________________
मई २०११
'मुख्याव्यतिरिक्तः' कहुं त्यारे ज तरत तेमने समजाइ गयुं हतुं ज के मुख्यथी जुदो तो गौण अने लक्ष्य पण छे ज. तेथी व्यंग्यना लक्षणमां 'मुख्याव्यतिरिक्तः' ओवी शब्दपसंदगी पर्याप्त नथी. आथी ज वृत्तिमां तेओ 'मुख्य, गौण अने लक्ष्यथी भिन्न' अवो शब्दप्रयोग करी सूत्रनी भूल सुधारे छे. पण आपणे नोंधीशुं के ओमणे सूत्रमा ज जो 'मुख्यादिव्यतिरिक्त' ओवो प्रयोग को होत तो ते वधु समीचीन जणात.'' (पृ. १९)
वास्तवमां अत्रे सूत्रमा ज 'मुख्य, गौण अने लक्ष्य -त्रणेथी भिन्न' अर्बु सूचवनारो 'मुख्याद्यतिरिक्तः' पाठ छे. परीखसाहेबवाळा काव्यानुशासनमां पण आ ज पाठ मुद्रित थयो छे. अने त्यां पाठान्तर तरीके पण 'मुख्याव्यतिरिक्तः' पाठ निर्दिष्ट नथी. आ पाठ तो डॉ. नान्दीना बेदरकारीभर्या वांचन- ज परिणाम छे, ते अभ्यासीने सहेजे समजाय तेम छे.
हजु आगळ तेओ लखे छे : "वळी तेमणे 'प्रतीतिविषय' अवो प्रयोग को छे, ते पण मारी दृष्टिले अपूरतो छे. आचार्ये 'व्यञ्जनया प्रतीतिविषयो यः भवति' ओवी स्पष्टता करवी जरूरी हती. केमके, प्रतीयमान थता अर्थनी प्रतीति, महिमाले काव्यानुमितिथी, तो कुन्तके विचित्र अभिधाथी, तो मुकुले लक्षणाथी, तो धनंजय/धनिके तात्पर्यथी मानी छे. तेथी व्यंजना द्वारा प्रतीत थतो अवो चोख्खो आनन्दवर्धन-अभिनवगुप्त-मम्मटाचार्यनो मत जे तेमने स्वीकार्य छे तेनो स्पष्ट निर्देश थवो जरूरी हतो."
हवे, आचार्ये आना पछीना ज "मुख्याद्यास्तच्छक्तयः ॥ १.२०॥" सूत्र अने तेनी वृत्तिमां, फक्त व्यंग्य अर्थ माटे नहीं पण मुख्यादि चारे अर्थ कई रीते जणाय, ते जणावनारी शक्तिओ कई वगेरे तमाम स्पष्टता करी ज छे. पण भूमिकालेखक ते लक्षमां लेवानुं चूकी गया जणाय छे !
पण आटलेथी ज तेओ नहीं अटकतां आचार्यश्री- शास्त्रज्ञान अधूरुं हतुं तेवा आशयपूर्वक नोंधे छे : "वळी, 'व्यङ्ग्यो ध्वनिः' ओवो प्रयोग पण अशास्त्रीय छे. केमके, प्रधानरूपे व्यंग्य थतो अर्थ ज ध्वनि नाम पामे छे. अन्यथा ते गुणीभूतव्यंग्य पण बनी शके छे. आथी अहीं पण शास्त्रीय परिभाषानी चोक्साई सचवाइ नथी."
वास्तवमा अहीं आचार्यनो कोई दोष नथी. मम्मटाचार्य वगेरेना मते