ सुखसंतान इच्छउ अहिनिसि अतिबहुमान ॥ कवित ए जाप भणइ लही श्रीजयसागर बोलइ सही ॥११॥
इति श्रीगौतमस्वामिचउपइ संपूर्णः ॥
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गहुंली अने भास गीतो ॥
रामचंद के वागि – ए देशी ॥ चंपानयरी उद्यान सुरतरु महुरि रह्यो री । वीर पटोधर धीर सुहम आय रह्यो री ॥१॥ जियक्रोध जीयमान माया लोभ तजै री । संपूरण श्रुतज्ञान जिनवर बिरुद भजै री ॥२॥ आश्रव५ विषय५ प्रमाद ५ निद्रा पंच तजै री । दसविध सामाचारि० षटविध जयणा भजै री ॥३॥ उपगारी धरै बार भावना तप पडिमा री । निःकारण जगबंधु रवि शशी मेह समा री ॥४॥ कंचनकमल विचालि बेंसी धर्म कह री । जिणथी भवियण लोय आतमतत्त्व लहैं री ॥५॥ कोणिक भूपतीनारि घुयली गोलिं करें री । माणिक मोती वधाय पुण्य भंडार भरै री ॥६॥ जिनसासननी भक्ती करतां पाप हणे री । सोहव सरिखें साद घुयली गीत भणे री ॥७॥
इति सोहम गणधर गुयलीगीतं ॥
चेलणा लावें गूयली गुरु ए रुडा, श्रेणिकनृप घरि नारि सजनी ए रुडा। सोहमसामी समोसर्या गु०, प्रभु पंचम गणधार स० ॥१॥ छत्रीस छत्रीसे गुणे गु०, शोभीत पुण्य पवीत्र स० । आगमवयण सुधारसे गु०, वरसी ठारै चित्त स० ॥२॥ पडिरूवादिक चौद छे गु०, खांत्यादिक दस धर्म स० । बारह भावन भावीया गु०, ए छत्रीसी मर्म स० ॥३॥ दंसण नाण चरणतणा गु०, तप आचारे युक्त स० । सत्य१० समाधि१० अलंकर्या गु०, सोल कषाये मुक्त स० ॥४॥
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अनुसन्धान-५५
नवविध धर्मतत्त्वनी देशना गु०, नवकल्प उग्रविहार स० । नवनीयाणां परिहरे गु०, नववा. व्रत धार स० ॥५॥ आतमबाजोठ उपरे गु०, समकित साथीओ पूर स० । मूलउत्तर[गुण] धूयली गु०, उपसम अक्षत भूरि स० ॥६॥ कोकिल कंठे कामिनी गु०, सोहव गाये गीत स० । माणिक मोती लूंछणे गु०, श्रीजिनशासन रीति स० ॥७॥
इती षट्विंशकाचतुष्कगर्भित गूंहली गीतं ॥
आ छे लाल - ए देशी ॥
ज्ञानादिक गुणखांणि राजग्रही उद्यान गणधर लाल
सोहमसामी समोसर्या जी ॥१॥ कंचन गौरी सरीर वाणी गंगानीर, गण० ।
त्रिहुं पंथें पसरें सदा जी ॥२॥ अंग उपांगह बार१२, दसविध रुचीनो धार, ग०
दुगविध२६ शिक्षा उपदिशे जी ॥३॥ तेर क्रिया१३ व्रत बार१२, गिहिपडिमा अगीयार१, ग०,
श्रावकगुण११ भेद सिद्धना जी ॥४॥ विनय१० वेयावच० कल्प१०, धरें दसविध छ अकल्प, ग०
वंदण दोष२२ विकथा तजें जी३६ ॥५॥ कुंकमरोल कचोल, घुयली रंगमरोल, ग०,
____ अक्षत भूरि श्रीफल ऊपरें जी ॥६॥ मगधाधिपनी नारि, सोल सजी सणगार, ग०,
लली [लली] करती लूंछणां जी ॥७॥ जोती गुरुमुखचंद, पामती परमानंद, ग०,
चतुर चकोरी गोरडी जी ॥८॥
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सुरवधूनरवधू कोडि, मिलि मिलि सरिखी जोडि, ग०,
गावै जिनशासन-धणी जी ॥९॥ इति सौधर्मगणधर भास ॥
राजग्रही रलीयांमणी जिहां गुणशिल चैत्य सुठांम, साजन मोरी हे सहीयर मोरी हे बेंहिंनर(नी) मोरी हे, आवो सवाईगुरु भेटवा, कांई मेटवा कर्म कठोर सा० मुनिगण तारामां चंद यूं आव्या गणधर गौतमस्वामि सा० १ पांचे इंद्री वसि करें वली पालें पंच आचार सा० लबधि अठावीसनो धणी जेहवो आठ प्रभावक राय सा० २ पहेरणि पीत पटोलडी उपरि नवरंग घाट सा० कुंकुमघोलसु साथीओ करि अक्षतपूरि सुघाट सा० ३ लली लली कीजें लुंछणां लेई रजत कनकनां फूल सा० करो जिनशासन प्रभावना वजडावो मंगलतूर सा० ४
इती गौतमभास ॥
कठिन शब्दार्थ
रचना
रचना १
कडी ४
न्याणे
3
न्याणे दीखइ केवल नीयलबधी गेलिं
3 w w"
ज्ञाने दीक्षा आपे केवलज्ञान पोतानी लब्धि-शक्तिथी गेलथी-आनन्दथी सधवा-सौभाग्यवती
सोहव
नोंध : बाकी अनेक शब्दो जैन परिभाषाना छे, तेना अर्थ जे ते सन्दर्भ थकी ज पामी शकाशे.
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ट्रंक नोंध
:
(१)
अनुसन्धान-५५
उपाध्याय श्रीयशोविजयजीनी गुरु-शिष्यपरम्परा
चंदराजाना रासनी १९मा सैकानी एक प्रति जोवामां आवी. तेनी पुष्पिकामां उपा. यशोविजयजीनी परम्परा विषे वांचतां ख्याल आव्यो के सं. १८६६ सुधी तो तेमनी परम्परा प्रवर्तती ज हती. त्यार पछी पण केटलोक वखत ते चालु रही होय तो ते बनवाजोग छे. ते पुष्पिका आ प्रमाणे छे :
संवत १८६६ना वर्षे आसो सुदि २ दिने वार बुधे सकल भट्टारक पुरन्दर भट्टारक श्रीश्री १०८ हीरविजयसूरीश्वरजी तत्शिष्य महोपाध्याय श्री श्री १०८ श्री कल्याणविजयगणि तत्शिष्य सकलपण्डितशिरोमणी पण्डित श्री १९ लाभविजयगणि तत्शिष्य सकलपण्डितशिरोमणी नयविजयगणी तत्शिष्य सकलवाचकपुरन्दरवाचकचक्रचक्रवर्ती महोपाध्याय श्री श्री १०८ महोउपाध्याय श्रीश्री श्रीमत् यशोविजयगणी तत्शिष्य सकलपण्डितशिरोमणी पण्डित श्री १९ श्री गुणविजयगणी तत्शिष्य सकलवाचकपुरन्दर वाचक महोउपाध्याय श्रीश्री १०८ श्रीसुमतिविजयगणी तत्शिष्य सकलपण्डित शिरोमणी पण्डित श्री श्री १९ उत्तमविजयगणी तत्शिष्य सकलपण्डितशिरोमणी पण्डित श्रीश्री १९ श्रीप्रतापविजयगणी तत्शिष्य पं. गंगविजयेन लिपीकृतं च भूधरजी कान्हुजीरामजी कान्हुजी वाचनार्थं श्रीमुंबईबंदिरे श्रीगोडीपार्श्वनाथप्रसादात् । श्रीरस्तु कल्याणमस्तु श्रेयोस्तु शुभं भवतु ॥
आना परथी उपाध्यायजी महाराजनी पांच पेढी सुधी तो शिष्यपरम्परा चाली हती ते नक्की थाय छे, अने वधुमां तेमनी पांचमी पेढीना शिष्य मुम्बई पण गया हता अने गोडीजीना प्रख्यात देरासरमां आ पोथी तेओए लखी हती ते पण जाणवा मळे छे.
मुनि धुरन्धर विजय 'अरिहंत' समृद्धि एपा. पासे, हाई-वे, डीसा - ३८५५३५
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(२) काव्यानुशासननो स्वाध्याय करतां..
प्रा. रसिकलाल छो. परीखे कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यकृत काव्यानुशासन (-अलंकारचूडामणि अने विवेक - ओ स्वोपज्ञ टीकाद्वय साथे)नुं सरस सम्पादन कर्यु छे. (प्र.- महावीर जैन विद्यालय - मुंबइ, ई.स. १९३८) हमणां ते पुस्तक द्वारा काव्यानुशासन-अध्याय-१नुं अध्ययन करतां तेमां केटलीक क्षतिओ जोवा मळी; जेनी नोंध अभ्यासीने उपयोगी थशे ओम जणातां अत्रे आपवामां आवे छे : पंक्ति अशुद्ध
शुद्ध एवं दृष्टो० एवंदृष्टो० विगलद्वारा०
विगलद्धारा० दानवयुतै० ०दानवनुतै० ०नदी यच्चे०
नदीवच्चे० मृदुप्रिय०
मृदु प्रिय० ०रुहिका
०रुहिकाः वाताहर०
वाताहार० रावणः क्व नु रावणः, क्व नु ०लादि द्रव्य० ०लादिद्रव्य० इति । वचनाद् इति वचनाद् तदनुगमेन
तदननुगमेन ०पारोऽपह्नव० ०पारोऽनपह्नव० ०तमाहय०
०तमा हय० ५३ १४ ०दन्धशय्या०
०दन्ध! शय्या तेत्तियण
तेत्तियेण ५५ १६ भिधानेन विधि० ०भिधाने, न विधि ५५ १९ ०तमोनिवहे
०तमनिवहे ★ पुस्तकमां शुद्धिपत्रकमां दर्शावेलां स्थानो अत्रे नथी नोंध्या.
* * * * ง * * * ก แ ะ 3
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अनुसन्धान-५५
U
सज्झाव०
सब्भाव०
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22 - 12
C
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६
६
७०
७०
७०
७४
4000 3 3 3 55 3 2 1885 3 3 38 ॐ ॐ ॐ
तु मए तथा च विभात्यह्निः ०न्तरे प्रतीतिः ०वदनामदिरा तत्त्वदृष्टि.....कथं साप्तस्य ०रप्रतिबोध० ससम्भ्रमाह इति वा । वक्तव्ये तत्परं तत्कुसुम० बहु जाणय
नेषु हते० ०प्रस्तुत्वगतिः वणुद्दसे सडिअत्तो चा एक्करसो कश्चित् कुब्ज ०लूकादेनिर्वा० जन्माभिनन्दनं समो सरइ लिङ्गनादि । तत्र मिलाण कमल० तनुरूपेऽपि ते शब्दे कनकं चित्रे पलाशैः प्रकर० स्यादितित्यादि०
तुमए ०तया च विभात्यह्नि ०न्तरप्रतीतिः ०वदना मदिरा ....कथं तत्त्वदृष्टिः सा तस्य ०रप्रबोध० ससम्भ्रममाह इति वा वक्तव्ये तत्परं यद् हृदयं तत्कुसुम० बहुजाणय
नेषुहते० ०प्रस्तुतत्वगतिः वणुद्देसे सडिअवत्तो चाएक्करसो कश्चित् । कुब्ज ०लूकादेर्निवा० जन्मानभिनन्दनं समोसरइ लिङ्गनादि तत्र मिलाणकमल० तनुरूपे अपि तेशब्दे कनकचित्रे पलाशप्रकर० स्यादित्यादि०
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/22 0*2222 v or w 2022 m
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ण्हायंति
ण्हायंति ८५ ५ ०याणत्तहं
०याण तूहं ८६ ८ ०श्वररैद्य सुबो० ०श्वरैरप्यसुबो० रचनायास्तु
रचनयोस्तु ८७ १२ तद् द्वारेण
तद्द्वारेण पृष्ठ ७१, पंक्ति २४ 'त्रयश्चकाराः स्वतः सम्भवन्तीति । न केवलं भणिति०' ने बदले आम वांचवें जोइओ : 'त्रयश्चकाराः । स्वतःसम्भवीति (पृ. ७२ पर मुद्रित अलं.टीकार्नु प्रतीक) । न केवलं....' मतलब के 'न केवलं०'थी शरु थती तमाम टीका ‘स्वतःसम्भवी'नी साथे सम्बन्धित स्वतन्त्र चर्चा छे; ‘सुवर्णपुष्पां०'नी टीका-अन्तर्गत एने समजवानी नथी.
अभ्यास दरमियान डॉ. तपस्वी नान्दीओ करेलो काव्यानुशासननो अनुवाद पण जोवानो थयो. (प्र.- ला. द. विद्यामन्दिर- अमदावाद, L. D. Series-123, ई.स. २०००) आ अनुवाद परत्वे ग्रन्थमालाना सामान्य सम्पादक डो. जितेन्द्र शाहे लख्युं छे : "तेना (-काव्यानुशासनना) प्रमाणभूत अने विद्वत्तापूर्ण अनुवादनी ऊणप वर्ताती हती. ते आ प्रकाशनथी पूर्ण थाय छे." हवे, आ अनुवाद केटलो 'प्रमाणभूत' अने “विद्वत्तापूर्ण' छे, तेना एक-बे नमूना :
१. मंगलश्लोकनी अलं. टीकामां जैनमतानुसार वाणीनुं स्वरूप दर्शावनारी पंक्ति छे : "उच्यत इति वाक, वर्णपदवाक्यादिभावेन भाषाद्रव्यपरिणतिः।" जैनमते, 'भाषाद्रव्य' तरीके ओळखातां विशिष्ट पुद्गलस्कन्धो ज वक्ताना प्रयत्नथी वर्णादिरूपे परिणमे छे अने 'वाणी' तरीके ओळखाय छे. तेथी आ पंक्तिनो अनुवाद आम थायः "जे बोलाय ते वाणी, (आ वाणी अटले बीजुं कशुं नहीं, पण) वर्ण, पद,वाक्य व. रूपे भाषाद्रव्य, परिणमन ज छे." हवे, डो. नान्दीओ करेलो अनुवाद : "जे बोलाय छे ते थई वाणी, जे वर्ण, पद (तथा ) वाक्य रूपे ('आदि' पदनुं शुं थयुं ?) भाषामा परिणमे छे." अमणे जो 'द्रव्य' शब्दने लक्षमां लीधो होत अने जैन परिभाषा तेमज परिपाटीने समजवानो उद्यम को होत तो आवी गम्भीर क्षति न थई होत.
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अनुसन्धान-५५
२. त्रीजा सूत्रमा उद्धृत श्लोको :
"शब्दप्राधान्यमाश्रित्य, तत्र शास्त्रं पृथग्विदुः । अर्थे तत्त्वेन युक्ते तु, वदन्त्याख्यानमेतयोः ॥
द्वयोर्गुणत्वे व्यापार-प्राधान्ये काव्यगीर्भवेत् ।" (हृदयदर्पण) आनो अर्थ आवो छ : "तेमां (-शास्त्रादिमां) शब्दना प्राधान्यने आश्रयीने (विद्वानो) शास्त्रने जुएं गणावे छे. (अने) अर्थ ज्यारे तत्त्वथीप्राधान्यथी युक्त थाय त्यारे (तेने) आख्यान कहे छे. (तेमज, शब्द अने अर्थ) आ बन्ने गौण थाय अने व्यापार मुख्य बने त्यारे काव्य सर्जाय छे."
__ हवे डो. नान्दीओ करेलो अनुवाद जोइओ : "शब्दना प्राधान्यना आश्रये रहेला शास्त्रने जुदुं कर्तुं छे. पण तत्त्वथी युक्त अर्थ होतां (तेने) आख्यान कहे छे...." वास्तवमां शब्दना प्राधान्यनो आश्रय शास्त्रने बीजां बेथी अलग पाडवा माटे लेवाय छे. नहीं के शास्त्र पोते शब्दना प्राधान्यना आश्रये रहे छे. 'तत्त्व'नो अर्थ पण अहीं तत्त्व नथी लेवानो, पण 'प्राधान्य' लेवानो छे; नहीं तो शास्त्रमा अर्थ अतत्त्वथी युक्त- तत्त्वरहित होय छे ओम मानवानी आपत्ति आवे. अनुवादनी आवी गम्भीर भूलो तो बीजी केटलीय हशे एवं ग्रन्थ- अवलोकन करतां जणाइ आवे छे. क्लिष्टता पण एटली छे के घणां बधां वाक्योने त्रण-चार वखत वांचीओ त्यारे भावार्थ तो ठीक, शब्दार्थ पण मांड खबर पडे.
हवे अेक नजर आ अनुवाद साथे आपवामां आवेली डो. नान्दीनी काव्यानुशासन अंगेनी विस्तृत भूमिका पर नांखीशुं. आ भूमिकामां डो. नान्दीओ श्रीहेमचन्द्राचार्यनी प्रतिभानु खण्डन करवानो शक्य वधुमां वधु प्रयत्न कर्यो छे. आचार्ये आ काव्यानुशासनमां शुं करवू जोइतुं हतुं अने शुं नहीं तेनी घणी घणी समालोचना करी छे. आचार्यने घणां घणां सलाह-सूचनो पण आप्यां छे. आ बधांनी तथ्यता चकासवा माटे आपणे ओक ज सूत्रने स्पर्शती वातो जोइशुं :
"मुख्याव्यतिरिक्तः प्रतीयमानो व्यङ्ग्यो ध्वनिः ॥ का.शा. १.१९ ॥"
आ सूत्र पर भूमिकामां तेओओ करेली टिप्पणी : "अहीं पण आपणने हेमचन्द्रनी शास्त्रीय निर्देशनी ऊणप साले छे. सूत्रमा ज्यारे तेमणे
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'मुख्याव्यतिरिक्तः' कहुं त्यारे ज तरत तेमने समजाइ गयुं हतुं ज के मुख्यथी जुदो तो गौण अने लक्ष्य पण छे ज. तेथी व्यंग्यना लक्षणमां 'मुख्याव्यतिरिक्तः' ओवी शब्दपसंदगी पर्याप्त नथी. आथी ज वृत्तिमां तेओ 'मुख्य, गौण अने लक्ष्यथी भिन्न' अवो शब्दप्रयोग करी सूत्रनी भूल सुधारे छे. पण आपणे नोंधीशुं के ओमणे सूत्रमा ज जो 'मुख्यादिव्यतिरिक्त' ओवो प्रयोग को होत तो ते वधु समीचीन जणात.'' (पृ. १९)
वास्तवमां अत्रे सूत्रमा ज 'मुख्य, गौण अने लक्ष्य -त्रणेथी भिन्न' अर्बु सूचवनारो 'मुख्याद्यतिरिक्तः' पाठ छे. परीखसाहेबवाळा काव्यानुशासनमां पण आ ज पाठ मुद्रित थयो छे. अने त्यां पाठान्तर तरीके पण 'मुख्याव्यतिरिक्तः' पाठ निर्दिष्ट नथी. आ पाठ तो डॉ. नान्दीना बेदरकारीभर्या वांचन- ज परिणाम छे, ते अभ्यासीने सहेजे समजाय तेम छे.
हजु आगळ तेओ लखे छे : "वळी तेमणे 'प्रतीतिविषय' अवो प्रयोग को छे, ते पण मारी दृष्टिले अपूरतो छे. आचार्ये 'व्यञ्जनया प्रतीतिविषयो यः भवति' ओवी स्पष्टता करवी जरूरी हती. केमके, प्रतीयमान थता अर्थनी प्रतीति, महिमाले काव्यानुमितिथी, तो कुन्तके विचित्र अभिधाथी, तो मुकुले लक्षणाथी, तो धनंजय/धनिके तात्पर्यथी मानी छे. तेथी व्यंजना द्वारा प्रतीत थतो अवो चोख्खो आनन्दवर्धन-अभिनवगुप्त-मम्मटाचार्यनो मत जे तेमने स्वीकार्य छे तेनो स्पष्ट निर्देश थवो जरूरी हतो."
हवे, आचार्ये आना पछीना ज "मुख्याद्यास्तच्छक्तयः ॥ १.२०॥" सूत्र अने तेनी वृत्तिमां, फक्त व्यंग्य अर्थ माटे नहीं पण मुख्यादि चारे अर्थ कई रीते जणाय, ते जणावनारी शक्तिओ कई वगेरे तमाम स्पष्टता करी ज छे. पण भूमिकालेखक ते लक्षमां लेवानुं चूकी गया जणाय छे !
पण आटलेथी ज तेओ नहीं अटकतां आचार्यश्री- शास्त्रज्ञान अधूरुं हतुं तेवा आशयपूर्वक नोंधे छे : "वळी, 'व्यङ्ग्यो ध्वनिः' ओवो प्रयोग पण अशास्त्रीय छे. केमके, प्रधानरूपे व्यंग्य थतो अर्थ ज ध्वनि नाम पामे छे. अन्यथा ते गुणीभूतव्यंग्य पण बनी शके छे. आथी अहीं पण शास्त्रीय परिभाषानी चोक्साई सचवाइ नथी."
वास्तवमा अहीं आचार्यनो कोई दोष नथी. मम्मटाचार्य वगेरेना मते
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________________ अनुसन्धान-५५ व्यंग्य अर्थ धरावतुं काव्य ज ध्वनि कहेवाय छे;* जो काव्यमांथी नीकळतो व्यंग्य अर्थ, काव्यना वाच्यार्थनी अपेक्षाओ वधारे चमत्कृतिसभर होय तो. अने जो काव्यना पोताना वाच्य अर्थ करतां व्यंग्य अर्थ नबळो होय, तो ओ व्यंग्य अर्थ 'गौण' गणाय छे. अने ओवो गौण व्यंग्य अर्थ धरावतुं काव्य 'ध्वनिकाव्य' नथी गणातुं. परन्तु जो व्यंग्यार्थ, वाच्यार्थ करतां सबळ होय, तो ओ व्यंग्यार्थ 'प्रधान' लेखाय छे, अने अर्बु प्रधानीभूत व्यंग्यार्थ धरावतुं काव्य 'ध्वनिकाव्य' कहेवाय छे. आ थइ काव्यने ज ध्वनि तरीके ओळखनारी साहित्याचार्योनी परम्पराने सम्मत व्यवस्था. आथी जुदा पडीने, आचार्य पोते व्यंग्य अर्थने ज ध्वनि मानवाना पक्षमा छे.' आ पक्षमां व्यंग्यना मुख्य अने गौण –अवा भेद ज नथी पाडता, माटे तमाम व्यंग्यार्थ 'ध्वनि' कहेवाय छे. अने आचार्ये ते प्रमाणे ज निरूपण कर्यु छे. भूमिकालेखक नथी मम्मटाचार्यना मतना हार्दने बराबर पकडी शक्या, के नथी बे परम्परा वच्चेना भेदने पकडी शक्या अने उपरथी हेमचन्द्राचार्यने शास्त्रज्ञान नहोतुं ओम कहे छे ! आ तो अक-बे उदाहरणो दर्शाव्यां छे. समग्र भूमिकानो विगते-निरांते अभ्यास करवामां आवे तो आवां अनेक स्थळो मळी आवे के जेमां डो. नान्दीओ अयोग्य रीते हेमचन्द्राचार्यनी साहित्यशास्त्र लखवानी सज्जता सामे सवाल उठाव्या होय. समग्रपणे आ अनुवाद-ग्रन्थ विषे विचारतां अवू लागे छे के आ अनुवाद काव्यानुशासननी उपादेयता वधारवा माटे नहीं, पण आचार्यनी आ ग्रन्थ माटेनी अयोग्यताने दर्शाववा खातर ज करवामां आव्यो छे. अने आचार्यश्रीनी प्रतिभानुं खण्डन करतां तेमज अनुवादनी अनेक गम्भीर भूलोथी भरेला आ ग्रन्थ माटे, ग्रन्थमाळाना प्रधान सम्पादक डो. नान्दीनो ऋणस्वीकार करे छे अने पोतानी ग्रन्थश्रेणीमा प्रकाशित करतां गौरव अनुभवे छे; तेनाथी अटलुं ज स्पष्ट थाय छे के प्रधान सम्पादके आ भूमिका अने अनुवादनुं प्रकाशन करतां अगाउ तेने जोइ जवानी जवाबदारीनो निर्वाह कर्यो नथी. - मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय इदमुत्तममतिशयिनि व्यङ्ग्ये वाच्याद् ध्वनिर्बुधैः कथितः // 4 // __अतादृशि गुणीभूतव्यङ्ग्यं व्यङ्ग्ये तु मध्यमम् / (काव्यप्रकाश) + स च (-व्यङ्ग्योऽर्थः) ध्वन्यते-द्योत्यते इति ध्वनिरिति पूर्वाचायः सञ्जितः-का.शा.१.१९ टीका