________________ षट पर्दो की ओट में इन एक-एक पर्दो को पार करते चलना है। बहुत दफा भटकोगे, गिरोगे, फिर उठ-उठ आना। एक तेरे बिना प्राण ओ प्राण के सांस मेरी सिसकती रही उम्र भर भेस भाए न जाने तुझे कौन-सा इसलिए रोज कपड़े बदलता रहा किस जगह कब कहां हाथ तू थाम ले इसलिए रोज गिरता-सम्हलता रहा इस द्वार क्यों न जाऊं उस द्वार क्यों न जाऊं घर पा गया तुम्हारा मैं घर बदल-बदल कर खोज जारी रखनी है। भटकाव होगा, गिरना होगा। उठ आना, सम्हल जाना। बहुत बार वस्त्र बदलने पड़ेंगे। लेकिन धीरे-धीरे. धीरे-धीरे भीतर के बोध सजग होते जाते हैं। और तम ठीक उस वस्त्र में हो जाते हो, जिस वस्त्र में उस प्रीतम से मिलना हो सकता है, उस भीतर के अंतर्जगत में प्रवेश हो सकता है। वह वेष तो सत्य का है, ऋजुता का है, समदर्शन का है। सत्यं वद। धर्म चर। आज इतना ही। 477 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org