Book Title: Jinsutra Lecture 54 Shat Pardo ki Oat me
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AKKAP तेईसवां प्रवचन षट पर्दो की ओट में 2010_03 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंडो ण मुंचइ वेरं, भंडणसीलो य धरमदयरहिओ। दुट्ठो ण य एदि वसं, लक्खणमेयं तु किण्हस्स।।१३८।। मंदो बुद्धिविहीणो, णिव्विणाणी य विसयलोलो य। लक्खणमेयं भणियं, समासदो णीललेस्सस्स।।१३९।। रूसइ णिंदइ अन्ने, दूसइ बहुसो य सोयभयबहुलो। ण गणइ कज्जाकज्जं, लक्खणमेयं तु काउस्स।।१४०।। जाणइ कज्जाकज्जं, सेयमसेयं च सव्वसमपासी। दयदाणरदो य मिदू, लक्खणमेयं तु तेउस्स।।१४१।। चागी भद्दो चोक्खो, अज्जवकम्मो य खमदि बहुगं पि। साहुगुरुपूजणरदो, लक्खणमेयं तु पम्मस्स।।१४२।। ण य कुणइ पक्खवायं, ण वि य णिदाणं समो य सव्वेसिं। णत्थि य रायद्दोसा, णेहो वि य सुक्कलेस्सस्स।।१४३।। Hal - ___ 2010_03 wwwjainelibrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म नुष्य जैसा है, अपने ही कारण है। मनुष्य जैसा है, बुद्ध ने धम्मपद के वचनों का प्रारंभ किया है: तम जो हो वह 1 वह अपने ही निर्माण से वैसा है। अतीत में सोचे हुए विचारों का परिणाम है। तुम जो होओगे, वह महावीर की दृष्टि में मनुष्य का उत्तरदायित्व चरम | आज सोचे गए विचारों का फल होगा। मनुष्य जैसा सोचता है, है। दख है तो तम कारण हो। सख है तो तम कारण हो। बंधे हो वैसा हो जाता है। तो तुमने बंधना चाहा है। मुक्त होना चाहो, मुक्त हो जाओगे। संसार विचार की एक प्रक्रिया है; मोक्ष, निर्विचार की शांति कोई मनुष्य को बांधता नहीं, कोई मनुष्य को मुक्त नहीं करता। है। संसार गांठ है विचारों की। तुम सोचना बंद कर दो-गांठ मनुष्य की अपनी वृत्तियां ही बांधती हैं, अपने राग-द्वेष ही बांधते | अपने-आप पिघल जाती है, बह जाती है। तुम सहयोग न दो, हैं, अपने विचार ही बांधते हैं। तुम्हारा साथ न रहे, तो जंजीरें अपने-आप स्वप्नवत विलीन हो एक अर्थ में गहन दायित्व है मनुष्य का, क्योंकि जिम्मेवारी | जाती हैं। किसी और पर फेंकी नहीं जा सकती। इन सूत्रों में इसी तरफ इंगित है। जैसा पहले कहा कि मनुष्य के महावीर के विचार में परमात्मा की कोई जगह नहीं है। इसलिए ऊपर सात पर्दे हैं। अब महावीर एक-एक पर्दे की तुम किसी और पर दोष न फेंक सकोगे। महावीर ने दोष फेंकने विचार-शंखला के संबंध में इशारे करते हैं। के सारे उपाय छीन लिए हैं। सारा दोष तुम्हारा है। लेकिन इससे 'स्वभाव की प्रचंडता, रौद्रता, वैर की मजबूत गांठ, झगड़ालू हताश होने का कोई कारण नहीं है। इससे निराश हो जाने की | वृत्ति, धर्म और दया से शून्यता, दुष्टता, समझाने से भी नहीं कोई वजह नहीं है। मानना, ये कृष्ण लेश्या के लक्षण हैं।' / चूंकि सारा दोष तुम्हारा है, इसलिए तुम्हारी मालकियत की इन तानों-बानों से बना है पहला पर्दा : अंधेरे का पर्दा। अंधेरा उदघोषणा हो रही है। तुम चाहो तो इसी क्षण जंजीरें गिर सकती | अगर तुम्हारे बाहर होता तो कोई बाहर से रोशनी भी ला सकता हैं। तुम उन्हें पकड़े हो, जंजीरों ने तुम्हें नहीं पकड़ा है। और था। तुम घर में बैठे हो अंधेरे में, पड़ोसी भी दीया ला सकता है। किसी और ने तुम्हें कारागृह में नहीं डाला है, तुम अपनी मर्जी से लेकिन जीवन में जो अंधेरा है, वह कुछ ऐसा है कि तुम उसे प्रविष्ट हुए हो। तुमने कारागृह को घर समझा है। तुमने कांटों निर्मित कर रहे हो। वह तुम्हारे बाहर नहीं तुम्हारे भीतर उसकी को फूल समझा है। जड़ें हैं; इसलिए कोई भी दीया लाकर तुम्हें दे नहीं सकता, जब ओल्ड टेस्टामेंट में, पुरानी बाइबिल में सोलोमन का प्रसिद्ध | तक कि तुम अंधेरे की जड़ों को न तोड़ डालो। . वचन है : 'ऐज ए मैन थिंकेथ सो ही बिकम्स।' जैसा आदमी | जड़ें हैं: स्वभाव की प्रचंडता। सोचता, वैसा हो जाता है। बहुत लोग हैं, जो क्रुद्ध ही जीते हैं। कुछ लोग हैं, जिन्हें 459 2010_03 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 कभी-कभी क्रोध होता है। कुछ लोग हैं, क्रोध जिनका स्वभाव कर लेते हैं। है। जिनसे तुम अक्रोध की आशा ही नहीं कर सकते। जिनके | महावीर कहते हैं ऐसा व्यक्ति, जिसने क्रोध को अपनी सहज संबंध में तुम निश्चित रह सकते हो कि वे कोई न कोई कारण | आदत बना लिया हो, कृष्ण लेश्या में दबा रहेगा-क्रोध, क्रोध करने का खोज ही लेंगे। देखनेवाले चकित होते हैं कि जहां | रौद्रता, दुष्टता! कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता था, वहां भी लोग कारण खोज | राह से तुम चले जा रहे हो, एक कुत्ता दिखाई पड़ जाता है, तुम लेते हैं। उठाकर पत्थर ही मार देते हो। कुछ लेना-देना न था। कुत्ता मैंने सुना है, एक पति-पत्नी में निरंतर झगड़ा होता रहता था। अपनी राह जाता, तुम अपनी राह जाते थे। तुम राह से निकल रहे | पत्नी मनोवैज्ञानिक के पास गई और मनोवैज्ञानिक ने कहा कि हो, वृक्ष फूले हैं, तुम फूल ही तोड़ते चले जाते हो। क्षणभर बाद | कुछ झगड़े को हटाने के उपाय करो। बनाया है तो बन गया है। तुम उनको फेंक देते हो रास्ते पर; लेकिन जैसे दुष्टता तुम्हारे अब पति का जन्मदिन आता हो-कब आता है? / भीतर है। उसने कहा, कल ही उनका जन्मदिन है। तो उसने कहा, इस और ध्यान रखना, जो दुष्टता आदत का हिस्सा है, वही मौके को अवसर समझो। कुछ उनके लिए खरीदकर लाओ, असली खतरनाक बात है। जो दुष्टता कभी-कभार हो जाती है, कुछ भेंट करो। कुछ प्रेम की तरफ हाथ बढ़ाओ। प्रेम की ताली वह कोई बहुत बड़ा प्रश्न नहीं है, मानवीय है। कोई किसी क्षण में एक हाथ से तो बजती नहीं। तुम्हारा हाथ बढ़े तो शायद पति भी नाराज हो जाता है, क्रुद्ध हो जाता है, कभी किसी क्षण में दुष्ट भी उत्सुक हो। हो जाता है। वह क्षम्य है। उससे कृष्ण लेश्या नहीं बनती। कृष्ण पत्नी को बात जंची। बाजार से दो टाई खरीद लायी। दूसरे लेश्या बनती है, गलत वृत्तियों का ऐसा अभ्यास हो गया हो, कि दिन पति को भेंट की। पति बड़ा प्रसन्न हुआ। ऐसा कभी हुआ न जहां कोई भी कारण न हो वहां भी वृत्ति अपने ही अभ्यास के था। पत्नी कुछ लायी हो खरीदकर, इसकी कल्पना भी नहीं कर कारण, कारण खोज लेती हो। तो फिर तुम अपने अंधेरे को पानी सकता था। मनोवैज्ञानिक का सत्संग लाभ कर रहा है। प्रसन्न | सींच रहे हो, खाद दे रहे हो। फिर यह अंधेरा और बड़ा होता हुआ। इतना प्रसन्न हुआ कि उसने कहा कि आज अब भोजन चला जाएगा। मत बना। आज हम नगर के श्रेष्ठतम होटल में चलते हैं। मैं | 'स्वभाव की प्रचंडता...।' अभी तैयार हुआ। इसे थोड़ा खयाल रखना। ऐसी कोई वृत्ति आदत मत बनने वह भागा। स्नान किया, कपड़े बदले, पत्नी दो टाई ले आयी देना। कभी क्रोध आ जाए तो बहत परेशान होने की जरूरत नहीं थी, उसमें से एक टाई पहनकर बाहर आया। पत्नी ने देखा और है। मनुष्य कमजोर है। असली प्रश्न तो तब है, जब कि क्रोध कहा, अच्छा, तो दूसरी टाई पसंद नहीं आयी! तुम्हारे घर में बस जाए; नीड़ बसाकर बस जाए। अब आदमी एक ही टाई पहन सकता है एक समय में। दो ही क्रोधी आदमी अकेला भी बैठा हो तो भी क्रोधी होता है। तुम टाई तो एक साथ नहीं बांधे जा सकते। अब कोई भी टाई उसकी आंख में क्रोध देखोगे। चलेगा तो क्रोध से चलेगा। पहनकर आता पति...विवाद शुरू हो गया। यह बात पत्नी को बैठेगा तो क्रोध से बैठेगा। क्रोध उसकी छाया है, उसका सत्संग नाराज कर गई कि दूसरी टाई पसंद नहीं आयी। मैं इतनी मेहनत है। वह जो भी करेगा, क्रोध से करेगा। दरवाजा खोलेगा तो से, इतने भाव से, इतने प्रेम से खरीदकर लायी हूं। | क्रोध से खोलेगा। जूते उतारेगा तो क्रोध से उतारेगा। कुछ लोग हैं जिनके लिए क्रोध एक भावावेश होता | सूफी फकीर बोकोजू से कोई मिलने आया। उसने जोर से है-अधिक लोग। किसी ने गाली दी, क्रुद्ध हो गए। दरवाजे को धक्का दिया। क्रोधी आदमी रहा होगा, कृष्ण लेश्या लेकिन कुछ लोग हैं, जो क्रुद्ध ही रहते हैं। किसी के गाली देने का आदमी रहा होगा। फिर जूते उतारकर फेंके। बोकोजू के पास न देने का सवाल नहीं है। वे गालियां खोज लेते हैं। जहां न हो | आकर बोला, शांति की आकांक्षा करता हूं। कोई ध्यान का मार्ग गाली, वहां भी खोज लेते हैं। जहां न हो गाली, वहां भी व्याख्या | दें। बोकोजू ने कहा, यह बकवास पीछे। पहले जाकर दरवाजे से 460/ 2010_03 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घट पर्दो की ओट में क्षमा मांगो, जूते को सिर झुकाकर नमस्कार करो। पडेगा। कभी-कभी किसी की आंखों में जागति की चमक उस आदमी ने कहा, क्या मतलब ? दरवाजे से क्षमा? जूते से दिखाई पड़ेगी, अन्यथा अंधेरा है। चल रहे हैं, जगे हुए हैं, फिर नमस्कार ? ये तो मृत चीजें हैं, जड़ चीजें हैं। इनसे क्या क्षमा भी सोये हुए हैं। और क्या नमस्कार! ऐसा पहले दूसरों का निरीक्षण करना और फिर जो तुम्हें दूसरों बोकोजू ने कहा, क्रोध करते वक्त न सोचा कि जड़ चीजों पर के निरीक्षण में दिखाई पड़े, धीरे-धीरे अपने पर लागू करना। क्रोध कर रहे हो? जूते को जब क्रोध से फेंका, तब न सोचा कि | फिर खुद चलते हुए, बैठते हुए, उठते हुए देखना कि तुम किन्हीं जूते पर क्या क्रोध करना! दरवाजे को जब धक्का दिया, बेहूदगी भाव-दशाओं में बहुत लिप्त तो नहीं हो गए हो! कहीं ऐसा तो और अशिष्टता की, तब न सोचा। जाओ वापस, अन्यथा मेरे नहीं है कि तुम क्रोध से भरे जीने लगे हो, रोष से भरे जीने लगे पास आने की कोई सुविधा नहीं है। मैं तुमसे बात ही तब | हो, हिंसा तुम्हारी अंतर्भूमि बन गई है, दुष्टता तुम्हारा स्वभाव करूंगा, जब तुम दरवाजे से क्षमा मांगकर आ जाओ। | बन गई है! अब यह जो आदमी है, कृष्ण लेश्या से दबा होगा। ऐसा नहीं __ अगर यह दिखाई पड़े तो एक बड़ी महत्वपूर्ण अनुभूति हुई : कि उसने जानकर कोई क्रोध किया। क्रोध उसका अंग बन गया कृष्ण लेश्या पहचान में आयी। और जिसे मिटाना हो उसे है। वह क्रोध से ही दरवाजा खोल सकता है। पहचान लेना जरूरी है। जिससे मुक्त होना हो, उसे आर-पार तुम भी लोगों को ध्यानपूर्वक देखोगे तो तुम्हें दिखाई पड़ने देख लेना जरूरी है। लगेगा। पहले औरों को देखना. क्योंकि औरों के संबंध में सत्य 'स्वभाव की प्रचंडता, वैर की मजबूत गांठ...।' को जानना सरल होता है। तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं। दूसरे ऐसे लोग हैं, जो जन्म-जन्म तक वैर की गांठ बांधकर रखते की बात है। तुम दूर खड़े होकर देख लेते हो। लोगों को जरा गौर | हैं। जो भूलते ही नहीं। जो और सब भूल जाते हैं, वैर नहीं से देखना। कभी रास्ते के किनारे बैठ जाना किसी वृक्ष के नीचे, भूलते। ऐसा भी होता है कि पीढ़ी दर पीढ़ी वैर चलता है। बाप चलते लोगों को देखना। देखना कि कौन आदमी क्रोध से चल मर जाता है तो अपने बेटे को शिक्षण दे जाता है कि पड़ोसी से रहा है। कौन आदमी प्रेम से चल रहा है। कौन आदमी झगड़ते रहना। अपनी पुश्तैनी दुश्मनी है। आनंदभाव से चल रहा है। और तुम पाओगे, हर स्थिति में पुश्तैनी दुश्मनी का क्या मतलब हो सकता है? लड़े कोई और भाव-भंगिमा अलग है। | थे, जारी कोई और रखे हैं। शुरू किसी ने किया था, वे कभी के प्रेम से चलनेवाले की चाल में एक संगीत होगा। कोई अदृश्य मर चुके होंगे दादे-परदादे; लेकिन पुश्तैनी दुश्मनी है, जारी रखे पायल बजती होगी। हृदय में कोई गहन आनंद की वर्षा होती हुए हैं। होगी। क्रोध से चलनेवाला आदमी जैसे कांटों में चुभा पड़ा है। ऐसा तो कम होता है, लेकिन बीस साल पहले किसी ने तुम्हें पीड़ा से जलता हुआ, आग की लपटों में झुलसता चल रहा है। गाली दे दी थी, वह तुम अभी भी याद रखे हो। गालियां मुश्किल राह वही, लोग अलग-अलग हैं। से भूलती हैं। जिस आदमी ने तुम्हारे साथ निन्यानबे उपकार जिन रास्तों पर तुम चलते हो, उन्हीं पर बुद्ध और महावीर चले किए हों, वह भी अगर एक गाली दे दे तो निन्यानबे उपकार भूल हैं। जिन वृक्षों के नीचे से तुम गुजरे हो, उन्हीं के नीचे से बुद्ध जाते हैं, वह एक अपमान याद रह जाता है। और महावीर गजरे हैं। लेकिन तम एक ही दनिया में नहीं चले। तम कभी अपने पीछे लौटकर विचार करते हो, क्या याद रह और एक ही रास्तों पर नहीं गुजरे। क्योंकि असली में तो तुम क्या गया? तुम अचानक चकित हो जाओगे। सिर्फ जलते हुए हो, इससे तुम्हारी दुनिया निर्मित होती है। अंगारे याद रह गए। तुम कभी पीछे लौटकर देखना कि कौन-सी ऐसा पहले दूसरों को देखना। कुछ लोग मूर्छित मालूम | याददाश्तें तुम्हारे घर में बड़ा गहरा घर किए बैठी हैं। तुम बहुत पड़ेंगे। चले जा रहे हैं, लेकिन जैसे किसी नशे में हैं। हैरान होओगे। कभी कोई छोटी-सी बात...तीस साल हो गए, कभी-कभी कोई आदमी, कोई छोटा बच्चा जाग्रत मालूम किसी आदमी ने तुम पर व्यंग्य से हंस दिया था, वह अभी भी 461 ___ 2010_03 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भाग : 2 SHE हंसी उसकी सुनाई पड़ती है। तीस साल में लाखों-अरबों बच्चे को गतिमान करना है। बहुत दफा नाराज भी होना है, बहुत अनुभव हुए हैं। लेकिन वह अंगारा अब भी कहीं घाव की तरह दफे डांटना-डपटना भी है। वे घाव भीतर रह जाते हैं। बैठा है। अभी भी हरा है। अभी भी पीड़ा होती है। अभी भी तुम अक्सर ऐसा होता है कि जब बेटे जवान हो जाते हैं, उस आदमी से बदला लेना चाहोगे। छोटी-छोटी बातें याद रह शक्तिशाली हो जाते हैं और मां और बाप बूढ़े होने लगते हैं, तब जाती हैं। क्षुद्र बातें याद रह जाती हैं। जीवन के अनंत उपकार बदला शुरू होता है। तब पहिया पूरा घूम गया। पहले बच्चे थे भूल जाते हैं। तुम, कमजोर थे, तुम कुछ कर न सके, सहा; फिर मां-बाप गरजिएफ कहता था कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने माता-पिता बच्चे हो जाते हैं, बूढ़े हो जाते हैं, कमजोर हो जाते हैं। तुम से किसी न किसी दिन समझौता करना होता है। और जो व्यक्ति शक्तिशाली हो जाते हो। फिर तुम सताना शुरू कर देते हो। अपने माता-पिता को क्षमा न कर सके वह कभी ध्यान में प्रविष्ट मां-बाप के पास भी हमारा क्रोध, हमारा वैर-भाव गांठ की नहीं हो सकता। तरह बना रहता है तो औरों की तो बात ही क्या! और महावीर तुम तो कहोगे, माता-पिता को क्षमा ? लेकिन गुरजिएफ बड़ी | कहते हैं कि यह वैर की गांठ जितनी गहरी होगी, उतना ही तुम्हारा गहरी बात कह रहा है। कृष्ण लेश्या का पर्दा सघन होगा। स्वाभाविक है कि जिन माता-पिता ने तुम्हें बड़ा किया, कई | मुल्ला नसरुद्दीन एक बस में यात्रा कर रहा था। बस के अंदर दफा तुम पर नाराज हुए होंगे। तुम्हारे हित में हुए होंगे। कई बार एक कतार में खुद बैठा, दूसरी तरफ उसकी पत्नी बैठी थी। और मारा, डांटा-डपटा होगा, अगर वह चुभन अभी शेष रह गई है | दूसरी कतार में एक अपरिचित महिला यात्री। हवा के झोंके से और अगर तुम अपने मां-बाप से भी रसपूर्ण रिश्ता नहीं बना पाए उस युवती का आंचल लहरा-लहराकर मुल्ला के पैर को हो, तो और किससे बना पाओगे? झाड़ता-पोंछता। जब बस के मुड़ने पर उस महिला का हाथ गरजिएफ कहता है, मां-बाप का आदर जिसके मन में आ मुल्ला के पैर पर पड़ गया तो उसने अपनी पत्नी के कान में कहा, गया वह साधु होने लगा। मुझे गौतम बुद्ध समझ रही है। थोड़ी देर बाद जब बस के झटके पूरब की सारी संस्कृति कहती है मां और पिता के आदर के से चप्पल सहित उसका पैर मुल्ला के पैर में लगा तो पत्नी ने लिए। क्यों? तुम शायद इस तरह कभी सोचे नहीं, लेकिन मुल्ला के कान में कहा, सावधान! अब आपकी असलियत मनोविज्ञान इसी तरह सोचता है। जब संस्कृति इतना जोर देती है पहचान गई है। | कि माता-पिता का आदर करो, तो इसका अर्थ ही यह है कि आदमी वैर की गांठ बांधता है संसार से, उसका आधारभूत अगर जोर न दिया जाए तो तुम अनादर करोगे। जोर केवल खबर कारण क्या है? आधारभूत कारण है कि आदमी अपने को तो दे रहा है कि अगर तुम्हें छोड़ दिया जाए तुम पर, तो तुम अनादर गौतम बुद्ध समझता है, इसलिए अपेक्षा करता है। बड़ी अपेक्षा करोगे। पश्चिम में मनोविश्लेषण ने बड़ी खोजें की हैं। उनमें करता है कि सारा संसार उसके चरणों में झके। और जब लोग सबसे बड़ी खोज यह है कि जितने भी लोग मानसिक रूप से उसके चरणों में झुकना तो दूर रहा, उसका अपमान करते हैं; बीमार होते हैं वे किसी न किसी तरह अपनी मां से नाराज हैं। चरणों में झुकना तो दूर रहा, अपेक्षा पूरी करना तो दूर रहा, अगर सारे मनोविश्लेषण को एक शब्द में दोहराना हो और उसकी उपेक्षा करते हैं; चरणों में झुकना तो दूर रहा, ऐसी सारी मानसिक बीमारियों को एक शब्द में लाना हो तो वह-मां स्थितियां पैदा करते हैं कि उसे उनके चरणों में झुकना पड़े तो घाव से नाराजगी। खड़े होते हैं, वैर की गांठ बंधती है। हर आदमी छोटा था, बच्चा था, कमजोर था। उस कमजोरी अहंकार के कारण वैर की गांठ बंधती है। और अहंकार कृष्ण के क्षण में असहाय था, किसी पर निर्भर था। मां और पिता पर लेश्या का आधार है। जितना अहंकार होगा, उतनी वैर की गांठ | निर्भर था। और मां और बाप को बच्चे को बड़ा करना है, कई होगी। तुमने अगर अपने को बहुत कुछ समझा तो वैर की गांठे बातें गलत हैं, जिनसे रोकना है। कई बातें सही हैं, जिनकी तरफ | बहुत हो जाएंगी। क्योंकि कोई तुम्हारी अपेक्षा पूरी करने को नहीं खम 462 - JanEducation International 2010_03 SAR Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट पर्दो की ओट में। है। लोग अपने अहंकार के लिए जी रहे हैं। तुम्हारे अहंकार की अगर वह आदमी विनम्र हो और असलियत को जानता हो तो तृप्ति करने को कौन जी रहा है? लोग तुम्हारे अहंकार से संघर्ष तुम खुशामद से उसे प्रसन्न न कर पाओगे। जिस आदमी को तुम कर रहे हैं। तुम जितने अहंकारी हो, लोग उतना तुम्हें नीचे खुशामद से प्रसन्न कर लो, सम्हलकर रहना। यह आदमी वैर दिखाने की चेष्टा करेंगे। क्योंकि तुम्हारे नीचे दिखाए जाने में ही | की गांठ भी बांधेगा। जो खुशामद से प्रसन्न होगा, वह अपमान उनका ऊंचा होना निर्भर है। तुम भी तो लोगों के साथ यही कर से नाराज होगा। जो झूठी खुशामद से प्रसन्न हो जाता है, वह रहे हो कि उनको नीचा दिखाओ। अवास्तविक अपमान से भी नाराज हो जाएगा; तथ्यहीन तो वही आदमी वैर की गांठ नहीं बांधेगा जिसके पास कोई | अपमान से भी नाराज हो जाएगा। अहंकार नहीं है। लाओत्सु कहता है, मुझे तुम हरा न सकोगे विनम्र व्यक्ति को न तो खशामद से प्रसन्न किया जा सकता है क्योंकि मैं हारा हुआ हूं। मेरी जीत की कोई आकांक्षा नहीं है। | और न अपमान से नाराज किया जा सकता है। विनम्र व्यक्ति तुम मुझे हटा न सकोगे मेरी जगह से क्योंकि मैं अंत में ही खड़ा | तुम्हारी नियंत्रण-शक्ति के बाहर हो जाता है। वह स्वयं अपना हुआ हूं। इसके पीछे अब और कोई जगह ही नहीं है। लाओत्सु | मालिक होने लगता है। यह कह रहा है, जो विनम्र है उसके साथ किसी की शत्रुता नहीं | कृष्ण लेश्या में दबा हुआ आदमी गुलाम है। बड़ा गुलाम है। होगी। और अगर किसी की शत्रुता होगी भी, तो वह जो शत्रुता उसके ऊपर बटन लगे हैं, जो भी चाहो तुम दबा दो, बस वह वैसे बना रहा है उसकी समस्या है, विनम्र की समस्या नहीं है। ही व्यवहार करता है। जरा अपमान कर दो कि वह आग-बबूला किसी की दी गई गाली तुम्हें चुभती है क्योंकि तुम अहंकार को हो गया। बटन दबा दो कि वह सौ डिग्री पर उबलने लगा, भाप सजाए बैठे हो। तुमने अहंकार का कांच का महल बना रखा है। बनने लगा। दूसरा बटन दबा दो, वह प्रसन्न हो गया, आनंदित किसी ने जरा-सा कंकड़ फेंका कि तुम्हारे दर्पण टूट-फूट जाते हो गया। तुम जो कहो, करने को राजी है। जान देने को राजी हो हैं। अहंकार बड़ा नाजुक है। जरा-सी चोट से डगमगाता है, जाए तुम्हारे लिए। टूटता है, कंपता है। तो फिर वैर की गांठ बनती जाती है। इसका अर्थ हुआ कि कृष्ण लेश्या से भरा हुआ आदमी तुम मित्र किन्हें कहते हो? तुम मित्र उन्हें कहते हो जो तुम्हारे प्रतिक्रिया से जीता है। तुम उससे कुछ भी करवा ले सकते हो। अहंकार की परिपूर्ति करते हैं। इसलिए तो चापलूसी का दुनिया विनम्र व्यक्ति अपने बोध से जीता है, प्रतिक्रिया से नहीं।। में इतना प्रभाव है। अगर तुम किसी की चापलूसी करो, ‘स्वभाव की प्रचंडता और वैर की मजबूत गांठ, झगड़ालू खुशामद करो, तो तुम अतिशयोक्ति करो तो भी जिसकी तुम वृत्ति...।' / खुशामद करते हो, वह मान लेता है कि तुम ठीक कह रहे हो। संसार में इतने झगड़े नहीं हैं जितने दिखाई पड़ते हैं। जितने वस्तुतः वह सोचता है कि तुम्हीं पहले आदमी हो जिसने उन्हें दिखाई पड़ते हैं वे झगड़ालू वृत्ति के कारण हैं। लोग झगड़ने को पहचाना। वह तो सदा से यही मानता था कि मैं एक महापुरुष तत्पर ही खड़े हैं। लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं कब मिले अवसर। हूं। कोई उसको पहचान नहीं पा रहा था, तुम मिल गए उसे लोग बिना झगड़े बेचैन हो रहे हैं। लोग निमंत्रण दे रहे हैं कि आ पहचाननेवाले। बैल, मुझे सींग मार। क्योंकि जब तक बैल सींग नहीं मारता, जिसकी तुम खुशामद करो, तुम कभी चकित होना; तुम उन्हें उनके अस्तित्व का बोध नहीं होता। लड़ने में ही उन्हें पता अतिशयोक्ति करते हो, अंधे को कमलनयन कहते हो, असुंदर चलता है कि हम हैं। जब जीवन में कठिनाई होती है, संघर्ष होता को सौंदर्य की प्रतिमा बताते हो, अज्ञानी को ज्ञान का अवतार है, तभी उन्हें पता चलता है कि हम भी कुछ हैं। सिद्ध करने का कहते हो और तुम्हें भी चकित होना पड़ता होगा कि वह मान लेता मौका मिलता है। है। यह तो उसने माना ही हुआ था। तुम पहली दफा इसे समझना। जिस व्यक्ति को अपनी आत्मा की कोई झलक पहचाननेवाले मिले। कोई दूसरा पहचान नहीं पाया। खुशामद नहीं मिली, वह हमेशा झगड़ने को तैयार होगा। क्योंकि झगड़ने इसीलिए कारगर होती है। में ही उसे थोड़ा आत्मभाव पैदा होता है। झगड़ने में ही लगता है, 463 2010_03 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं भी हूं। और तो कोई उसे उपाय नहीं दिखाई पड़ता सिद्ध करने जब तुम कुछ विनाश करते हो, तब तुम्हें अपने होने का पता का। कैसे सिद्ध करे कि मैं भी हूं? | चलता है। स्कूल में विद्यार्थी खिड़कियों के कांच फोड़ आते हैं, एक आदमी ने अमरीका में सात हत्याएं की एक घंटे के कालेज में उपद्रव खड़े कर देते हैं। इससे उनको पता चलता है भीतर। अपरिचित, अनजान आदमियों पर गोली दाग दी। उनमें कि हम भी हैं। अपने बल का पता चलता है। कुछ तो ऐसे थे, जिनको उसने कभी देखा ही नहीं था पहले। दो | बल को जानने के दो उपाय हैं: या तो कुछ निर्माण करो, या तो ऐसे थे, जिनको उसने गोली मारते वक्त भी नहीं देखा क्योंकि | कुछ मिटाओ। तीसरा कोई उपाय नहीं है। तो जो व्यक्ति मिटाने वे पीठ किए खड़े थे समुद्र के तट पर, उसने पीछे से गोली मार में बल का अनुभव करता है, वह कृष्ण लेश्या में दबा रह दी। अदालत में जब पूछा गया, ऐसा उसने क्यों किया? क्या जाएगा। सजन में बल का अनुभव करो। कुछ बनाओ। कुछ वह विक्षिप्त है? तो उसने कहा, मैं विक्षिप्त नहीं हूं। मुझे सिद्ध तोड़ो मत। क्योंकि तोड़ना तो कोई भी कर सकता है, पागल कर करने का कोई मौका ही नहीं मिल रहा है कि मैं भी हूं। मैं | सकता है। तोड़ना तो कोई बुद्धिमत्ता की अपेक्षा नहीं रखता। अखबार में पहले पेज पर अपना नाम और अपनी तस्वीर छपी | कुछ बनाओ। एक गीत बनाओ, एक मूर्ति बनाओ, एक वृक्ष देखना चाहता था, वह मैंने देख ली। अब तुम मुझे सूली पर भी लगाओ, पौधा रोपो। जब उस पौधे में फूल आएंगे तब तुम्हें चढ़ा दो, तो मैं तृप्त मरूंगा। मैं ऐसे ही नहीं जा रहा हूं, नाम आत्मवान होने का पता चलेगा। देखी है माली की प्रसन्नता, जब करके जा रहा हूं। उसके फूल खिल जाते हैं? देखा है मूर्तिकार का आनंद, जब लोग कहते हैं बदनाम हुए तो क्या, कुछ नाम तो होगा ही। उसकी मूर्ति बन जाती है? देखा है कवि का प्रफुल्ल भाव, जब तुम्हें अपनी आत्मा का पता कब चलता है? जब तुम किसी के कविता के फल खिल जाते हैं? साथ संघर्ष में जूझ जाते हो। उस संघर्ष की स्थिति में तुम्हारी | कुछ बनाओ। दुनिया में सृजनात्मक लोग बहुत कम हैं। और आत्मा में त्वरा आती है। तुम्हें लगता है, मैं भी हूं। मेरे कारण | हर आदमी ऊर्जा लेकर पैदा हुआ है। तुम्हारी ऊर्जा अगर सृजन कुछ हो रहा है। की तरफ न गई तो विध्वंस की तरफ जाएगी। इसे तुम खयाल कहते हैं अडोल्फ हिटलर कलाविद होना चाहता था। उसने करके देखो। जीवन में चारों तरफ आंख फैलाकर देखो। जो एक कला, चित्रकला सीखने के लिए आवेदन किया था, लेकिन लोग कुछ बनाने में लगे हैं, तुम उन्हें झगड़ालू न पाओगे। तुम विश्वविद्यालय ने उसे स्वीकार न किया। वह जीवन के अंत उन्हें बड़ा विनम्र, उदारमना, सरल, सौम्य, आर्जव से भरे, मार्दव समय तक भी कागजों पर चित्र बनाता रहा। लेकिन वह बड़ा से भरे हुए पाओगे-मृदु, कोमल...जो लोग भी कुछ बनाने में रुष्ट हो गया, जब उसे विश्वविद्यालय ने इंकार कर दिया। लगे हैं। जो लोग भी मिटाने में लगे जाते हैं, तुम उन्हें बड़े मनुष्य बड़ा अदभुत है। वह कुछ सृजन करना चाहता था, | झगड़ालू पाओगे। वे हर चीज पर झगड़ने को और विवाद करने लेकिन किया उसने विनाश। मनोवैज्ञानिक सोचते हैं कि अगर | को तत्पर हैं। उसे कला-विश्वविद्यालय में जगह मिल गई होती तो शायद एक बड़ी अदभुत घटना घटती है। तुम राजनीति के क्षेत्र में दुनिया में दूसरा महायुद्ध न होता। वह अगर सृजन में संलग्न हो देख सकते हो। जो लोग सत्ता में पहुंच जाते हैं, सत्ता में पहुंचते गया होता तो उसकी शक्ति सृजनात्मक हो गई होती। उसने सुंदर ही उनके पास बनाने की ताकत आ जाती है। कुछ बना सकते चित्र बनाये होते, रंग भरे होते, गीत गुनगुनाए होते। वह दुनिया | हैं। अगर उनमें थोड़ी भी बनाने की क्षमता हो तो उनकी ऊर्जा को थोड़ा सुंदर करके छोड़ जाता। वह इतिहास में अपना नाम | सृजनात्मक होने लगती है। | छोड़ना चाहता था। लेकिन जब सृजनात्मक मार्ग न मिला तो ये वे ही लोग हैं, जो सत्ता में जब नहीं थे तो विध्वंसात्मक थे। उसकी सारी ऊर्जा विध्वंसात्मक हो गई। जब इनके हाथ में सत्ता नहीं थी तो हड़ताल, बगावत, षड्यंत्र, तुम खयाल रखना; जब तुम झगड़ालू वृत्ति से भरते हो, तब ट्रेनों को गिराना, लोगों को उभाड़ना, झगड़ाना-झगड़ालू वृत्ति तुम किसी तरह चोर रास्ते से आत्मा का अनुभव करने चले हो। के लोग थे; ये वे ही लोग हैं। इन्हीं को तुम सत्ता में बिठाल दो, 464 Jal Education International 2010_03 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ___षट पर्दो की ओट में - | ये तत्क्षण हड़तालों के खिलाफ हो जाते हैं। ये तत्क्षण तोड़-फोड़ मनोवैज्ञानिक इसका अध्ययन कर रहे थे। उस आदमी से पछा के विरोध में हो जाते हैं। तोड़-फोड़ के कारण ही पहुंचे वहां गया कि जब बूढ़ी औरत रास्ते पर कार का धक्का खाकर गिरी तो तक। तोड़-फोड़ से ही पहुंचे वहां तक। सभी क्रांतिकारी सत्ता में | क्या यह उचित नहीं था कि पहले तुम उस बूढ़ी स्त्री को पहुंचते से ही क्रांति का साथ छोड़ देते हैं। अस्पताल पहुंचाते, बजाय इस आदमी के पीछे जाकर तीन मील क्या हो जाता है? इन आदमियों में इतना परिवर्तन कैसे हो दूर जाकर इसकी मारपीट करने के? क्योंकि वह बूढ़ी मर गई। जाता है? समझने योग्य है। क्योंकि ऊर्जा एक ही तरफ बह अगर वह अस्पताल पहुंचाई गई होती तो बच जाती। उस सकती है। सत्ता में पहुंचते से ही लोगों की क्रांति समाप्त हो जाती आदमी ने कहा, यह तो मुझे खयाल ही नहीं आया। मुझे तो है। तब वे कुछ और ही बात करने लगते हैं—देश के निर्माण | पहला खयाल यह आया कि इस आदमी को दंड देना जरूरी है। की, शांति की, सुख की। ये वे ही लोग हैं जो कुछ दिन पहले | यह आदमी लोगों से कहेगा कि मैं दयाभाव से भरा आदमी हूं, स्वतंत्रता की बात करते. सख की नहीं। देश के निर्माण की बात लेकिन यह आदमी दयाभाव से भरा नहीं है। अगर किसी एक नहीं करते, गति की प्रगति की बात करते: नए की बात करते। स्त्री पर कोई गंडा हमला कर देता है तो जो आदमी उस गंडे से यही व्यक्ति जो कल पुराने को मिटाने को तत्पर थे, सत्ता में आते जूझने लगते हैं, वे भी गुंडे जैसे ही गुंडे हैं। उनको भी उस स्त्री से से ही पुराने को सम्हालने में तत्पर हो जाते हैं। यह अनूठी घटना | कुछ मतलब नहीं है। झगड़ालू वृत्ति के हैं। हालांकि वे कहेंगे कि है। लेनिन और स्टैलिन जैसे ही सत्ता में पहुंचते हैं, ये क्रांति के दयाभाव से प्रेरित होकर, सदभाव से प्रेरित होकर उन्होंने ऐसा दुश्मन हो जाते हैं। ये उन लोगों को, जो अब भी क्रांति में लगे हैं, किया। लेकिन वे सदभाव की सिर्फ आड़ ले रहे हैं। और वह उनको नष्ट करने लगते हैं। उनको जेलों में फेंकने लगते हैं। मामला ऐसा है कि समाज भी उनका साथ देगा। तो उनका ऐसा प्रत्येक व्यक्ति के भीतर भी घटता है। तुम जरा कोशिश | गुंडागर्दी करने का बड़ा सुविधापूर्ण मौका है। मगर ये आदमी करके देखना! तुम किसी चीज के बनाने में उत्सुक हो गुंडों जैसे ही गुंडे हैं। ये गुंडे ही हैं। इनमें कुछ फर्क नहीं है। जाओ-कोई छोटी-सी चीज! बांसुरी बजाने में उत्सुक हो असली सवाल तो उस स्त्री को बचाने का था, वह तो एक जाओ, और तुम पाओगे, तुम्हारी झगड़ालू वृत्ति कम हो गई। तरफ हो गया। स्त्री से तो कुछ लेना-देना नहीं है। इनको एक क्योंकि ऊर्जा अब बांसुरी से भी तो बहेगी। जो ऊर्जा बांसुरी से मौका मिल गया अपना क्रोध, अपनी हिंसा प्रगट करने का। बहेगी, वह झगड़े के लिए अब उपलब्ध न रहेगी। महावीर ने | महावीर कहते हैं, 'धर्म और दया से शून्यता...।' इसीलिए अहिंसा पर इतना जोर दिया। तो कभी-कभी ऐसा भी होता है, गलत तरह के लोग भी दया 'वैर की मजबूत गांठ, झगड़ालू वृत्ति, धर्म और दया से की आड़ में हिंसा को ही चलाते हैं। कोई चिल्लाता है इस्लाम शून्यता...।' | खतरे में कोई कहता है हिंदू धर्म खतरे में; और जो उस नाम से ऐसे व्यक्तियों के मन में दया का भाव नहीं उठता। अभी चलता है वह गुंडागर्दी अमरीका में एक विश्वविद्यालय ने इस बात का अध्ययन करने जो धर्म पे बीती देख चुके, ईमां पे जो गुजरी देख चुके की कोशिश की, कि जो लोग रास्ते पर कभी किसी की हत्या कर इस राम और रहीम की दुनिया में इंसान का जीना मुश्किल है देते हैं या कार से किसी को धक्का मारकर गिरा देते हैं, उस घड़ी चाहे धर्म हों-हिंदू, मुसलमान, ईसाई; चाहे नए धर्म कुछ लोग त्राता की तरह आ जाते हैं। एक आदमी ने एक बूढ़ी | हों—कम्युनिज्म, समाजवाद, फासिज्म; लेकिन सबके पीछे को कार से धक्का मारा और वह धक्का मारकर कार लेकर ऐसा मालूम पड़ता है दया तो केवल बहाना है, असली मतलब भागा। एक आदमी, जो दुकान में खरीद-फरोख्त कर रहा था, / नी मोटर साइकिल पर सवार हआ। उस कार स्टैलिन जब सत्ता में आया रूस में. तो आया तो इसी कारण के पीछे लग गया। कोई तीन मील दूर जाकर उसने पकड़ा और कि गरीबों की हिमायत करनी है। लेकिन सत्ता में आने के बाद उस आदमी की पिटाई की। लाखों गरीबों को मार डाला। जो मारे गए वे अधिकतर गरीब थे, 14651 2010_03 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भागः जिनके लिए सत्ता में आने की आकांक्षा थी। क्या हुआ? गरीबों पहले तो ये कभी दिखाई नहीं पड़े थे। अपनी-अपनी बाइबिल के हित के लिए गरीबों को मारा! लिए बैठे हैं, बड़े भावमुग्ध। मगर यह भावमुग्धता, यह हाथ में तुमने कभी खयाल किया? अपने भीतर भी निरीक्षण किया? | बाइबिल, सब झूठी है। प्रयोजन कुछ और है। तुम अपने बच्चे को कहते हो, चुप हो जाओ। वह चुप नहीं | तुम मंदिर जाओ तो खयाल रखना, किसलिए गए। तुम कभी होता, तुम उसको डांटते-डपटते हो, मारते हो। और तुम कहते दया भी करो तो खयाल रखना कि किसलिए की। अपने भीतर | यही हो कि तेरे हित के लिए मार रहे हैं। तुझे शिष्टाचार सिखा खोज जारी रखना। रास्ते पर भिखमंगा हाथ फैलाकर खड़ा हो रहे हैं। लेकिन तुमने भीतर गौर किया? वस्तुतः तुम शिष्टाचार | जाता है, तुम दो पैसे डाल देते हो। दया से डाले, जरूरी नहीं है। सिखाना चाहते हो या तुम्हारी आज्ञा नहीं मानी गई इसलिए तुम | शायद इसलिए डाले हों कि और लोग देख रहे थे। दो पैसा नाराज हो? डालकर दानी बनने जैसी सस्ती बात और क्या हो सकती है? आदमी अच्छी बातों की आड़ में अपनी बरी बातों को छिपाता शायद कहीं भिखारी फजीहत खड़ी न कर दे, ज्यादा शोरगुल न है। अच्छे लिबास में, साधु-संतों के लिबास में भी गुंडे निकलते मचा दे। कहीं लोगों को यह पता न चल जाए कि तुम दो पैसे भी हैं। साधु लिबास में भी डाकू निकलते हैं। और यह सबने किया न दे सके। हद्द कंजूस हो! तो दे दिए। या छुटकारा पाने के लिए है। थोड़ी साफ आंख हो तो तुम देख लोगे, कि कारण कुछ और दे दिए, कि झंझट मिटे। अपने भीतर देखना। तुम्हारी दया के | | था, वजह कुछ और थी, बहाना तुमने कुछ और खोजा। बहाना भीतर भी जरूरी नहीं कि दया हो। तुम्हारी प्रार्थना के भीतर भी कुछ अच्छा खोजा, जिसकी आड़ में बुराई चल सके। जरूरी नहीं कि प्रार्थना हो। और जो भीतर नहीं है उसके बाहर 'धर्म और दया से शून्यता, दुष्टता, समझाने से भी नहीं होने से कुछ अर्थ नहीं है। मानना, ये कृष्ण लेश्या के लक्षण हैं।' इसलिए महावीर कहते हैं, 'धर्म और दया से शून्यता।' तुम अपनी दया में भी विचार करना और अपने धर्म में भी दिखावा हो सकता है लेकिन भीतर सब सूनापन होगा। विचार करना। तुम मंदिर भी जा सकते हो। जाने का कारण __ 'दुष्टता, समझाने से भी नहीं मानना...।' मंदिर जाना बिलकुल न हो, कुछ और हो सकता है। तुमने कई दफे खयाल किया? किसी से तुम विवाद में पड़ ऐसा हुआ, लंदन के एक चर्च में इंग्लैंड की रानी आने को थी। जाते हो, तुम्हें दिखाई भी पड़ने लगता है कि दूसरा ठीक है, फिर तो सैकड़ों फोन आए पादरी के पास। सुबह से ही फोनों का | भी अहंकार मानने नहीं देता। और तुम चीखते-चिल्लाते हो कि आना शुरू हो गया कि हमने सुना है रानी आ रही है। कब | अंधेरे के बाहर कैसे आएं ? और तुम रोते-गिड़गिड़ाते हो कि हे पहुंचेगी? हम भी आना चाहते हैं। जो कभी चर्च न आए प्रभु! अंधेरे से प्रकाश की तरफ ले चल। असत से सत की तरफ थे...। उस पादरी को बड़ी हंसी आयी। उसने फोन पर सभी को ले चल। मृत्यु से अमृत की तरफ ले चल। लेकिन तुम इसके एक बात कही कि रानी आएगी कि नहीं पक्का नहीं। क्या लिए रास्ता तो बनाते नहीं। कितनी बार नहीं विवाद में केवल भरोसा! राजा-रानियों का क्या भरोसा। लेकिन अगर तुम आना | अहंकार ही कारण होता है। अन्यथा तम्हें दिखाई पड़ना शुरू हो चाहते हो तो स्वागत है। एक बात पक्की है, परमात्मा रहेगा। | जाता है दूसरा ठीक है, मान लो। लेकिन कैसे मान लो? रानी आए या न आए। पर लोगों ने कहा, ठीक है, परमात्मा तो पराजय स्वीकार नहीं होती। ठीक है, मगर रानी अगर आ रही हो तो ठीक-ठीक कह दें, तो | जब दो व्यक्ति लड़ते हैं, विवाद करते हैं तो जरूरी नहीं है कि हम आ जाएं। कब आ रही है? यह सत्य के लिए विवाद हो रहा हो। यह विवाद होता है मेरे रानी आयी तो चर्च भरा था; खचाखच भरा था। बाहर तक सत्य के लिए। और जहां मेरा महत्वपूर्ण है, वहां सत्य तो होता भीड़ थी। रानी ने पादरी को कहा कि तुम्हारे चर्च में काफी भीड़ ही नहीं। हम कहते हैं, मैं कैसे गलत हो सकता हूं? इसको हम है। लोग बड़े धार्मिक मालूम होते हैं इस हिस्से के। उस पादरी ने तरकीब से, पीछे के दरवाजे से सिद्ध करना चाहते हैं कि जो भी कहा, पहली दफा यह मुझको भी दिखाई पड़ रही है भीड़। इसके| हम कहते हैं वह ठीक है। 466 Jal Education International 2010_03 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट पर्दो की ओट में - Maithi मैंने सुना है चार मेंढक, वर्षा में बाढ़-आयी एक नदी पर डूबने की गति तो सारी दुनिया को पता है। तीनों ही ठीक हो और तीनों को थे। एक लक्कड़ बहता आ गया, वे उस पर सवार हो गए। ही गलत भी। क्योंकि तुम छोटे-से सत्य को बहुत बड़ा करके बड़े प्रसन्न हुए। लक्कड़ बहने लगा। बाढ़ थी तेज, नदी भागी कह रहे हो। तुम खंड सत्य को अखंड करने की चेष्टा कर रहे जा रही है सागर की तरफ। पहले मेंढक ने कहा, यह लक्कड़ हो। अंश सत्य को सिद्ध कर रहे हो कि वही पूरा सत्य है। संसार का श्रेष्ठतम लक्कड़ है। देखो तो कितना जीवंत और | महावीर जैसा रहा होगा यह मेंढक–स्यातवादी। उसने कहा, गतिवान ! कैसा बहा जाता है। लक्कड़ तो बहुत देखे, मगर ऐसा | तुम तीनों ही ठीक हो। साधु-चरित्र रहा होगा यह मेंढक। श्वेत प्राणवान लक्कड़ कभी नहीं देखा। न कभी हुआ, न कभी | लेश्या को उपलब्ध रहा होगा यह मेंढक। उसने कहा तुम तीनों होगा। दूसरे ने कहा, लक्कड़ नहीं बह रहा है महानुभाव! नदी ही ठीक हो और तीनों गलत भी। गलत इसलिए कि तुम अंश वाद छिड़ गया। दूसरे ने कहा, लक्कड़ तो और | को पूरा सिद्ध कर रहे हो। और सही इसलिए कि तुम्हारी तीनों लक्कड़ों जैसा ही है। कुछ विशिष्टता इसमें नहीं है। जरा गौर से की बातों में सत्य की कोई झलक है। तो देखो। बह रही है नदी। नदी के बहने के कारण लक्कड़ भी तीनों बहुत नाराज हो गए। यह बात तो तीनों के बर्दाश्त के बह रहा है। | बाहर हो गई। क्योंकि उनमें से कोई भी यह मानने को राजी नहीं तीसरे ने कहा, न लक्कड़ बहता, न नदी; विवाद फिजूल है। था कि उसका वक्तव्य पूर्ण सत्य नहीं है। और न ही उनमें से कोई तुम दोनों अंधे हो। तुम आधा-आधा देख रहे हो। तुम अधूरा यह बात मानने को राजी था कि उसके विराधी के वक्तव्य में भी देख रहे हो। आंखें साफ चाहिए तो असली बात तुम्हें समझ में सत्य का अंश हो सकता है। आ जाए—जैसा कि सभी धर्मशास्त्रों ने कही है—कि सब | और तब एक चमत्कारों का चमत्कार घटित हुआ। मेंढकों में प्रवाह तो मनुष्य के मन में हैं। सब गति मन की है। सब शायद ऐसा न होता रहा हो, मनुष्य में सदा होता रहा है। लेकिन दौड़-धूप मन की है। ऐसा मैं देखता हूं कि न तो नदी का सवाल उस दिन मेंढकों में भी हुआ। वे तीनों इकट्ठे हो गए और चौथे को है, न लक्कड़ का, यह मन में बह रही विचारों की धारा है, धक्का देकर लक्कड़ से बाढ़ में गिरा दिया। उन्होंने कहा, बड़े जिससे जीवन में परिवर्तन दिखाई पड़ता है। मन ठहर जाए, सब आए साधु बने! बड़े ज्ञानी होने का दावा कर रहे हैं। वे तीनों ठहर जाता है। शास्त्रों में खोजो तो तुम्हें पता चलेगा। इकट्ठे हो गए। उन्होंने अपना विवाद छुड़ा दिया, छोड़ दिया विवाद चलने लगा। कोई निर्णय तो करीब आता दिखाई न विवाद क्योंकि यह उन तीनों को ही दुश्मन मालूम पड़ा। और पड़ा। आखिर तीनों को खयाल आया कि चौथा चुप बैठा है। एक बात में वे राजी हो गए कि यह तो कम से कम गलत है; चौथा मेंढक चुप बैठा था। कुछ बोला ही नहीं था। सबकी सुन बाकी निर्णय हम पीछे कर लेंगे। रहा था, गुन रहा था, लेकिन बोला कुछ भी नहीं था। उन तीनों ने यही अवस्था महावीर के साथ हुई। और सारे दर्शनों के दावे कहा कि अब कुछ निर्णय तो होता नहीं। निर्णय होने का उपाय हैं, महावीर का कोई दावा नहीं है। इसलिए महावीर किसी को भी नहीं। भी रुचे नहीं। महावीर ने कहा, वेदांत भी ठीक है, सांख्य भी इसलिए तो संसार में विवाद सदियों से चलते रहे हैं, सनातन ठीक है, वैशेषिक भी ठीक है, मीमांसा भी ठीक है, लेकिन सभी चलते रहे हैं। कुछ निर्णय नहीं होता। नास्तिक-आस्तिक के | अंश सत्य हैं। यह बात किसी को जंची नहीं। इसलिए एक बहुत बीच क्या निर्णय हुआ? जैन-हिंदू के बीच क्या निर्णय हुआ? महत्वपूर्ण विचार-दर्शन महावीर ने दिया, लेकिन अनुयायी वे | मुसलमान-ईसाई के बीच क्या निर्णय हुआ? निर्णय तो कभी ज्यादा न खोज पाए। क्योंकि सभी नाराज हो गए। वेदांती भी होते ही नहीं। नाराज हुआ। उसने कहा, अंश सत्य? हमारा और अंश तो उन तीनों ने कहा कि आप चुप हैं। आप कुछ कहें। उस सत्य? सांख्य भी नाराज हुआ कि हमारा और अंश सत्य? चौथे मेंढक ने कहा, विवाद का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि तम अहंकार को बड़ी चोटें लगीं। तीनों ही ठीक हो। नदी भी बह रही है, लक्कड़ भी बह रहा, मन | महावीर जैसा अंधेरे में फेंक दिया और कोई व्यक्तित्व इतिहास 467 2010_03 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 में खोजना मुश्किल है। महावीर के विरोध में सभी इकट्ठे हो तो परमात्मा की है। अगर अंधेरा है तो मेरा है। ऐसा जिसने गए। यह बहुत चमत्कार की बात है। समझा, उसका कृष्ण लेश्या का पर्दा टिक नहीं सकता, अपने जैन शास्त्रों के खिलाफ भारत के सभी शास्त्र हैं। वे सभी | आप गिर जाता है। उसके आधार न रहे, सहारे न रहे। उनका खंडन करते हैं। क्योंकि यह जो बात है, यह बात किसी के | 'मंदता, बुद्धिहीनता, अज्ञान और विषय लोलुपता, ये संक्षेप अहंकार को टिकने नहीं देती। आदमी कहता है या तो मैं पूरा में नील लेश्या के लक्षण हैं।' लत है। और पुरा गलत देखें कौन सिद्ध करता फिर कृष्ण लेश्या के पीछे छिपा हआ नीला पर्दा है। अंधेरे के है! मेरे रहते कोई सिद्ध न कर पाएगा। और जब तक तुम ही पार गहरी नीलिमा का पर्दा है। देखने को राजी न हो, सत्य तो दिखाया नहीं जा सकता। इसलिए | 'मंदता, बुद्धिहीनता, अज्ञान और विषय लोलुपता...।' तुम विवाद में पड़े रह सकते हो। कुछ न कुछ हम मांग ही रहे हैं-लोलुप। हम बिना मांगे महावीर कहते हैं, समझने से भी, समझाने से भी न मानना, क्षणभर को नहीं हैं। हम बिना मांगे रहते ही नहीं हैं। हमारा दिखाई भी पड़ने लगे तो झुठलाना, आंख को भी झुठलाना, मांगना चलता है दिन-रात, अहर्निश। हम भिखमंगे हैं। हम अंतर्दष्टि खलने लगे तो भी पत्थर अटकाना, कृष्ण लेश्या को एक क्षण को भी अपने सम्राट होने में थिर नहीं होते। मजबूत करने के उपाय हैं। ठीक इनके विपरीत चलो, कृष्ण तुमने कभी देखा? कभी भी क्षणभर को अगर मांग बंद हो लेश्या अपने आप उखड़ जाती है। जड़ें टूट जाती हैं। पर्दा गिर जाए तो एक अपूर्व उल्लास आ जाता है। उस घड़ी में तुम याचक जाता है। नहीं होते। उस घड़ी में समाधि के करीब सरकने लगते हो। जैसे शिखरों से ऊपर उठने देती न हाय लघुता आपी ही मांग आयी कि फिर याचक हुए, फिर छोटे हुए। या तुमने यह मिट्टी पर झुकने देता है देव, नहीं अभिमान हमें देखा कि जब भी तुम किसी से कुछ मांगते हो तो भीतर कुछ तो न तो हम शिखरों के साथ एक होने का दावा कर पाते हैं। / | सिकुड़ जाता है? जब तुम किसी को कुछ देते हो, भीतर कुछ शिखरों से ऊपर उठने देती न हाय लघुता आपी फैल जाता है? देने का मजा, मांगने की पीड़ा तुम्हें अनुभव नहीं आदमी की सीमा है। आदमी लघु है, अंश है। विराट का बड़ा हुई? किसी से कुछ मांगकर देखो। तुम उस मांगने के खयाल से छोटा-सा आणविक कण है। ही छोटे होने लगते हो, संकीर्ण होने लगते हो। तुम्हारी सीमा शिखरों से ऊपर उठने देती न हाय लघुता आपी सिकड़ने लगती है। तम बंद होने लगते हो। भय पकड़ने लगता और अड़चन दूसरी है और भी, और भी बड़ी है। देगा, नहीं देगा? मिलेगा, नहीं मिलेगा? अगर मिला भी मिट्टी पर झुकने देता है देव, नहीं अभिमान हमें | तो भी मांगने में तुम छोटे और दीन तो हो ही गए। और अहंकार दे दिया है, झुक भी नहीं सकते। उठ भी नहीं | इसलिए एक और बहुत आश्चर्यजनक घटना है कि जिससे भी सकते क्योंकि सीमा है। झुक भी नहीं सकते क्योंकि अहंकार है। तुम्हें कुछ मिलता है, उसे तुम कभी क्षमा नहीं कर पाते। धन्यवाद इन दोनों के बिबूचन में जो पड़ा है, जो जीवन के सीधे-सीधे सत्य | तो दूर, तुम किसी से मांगने गए कि दस रुपये चाहिए अगर वह को स्वीकार नहीं करता कि अहंकार का दावा गलत है। आत्मा | दे दे तो तुम उसे कभी क्षमा नहीं कर पाते। भीतर गहरे में तुम का दावा सही है, अहंकार का दावा गलत है। | नाराज रहते हो। उस आदमी ने तुम्हें छोटा कर दिया। उसने हाथ फर्क क्या है दावों में? अहंकार यह कह रहा है कि मैं पृथक ऊपर कर लिया, तुम्हारा हाथ नीचे हो गया। और अपने बल से सर्वशक्तिमान हूं। आत्मा यह कहती है इसलिए सूफी कहते हैं, नेकी कर और कुएं में डाल। अच्छा साथ-साथ, सबके संग, सबके साथ एक इस विराट की मैं भी करना लेकिन उसकी घोषणा मत होने देना। उसको जल्दी से कुएं एक छोटी तरंग हूं। अगर मुझमें कोई शक्ति है तो वह विराट की में डाल देना, नहीं तो तुम्हें कोई क्षमा न कर सकेगा। क्योंकि है। अगर मुझमें कोई निर्बलता है, वह मेरी है। अगर भूल-चूक जिसके साथ तुम अच्छा करोगे, वहीं साथ-साथ एक घटना और है, मेरी है। अगर कुछ सत्य है तो विराट का है। अगर रोशनी है घट रही है कि तुमने उसे छोटा कर दिया। और कोई क्षमा नहीं 468 2010_03 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि षट पर्दो की ओट में करता किसी को छोटा करने के कारण। है—विषय लोलुपता। वह कुछ न कुछ मांगता ही रहता है। सहायता करना, लेकिन इस तरह करना कि जिसकी तुम उसकी लोलुपता उसके पर्दे को मजबूत करती है। सहायता करो, उसे पता भी न चले कि सहायता की गई। इस 'अज्ञान, बुद्धिहीनता, मंदता...।' तरह करना कि उसे लगे कि देनेवाला वही है, लेनेवाले तुम हो। मंदता H मिडियोक्रिटी, बड़े लोगों के ऊपर छाती पर पत्थर की इस तरह देना कि देनेवाले को देनेवाले की अकड़ न पकड़े और | तरह बैठी है। कोई भी मंद होने को पैदा नहीं हुआ है। परमात्मा लेनेवाले को पता ही न चले कि किसी ने उसे दिया है। तो असाधारण और अद्वितीय चेतनाएं ही पैदा करता है। अगर पश्चिम का एक बहुत बड़ा धनपति मारगन जब मरा, तो मरने मंद हो तो तुम अपने कारण हो। मंद हो तो तुमने अपने को के पहले उसे किसी ने पूछा कि तुमने इतनी अटूट धनराशि इकट्ठी निखारा नहीं। मंद हो तो तुम ऐसे हीरे हो जिसको साफ नहीं की है और तुम्हारे नीचे हजारों बड़ी प्रतिभा के और बुद्धिमान किया गया है, जिस पर पालिश नहीं किया गया। अनगढ़ पड़े लोग काम करते थे। तुमने इतने-इतने बुद्धिमानों का कैसे हो। और कोई और तो तुम पर निखार ला नहीं सकता, तुम्ही ला उपयोग किया? उसने कहा, राज छोटा-सा है। मैंने कभी उन्हें सकते हो। तो जो तुम हो उससे तृप्त मत हो जाना।। ऐसा अनुभव नहीं होने दिया कि मैं उन पर कोई अहसान कर रहा | अब खयाल रखना, लोग अतृप्त हैं, उससे जो उनके पास है; हूं। और मैंने कभी ऐसा भी अनुभव नहीं होने दिया कि वे मेरी | अपने से तो लोग बिलकुल तृप्त हैं। उनको बड़ी कार चाहिए, बात मानकर कोई काम कर रहे हैं। मेरी सदा यह चेष्टा रही कि यह अतृप्ति है, बड़ा मकान चाहिए, यह अतृप्ति है। तिजोड़ी में उनको सदा यह लगता रहे कि वे ही मुझ पर अहसान कर रहे हैं | और धन चाहिए, यह अप्ति है। लेकिन अपने से तप्त हैं कि जो और उनकी बातें मानकर मैं चल रहा है। | हैं, वह बिलकुल ठीक हैं। तो मंद ही रहेंगे। वह आदमी बडा कशल था। उसको अगर कोई काम भी अपने से अतप्त होना, और जो मिला है उससे तप्त होना। करवाना होता तो अपने बीस मित्रों को इकट्ठा कर लेता। उनसे छोटा मकान भी काम दे देगा। कार न हुई तो भी चल जाएगा। कहता कि यह समस्या आ गई है, अब हल खोजना है। खुद तिजोड़ी में बहुत न धन हुआ तो भी पर्याप्त है। वस्तुओं से तृप्त चुपचाप बैठा रहता। अब बीस आदमी जहां इकट्ठे हों, बीस हल होना और चैतन्य से तृप्त मत होना; नहीं तो तुम मंद रह आते। उनमें से जो हल उसका अपना होता, वह उसको स्वीकार जाओगे। चैतन्य को तो घिसते ही रहना। उसको किसी भी क्षण कर लेता। लेकिन अपनी तरफ से वह कभी न कहता कि यह, ऐसा मत सोचना कि आखिरी घड़ी आ गई। उसमें और निखार व है। वह चप बैठा रहता। वह सझाव को आने आ सकते हैं। उसमें बड़े अनंत निखार छिपे हैं। उसमें इतने देता। ठीक समय की प्रतीक्षा करता। कोई न कोई उस सुझाव निखार छिपे हैं कि तुम्हारा चैतन्य एक दिन सच्चिदानंद परमात्मा को देगा ही। या अगर ठीक सुझाव न आता, कुछ हेर-फेर से हो सकता है। आता, तो वह थोड़ी तरमीम करता, वह थोड़े संशोधन पेश मगर बड़ी चमत्कार की बात है। लोग अपने से बिलकुल तृप्त करता, लेकिन वह भी सुझाव की तरह; आज्ञा की तरह नहीं। हैं। इतने ज्यादा तृप्त हैं कि अगर तुम कहो भी उनसे तो वे कहेंगे, उसने बड़े-बड़े लोगों से काम लिया। क्या कह रहे हैं? मुझमें और परिष्कार! मैं तो परिष्कृत हूं ही, मरते वक्त वह कहकर गया कि मेरी कब्र पर एक पत्थर लगा अगर कुछ अड़चन है तो थोड़ी चीजें कम हैं, वे बढ़ जाएं। देना कि यहां एक आदमी सोता है, जिसने अपने से ज्यादा | लेकिन चीजें बढ़ने से तुम्हारा चैतन्य बढ़ेगा? तुम अगर बुद्ध हो बुद्धिमान लोगों से काम लेने की कुशलता दिखाई। उसने कहा तो गरीब होकर बुद्ध रहोगे, अमीर होकर बुद्धू रहोगे। तुम अगर कि मेरे सारे इतने विराट धन को इकट्ठा कर लेने का राज इतना है बुद्ध हो तो लंगोटी लगाकर बुद्ध रहोगे, सिंहासन पर बैठकर कि मैंने कभी किसी को अनुभव नहीं होने दिया कि वह मुझसे बुद्ध रहोगे। छोटा है। बुद्धिमान आदमी वस्तुओं में शक्ति व्यय नहीं करता। यह जो नील लेश्या से भरा हुआ आदमी है, याचक होता बुद्धिमान आदमी सारी शक्ति चैतन्य की जागृति में लगाता है। 1469 ___ 2010_03 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग: 2 महावीर कहते हैं, 'मंदता, बुद्धिहीनता, अज्ञान।' एक दौड़ हुई जिसमें पहले नंबर पर मैं रहा, दूसरे नंबर पर एक कोई अज्ञानी होने को पैदा नहीं हुआ है, लेकिन अधिकतर लोग सिपाही और तीसरे नंबर पर वह, जिसका यह कटोरा है। अज्ञानी जीते हैं, अज्ञानी मरते हैं। उसका कारण है कि कोई यह छीना-झपटी है। वस्तुओं के जगत में तो बड़ी छीना-झपटी स्वीकार ही नहीं करता कि मैं अज्ञानी हूं। लोग तो मानकर चलते है। तुम अपने कटोरे पर गौर करना, वह बहुत हाथों में रह चुका हैं कि वे ज्ञानी हैं। जब तुम पहले से मान ही लिए कि तुम ज्ञानी है। तुम्हारा कटोरा तुम्हारा नहीं है। तुम नहीं थे, तब भी था। तुम हो तो तुमने अज्ञानी होने की कसम खा ली। अब तुम कभी ज्ञानी नहीं रहोगे, तब भी होगा। तुम्हारा कटोरा बड़ा झूठा है। न न हो सकोगे। सीलबंद! अब तुम अज्ञानी ही रहोगे। तमने प्रण | मालम कितने लोगों के हाथों में रह चका है। छीना-झपटी चल कर लिया कि हमको अज्ञानी ही रहना है। रही है। कटोरा हाथ बदलता रहता है। एक हाथ से दूसरे हाथ, ज्ञान की तरफ जिसे जाना है, उसे स्वीकार करना पड़ेगा कि दूसरे से तीसरे हाथ; हाथवाले आते हैं, चले जाते हैं, कटोरा अभी मैं अज्ञानी हूं और इस अज्ञान को आत्यंतिक मानने का कोई चलता रहता है। यह कटोरे की यात्रा है। कारण नहीं है; इसमें निखार हो सकते हैं। जैसे बीमार आदमी एक तुम्हारे भीतर की चेतना है, जो कुंआरी है, जूठी नहीं। उसे इलाज करता है तो स्वस्थ हो जाता है। दुर्बल आदमी व्यायाम | जगाओ। उससे ही तृप्ति मिलेगी। ये कटोरों को जितनी देर तुम करता है तो शक्तिशाली हो जाता है। ऐसे ही अज्ञान किसी की | सम्हाले रहोगे...और जैसा तुमने दूसरों से छीन लिया है, कोई न स्थिति नहीं है। तुमने अभ्यास नहीं किया, तुमने श्रम नहीं किया | कोई तुमसे छीन ले जाएगा। यह ज्यादा देर तुम्हारे हाथ में भी ज्ञान के लिए। तुम क्षुद्र बातों की छीना-झपटी में लगे रहे और रहनेवाला नहीं है। यह कटोरे की आदत नहीं है। यह संभव भी विराट से चूकते रहे। नहीं है, क्योंकि यहां इतने लोग छीनने के लिए उत्सुक हैं। यहां और मजा यह है कि विराट के लिए कोई छीना-झपटी नहीं | तो सिर्फ एक चीज तुम्हारे हाथ में रह जाती है, वह तुम्हारे चैतन्य करनी थी। कोई प्रतियोगिता ही नहीं है वहां। तम अकेले हो। की बात है। उसे कोई नहीं छीनता। उसे कोई छीनना भी चाहे तो तुम्हें अगर अपनी बुद्धि पर निखार लाने हैं, अगर तुम्हें अपनी छीन नहीं सकता। उसे मौत भी नहीं छीन सकती। बुद्धि में हीरे जड़ने हैं तो कोई झगड़ा नहीं है, कोई से झगड़ा नहीं महावीर जब कहते हैं अज्ञान, तो उनका अर्थ है, जो व्यक्ति है। क्योंकि यहां किसी को मतलब ही नहीं है बुद्धि से। तुम्हें ऐसी चीजों को जुटाने में लगा है जिन्हें मौत छीन लेगी, वह अगर प्रतिभा को जगाना है तो कोई से तुम्हारा कोई झगड़ा नहीं, अज्ञानी है। जो व्यक्ति ऐसी चीज की खोज में लगा है, जिसे कोई स्पर्धा नहीं है, किसी को लेना-देना नहीं है। लेकिन अगर | मृत्यु भी न छीनेगी, वही ज्ञानी है, वही बुद्धिमान है। जो सार को तुम्हें तिजोड़ी बड़ी करनी है तो करोड़ों लोग स्पर्धी हैं। खोज रहा, वही बुद्धिमान है। जो स्वयं को खोज रहा, वही मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन एक रात गए अपने घर लौटा। | बुद्धिमान है। और आते ही उसने अपनी पत्नी के हाथों में सोने का एक कटोरा 'जल्दी जो रुष्ट हो जाता है, दूसरों की निंदा करता है, दोष रख दिया। पत्नी उसकी यह भेंट देखकर प्रसन्न भी हुई और लगाता है, अति शोकाकुल होता है, अत्यंत भयभीत होता है, ये आश्चर्यचकित भी। क्योंकि मुल्ला कुछ काम तो करता नहीं। कापोत लेश्या के लक्षण हैं।' सोने का कटोरा ले कहां से आया है? थोड़ी डरी भी। कटोरा तीसरा H जल्दी रुष्ट हो जाना, दूसरों की निंदा करना, दोष लाने के विषय में जब पत्नी ने उससे प्रश्न किया जो वह बोला, | लगाना, अति शोकाकुल होना, अत्यंत भयभीत होना। इसे मैंने एक दौड़ में जीता है। दौड़ में? पत्नी को और भी | भयभीत हम सभी हैं—अकारण। क्योंकि जो होना है, होगा। आश्चर्य हुआ क्योंकि मुल्ला और दौड़े! बैठ जाए तो उठता | उससे भय का कोई अर्थ नहीं। जैसे मौत होनी है, होगी। उससे मश्किल से है, उठ जाए तो चलता मश्किल से है...दौड़े। लेट भय क्या? निश्चित है। होगी ही। भयभीत होओ या न होओ, जाए तो बैठता मुश्किल से, दौड़े! दौड़ में? पत्नी को और भी होगी ही। देह जराजीर्ण होनी है, होगी। बुढ़ापा आना है, आएगा आश्चर्य हुआ। कैसी दौड़? मुल्ला ने कहा, अजी, अभी-अभी ही। उससे भयभीत क्या होना है, जो होना ही है? लेकिन हम 2010_03 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट पर्दो की ओट में बड़े भयभीत हैं। सही हैं तो भी निर्भय, आस्तिक सही हैं तो भी निर्भय। हम जीवन के तथ्यों से भयभीत हैं। हम जीवन के तथ्यों को __इसको ही मैं कहता हूं परम आस्तिकता। इस आदमी ने देख झुठलाना चाहते हैं। हम चाहते हैं सब बूढ़े हुए, हम न हों। सब ली बात। इस आदमी को विवेक उपलब्ध हुआ। इस आदमी के मरें, हम न मरें, जीवन हमारे लिए अपवाद कर दे। तो हम कंप पास दृष्टि है, अंतर्दृष्टि है, आंख है। रहे हैं। और हम जानते भी हैं गहरे में कि यह होनेवाला नहीं है। तुम जरा जीवन में देखना। तुम कहते हो कि कल दिवाला न अपवाद कभी कोई हुआ नहीं इसलिए डर भी लगा है। पैर निकल जाए, इससे भयभीत हो रहे हैं। या तो निकलेगा, या नहीं जमाकर खड़े हैं, जानते हुए कि पैर उखड़ेंगे। निकलेगा। निकल गया तो क्या करना है? झंझट मिटी। इस भय के कारण हम क्या-क्या कर रहे हैं, थोड़ा सोचो। इस निकल ही गया। नहीं निकला तो परेशान क्यों हो रहे हो? भय के कारण हम धन इकट्ठा करते हैं कि शायद धन से थोड़ा महावीर कहते हैं, जो होगा, होगा; तुम नाहक कंपे जा रहे हो। बल आ जाए। इस भय के कारण हम प्रतिष्ठा इकट्ठी करते हैं कि तुम्हारे कंपने से होने में तो कोई फर्क पड़ता नहीं। तो कम से कम शायद नाम-धाम लोक में ख्यात हो जाए तो कुछ सहारा मिल कंपन तो छोड़ो। जाए। भय के कारण हम पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं। इस भय तीसरी लेश्या है अधर्म की। इसलिए भय से जो भगवान भय से हम भगवान को निर्मित करते हैं। सोचते हैं, शायद किसी की पूजा करते हैं, वे धर्म में प्रविष्ट नहीं होते। वे अभी अधर्म की का सहारा नहीं, अदृश्य का सहारा मिल जाए। मगर जो आदमी | सीमा में ही हैं। चौथी लेश्या से धर्म शुरू होता है। पास जा रहा है. वह जा ही न सकेगा। ये जो भयभीत लोग हैं. ये जल्दी रुष्ट हो जाते हैं। भयभीत महावीर ने कहा, अभय पहला चरण है। अभय का अर्थ आदमी शांत रह ही नहीं सकता। उसके भीतर ही कंपन जारी है। हुआ, जो नहीं होनेवाला है, वह नहीं होगा; उसका तो भय करना वह रुष्ट होने को तत्पर है। वह छोटी-छोटी बातों से दुखी होता क्या? जो होनेवाला है, वह होगा; उसका भय करना क्या? है। बड़ी क्षुद्र बातों से दुखी होता है। सुकरात मरता था; तो उसके एक शिष्य ने पूछा कि आप तुमने कभी सोचा, कैसी छोटी-छोटी बातें तुम्हें दुखी कर जाती भयभीत नहीं मालूम होते। जहर घोंटा जा रहा है, जल्दी ही हैं! अति क्षुद्र बातें। तुम सोचो तो खुद ही हंसोगे। पत्नी को प्याला भरकर आपके पास आ जाएगा। छह बजे आपको प्याला चाय लाने में पांच मिनट देरी हो गई कि बस तुम रुष्ट हो गए। पी लेना है। आप मरने को तत्पर बैठे हैं। आप भयभीत नहीं | और ऐसे रुष्ट हो गए कि शायद रोष दिनभर रहे। मालूम होते। सुकरात ने क्या कहा? सुकरात ने कहा, मैंने | लोग कहते हैं, बिस्तर के गलत कोने से उतर गए। गलत से सोचा कि या तो प्याला पीकर मैं मर ही जाऊंगा, कुछ बचेगा ही भी उतर गए हो तो उतर गए, खतम हुआ। मगर अब नहीं, तो भय क्या? भय करने को ही कोई न बचेगा। और या, दिनभर...वह जो बिस्तर के गलत कोने से उतर गए हैं, वह दूसरी संभावना है कि जैसा लोग कहते हैं, आत्मा अमर है। दिनभर पीछा कर रहा है। किसी आदमी ने नमस्कार न किया कि जहर का प्याला पीकर शरीर ही हटेगा, आत्मा बचेगी; तो फिर दिनभर छाया की तरह कांटा चुभता रहता है। कोई आदमी भय क्या? बचूंगा ही। देखकर हंस दिया, रुष्ट हो गए। सुकरात कह रहा है, दो ही तो विकल्प हैं कि या तो बिलकुल ऐसे छुई-मुई, ऐसे दीन होकर संभव नहीं है कि तुम कभी मिट जाऊंगा। मिट जाऊंगा तो क्या भय? भयभीत होने के आत्मवान हो सको। जरा देखो भी तो, किन बातों पर रुष्ट हो रहे लिए कोई कारण ही नहीं। कोई भय करनेवाला ही नहीं। बात ही हो। इन बातों में कुछ सार भी है? समाप्त हो गई। कहानी का ही अंत हो गया। तो में निश्चित हूं। अगर तुम गौर से देखोगे तो सौ में से निन्यानबे तो तुम असार और अगर बच गया जैसा आत्मज्ञानी कहते हैं तो भय की पाओगे, जिनमें रुष्ट होने का कोई कारण नहीं है। और एक जो क्या जरूरत? तुम सार की पाओगे, उसके साथ तुम पाओगे कि अगर तुम रुष्ट या तो नास्तिक सही होंगे, या आस्तिक सही होंगे। नास्तिक हो जाओ तो बिगड़ जाएगी बात। वह जो सार की बात है, अगर 2010_03 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सूत्र भाग : 2 रुष्ट न हुए तो ही सम्हल पाएगी। और बोकोजू कहता है, वही बात उसके जीवन को तो जो व्यर्थ की बातें हैं उनके कारण हम रुष्ट होते हैं. अपने को बदलनेवाली बन गई। जो चीज टट गई. उसने सोचा. समय आ बिगाड़ते हैं। और जो सार्थक बातें हैं, रुष्ट होकर उन बातों को | गया था। जो साथी छूट गए। उसने सोचा, समय आ गया था। बिगाड़ लेते हैं। जो प्रियजन चल बसे, उसने सोचा, समय आ गया था। कोई क्रोध में कब कौन आदमी सम्यक व्यवहार कर पाया? रुष्ट | नाराज हो गया तो उसने समझा, समय आ गया था। बोकोजू ने होकर आदमी तो मदांध हो जाता है। उस अंधेपन में कौन ठीक | कहा कि यह बात मेरे लिए सूत्र बन गई। यह अहर्निश मेरे मन में चल पाया? जितनी कठिन समस्या हो सामने, उतनी ही शांत रहने लगा कि वही होता है, जिसका समय आ गया था। चित्त की अवस्था चाहिए. तो ही तम उसे हल कर पाओगे। धीरे-धीरे-धीरे कोई भी चीज फिर शोकाकल न करती। लोग कहते हैं बड़ी समस्या में उलझा हआ हूं इसलिए बड़ा | '...अति शोकाकुल होना, अत्यंत भयभीत होना, ये कापोत बेचैन हूं। बेचैन हो तो समस्या सुलझेगी कैसे? सुलझाएगा | लेश्या के लक्षण हैं।' कौन? यह तो तुम बड़ा उलटा कर रहे हो। जब कोई समस्या न | हिंदू शास्त्रों में वचन है : 'साहसे श्री वसति।' साहस में श्री हो तब बेचैन हो लेना, कोई हर्जा नहीं। जब समस्या हो तब तो | बसती है, श्रेय बसता, श्रेयस बसता-अभय में। बड़े चैन में हो जाओ। तब तो बड़े शांत हो जाओ क्योंकि हल | __जीवन को साहस से पकड़ो। ये कंपते हुए हाथ बंद करो। ये तुम्हें करना है। शांत हृदय से हल आ सकेगा। हाथ व्यर्थ कंप रहे हैं। इन हाथों के कंपने के कारण तुम जीवन पर 'दोष लगाना, निंदा करना, अति शोकाकुल हो जाना...।' पकड़ ही नहीं उठा पाते। तुम जीवन को सम्हाल ही नहीं पाते। छोटी-छोटी चीजों पर-फाउंटेनपेन ठीक नहीं चल रहा, | तुम्हारे भय के कारण ही यह चेतना की लौ कंपती जाती है। ये खर्र-खर्र की आवाज कर रहा है, शोकाकुल हो गए। अपने झकोरे तुम्हारे भय से आते हैं, किसी और पवन से नहीं। व्यवहार को जांचते रहो, देखते रहो।। और जब तक तुम इन तीन पर्दो के पार न हो जाओ तब तक बोकोजू झेन फकीर हुआ; वह जब अपने गुरु के पास था, | तुम्हें सुकून, शांति का कोई अनुभव न होगा। छोटा बच्चा था, उसका काम था गुरु का कमरा साफ करना। सुकून-ए-दिल जहाने-बेस-ओ-कम में ढूंढने वाले कमरा साफ कर रहा था कि गुरु के पास एक बड़ी बहुमूल्य मूर्ति यहां हर चीज मिलती है सुकून-ए-दिल नहीं मिलता थी, बड़ी बहुमूल्य मूर्ति थी बुद्ध की, वह गिर गई। वह चकनाचूर यहां हृदय की शांति नहीं मिलती-इस संसार में। और यह हो गई। वह बहुत घबड़ाया। गुरु को उस मूर्ति से बड़ा लगाव जो संसार तुम जानते हो, इन तीन पर्यों में निर्मित है: कृष्ण है। वह रोज़ दो फूल उस मूर्ति के चरणों में चढ़ा जाता है। और लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या। इनके पार धर्म का सदियों पुरानी मूर्ति है। गुरु के गुरु के पास थी, और गुरु के गुरु जगत शुरू होता है। के पास थी। और पीढी दर पीढी वसीयत की तरह मिली है। यह 'त्याग, कार्य-अकार्य का ज्ञान, श्रेय-अश्रेय का विवेक, क्या हो गया? सबके प्रति समभाव, दया, दान में प्रवत्ति. ये पीत या तेजो लेश्या वह घबड़ा ही रहा था कि तभी गुरु कमरे में आ गया। तो उसने के लक्षण हैं।' मूर्ति अपने दोनों हाथों के पीछे छिपा ली और उसने गुरु से कहा, 'कार्य-अकार्य का ज्ञान'-क्या करने योग्य है, क्या करने एक बात पूछनी है। जब कोई आदमी मरता है तो क्यों मरता है? | योग्य नहीं है। जो भी करते हो सोचकर करो, तो उसके गुरु ने कहा, उसका समय आ गया। तो उसने कहा कि जो न करने से चल जाए उसे करो मत। जिसके किए चल ही न यह आपकी मूर्ति का समय आ गया था। सके, उसी को करो। संरक्षित करो अपनी ऊर्जा को, व्यर्थ मत गुरु हंसा और उसने कहा, जो तू मुझे समझा रहा है, अपने गंवाओ। इस ऊर्जा से हीरे खरीदे जा सकते हैं, तुम जीवन में याद रखना। क्योंकि तेरे जीवन में बहुत मूर्तियों का कंकड़-पत्थरों पर गंवा रहे हो। समय आएगा। जब टूटे तो याद रखना, समय आ गया था। कार्य-अकार्य का ज्ञान'—क्या है करने योग्य ? जिससे 2010_03 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट पर्दो की ओट में आनंद बढ़े वह करने योग्य है। जिससे सत्य की प्रतीति बढ़े वह कि मैं तुम्हारे लिए कुछ देने को उत्सुक और तत्पर हूं। कि तुम्हें | करने योग्य है। जिससे अंधेरा बढ़े, दुख बढ़े, असत्य बढ़े, वह कुछ देकर मैं आनंदित होता हूं। करने योग्य नहीं है। - जो व्यक्ति दूसरों से लेकर ही आनंदित होता है, वह केवल तो सोचो। सोचकर, सम्हलकर चलो। थोड़ी सावधानी, थोड़े सुख ही जानता है, आनंद नहीं जानता। और सब सुख के पीछे सावचेत बनो। चौबीस घंटे में तुम इतनी बातें कर रहे हो कि दुख छिपा है। क्योंकि जब तुम दूसरों से छीनते हो, तुम दूसरों को अगर तुम गौर से देखोगे तो पाओगे, उनमें से नब्बे प्रतिशत तो छीनने के लिए निमंत्रण दे रहे हो। तुम शत्रुता खड़ी करते हो, करने योग्य ही नहीं हैं। जब तुम छीनते हो। जब तुम देते हो, तब तुम मित्रता खड़ी करते कितनी बातें तुम लोगों से कहते हो, न कहते तो क्या हर्ज था? हो। देने में आनंद है, और आनंद के पीछे कोई दुख नहीं है। और उन कहने के कारण कितनी झंझटों में पड़ जाते हो। ___महावीर कहते हैं, समभाव। चीजों को एक ही दृष्टि से इंगलैंड के बड़े विचारक एच. जी. वेल्स ने अपनी आत्मकथा देखना। अगर गौर से देखो तो गुलाब का फूल भी मिट्टी है। में लिखा है कि अगर लोग चुप रहें तो दुनिया में से निन्यानबे चंपा का फूल भी, चमेली का फूल भी, आदमी की देह भी, प्रतिशत झगड़े समाप्त हो जाएं। बोलने से झगड़े खड़े होते हैं। आकाश में खड़े हुए ये वृक्ष भी, हिमालय के शिखर भी, सभी बोले कि फंसे। कुछ कहा कि उलझे। चुप रह जाओ। मिट्टी के खेल हैं। सभी एक ही ऊर्जा के खिलौने हैं। अगर तुम टेलिग्राफिक होना चाहिए आदमी को। जैसे तार करने गए हैं धीरे-धीरे देखना शुरू करो तो तुम पाओगे, सारा जीवन एक की दफ्तर में पोस्ट आफिस के, एक-एक पैसे के दाम हैं; एक-एक ही अनेक-अनेक रूपों में अभिव्यक्ति है। एक की पंक्ति के, एक-एक शब्द के दाम हैं। तो आदमी सोच-सोचकर अभिव्यक्ति–तो समता पैदा होती है। निकालता है कि दस शब्द में काम चल जाए। उतना ही बोलो, जितना बोलने से काम चल जाए। उतना ही आज ही तक सिर्फ है यह वायु भी अनुकूल चलो, जितना चलने से काम चल जाए। उतने ही संबंध बनाओ, रात भर ही के लिए है आंख में सपना जितनों से काम चल जाए। तो तम धीरे-धीरे पाओगे. जीवन में आंजनी कल ही पड़ेगी लोचनों में धल एक संयम अवतरित होने लगा। इसलिए हर फूल को गलहार करता हूं 'कार्य-अकार्य का ज्ञान, श्रेय-अश्रेय का विवेक, सबके प्रति | धूल का भी इसलिए सत्कार करता हूं समभाव, दया, दान में प्रवृत्ति, ये तेजो लेश्या के लक्षण हैं।' फूल और धूल में फर्क क्या है? जो फूल है, कल धूल था। छीनने-झपटने की प्रवृत्ति, विषय-लोलुपता संसार को बनाती जो फूल है, कल फिर धूल हो जाएगा। जो अभी धूल है, कल है। देने की वृत्ति, दान की, बांटने की वृत्ति धर्म को निर्माण करती फूल पर नाचेगी, सुगंध बनेगी, रंग-रूप बनेगी। धूल और फूल है। लोभ अगर संसार की जड़ है तो दान धर्म की। में फर्क क्या है? मित्र और शत्रु में फर्क क्या है? जो मित्र था जैसे ही तुम देते हो, कई घटनाएं घटती हैं। एकः देने के कारण वह शत्रु हो जाता है। जो शत्रु था, वह मित्र हो जाता है। जीवन वस्तुओं पर तुम्हारा मोह क्षीण होता है। दोः देने के कारण | और मृत्यु में फर्क क्या है? जीवन मृत्यु बनता रहता है, मृत्यु नए तुम्हारा प्रेम विकसित होता है। तीनः देने के कारण दुसरा व्यक्ति जीवन का रूप धरती रहती है। रोज दिन रात बनता है, रात दिन मूल्यवान बनता है। छोटी-सी भी चीज किसी को दे दो, उस बनती है; फिर भी तुम देखते नहीं। क्षण में तुमने दूसरे को मूल्य दिया। जानता हूं राह पर दो दिन रहेंगे फूल इसलिए तो भेंट का इतना मूल्य है। चाहे कोई चार पैसे का | आज ही तक सिर्फ है यह वायु भी अनुकूल रूमाल ही किसी को दे जाए, पैसे का कोई सवाल नहीं है। रात भर ही के लिए है आंख में सपना लेकिन जब कोई किसी को कुछ चीज भेंट में दे आता है तो आंजनी कल ही पड़ेगी लोचनों में धूल उसका मूल्य स्वीकार कर रहा है कि तुम मेरे लिए मूल्यवान हो। इसलिए हर फूल को गलहार करता हूं ___ 2010_03 www.jainelibrar org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwmas - जिन सूत्र भाग: 2 धूल का भी इसलिए सत्कार करता हूं मालिक हुए। जब तक त्याग करने की क्षमता न थी, तब तक तब एक समभाव पैदा होता है। तब न कोई अपना है, न पराया | गुलाम थे। है। तब कोई न मित्र है, न शत्रु है। तब न किसी से सुख है, न 'त्यागशीलता, परिणामों में भद्रता...।' दुख है। तब सब सम है। और जैसे-जैसे बाहर समभाव पैदा बाहर से हजार घटनाएं घट रही हैं। कोई गाली दे जाता है, होता है, भीतर समता पैदा होती है। असली मूल्य तो समता का कोई सम्मान कर जाता है; कोई सफलता का संदेश ले आता है, है, सम्यकत्व का है, समाधि का है। कोई विफलता का; लेकिन तुम भीतर भद्र रह सको। तुम्हारी ये सभी एक ही धातु से बने हैं-सम। सम्यकत्व हो, समाधि भद्रता अकलुषित रहे। तुम्हारी समता को कोई डिगा न पाए। हो, संबोधि हो, समता हो, समभाव हो, समत्व हो, सब एक ही | तुम्हारे भीतर परिणाम तुम्हारी मालकियत में रहें। तुम्हारा कोई धातु से बने हैं—सम। सम पैदा हो जाए। चीजों के भेद | मालिक न हो सके। तो विफलता को सफलता को एक-सा देख महत्वपर्ण न रह जाएं, चीजों का अभेद दिखाई पड़ने लगे। रूप | लेना। सुख का सुसमाचार आए कि दुख की खबर आए, | महत्वपूर्ण न रह जाएं, रूप के भीतर छिपा अरूप पहचान में | एक-सा देख लेना। तुम्हारा परिणाम अभद्र न हो पाए। तुम्हारे आने लगे। परिणाम में जरा भी डांवांडोलपन न हो। सोने के हजारों गहने रखे हैं, गहना दिखाई पड़े तो भूल हो रही 'व्यवहार में प्रामाणिकता...।' है। सब गहनों के भीतर सोना दिखाई पड़ने लगे तो तुम ठीक और तुम जो भी करो, वही करो, जो तुम करना चाहते थे। दिशा पर लगने लगे। तुम्हारा भीतर और बाहर एक जैसा हो। तुम्हारे चेहरे पर नकाब न 'कार्य-अकार्य का ज्ञान, श्रेय-अश्रेय का विवेक, सबके प्रति | हो। तुम्हारे चेहरे पर मुखौटे न हों। तुम सीधे-साफ, नग्न; तुम समभाव, दया, दान में प्रवृत्ति, ये पीत या तेजो लेश्या के लक्षण | जैसे हो वैसे ही; चाहे कोई भी परिणाम हो, तम अपने को छिपाओ न। दिल तो सबको मेरी सरकार से मिल जाते हैं प्रामाणिकता बड़ा बहमुल्य शब्द है। जिसको पश्चिम के दर्द जब तक न मिले दिल नहीं होने पाते अस्तित्ववादी आथेन्टीसिटी कहते हैं, वही महावीर की और जब तक तुम्हारे मन में दया का दर्द न उठे, तब तक तुम्हारे प्रामाणिकता है। पास दिल है नहीं। धड़कने को दिल मत समझ लेना, जब तक हम तो अक्सर...अक्सर चौबीस घंटे में तेईस घंटे कि दूसरे के दर्द में न धड़के। जब तक सिर्फ धड़कता है, तब तक अप्रामाणिक होते हैं। एक घंटा हम प्रामाणिक होते हैं, जब हम सिर्फ फेफड़ा है, फुफ्फस है, जब दूसरे के लिए धड़कने लगे, गहरी नींद में होते हैं; उसका कोई मतलब नहीं। अन्यथा हम करुणा और प्रेम से धड़कने लगे. तभी दिल है। कुछ कहते, कुछ सोचते, कुछ बतलाते। गिरगिट की तरह हमारा 'त्यागशीलता, परिणामों में भद्रता, व्यवहार में प्रामाणिकता, | रंग बदलता। हम जैसा मौका देखते, तत्क्षण वैसा रंग धर लेते। कार्य में ऋजुता, अपराधियों के प्रति क्षमाशीलता, साधु-गुरुजनों अवसरवादिता प्रामाणिकता के विपरीत है। हमारा अपना कोई की सेवापूजा में तत्परता, ये पद्म लेश्या के लक्षण हैं।' / | स्वर नहीं, कोई आत्मा नहीं। जैसा दूसरा आदमी हम देखते, 'त्यागशीलता'– छोड़ने की क्षमता। पकड़ने की आदत तो वैसा ही हम व्यवहार कर लेते हैं। हम समय के अनुसार चलते, सभी की है। धन्यभागी हैं वे, जो छोड़ने की क्षमता रखते हैं। जो आत्मा के अनुसार नहीं। छोड़ने की क्षमता रखते हैं, वे ही मालिक हैं। जब तक तुम कोई | प्रामाणिकता का अर्थ है: हमारे भीतर अपना बल पैदा हुआ। चीज छोड़ नहीं सकते, तुम उसके मालिक नहीं। जब तक तुम | अब हम अपने बल से जीते हैं। कष्ट झेलना पड़े तो झेल लेते हैं, सिर्फ पकड़ सकते हो, तब तक तुम गुलाम हो। लेकिन सत्य को नहीं खोते। यह विरोधाभासी लगेगा। लेकिन यह परम सत्यों में एक है कि 'सत्यं वद। धर्मं चर।' हिंदू शास्त्र कहते हैं, सत्य बोले और जब तुम किसी चीज का त्याग कर देते हो, उसी दिन तुम उसके धर्म में चले। जैसा हो वैसा कहे। परिणाम की चिंता छोड़ दें। 2010_03 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट पर्दो की ओट में परिणाम का हिसाब न रखे। निष्कपट छोटे बच्चे जैसा हो जाए। तुम्हें यह खयाल ही नहीं है कि तुम्हारे भीतर भी ऐसा ही अपराधी र के बीच कोई द्वंद्व न रहे। एक धारा बहे। पड़ा है। तुम्हारा अपराधी अंधेरे में हो तो ही तुम अपराधी को उस एक धारा के बहने में ही योग उपलब्ध होता है। उस एक क्षमा नहीं करते। और जो अंधेरे में है उसे तुम मिटा न सकोगे। धारा के बहने में ही तुम पहली दफा खंड-खंड नहीं रह जाते, जिसने अपनी शक्ल ठीक से देखी, उसने सारे जगत की शक्लें अखंड बनते हो। तुम्हारे सारे खंड एक महासंगीत में सम्मिलित ठीक से देख लीं। अब वह नाराज नहीं है। अब वह समझ होते हैं। तुम्हारे सारे स्वर एक-दूसरे के विपरीत नहीं रह जाते; सकता है। उन सबके बीच एक संगति, एक संगीत का जन्म होता है। 'साधु गुरुजनों की सेवा...।' 'कार्य में ऋजुता...।' और जहां भी तुम्हें दिखाई पड़े कोई भलाई, कोई भला पुरुष, सरलता, सीधापन। कुछ लोग एढ़े-टेढ़े चलते हैं। उनको कोई जाग्रत पुरुष, कहीं जरा-सी भी झलक दिखाई पड़े तो जाना हो पश्चिम तो पहले पूरब की तरफ जाते हैं। उनको आना महावीर कहते हैं, जो व्यक्ति अपनी अंतरात्मा की खोज में चल हो घर तो पहले बाजार की तरफ जाते हैं। कुछ लोग इरछे-तिरछे रहा है, वह वहां सेवा करने को तत्पर होगा। क्योंकि उस सत्संग चलते हैं। उनकी इरछा-तिरछा चलना आदत हो गई है। से ही आखिरी घटना घटेगी। उस सत्संग से ही तुम्हारे भीतर, तुम भी बहुत बार यही करते हो। किसी से चार पैसे उधार लेने | भीतर जाने की समझ जगेगी। हैं तो तुम सीधे नहीं मांग लेते। तुम पहले कुछ और चालें चलते जो जाग गए हैं, उनके पास बैठकर उनके जागने को पकड़ना हो। पहले तुम भूमिका बनाते हो, फिर भूमिका के पीछे से तुम सीखना चाहिए। जो जाग गए हों, उनकी सेवा करके विनम्रता से धीरे-धीरे जाल फैलाते हो। फिर आखिर में चार पैसे मांगते हो। प्रतीक्षा करनी चाहिए उस अवसर की, जहां उनकी ऊर्जा और सीधा-सीधा...महावीर कहते हैं, व्यवहार में, कार्य में तुम्हारी ऊर्जा में कोई तालमेल बैठ जाएगा। जहां उनकी लहर के ऋजुता! सीधी रेखा। दो बिंदुओं के बीच जो सबसे निकटतम साथ गठबंधन बांधकर तुम भी अंतर्यात्रा पर निकल जाओगे। की दूरी है, वह है सीधी रेखा। ऐसे आड़े-तिरछे चलकर बड़ी | जो तुमसे आगे हों, उनका हाथ पकड़ लेने की चेष्टा करनी लंबी यात्रा होती है। और उस यात्रा में बड़ी ऊर्जा व्यय होती है। चाहिए। और गुरुजनों का हाथ पकड़ना हो तो एक ही उपाय है; 'अपराधियों के प्रति क्षमाशीलता...।' | उसको महावीर सेवा-पूजा कहते हैं। क्योंकि जो भी अपराधी है, ध्यान रखना, वह भी मनुष्य | अब यह बड़ी विचार की जरूरत है इस संबंध में, क्योंकि है तुम्हारे जैसा; तुम्हारी ही कमियों और सीमाओं से भरा | ईसाइयत के प्रभाव के बाद सेवा का अर्थ ही बदल गया। जब हुआ। तो जिस व्यक्ति ने अपने को पहचाना है, वह दूसरे को | जैन साधु के पास जाता है तो उससे पूछो कहां जा रहा है? वह क्षमा करने को सदा तत्पर होगा। क्योंकि वह देखेगा, दूसरे में जो कहता है, साधु की सेवा करने। ईसाइयत के प्रभाव के बाद सेवा हो रहा है, वह मुझमें हो चुका है। दूसरे में जो हो रहा है, वह | का अर्थ हो गया है। कोढ़ी की सेवा, बीमार की सेवा, मलेरिया मुझमें भी हो सकता है। ठीक-ठीक अपने को जाननेवाला है, प्लेग है, हैजा फैला है, तो सेवा। ईसाइयत ने सेवा का बड़ा व्यक्ति सारे मनुष्यों को जान लिया। | साधारण अर्थ लिया है। जिसकी कहीं कोई पीड़ा है, जिसको हम | वह चोर को भी क्षमा कर सकेगा क्योंकि वह जानता है, चोर दया कहते हैं, उसको ईसाइयत सेवा कहते हैं। दया तुम उसकी अपने भीतर भी छिपा है। वह क्रोधी को भी क्षमा कर सकता है तरफ जाते हो, जो तुमसे पीछे है। क्योंकि वह जानता है, क्रोध अपने भीतर भी कहां मिट गया है? - महावीर सेवा कहते हैं उसकी तरफ जाने को, जो तुमसे आगे और जैसे-जैसे तुम अपराधी को क्षमा करने लगते हो, तुम्हारी | है; जो तुमसे ज्यादा स्वस्थतर है। तुम कोढ़ी हो, वह स्वस्थ है। अपराध की क्षमता कम होने लगती है। अगर तुम अपराधी को तुम बीमार हो, वह स्वस्थ है। तुम सोए हो, वह जागा है। तुम क्षमा नहीं करते तो तुम्हारी अपराध की क्षमता कम नहीं होगी। अंधेरे में पड़े हो, वह रोशनी में खड़ा है। सेवा उसकी, जो हमसे क्योंकि अपराधी को क्षमा न करना एक ही हालत में संभव है कि आगे है। दया उसकी, जो हमसे पीछे हो। क्योंकि सेवा में 475 ___ 2010_03 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिन सूत्र भागः 2 पकड़ने पड़ेंगे चरण। दया में देना होगा, जो हमारे पास है। और | हिला दिया; तो झूठ हो गया। यह तुम्हें दिखाई पड़े। सेवा में पाने की तत्परता रखनी होगी, जो दुसरा हमें दे सकता सत्य पक्षपात से निर्णीत नहीं होता, दर्शन से निर्णीत होता है। है। सेवा स्वीकार करने की दशा है। अंग्रेजी में वैसा कोई शब्द किसी धारणा को लेकर सत्य के पास गए कि चूक गए। नहीं है। सर्विस से वह बात पता नहीं चलती, सर्विस से तो दया निर्धारणा से जाना। ही पता चलती है। "भोगों की आकांक्षा न करना...।' तो तुम साधारणतः सोच ही नहीं सकते कि परम स्वस्थ सांसारिक विषय लोलुपता को तो छोड़ आए बहुत पीछे। आदमी...महावीर खड़े हैं, उनकी सेवा के लिए जा रहे हो, वहां | छठवीं स्थिति में इस आखिरी पर्दे में भोग की इच्छा छोड़नी है। क्या जरूरत है? किसी गरीब की, किसी बीमार की, किसी रुग्ण | निश्चित ही महावीर का प्रयोजन है, स्वर्ग में भोग की इच्छा, की सेवा करो। महावीर को सेवा की क्या जरूरत है? वे तो पुण्य के द्वारा भोग की इच्छा। क्योंकि विषय लोलुपता को तो पहुंच गए। वहां तो अब कोई रोग नहीं, कोई पीड़ा नहीं, कोई बहुत पीछे छोड़ आए। वे तो कृष्ण और नील लेश्याओं के हिस्से दुख-दारिद्रय नहीं, उनकी सेवा के लिए क्या जा रहे हो? थे। अब भोग की लिप्सा न करना। परलोक में कुछ मांगना लेकिन जैन परंपरा में, पूरब की परंपरा में सेवा का अर्थ है: नहीं। जिसको मिल गया उसके पास जाना: उसके चरण दाबने. उसके / 'सबमें समदर्शी रहना...।' सामने झुकना, उसकी पूजा करनी। इसलिए सेवा और पूजा पहले कहा, समभाव; अब कहा समदर्शी। समभाव का अर्थ समानार्थी हैं। सिर्फ पूजा भी कही जा सकती थी, लेकिन पूजा | है, भावना। अभी घटना घटी नहीं है, तुम चेष्टा कर रहे हो। तुम मंदिर की मूर्ति की हो सकती है, सेवा नहीं हो सकती। जीवित प्रयास कर रहे हो, साध रहे हो। समदर्शी का अर्थ है : घटना घट गुरु की सेवा और पूजा दोनों हो सकती है। वहां सेवा और पूजा गई। अब तुम्हें दिखाई पड़ने लगा। सम्मिलित है। समभाव साधते-साधते समदर्शी की अवस्था आती है। पहले इससे एक बहुत अनूठी दृष्टि पूरब की साफ होती है। पूरब तो देख-देखकर, चेष्टा कर-करके साधना होगा कि सभी में एक कहता है, दीन और दुखी पर दया करो, आनंद-अमृत को | का ही विस्तार है। मिट्टी का ही खेल है धूल और फूल दोनों में। उपलब्ध की सेवा करो। जो तुम्हें पाना है, उस तरफ सेवा से झुके | मगर ऐसा अभी तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। ऐसा तुमने सुना हुए जाओ। जो तुम्हें मिल गया है, वह दूसरे को दे दो, दया | गुरुजनों से। ऐसा तुमने शास्त्र में सुना। ऐसा तुमने सत्संग में करो। दया में दान है। सेवा में झोली फैलाना है। सीखा। इसकी तुम चेष्टा करते हो। जब चेष्टा करते हो, तब ये पद्म लेश्या के लक्षण हैं। क्षणभर को लगता भी है कि ठीक है, धूल और फूल एक है। 'पक्षपात न करना, भोगों की आकांक्षा न करना, सबमें | लेकिन फिर चेष्टा भली. भटके, फिर फल, फल दिखाई पड़ने समदर्शी रहना, राग, द्वेष तथा प्रणय से दूर रहना, ये शुक्ल | लगता है, धूल धूल दिखाई पड़ने लगती है। चेष्टा करने से कभी लेश्या के लक्षण हैं।' क्षणभर को झलक मिलती है, फिर खो-खो जाती है। और अंतिम लेश्या, शुक्ल लेश्या। समदर्शी का अर्थ है, जो गुरुजनों ने कहा, वह अब तुम्हें स्वयं 'पक्षपात न करना'-सत्य जैसा हो, वैसा ही स्वीकार दिखाई पड़ता है। तुम्हारी दृष्टि पैदा हो गई। करना; पूर्व पक्षपातों के आधार पर नहीं। | 'राग, द्वेष तथा प्रणय से दूर रहना...।' अब मैं जो यह कह रहा हूं, महावीर के सूत्रों का अर्थ कर रहा न तो किसी को अपना मानना, न किसी को पराया मानना। न हं, यहां जो जैन बैठे होंगे, वे कहेंगे, बिलकुल ठीक है। लेकिन इस संसार से किसी तरह का सुख मिल सकता है—प्रणय की यह बिलकुल ठीक तुम्हें दिखाई पड़ रहा है या सिर्फ पुराने आकांक्षा, कि इस संसार से किसी भी तरह का सुख संभव है, पक्षपात के कारण? इसकी संभावना को भी स्वीकार न करना। संभावना मात्र का क्योंकि ये महावीर के सूत्र हैं और तुम जैन हो, इसलिए सिर गिर जाना। ये शुक्ल लेश्या के लक्षण हैं। 476 Jair Education International 2010_03 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट पर्दो की ओट में इन एक-एक पर्दो को पार करते चलना है। बहुत दफा भटकोगे, गिरोगे, फिर उठ-उठ आना। एक तेरे बिना प्राण ओ प्राण के सांस मेरी सिसकती रही उम्र भर भेस भाए न जाने तुझे कौन-सा इसलिए रोज कपड़े बदलता रहा किस जगह कब कहां हाथ तू थाम ले इसलिए रोज गिरता-सम्हलता रहा इस द्वार क्यों न जाऊं उस द्वार क्यों न जाऊं घर पा गया तुम्हारा मैं घर बदल-बदल कर खोज जारी रखनी है। भटकाव होगा, गिरना होगा। उठ आना, सम्हल जाना। बहुत बार वस्त्र बदलने पड़ेंगे। लेकिन धीरे-धीरे. धीरे-धीरे भीतर के बोध सजग होते जाते हैं। और तम ठीक उस वस्त्र में हो जाते हो, जिस वस्त्र में उस प्रीतम से मिलना हो सकता है, उस भीतर के अंतर्जगत में प्रवेश हो सकता है। वह वेष तो सत्य का है, ऋजुता का है, समदर्शन का है। सत्यं वद। धर्म चर। आज इतना ही। 477 2010_03