________________ षट पर्दो की ओट में आनंद बढ़े वह करने योग्य है। जिससे सत्य की प्रतीति बढ़े वह कि मैं तुम्हारे लिए कुछ देने को उत्सुक और तत्पर हूं। कि तुम्हें | करने योग्य है। जिससे अंधेरा बढ़े, दुख बढ़े, असत्य बढ़े, वह कुछ देकर मैं आनंदित होता हूं। करने योग्य नहीं है। - जो व्यक्ति दूसरों से लेकर ही आनंदित होता है, वह केवल तो सोचो। सोचकर, सम्हलकर चलो। थोड़ी सावधानी, थोड़े सुख ही जानता है, आनंद नहीं जानता। और सब सुख के पीछे सावचेत बनो। चौबीस घंटे में तुम इतनी बातें कर रहे हो कि दुख छिपा है। क्योंकि जब तुम दूसरों से छीनते हो, तुम दूसरों को अगर तुम गौर से देखोगे तो पाओगे, उनमें से नब्बे प्रतिशत तो छीनने के लिए निमंत्रण दे रहे हो। तुम शत्रुता खड़ी करते हो, करने योग्य ही नहीं हैं। जब तुम छीनते हो। जब तुम देते हो, तब तुम मित्रता खड़ी करते कितनी बातें तुम लोगों से कहते हो, न कहते तो क्या हर्ज था? हो। देने में आनंद है, और आनंद के पीछे कोई दुख नहीं है। और उन कहने के कारण कितनी झंझटों में पड़ जाते हो। ___महावीर कहते हैं, समभाव। चीजों को एक ही दृष्टि से इंगलैंड के बड़े विचारक एच. जी. वेल्स ने अपनी आत्मकथा देखना। अगर गौर से देखो तो गुलाब का फूल भी मिट्टी है। में लिखा है कि अगर लोग चुप रहें तो दुनिया में से निन्यानबे चंपा का फूल भी, चमेली का फूल भी, आदमी की देह भी, प्रतिशत झगड़े समाप्त हो जाएं। बोलने से झगड़े खड़े होते हैं। आकाश में खड़े हुए ये वृक्ष भी, हिमालय के शिखर भी, सभी बोले कि फंसे। कुछ कहा कि उलझे। चुप रह जाओ। मिट्टी के खेल हैं। सभी एक ही ऊर्जा के खिलौने हैं। अगर तुम टेलिग्राफिक होना चाहिए आदमी को। जैसे तार करने गए हैं धीरे-धीरे देखना शुरू करो तो तुम पाओगे, सारा जीवन एक की दफ्तर में पोस्ट आफिस के, एक-एक पैसे के दाम हैं; एक-एक ही अनेक-अनेक रूपों में अभिव्यक्ति है। एक की पंक्ति के, एक-एक शब्द के दाम हैं। तो आदमी सोच-सोचकर अभिव्यक्ति–तो समता पैदा होती है। निकालता है कि दस शब्द में काम चल जाए। उतना ही बोलो, जितना बोलने से काम चल जाए। उतना ही आज ही तक सिर्फ है यह वायु भी अनुकूल चलो, जितना चलने से काम चल जाए। उतने ही संबंध बनाओ, रात भर ही के लिए है आंख में सपना जितनों से काम चल जाए। तो तम धीरे-धीरे पाओगे. जीवन में आंजनी कल ही पड़ेगी लोचनों में धल एक संयम अवतरित होने लगा। इसलिए हर फूल को गलहार करता हूं 'कार्य-अकार्य का ज्ञान, श्रेय-अश्रेय का विवेक, सबके प्रति | धूल का भी इसलिए सत्कार करता हूं समभाव, दया, दान में प्रवृत्ति, ये तेजो लेश्या के लक्षण हैं।' फूल और धूल में फर्क क्या है? जो फूल है, कल धूल था। छीनने-झपटने की प्रवृत्ति, विषय-लोलुपता संसार को बनाती जो फूल है, कल फिर धूल हो जाएगा। जो अभी धूल है, कल है। देने की वृत्ति, दान की, बांटने की वृत्ति धर्म को निर्माण करती फूल पर नाचेगी, सुगंध बनेगी, रंग-रूप बनेगी। धूल और फूल है। लोभ अगर संसार की जड़ है तो दान धर्म की। में फर्क क्या है? मित्र और शत्रु में फर्क क्या है? जो मित्र था जैसे ही तुम देते हो, कई घटनाएं घटती हैं। एकः देने के कारण वह शत्रु हो जाता है। जो शत्रु था, वह मित्र हो जाता है। जीवन वस्तुओं पर तुम्हारा मोह क्षीण होता है। दोः देने के कारण | और मृत्यु में फर्क क्या है? जीवन मृत्यु बनता रहता है, मृत्यु नए तुम्हारा प्रेम विकसित होता है। तीनः देने के कारण दुसरा व्यक्ति जीवन का रूप धरती रहती है। रोज दिन रात बनता है, रात दिन मूल्यवान बनता है। छोटी-सी भी चीज किसी को दे दो, उस बनती है; फिर भी तुम देखते नहीं। क्षण में तुमने दूसरे को मूल्य दिया। जानता हूं राह पर दो दिन रहेंगे फूल इसलिए तो भेंट का इतना मूल्य है। चाहे कोई चार पैसे का | आज ही तक सिर्फ है यह वायु भी अनुकूल रूमाल ही किसी को दे जाए, पैसे का कोई सवाल नहीं है। रात भर ही के लिए है आंख में सपना लेकिन जब कोई किसी को कुछ चीज भेंट में दे आता है तो आंजनी कल ही पड़ेगी लोचनों में धूल उसका मूल्य स्वीकार कर रहा है कि तुम मेरे लिए मूल्यवान हो। इसलिए हर फूल को गलहार करता हूं ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrar org