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________________ इक्कीसवां प्रवचन छह पथिक और छह लेश्याएं 2010 03
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________________ DO कीण्हा णीला काऊ, तेऊ पम्मा य सुक्कलेस्सा य। लेस्साणं णिद्देसा, छच्चेव हवंति णियमेण।।१३४।। कीण्हा णीला काऊ, तिण्णि वि एयाओ अहम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गई उववज्जई बहुसो।।१३५।। SANA ALS RAND तेऊ पम्हा सक्का, तिण्णि वि एयाओ धम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गइं उववज्जई बहुसो।।१३६।। 22 पहिया जे छ प्पुरिसा, परिभट्टारण्णमझदेसम्हि। फलभरियरुक्खमेगं, पेक्खित्ता ते विचितंति।। णिम्मूलखंधसाहु-वसाहं छित्तुं चिणित्तु पडिदाई। खाउं फलाई इदि, जं मणेण वयणं हवे कम्म।।१३७।। SRAE 2010_03 www.ainelibrary.org
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________________ आज के सूत्रः की रात जैसा। जिस पर कृष्ण लेश्या पड़ी है, उसे अपनी आत्मा ज लेश्याएं छह प्रकार की हैं : कृष्णलेश्या, नील का कोई पता नहीं चलता। इतने अंधेरे में दबे हैं प्राण, कि प्राण लेश्या, कापोत लेश्या, तेजो लेश्या (पीत लेश्या), हो भी सकते हैं, इसका भी भरोसा नहीं आता। स्वयं ही पता नहीं पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या।' चलती आत्मा तो दूसरे को तो पता कैसे चलेगी? 'कृष्ण, नील और कापोत, ये तीनों अधर्म या अशुभ लेश्याएं हमारा युग कृष्ण लेश्या का युग है। लोग अमावस में जी रहे हैं। इनके कारण जीव विभिन्न दुर्गतियों में उत्पन्न होता है।' हैं। पूर्णिमा खो गई है। पूर्णिमा तो दूर, दूज का चांद भी कहीं 'पीत (तेज), पद्म और शुक्ल; ये तीनों धर्म या शुभ लेश्याएं | दिखाई नहीं पड़ता। इसीलिए आत्मा पर भरोसा नहीं आता। हैं। इनके कारण जीव विविध सुगतियों में उत्पन्न होता है।' भरोसा आए भी कैसे? पर्दा इतना काला है कि भीतर प्रकाश _ 'छह पथिक थे। जंगल के बीच जाने पर वे भटक गए। भूख का स्रोत छिपा है, इसकी प्रतीति कैसे हो? जब तुम दूसरे को भी सताने लगी। कुछ देर बाद उन्हें फलों से लदा एक वृक्ष दिखाई देखते हो, तब भी देह ही दिखाई पड़ती है। स्वयं को देखते हो, दिया। उनकी फल खाने की इच्छा हुई। वे मन ही मन विचार तब भी देह ही दिखाई पड़ती है। करने लगे। एक ने सोचा कि पेड़ को जड़मूल से काटकर उसके दर्पण के सामने खड़े होकर तुम अपने को देखते हो, वह फल खाए जाएं। दूसरे ने सोचा, केवल स्कंध ही काटा जाए। तुम्हारा होना नहीं है; तुम्हारी देह की छाया है। न तुम्हें अपना तीसरे ने विचार किया कि शाखा को तोड़ना ठीक रहेगा। चौथा | पता चलता है, न दूसरों की आत्मा का कोई बोध होता है। सोचने लगा कि उपशाखा ही तोड़ी जाए। पांचवां चाहता था कि कृष्ण लेश्या उठे, तो ही आत्मदर्शन हो सकते हैं। फल ही तोड़े जाएं। छठे ने सोचा कि वृक्ष से टपककर फल जब ऐसी महावीर ने छह पर्दो की बात कही है—कृष्ण लेश्या, फिर नीचे गिरें तभी चुनकर खाए जाएं।' नील लेश्या, फिर कापोत लेश्या...क्रमशः अंधेरा कम होता 'इन छह पथिकों के विचार, वाणी तथा कर्म, क्रमशः छहों | जाता है। लेश्याओं के उदाहरण हैं।' कृष्ण के बाद नील। अंधेरा अब भी है, लेकिन नीलिमा जैसा लेश्या महावीर की विचार-पद्धति का पारिभाषिक शब्द है। है। फिर कापोत-कबूतर जैसा है। आकाश के रंग जैसा है। उसका अर्थ होता है। मन, वचन, काया की काषाययुक्त __ जैसे-जैसे पर्दे उठते हैं, वैसे-वैसे भीतर की झलक स्पष्ट होने वृत्तियां। मनुष्य की आत्मा बहुत-से पों में छिपी है। ये छह लगती है। लेकिन एक बात खयाल रखना। महावीर कहते हैं, लेश्याएं छह पर्दे हैं। शुभ्र लेश्या भी पर्दा है। वह अंतिम लेश्या है। जब तक रंग हैं, पहला पर्दा है: कृष्ण लेश्या। बड़ा अंधकार, काला, अमावस तब तक पर्दा है। जब तक रंग हैं, तब तक राग है। 4151 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग: 2 राग शब्द का अर्थ रंग होता है। लगा देते हैं। चाक को जोर से घुमाते हैं तो सातों रंग खो जाते हैं, विराग शब्द का अर्थ, रंग के बाहर हो जाना होता है। सफेद रंग रह जाता है। सफेद रंग सातों रंगों का जोड़ है। या वीतराग शब्द का अर्थ होता है, रंग का अतिक्रमण कर जाना। सातों रंग सफेद रंग से ही जन्मते हैं। अब तुम पर कोई रंग न रहा। क्योंकि जब तक रंग है, तब तक इंद्रधनुष पैदा होता है हवा में लटके हुए जलकणों के कारण। स्वभाव दबा रहेगा। तब तुम्हारे ऊपर कुछ और पड़ा है। चाहे | जलकण लटका है हवा में, सूरज की किरण निकलती है, टूट सफेद ही क्यों न हो, शुभ्र ही क्यों न हो। | जाती है सात हिस्सों में। सूरज की किरण सफेद है। हम तो काली अंधेरी रात में दबे हैं। महावीर पूर्णिमा को भी | लेकिन महावीर कहते हैं, सफेद के भी पार जाना है। अधर्म के कहते हैं, कि वह भी पूर्ण अनुभूति नहीं है। अमावस तो छोड़नी | तो पार जाना ही है, धर्म के भी पार जाना है। अधर्म तो बांध ही ही है, पूर्णिमा भी छोड़ देनी है। कृष्ण लेश्या तो जाए ही, शुक्ल | लेता है, धर्म भी बांध लेता है। धर्म का उपयोग करो अधर्म से लेश्या भी जाए। कृष्ण पक्ष तो विदा हो ही, शुक्ल पक्ष भी विदा | मुक्त होने के लिए। कांटे को कांटे से निकाल लो, फिर दोनों हो। तुम पर कोई पर्दा ही न रह जाए। तुम बेपर्दा हो जाओ। कांटों को फेंक देना। फिर दूसरे कांटे को भी सम्हालकर रखने इसलिए महावीर नग्न रहे। वह नग्न सचक है। ऐसी ही की कोई जरूरत नहीं है। बीमारी है औषधि ले लो। बीमारी आत्मा भी भीतर नग्न हो, तभी उसका अहसास शुरू होता है। समाप्त हो, औषधि को भी कचरे-घर में डाल आना। फिर और जब अपनी आत्मा का पता चले तो औरों की आत्मा का पता | | बीमारी के बाद औषधि को छाती से लगाए मत घूमना। वह चलता है। जितना गहरा हम अपने भीतर देखते हैं, उतना ही केवल इलाज थी। उसका उपयोग संक्रमण के लिए था। गहरा हम दूसरे के भीतर देखते हैं। जैसे-जैसे शुभ लेश्याओं का जन्म होता है, जैसे-जैसे आदमी हमें तो अभी मनुष्यों में भी आत्मा है, इसका भरोसा नहीं | श्वेत की तरफ बढ़ता है, वैसे-वैसे दृष्टि की गहराई बढ़ती है। होता। ज्यादा से ज्यादा अनमान...होनी चाहिए। है, ऐसी कोई वैसे-वैसे दसरों में भी परमात्मा की झलक मिलती है। प्रामाणिकता नहीं मालूम होती। अंदाज करते हैं-होगी। श्वेत लेश्या की आखिरी घड़ी में जब पूर्णिमा का प्रकाश जैसा तर्कयुक्त मालूम पड़ती है कि होनी चाहिए। लेकिन वस्तुतः है, भीतर हो जाता है तो पत्थर में भी परमात्मा दिखाई पड़ता है। इसी ऐसा कोई अस्तित्वगत हमारे पास प्रमाण नहीं है। अपने भीतर अनुभव से महावीर की अहिंसा का जन्म हुआ। ही प्रमाण नहीं मिलता, दूसरे के भीतर कैसे मिले? | महावीर जो कहानी कहे हैं...महावीर ने बहुत कम बोध महावीर कहते हैं, जैसे-जैसे पर्दे उठते हैं, वैसे-वैसे तुम्हें दूसरे कथाओं का उपयोग किया है। उन बहुत कम बोध कथाओं में में आत्मा दिखाई पड़नी शुरू होती है। ऐसी घड़ी आती है, जब एक यह हैः / पत्थर में भी आत्मा दिखाई पड़नी शुरू होती है। 'छह पथिक थे। जंगल के बीच जाने पर भटक गए। भूख तेजो लेश्या से क्रांतिकारी परिवर्तन शुरू होता है। पहली तीन लगी। कुछ देर बाद उन्हें फलों से लदा एक वृक्ष दिखाई दिया। लेश्याएं अधर्म की, बाद की तीन लेश्याएं धर्म की-तेजो, पद्म फल खाने की इच्छा हुई। मन ही मन विचार करने लगे। पहले ने और शुक्ल। तेजो लेश्या के साथ ही तुम्हारे भीतर पहली झलकें | सोचा, पेड़ को जड़मूल से काटकर इसके फल खाए जाएं।' आनी शुरू होती हैं। महावीर कहते हैं, यह कृष्ण लेश्या में दबा हुआ आदमी है। ये रंगों के आधार पर पर्दो के नाम रखे महावीर ने। यह जीवन यह अपने छोटे-से सुख के लिए, क्षणभंगुर सुख के का इंद्रधनुष है। है तो रंग एक ही। वैज्ञानिक उसे कहते हैं श्वेत। लिए...भूख थोड़ी देर के लिए मिटेगी, फिर लौट आएगी। भूख बाकी सब रंग श्वेत रंग के ही खंड हैं। | सदा के लिए तो मिटती नहीं। लेकिन यह पूरे वृक्ष को मिटा देने इसलिए प्रिज्म के कांच के टुकड़े से जब सूरज की किरण को आतुर है। इसे वृक्ष की भी आत्मा है, वृक्ष को भी भूख लगती गुजरती है तो सात रंगों में बंट जाती है। या तुमने कभी स्कूल में है, प्यास लगती है, वृक्ष को भी सुख और दुख होता है, इसकी बच्चों के समझाने के लिए देखा हो तो एक चाक पर सात रंग कोई प्रतीति नहीं है। 416 2010_03
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________________ छह पथिक और छह लेश्याएं यह आदमी अंधा है, जिसे वृक्ष में कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा तुम अंधे हो क्योंकि कृष्ण लेश्या की तुम अब तक सम्हाल है। सिर्फ अपनी भूख को तृप्त करने का उपाय दिखाई पड़ रहा करते रहे। उसे खाद दिया, पानी दिया। उस पर्दे में कभी छेद भी है। और अपनी भूख की तृप्ति के लिए, जो फिर लौट आनेवाली हुआ तो जल्दी से तुमने रफू किया, सुधार लिया। तुम जब-जब है, कोई शाश्वत तृप्ति हो जानेवाली नहीं है, वह इस वृक्ष को | दूसरे पर नाराज होते हो, तब-तब तुम खयाल करना, किसी | जड़मल से काट देने के लिए उत्सुक हो गया। यह आदमी अर्थों में वह तम्हारे कृष्ण लेश्या के पर्दे पर चोट कर रहा है। बिलकुल अंधा है। ऐसे आदमी तुम्हें सब तरफ मिलेंगे। ऐसा तुम्हारे अहंकार को चोट लगती है, तुम नाराज हो जाते हो। आदमी तुम्हें स्वयं के भीतर भी मिलेगा। कल मैं एक कहानी पढ़ रहा था। अमरीका में टेक्सास प्रांत के कितनी बार नहीं तुमने अपने छोटे-से सुख के लिए दूसरे को लोग बड़े अभद्र, हिंसक समझे जाते हैं। एक सिनेमागृह में एक विनष्ट तक कर देने की योजना नहीं बना ली। कितनी बार, जो टेक्सास प्रांत का आदमी अपनी बंदूक सम्हाले इंटरवल के बाद मिलनेवाला था वह ना-कुछ था, लेकिन तुमने दूसरे की हत्या | वापस लौटा। बाहर गया होगा। अपनी सीट पर उसने किसी कर दी; कम से कम हत्या का विचार किया। जमीन के लिए, दो आदमी को बैठे देखा। उसने पूछा-टेक्सास के आदमी इंच जमीन के लिए; धन के लिए, पद के लिए, तुमने प्रतिस्पर्धा ने—कि महानुभाव! आपको पता है, यह सीट मेरी है। वह जो की। दूसरे की गर्दन को काट देना चाहा। इसकी बिलकुल भी | आदमी बैठा था, मजाक में ही कहा, थी आपकी। अब तो मैं चिंता न की, कि जो मिलेगा वह ना-कुछ है। और जो तुम बैठा हूं। सीट किसी की होती है? विनष्ट कर रहे हो, उसे बनाना तुम्हारे हाथ में नहीं। तुम एक बस, उसने बंदूक तानी और गोली मार दी। भीड़ इकट्ठी हो गई जीवन की समाप्ति कर रहे हो। एक परम घटना के विनाश का | और उसने लोगों से कहा कि इसी तरह के लोगों के कारण कारण बन रहे हो। एक दीया बुझा रहे हो। एक तुम जैसा ही टेक्सास के लोग बदनाम हैं। प्राणवंत, तुम जैसा ही परमात्मा को सम्हाले हुए कोई चल रहा है, पर बहुत बार तुम्हारे मन में भी—चाहे तुमने गोली न मारी हो, वसर को विनष्ट कर रहे हो। और तम्हें कछ भी यह कहानी अतिशयोक्तिपर्ण मालम होती है. लेकिन बहत बार मिलनेवाला नहीं। तुम्हें जो मिलेगा, वह थोड़ी-सी क्षणभंगुर की गोली मार देने का मन तो हो ही गया है। बहुत छोटी बातों तृप्ति है। घड़ीभर बाद फिर भूख लग आएगी। | पर—कि कोई तुम्हारी सीट पर बैठ गया है-गोली मार देने का कृष्ण लेश्या से भरा आदमी महत हिंसा से भरा होता है। जब मन तो हो ही गया है। भी तुम्हारे मन में अपने सुख के लिए दूसरे को दुख देने तक की महावीर कहते हैं, मन भी हो गया तो बात हो गई। तैयारी हो जाए तो तत्क्षण समझ लेना, कृष्ण लेश्या में दबे हो। इस कहानी में वे यह नहीं कह रहे हैं कि पहले आदमी ने वृक्ष पर्दा पड़ा। इस पर्दे को अगर तुम बार-बार भोजन दिए जाओगे तोड़ा; सिर्फ सोचा। तो यह मजबूत होता चला जाएगा। | '...भूख लगी, फल खाने की इच्छा हुई, वे मन ही मन जागना। जब ऐसा मौका आए कि अपने छोटे सुख के लिए विचार करने लगे।' / दसरे को दख देने का खयाल उठे. तब सम्हलना। तब अपने ऐसा कछ किया नहीं है अभी: ऐसी भाव-तरंग आयी, ऐसा हाथ को खींच लेना। क्योंकि असली सवाल यह नहीं है कि | विचार आया। लेकिन महावीर कहते हैं, विचार आ गया तो बात तमने दूसरे को दुख दिया या नहीं दिया: असली सवाल यह है हो गई। जहां तक तुम्हारा संबंध है, हो गई। जहां तक वृक्ष का | कि दूसरे को दुख देने में तुमने अपनी कृष्ण लेश्या पर पानी | संबंध है, अभी नहीं हुई; लेकिन तुम्हारा संबंध है, वहां तक तो सींचा। उसकी जड़ों को मजबूत किया। उसी में तुम्हारा | हो गई। आत्मतत्व खो गया है। उसी में खो गया जीवन का अभिप्राय। जब तुम ने सोचा किसी को मार डालें, ऐसी मन में एक उसी से पता नहीं चलता कि जीवन में कुछ अर्थ भी है ? पता नहीं | कल्पना भी उठ गई तो बात हो गई। दूसरा अभी मारा नहीं गया। चलता कौन हूँ मैं? कहां जा रहा हूं? क्यों जा रहा हूं? अपराध अभी नहीं हुआ, पाप हो गया। 417 ___ 2010_03
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________________ - जिन सूत्र भाग: 2 aanimamalinilaianimlanawwamanawanRail MHI पाप और अपराध में यही फर्क है। पाप का अर्थ है, तुम्हें जो मिल गए हैं। करना था, वह भीतर तुमने कर लिया। अभी दूसरे तक उसके | सोवियत रूस में किरलियान फोटोग्राफी के विकास ने बड़ी परिणाम नहीं पहुंचे। परिणाम पहुंच जाएं तो अपराध भी हो | हैरानी की बात खोज निकाली है कि जो तुम्हारे भीतर चेतना की जाएगा। अदालत अपराध को पकडती है. पाप को नहीं पकड | दशा होती है, ठीक वैसा आभामंडल तुम्हारे मस्तिष्क के सकती। पाप तो मन के भीतर है। अपराध तो तब है, जब मन | आसपास होता है। और किरलियान की खोज महावीर से बड़ी का विष बाहर पहुंच गया और उसके परिणाम शुरू हो गए। और मेल खाती है। जिस व्यक्ति के जीवन में हिंसा के भाव सरलता बाह्य जगत में तरंगें उठने लगीं। तब पुलिस पकड़ सकती है। से उठते हैं, उसके चेहरे के पास एक काला वर्तुल...। तब अदालत पकड़ सकती है। - संतों के चित्रों में तुमने प्रभामंडल बना देखा है, ऑरा बना देखा कानून तुम्हें तब पकड़ता है, जब पाप अपराध बन जाता है। है। वह एकदम कवि की कल्पना नहीं है-अब तो नहीं है। लेकिन महावीर कहते हैं, धर्म के लिए उतनी देर तक रुकना किरलियान की खोज के बाद तो वह कवि की कल्पना बड़ा सत्य आवश्यक नहीं है। जीवन की परम अदालत में तो हो ही गई साबित हुई। किरलियान की खोज ने तो यह सिद्ध किया कि जो बात। तुमने सोचा कि हो गई। नहीं किया, क्योंकि करने में कैमरा हजारों साल बाद पकड़ पाया, वह कवि की सूक्ष्म मनीषा बाधाएं हैं, कठिनाइयां हैं, सीमाएं हैं। करना महंगा सौदा हो | ने बहुत पहले पकड़ लिया था। ऋषियों की मनीषा ने बहुत पहले सकता है। सोच-विचार करके तुम रुक गए। होशियार आदमी | देख लिया था। हो, चालाक आदमी हो, मुस्कुराकर गुजर गए, लेकिन भीतर जब तुम्हारी दृष्टि साफ होने लगती है तो जब तुम्हारे पास कोई सोच लिया गोली मार दूं। पर जहां तक धर्म का संबंध है, बात आता है, तो तत्क्षण तुम्हें उसके चेहरे के आसपास विशिष्ट रंगों हो गई: क्योंकि तुम्हारी कृष्ण लेश्या मजबत हो गई। के झलकाव दिखाई पड़ते हैं। अगर हिंसक व्यक्ति है, लोभी कृष्ण लेश्या को मजबूत करना पाप है।। व्यक्ति है, क्रोधी व्यक्ति है, मद-मत्सर, अहंकार से भरा व्यक्ति कृष्ण लेश्या को क्षीण करना पुण्य है। है तो उसके चेहरे के आसपास एक काला वर्तुल होता है। शुक्ल लेश्या को मजबूत करना पुण्य है। और शुक्ल लेश्या | अब तो इसके फोटोग्राफ भी लिए जा सकते हैं। क्योंकि के भी पार उठ जाना, पाप और पुण्य दोनों के पार चले जाना | किरलियान ने जो सूक्ष्मतम कैमरे विकसित किए हैं, उन्होंने मुक्ति है, निर्वाण है। चमत्कार कर दिया। और ऐसा वर्तुल लोभी, हिंसक, अहंकारी, जब तुम्हारे मन में पाप का विचार उठता है, तब तुम दूसरे का क्रोधी के आसपास होता है, और ठीक ऐसा ही वर्तुल जब नुकसान करना चाहते हो—अपने छोटे-मोटे लाभ के लिए। आदमी मरने के करीब होता है, तब भी होता है। वह भी पक्का नहीं है कि होगा। लेकिन यह संभव कैसे हो पाता जो आदमी मरने के करीब है, किरलियान कहता है, छह महीने है? दुनिया में इतने युद्ध, इतनी हिंसा, इतनी हत्याएं, इतनी पहले अब घोषणा की जा सकती है कि यह आदमी मर जाएगा। आत्महत्याएं, छोटी-छोटी बात पर कलह, यह संभव कैसे हो क्योंकि छह महीने पहले उसके चेहरे के आसपास मृत्यु घटना पाता है? क्या लोग बिलकुल अंधे हैं? क्या लोगों को शुरू हो जाती है। जो छह महीने बाद उसके हृदय में घटेगी, वह बिलकुल पता नहीं चलता कि वे क्या कर रहे हैं? क्या लोगों को उसके आभामंडल में पहले घट जाती है। मूल्यों का कोई भी बोध नहीं है? इन दोनों का जोड़ खयाल में लेने जैसा है। इसका अर्थ हुआ, बोध हो नहीं सकता इस काले पर्दे के कारण, जो आंख पर पड़ा जो काला मंडल है हिंसा का, अहंकार का, क्रोध का, मत्सर का, है। महावीर कहते हैं, तुम अंधे नहीं हो, सिर्फ आंख पर पर्दा है। मद का, वही मृत्यु का मंडल भी है। इसका अर्थ हुआ, जो काले बुर्का ओढ़े हुए हो-काला बुर्का; कृष्ण लेश्या का। मंडल के साथ जी रहा है, वह जी ही नहीं रहा। वह किसी अर्थ में हमारे छोटे-छोटे कृत्य में हमारी लेश्या प्रगट होती है। तुम उसे मरा हुआ है। उसके जीवन का उन्मेष पूरा नहीं होगा। उसके छिपा नहीं सकते। और अब तो इसके लिए वैज्ञानिक आधार भी जीवन की लहर, तरंग, पूरी नहीं होगी-दबी-दबी, 4181 2010_03
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________________ mmmmmmmm | छह पथिक और छह लेश्याएं कटी-कटी, टूटी-टूटी। जैसे जीते भी वह मुर्दे की तरह ही ढोता कोंपल पेड़ों पर पायल नई बजाती है रहा अपनी लाश को। कभी जीया नहीं नाचकर। कभी उसके लेकिन कृष्ण लेश्या में दबे हुए आदमी के जीवन में ऐसा कभी जीवन में वसंत नहीं आया। कभी नई कोंपलें नहीं फूटीं। पुराना नहीं होता। वसंत आता ही नहीं। कोयल कूकती ही नहीं। ही होता रहा। जन्म के बाद बस मरता ही रहा। कोपलें पायल नहीं बजातीं। ऐसा आदमी नाममात्र को जीता काला पर्दा पड़ा हो आदमी के चित्त पर तो जीवन संभव भी है—मिनिमम। श्वास लेता है कहना चाहिए, जीता है कहना नहीं है। जीवन की किरण हृदय तक पहुंच पाए, इसके लिए ठीक नहीं। गुजार देता है कहना चाहिए। खुले द्वार चाहिए। और जीवन का उल्लास तुम्हें भी उल्लसित अगर तुम नाचे नहीं, गाए नहीं, गुनगुनाए नहीं, अगर आनंद कर सके और जीवन का नृत्य तुम्हें भी छू पाए इसके लिए बीच में का उत्सव तुम्हारे ऊपर नहीं बरसा तो कहीं चूक हो रही है। कृष्ण कोई भी पर्दा नहीं चाहिए। बेपर्दा होना है। लेश्या को पहचानना। जिन अंतर्शत्रुओं की सारे शास्त्रों में चर्चा तम जब बिलकल नग्न, खले आकाश को अपने भीतर है, वे सभी कष्ण लेश्या को मजबत करते हैं। निमंत्रण देते हो, तभी परमात्मा भी तुम्हारे भीतर आता है। मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक टैक्सी में बैठा हुआ पहाड़ इसका होश रखो। तुम दूसरे की हानि नहीं करते हो, हानि तो से नीचे उतर रहा था। ढलान से उतरते हुए अचानक टैक्सी का अंततः तुम्हारी है। तुम अगर किसी को मार भी डालो तो उसका ब्रेक खराब हो गया और गाड़ी अत्यंत वेग से दौड़ने लगी। तो कुछ भी नहीं बिगड़ता है। क्योंकि यहां जीवन का तो कोई नियंत्रण के बाहर हो गई गाड़ी। अंत नहीं है। ज्यादा से ज्यादा पुराना शरीर चला गया, नया मिल ड्राइवर घबड़ाया और उसने पूछा कि बड़े मियां, गाड़ी का ब्रेक जाएगा। जीवन की यात्रा तो अनंत है। तुम मारकर भी किसी की फेल हो गया। अब मैं क्या करूं? मुल्ला ने कहा, सबसे पहले कोई हानि नहीं कर पाते हो। लेकिन बिना मारे भी अगर मारने मीटर बंद करो। फिर जो चाहे करना। का विचार उठा तो तुमने अपनी बड़ी हानि कर ली। __ एक आदमी है, जिसका चित्त सदा लोभ में लगा हुआ है। महावीर कहते हैं, हर हत्या आत्यंतिक अर्थों में आत्महत्या है। कहते हैं मुल्ला को एक दफा डाकुओं ने पकड़ लिया। छाती पर दूसरे को कौन कब मार पाया? अपने को ही आदमी मारता बंदूक लगा दी और कहा कि दे दो, जो भी तुम्हारे पास है। अगर रहता है। मारते रहने का अर्थ हुआः जी नहीं पता। जीने के मार्ग नहीं दिया तो मरने के लिए तैयार हो जाओ। मुल्ला ने कहा, जरा में इतनी बाधाएं खड़ी कर लेता है...और हम सबको इसका पता सोचने भी तो दो। देर लगती देखकर डाकू बोले, जल्दी करो। भी चलता है। यह कोई दर्शनशास्त्र नहीं है, जो महावीर कह रहे सोचना क्या है? या मरने को तैयार हो जाओ, या तुम्हारे पास है हैं। ये जीवन के सीधे-सीधे गणित हैं। यह तुम्हें भी पता चलता जो, दे दो। मुल्ला ने कहा, तो फिर मार ही डालो क्योंकि जो मैंने है कि तुम जितने क्रोधी हो, उतने कम जी पाते हो। क्रोध जीने दे इकट्ठा किया है वह बुढ़ापे के लिए इकट्ठा किया है। तुम मार ही तब न! तुम जितने हिंसक हो उतना ही जीना मुश्किल हो जाता डालो। इस धन के बिना मैं जी ना सकूँगा। इस धन के बिना है। हिंसा के साथ जीवन की प्रफुल्लता घटे कैसे? तुम जितने मरना बेहतर है। ज्यादा लोभी हो, उतने ही सिकुड़ते जाते हो; फैल नहीं पाते। ऐसी अतिशयोक्ति तो कम घटती है। तुम सोचोगे, अगर फैलाव के लिए थोड़ी दान की क्षमता चाहिए। फैलाव के लिए तुम्हारी छाती पर कोई बंदूक लगा दे तो तुम तो ऐसा न करोगे। देने की हिम्मत चाहिए, बांटने का साहस चाहिए। तुम कृपण की | तुम कहोगे कि ले जा, जो ले जाना है। मुझे छोड़ दे। लेकिन भांति इकट्ठा करते चले जाते हो। तिजोड़ी तुम्हारी भरती चली | छोटी-छोटी मात्रा में रोज तुम यही कर रहे हो, जो मुल्ला ने जाती है, तुम तो खाली के खाली रह जाते हो। इकट्ठा किया है। जब भी धन और जीवन में चुनाव होता है, तुम आता है इक रोज मधुवन में जब वसंत धन चुनते हो, जीवन नहीं चुनते। इसलिए मुल्ला की कहानी को तृण-तृण हंस उठता, कली-कली खिल जाती है अतिशयोक्ति मत समझना। अगर दस रुपये बचते हों, थोड़ा कोयल के स्वर में भर जाती है नई कक जीवन खोता हो तो तम दस रुपये बचाते हो। शायद भीतर एक 419 ___ 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग: 2 हिसाब है कि जीवन तो मुफ्त में मिला है। कुछ खर्च तो करना पाना नहीं है। जिसने जीवन से कुछ और पाने की कोशिश की, पड़ा नहीं है। धन तो बड़ी मुश्किल से मिलता है। बड़े श्रम से | उसकी कृष्ण लेश्या कभी कटेगी नहीं। मिलता है। तो मैं तुमसे यह कहता हूं कि तम जैन मंदिरों में बैठे जैन मनि अपने भीतर चिंतन की इन प्रक्रियाओं को पकड़ना। इन्हीं के हैं, उनको भी गौर से देखना, तुम कृष्ण लेश्या से भरे पाओगे। ताने-बाने से कृष्ण लेश्या बनती है। | उन्होंने संसार छोड़ा है लोभ के कारण; लोभ से मुक्त होकर मुल्ला का बेटा उससे पूछ रहा था कि पिताजी, मैं दुविधा में | नहीं। जैन मुनि समझाते हैं अपने श्रावकों को कि संसार में क्या हूं। दांतों का डाक्टर बनूं या कानों का? मुल्ला ने कहा, इसमें | रखा है ? अरे स्वर्ग खोजो। धन में क्या रखा है ? पुण्य खोजो। दविधा की बात क्या है? दांतों के डाक्टर बनो। क्योंकि व्यक्ति | यह धन तो कल खो जाएगा. पण्य कभी न खोएगा। के कान तो केवल दो होते हैं, दांत बत्तीस होते हैं। __ इस तर्क का अर्थ समझते हो? इसका अर्थ हुआ कि मुनि ऐसा अगर भीतर लोभ हो तो हर तरफ लोभ छाया डालेगा। तुम्हारे धन खोज रहे हैं, जो कभी नहीं खोता। और तुम ऐसा धन खोज सभी निर्णय, तुम्हारे सभी वक्तव्य, तुम्हारा उठना-बैठना, सब रहे हो, जो खो जाता है। तो मुनि तुमसे ज्यादा लोभी हैं। तुम तो लोभ से परिचालित होगा। क्षणभंगुर में भी प्रसन्न हो, मुनि शाश्वत धन खोज रहे हैं। लेकिन तमने कभी देखा कि चौबीस घंटे में तुम कुछ एकाध कृत्य भी दुकानदारी न गई। मन का गणित न गया। अगर उपवास भी कर करते हो, जो लोभ से मुक्त हो? लोग तो ध्यान भी करते हैं, तो रहे हैं, तप भी कर रहे हैं, ध्यान भी कर रहे हैं तो उपयोगिता लगी वे पहले पूछते हैं, मिलेगा क्या? प्रार्थना भी करते हैं तो पूछते हैं, है। ध्यान से आत्मा मिलेगी, कि ध्यान से परमात्मा मिलेगा। लाभ क्या होगा? परमात्मा के मंदिर में भी जाते हैं तो वे दुकान | मैं तुमसे कहता हूं, ध्यान से सिर्फ ध्यान मिलता है। प्रेम से में ही जाते हैं लाभ! तुम्हारे जीवन में कुछ ऐसा है, जो सिर्फ प्रेम मिलता है। और ध्यान जब पूरी तरह बरसता है तो उसी उपयोगिताशून्य हो? जिसकी कोई उपयोगिता न हो, लेकिन वर्षा की एक व्याख्या परमात्मा है। परमात्मा कुछ और नहीं है, मौज से तुम करते हो? जिसका मूल्य आंतरिक हो? जो ध्यान से मिलता है। उपयोगिता-शून्य, बाजार के बाहर, कोयल गनगनाती, या पक्षी वक्षों में टी-वी-ट-ट करते लोभ-लाभ की वत्ति के बाहर, मद-मत्सर के बाहर, तम जब रहते, या वृक्षों में फूल खिलते, या आकाश में तारे हैं, या पहाड़ों | किसी क्षण में भी सहज आनंद से जीते हो, उसी क्षण में जो घटता से झरने फूटते हैं—कहां प्रयोजन है ? कहां उपयोगिता है? तुम है, वही परमात्मा है। कहो मोक्ष, कहो निर्वाण, कहो समाधि, किसी झरने से पछो कि क्या लाभ है, त बहता ही रहता है? कैवल्य। जो मर्जी नाम दो, क्योंकि उसका कोई नाम नहीं। फायदा क्या है नासमझ ! इसमें सार क्या है? लेकिन तुम्हें अपने प्रतिपल में विचार करना होगा, देखना होगा, यह पूरी प्रकृति निस्सार है मनुष्य के अर्थों में। क्योंकि इसमें से | कहां-कहां कृष्ण लेश्या को तुम मजबूत करते हो। कहीं रुपये तो निकलते नहीं। आदमी तो उतना ही करता है, लेश्याएं छह प्रकार की हैं। कृष्ण, नील, कापोत, ये तीन जिसका उपयोग हो, युटीलिटी हो। लेकिन ध्यान रखना, अगर अधर्म लेश्याएं महावीर ने कहीं। तुम उतना ही करते हो जिसका उपयोग है तो तुम मशीन हो गए, पतंजलि के हिसाब में...पतंजलि ने मनुष्य के सात चक्रों का आदमी न रहे। तुम मुर्दा हो गए। तुम्हारी उपयोगिता हो गई, वर्णन किया। ये तीन लेश्याएं महावीर की और पतंजलि के तीन लेकिन जीवन का कोई गहन आनंद न रहा। निम्न चक्र एक ही अर्थ रखते हैं। ये एक ही तथ्य को प्रगट करने सभी आनंद उपयोगिता मुक्त हैं। और जब तुम उपयोगिता की दो व्यवस्थाएं हैं। मुक्त होओगे, तभी तुम आनंद के जगत में प्रवेश करोगे। जिसको पतंजलि मलाधार कहता है—जो व्यक्ति मलाधार में उल्लास का कोई मूल्य थोड़े ही है! उल्लास अपने आप में जीता है, वह कृष्ण लेश्या में जीता है। मूलाधार में जीनेवाला मूल्यवान है। उल्लास किसी और चीज का साधन थोड़े ही है; | व्यक्ति अंधकार में जीता है, अमावस में जीता है। अपने आप में साध्य है। जीवन स्वयं साध्य है। इससे कुछ और छठवां चक्र है, आज्ञाचक्र। जो व्यक्ति आज्ञाचक्र में पहुंच 1420 2010_03
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________________ छह पथिक और छह लेश्याएं ५पहुआ। जाता है, वह ठीक वहीं पहुंच गया, जो महावीर की परिभाषा में | हो रहा है मेहरबां मुझ पर वह रश्के-सदबहार शुक्ल लेश्या में पहुंचता है। तृतीय नेत्र खुल गया। पूर्णिमा हुई। खिल रही है फिर मेरे दिल की कली कल रात से पूरा चांद निकला। उनका जलवा ख्वाब में पुर-कैफ मझको कर गया और जिसको पतंजलि सहस्रार कहता है-सहस्रदल कमल, आंख में आई हुई है नींद-सी कल रात से सातवां चक्र, वही महावीर के लिए वीतराग स्थिति है। रंग-राग किस कदर है उनसे मिलने की खुशी कल रात से सब गया। सब लेश्याएं गईं। कृष्ण लेश्या तो गई ही, श्वेत जिंदगी में आ गई है ताजगी कल रात से लेश्या भी गई। काले पर्दे तो उठ ही गए, सफेद पर्दे भी उठ गए। आलमे-वहशत था तारी हर तरफ कल रात तक पर्दे ही न रहे। हर दरो-दीवार में है दिलकशी कल रात से परमात्मा बेपर्दा हुआ, नग्न हुआ, दिगंबर हुआ। आकाश के | बन गया है दिल का हर अरमान एक बज्मे-निशात अतिरिक्त और कोई ओढ़नी न रही, ऐसा निर्दोष हुआ। नगमाजन है अर्स साजे-जिंदगी कल रात से तो जो छह चक्र हैं पतंजलि के, वे ही छह लेश्याएं हैं महावीर साधारण प्रेम में जो कल तक मौत थी, वह आज जिंदगी की। पहले तीन चक्र सांसारिक हैं। अधिकतर लोग पहले तीन मालूम पड़ने लगती है। कल तक जहां साज टूटा पड़ा था, आज चक्रों में ही जीते और मर जाते हैं। चौथा, पांचवां और छठवां झनझना उठता है। चक्र धर्म में प्रवेश है। चौथा चक्र है हृदय, पांचवां कंठ, छठवां जैसे ही हृदय पर चोट लगती है, वैसे ही तम्हारे जीवन में दीप्ति आज्ञा। हृदय से धर्म की शुरुआत होती है। हृदय यानी प्रेम। का जन्म होता है। सांसारिक प्रेम में तो यह चोट ऐसी है कि जैसे हृदय यानी करुणा। हृदय यानी दया। हृदय के अंकुरण के साथ एक बड़े विराट हृदय में जरा-सा एक कोना रोशन हुआ हो। जब ही धर्म की शुरुआत होती है। जिसको हृदय चक्र कहा है यह कोना कोना नहीं रह जाता, और तुम्हारा पूरा हृदय रोशन पतंजलि के शास्त्र में, वही तेजो लेश्या है। हृदयवान व्यक्ति के होता है तो उसी को महावीर अहिंसा कहते हैं। उसी को बुद्ध जीवन में एक तेज प्रगट होता है। | करुणा कहते हैं। उसको जीसस ने प्रेम कहा है। या भक्तों ने, तुमने प्रेमी का चेहरा दमकता देखा होगा। जब तुम कभी किसी नारद ने प्रार्थना कहा है। के प्रेम में होते हो तो तुम्हारे चेहरे पर एक नई ही आभा प्रगट हो जब तुम्हारा पूरा हृदय आंदोलित हो उठता है प्रेम से तो तुम्हारे जाती है। चेहरा तुम्हारा, कल भी तुम्हारा था, आज तुम्हारा जीवन में तेजो लेश्या का जन्म हुआ। लेकिन महावीर उसको भी किसी से प्रेम हआ तत्क्षण तुम्हारे चेहरे पर एक रौनक आ जाती लेश्या ही कहते हैं, यह खयाल रखना। महावीर कहते हैं, वह है, जो कभी न थी—एक दीप्ति। तुम ज्यादा जीवंत हो उठते हो। भी बंधन ही है—धर्म का सही, सुंदर है सही, शुभ है सही, जैसे किसी ने तुम्हारी बुझते-बुझते दीये की ज्योति को उकसा लेकिन भूल मत जाना कि बंधन है। फिर उसके बाद पद्म लेश्या दिया। राख जम गई थी, किसी ने झाड़ दी और तुम्हारा अंगारा और शुक्ल लेश्या। क्रमशः और सुंदरतर होता जाता जीवन। फिर दमक उठा। शुक्ल लेश्या-योग की तृतीय आंख, या तंत्र का शिवनेत्र, साधारण प्रेम में ऐसा हो जाता है तो जिस प्रेम की महावीर और महावीर की शुक्ल लेश्या है। जैसे तुम्हारे भीतर इन छह के बीच पतंजलि बात करते हैं, उसकी तो बात ही क्या कहनी! अमावस और पूर्णिमा का अंतर है। जब तुम्हारे जीवन की ऊर्जा एक स्त्री के प्रेम में तुम पड़ जाओ, एक मित्र के प्रेम में पड़ | आज्ञाचक्र पर आकर ठहरती है तो तुम्हारा सारा अंतर्लोक एक जाओ, एक रौनक आ जाती है। तेजो लेश्या! एक स्वर्णिम प्रभा से मंडित हो जाता है। एक प्रकाश फैल जाता है। तुम दमक आ जाती है। पहली दफा जागरूक होते हो। तुम पहली दफा ध्यान को कल एक कविता पढ़ रहा था। प्रेम की कविता है। उपलब्ध होते हो। इस तगैयुर के लिए उनको दुआ देता हूं मैं इसलिए पतंजलि ने उसे आज्ञाचक्र कहा। आज्ञाचक्र का अर्थ मौत थी कल रात तक, जिंदगी कल रात से है कि इस घड़ी में तुम जो कहोगे, कहते ही हो जाएगा। तुम्हारी 421/ 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग: 2 NeSTER आज्ञा तुम्हारे व्यक्तित्व के लिए सहज स्वीकृत हो जाएगी। इतनी पहली दफा गुलामी के बाहर होते हो। तुम्हारी आज्ञा चलती है जागरूकता में जो भी कहा जाएगा, जो भी निर्णय लिया जाएगा, | तुम्हारे ऊपर। महावीर का शब्द भी बड़ा सुंदर है: शुक्ल। वह तत्क्षण पूरा होने लगेगा। क्योंकि अब कोई विरोधी नहीं पूर्णिमा हो गई। सब अंधेरा गया। कोना-कोना जाग्रत हो उठा। रहा। अब तुम एक-सूत्र हुए, एक-जुट हुए। अब तुम्हारे भीतर अगर आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा से हम समझना चाहें तो दो आंखें न रहीं, एक आंख हुई। दो थीं तो द्वंद्व था। एक कुछ पहले तीन चक्र, जिसको फ्रायड कांशस माइंड कहता है, चेतन कहती, दूसरी कुछ कहती। यही अर्थ है उस प्रतीक का-तृतीय मन कहता है, उसके हैं। दूसरे तीन चक्र, जिनको महावीर धर्म नेत्र का। अब एक आंख हुई। तुम एक-दृष्टि हुए। लेश्या कहते हैं, अनकांशस माइंड के, अचेतन मन के हैं। और जीसस ने अपने शिष्यों को कहा है, जब तक तुम्हारी दो आंखें | सातवीं स्थिति सुपरकांशस माइंड की है, अति-चेतन मन की। एक आंख न बन जाए, तब तक तुम मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश न जो व्यक्ति तीन चक्रों में ही जीता, वह ऊपर-ऊपर जीता है। जैसे कर सकोगे। कोई व्यक्ति अपने घर के बाहर पोर्च में जीता हो। वहीं दो का अर्थ है, भीतर खंड-खंड बंटे हैं हम। एक मन कुछ टीन-टप्पर बांधकर रहने लगा है। पूरा महल खाली पड़ा है। कहता, दूसरा मन कुछ कहता। एक मन कहता है, अभी तो भोग पूरा महल उसका है, जन्मसिद्ध उसका अधिकार है, लेकिन लो। एक मन कहता है, क्या रखा भोगने में? छोड़ो। एक मन स्मरण नहीं रहा। वह भीतर जाना भूल गया है। याद खो गई। कहता है, मंदिर चलो-प्रार्थना की पावनता। दूसरा मन कहता विस्मरण हो गया है। है, व्यर्थ समय खराब होगा। घंटेभर में कुछ रुपये कमा लेंगे। तो जो व्यक्ति पहले तीन चक्रों में ही जी लेते हैं, उन्हें अपने ही बाजार ही चलो। प्रार्थना बूढ़ों के लिए है, अंत में कर लेंगे। मरते पूरे महल का कोई पता नहीं चल पाता। जो व्यक्ति अपने भीतर वक्त कर लेंगे। इतनी जल्दी क्या है? अभी कोई मरे नहीं जाते। प्रवेश करते हैं और छठवें चक्र तक पहुंचते हैं, उन्हें अपने महल तुमने खयाल किया? कि मन कभी भी निर्णीत नहीं होता। में निवास मिलता है। पहले तीन चक्र थोड़े-से रोशन हैं। बाकी अनिर्णय मन का स्वभाव है। छोटी-छोटी बातों में अनिर्णीत | तीन चक्र अभी बिलकुल अंधेरे में पड़े हैं। इसीलिए फ्रायड होता है। कौन-सा कपड़ा आज पहनना है, इसी के लिए मन उनको अनकांशस कहता है; अचेतन कहता है। लेकिन वे अनिर्णीत हो जाता है। किस फिल्म को देखने जाना, इसीलिए अचेतन इसीलिए हैं कि तुम वहां नहीं गए। तुम्हारे जाते ही चेतन अनिर्णीत हो जाता है। जाना कि नहीं जाना इसी के लिए आदमी हो जाएंगे। तुम जहां गए वहीं चेतना पहुंच जाती है। तुम्हारी सोचने लगता है, डांवाडोल होने लगता है; जैसे तुम्हारे भीतर दो दृष्टि जहां पड़ी, वहीं चैतन्य का जन्म हो जाता है। तुम वहां गए आदमी हैं, एक नहीं। नहीं इसलिए। आज्ञाचक्र पर आकर तुम्हारा द्वंद्व समाप्त होता है, तुम एक ऐसा समझो, चौदह साल तक बच्चा बड़ा होता है। तब तक बनते हो। इसलिए पतंजलि ने उसे आज्ञाचक्र कहा क्योंकि तुम उसका काम-केंद्र अचेतन रहता है। ऐसा कम से कम अतीत में पहली दफा स्वामी बनते, मालिक बनते। जब तक आज्ञाचक्र न | तो रहता था। अब जरा मुश्किल है। क्योंकि काम-चेतना के खुल जाए तब तक कोई अपना मालिक नहीं। | शोषण करने के लिए इतने लोग आतुर हैं कि छोटे बच्चों की मैंने तुम्हें स्वामी कहा है, तुम्हें संन्यास दिया है। तुम स्वामी मेरे काम-चेतना भी परिपक्व हुए बिना जाग्रत हो जाती है। कहने से हो नहीं गए। यह तो सिर्फ दिशा-निर्देश किया है। यह एक बड़ी हैरानी की घटना अमरीका में घट रही है। लड़कियां तो तुम्हारे भीतर आकांक्षा का बीज डाला है। यह तो तुम्हारी दो साल पहले मासिक धर्म से ग्रस्त होने लगी हैं। चौदह साल में अभीप्सा जगाई है। यह तो तम्हें एक दष्टि और दिशा दी है। यह होती थीं, अब वे बारह साल में होने लगी हैं। मालम होता है कि तो तुम्हारे लिए बोध दिया है कि यह तुम्हें होना है। इससे होने के चारों तरफ का दबाव, वासना का ज्वार चारों तरफ-फिल्म हो, पहले रुकना मत, जब तक कि स्वामी न हो जाओ। | टेलीविजन हो, रेडियो हो, पोस्टर हो, अखबार हो; और सब तो ठीक, आज्ञाचक्र बड़ा सुंदर शब्द है। वहां आकर तुम तरफ की हवा और सब तरफ छिछला प्रदर्शन शायद मनुष्य की 422 2010_03
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________________ छह पथिक और छह लेश्याएं प्रकृति पर दबाव डाल रहा है। दो साल उम्र गिर जाना नीचे, बड़ी पाने योग्य था, बस उसी से वंचित रह जाओगे। हैरानी की बात है। बायोलाजिस्ट बड़े चकित हैं कि यह कैसे पीड़ा मिली जनम के द्वारा हुआ! अगर ऐसा जारी रहा तो शायद कुछ दिनों में और उम्र गिर | अपयश पाया नदी किनारे जाएगी। शायद सात वर्ष के छोटे-छोटे बच्चे कामातुर हो इतना कुछ मिल गया एक बस उठेंगे। ये बेमौसम के फल होंगे और इनके जीवन में बड़ी तुम्हीं नहीं मिले जीवन में कठिनाई खड़ी होगी। हुई दोस्ती ऐसी दुख से लेकिन साधारणतः चौदह साल की उम्र तक कामवासना का हर मुश्किल बन गई रुबाई केंद्र सोया पड़ा रहता है, अचेतन रहता है। चौदह साल की उम्र इतना प्यार जलन कर बैठी में चैतन्य बनता है। और जैसे ही चेतना काम-केंद्र पर जाती है। क्वांरी ही मर गई जुनाई तो काम-केंद्र फिर अचेतन नहीं रह जाता। फिर सारा मन उसी | बगिया में न पपीहा बोला के आसपास घूमने लगता है। अक्सर लोग पहले केंद्र के पास | द्वार न कोई उतरा डोला ही समाप्त हो जाते हैं। अक्सर लोग इस पहले केंद्र पर ही जीते हैं। सारा दिन कट गया बीनते और मर जाते हैं। बूढ़े से बूढ़ा आदमी भी कामलोलुप ही जीता कांटे उलझे हुए वसन में है। चाहे कहता न हो, मन ही मन में छुपाकर रखता हो; इससे पीड़ा मिली जनम के द्वारा कछ फर्क नहीं पड़ता। लेकिन चित्त में कामवासना ही चलती अपयश पाया नदी किनारे रहती है। यह बड़ी दुर्दिन की घटना है, दुर्भाग्य की घटना है। इतना कुछ मिल गया एक बस इसका मतलब हुआ, महल अपरिचित रह गया। तुम्हीं नहीं मिले जीवन में जैसे-जैसे तुम चैतन्य को भीतर प्रवेश करवाते हो, जैसे-जैसे | और एक चूक जाए, सब चूक गया। वह एक, जिसको भक्त तुम अपने और उपेक्षित अंगों पर रोशनी डालते हो, वैसे-वैसे प्रीतम कहते हैं, उसी को महावीर परमात्मा कहते हैं। वह प्यारा तुम पाते हो, नई-नई संभावनाओं का आविर्भाव होता है। तुम्हारे भीतर ही बैठा है। लेकिन तुम भीतर जाओ तो मिलन हो। महावीर कहते हैं, छठवें केंद्र पर शुक्ल लेश्या पूर्ण होती है। तुम अपने बाहर ही बाहर भटक रहे हो। और तुमने ऐसे पर्दे टांग पूर्णिमा की चांदनी फैल जाती है तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व पर। रखे हैं कि भीतर की याद ही भूल गई है। काले पर्दे ही दिखाई पूर्णिमा की चांदनी फैल जाने के लिए तुम्हें अंतर्यात्रा पर जाना पड़ते हैं। लगता है, भीतर कुछ और है नहीं। होगा। और जो पर्दे तुम्हें बाहर रोकते हैं, उन्हें धीरे-धीरे छोड़ना मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हमने पढ़ा कबीर को, पढ़ा होगा। नानक को; तो वे सभी कहते हैं कि भीतर जाने से प्रकाश होता कृष्ण, नील, कापोत, इन्हें छोड़ो। है। हम तो जाते हैं तो सिवाय अंधकार के कुछ नहीं दिखाई लोभ, मोह, घणा, क्रोध, अहंकार. ईर्ष्या छोडो। प्रेम, दया, | पडता। वह कष्ण लेश्या जब तक न हटेगी, काला पर्दा पड़ा सहानुभूति जगाओ। परिग्रह छोड़ो, अपरिग्रह जगाओ। रहेगा। तुम जाओगे भीतर तो तुम काला ही पाओगे। अक्सर कृपणता छोडो, बंटना सीखो। मांगो मत, दो। और अंतर्यात्रा | तुम भीतर आंख बंद करोगे, तो या तो विचारों का ही ऊहापोह शुरू होगी। | मचा रहेगा। या अगर कभी क्षणभर को विचारों से छुटकारा चीजों को मत पकड़ो। चीजों का मूल्य नहीं है। चीजों को मिला तो अंधेरी रात, अमावस! घबड़ाकर तुम बाहर निकल अपना मालिक मत बनने दो, चीजों के मालिक रहो। उपयोग | आओगे। करो साधन की तरह; साध्य मत बनाओ। तो धीरे-धीरे पर्दे | और अंधेरे से हमें डर लगता है। अंधेरा हम पैदा करते हैं और टूटते हैं। | अंधेरे से हमें डर लगता है। अंधेरा हम जीवनभर बनाते हैं और अगर ऐसा न किया तो जीवन में सब तो पा लोगे, लेकिन जो अंधेरे से हमें डर लगता है। तो जैसे ही अंधेरा दिखा, फिर भागे 1423 ___ 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग : 2 बाहर, फिर खोल दी आंख। लेना जरूरी नहीं है। मुझसे लोग कहते हैं कि जब भीतर का अंधेरा दिखाई पड़ता है | तुमने आदमी देखे, जो कीड़े-मकोड़ों जैसे हैं, या नहीं देखे? तो बड़ी घबड़ाहट होती है। डर लगता है कहीं मर न जाएं, कहीं तुमने आदमी देखे, जिन्हें देखकर आदमी की याद बिलकुल नहीं खो न जाएं। यह कैसा अंधेरा है! आती? जिन्हें देखकर जानवरों का स्मरण होता है। तुमने ईसाई फकीरों ने तो उसको नाम ही दिया है। डार्क नाइट आफ आदमी देखे, जिनका व्यक्तित्व अभी मनुष्य की सीमा को छूता द सोल। जिसको महावीर कृष्ण लेश्या कहते हैं, वही है। ईसाई | ही नहीं; मनुष्य के क्षितिज को छूता ही नहीं? जिनके नीचे के फकीर कहते हैं, जब कोई व्यक्ति अपनी अंतरात्मा की तरफ पशु-पक्षी अभी भी सक्रिय हैं। देह मनुष्य की है, लेकिन मन जाता है तो एक बड़ी अंधेरी रात से गुजरना पड़ता है। वह अंधेरी अभी बहुत पिछड़ा हुआ है; बहुत पीछे का है। रात हमारी बनाई हुई है; हमीं को मिटानी पड़ेगी। दूसरा कोई उसे तुम कभी आंख बंद करके देखो, तुम पाओगे, मन बंदर की मिटा भी नहीं सकता। साहस करके, दुस्साहस करके हमें उस भांति है। जब तक मन शांत न हो जाए, तब तक तुम यह मत पर्दे को चीर डालना होगा। समझना कि वृक्ष से उतर आए तो उतर आए। डार्विन ठीक ही कठिन नहीं है क्योंकि उसका ताना-बाना बहुत साफ है। कहता है कि आदमी बंदर से पैदा हुआ है। लेकिन एक जगह लोभ, माया, मोह, मद, इनसे ही बना है। इनको तुम क्षीण करो, भूल करता है वह यह–अभी पैदा कहां हुआ है? कभी-कभी वह काली चादर अपने आप क्षीण होने लगेगी। उसके ताने-बाने कोई होता है। कुछ बंदर झाड़ों से नीचे उतर आए हैं। कुछ बंदर उखड़ जाएंगे। जगह-जगह छेद हो जाएंगे। जगह-जगह छेद से झाड़ों पर बैठे हैं, लेकिन बंदरपन सभी के भीतर है। तुम्हें नील लेश्या का दर्शन होने लगेगा। कभी कोई महावीर, कभी कोई बुद्ध वस्तुतः मनुष्य होता है, जिस व्यक्ति की कृष्ण लेश्या गिरती है, उसे भीतर नीले जब मन का बंदर नहीं रह जाता। अभी तुम देखो, मन के बंदर आकाश का दर्शन होगा। बड़ा शांत! जैसे कोई गहरी नदी हो को तुम मुंह बिचकाते, इस झाड़ से उस झाड़ पर छलांग लगाते, और नीली मालूम पड़ती हो। इस शाखा से उस शाखा पर डोलते हुए पाओगे। तुम बंदर को फिर जो उसके भी पार जाएगा, उसके लिए महावीर कहते हैं, | भी इतना बेचैन न पाओगे, जितना तुम मन को बेचैन पाओगे। कापोत लेश्या। तब और भी हलका नीलापन; गहरा नहीं। ऐसे | डार्विन तो बड़ी बाहर की शोध करके इस नतीजे पर पहुंचा; क्रमशः पर्ते टूटती जाती हैं। अगर भीतर जरा उसने झांका होता तो इतनी बाहर की शोध करने '...तेजो लेश्या, पद्म लेश्या, शुक्ल लेश्या, इनमें पहली तीन की जरूरत न थी। आदमी बंदर से निश्चित आया है। आदमी अशुभ हैं। इनके कारण जीव विभिन्न दुर्गतियों में उत्पन्न होता है।' | अभी भी बंदर है। और इस भीतर के बंदर से छुटकारा जब तक यह भी समझ लेना जरूरी है। क्योंकि इस सूत्र की व्याख्या | न पाया जाए तब तक मनुष्य का जन्म नहीं होता। मनुष्य की देह बड़ी अन्यथा की जाती रही है। वह व्याख्या ठीक है, लेकिन एक बात है; मनुष्य का चित्त बड़ी और बात है। बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। महावीर का यह सूत्र है : 'कृष्ण, नील और कापोत, ये तीनों व्याख्या की जाती रही है कि इन तीन लेश्याओं में जो उलझा अधर्म या अशुभ लेश्याएं हैं। इनके कारण जीव बड़ी दुर्गतियों में हुआ है, वह नर्क जाएगा; दुर्गति में पड़ेगा। पशु-पक्षी हो उत्पन्न होता है।' जाएगा, कीड़ा-मकोड़ा हो जाएगा। यह व्याख्या गलत नहीं है, तो तुम यह मत सोचना कि भविष्य में कभी दुर्गति होगी। जिस लेकिन बड़ी महत्वपूर्ण भी नहीं है। क्षण जो लेश्या तुम्हें पकड़ती है, उसी क्षण दुर्गति हो जाती है। असली व्याख्या H जो व्यक्ति इन लेश्याओं में उलझेगा उसकी दुर्गति उधार नहीं है कि फिर कभी होगी। दुर्गति अभी हो जाती बड़ी दुर्गति होती है। वह कभी भविष्य में, किसी दूसरे जन्म में है। जब तुम क्रोध से भरते हो, तब दुर्गति हो जाती है। जब तुम कीड़ा-मकोड़ा बनेगा, ऐसा नहीं है। वह यहीं कीड़ा-मकोड़ा बन अहंकार से भरते हो तब दुर्गति हो जाती है। जाता है। कीड़ा-मकोड़ा बनने के लिए कीड़े-मकोड़े की.देह दुर्गति प्रतिपल हो रही है। 1424 2010_03
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________________ NEW BAAREEWANATION छह पथिक और छह लश्याएं इस पर मैं जोर देना चाहता हूं। क्योंकि इस बात ने कि कभी आदमी परिचित होता, पहचाना होता, जाना-माना होता। मरने के बाद होगा, लोगों को बड़ा निश्चित बना दिया है। लोग मैंने सुना है, एक बस में एक हिंदू और पचास मुसलमान यात्रा सोचते हैं, देखेंगे जब होगा तब देखेंगे। आदमी की सोचने की कर रहे थे। बस उलट गई, सब मर गए। किसी ने किसी को सीमा है। कहा कि सुना तुमने? बस उलट गई। पचास मुसलमान और जैसे कोई तुमसे कहे कि आज शाम तुम मर जाओगे, तो तुम एक हिंदू मर गए। उस आदमी ने कहा, अरे, बेचारा आदमी! बहुत घबड़ा जाओगे। वह कहे कि सात दिन बाद मरोगे तो तुम हिंदू रहा होगा वह; उसने कहा, बेचारा आदमी। हिंदू के लिए उतने न घबड़ाओगे। तुम कहोगे, सात दिन? देखेंगे। सात | पीड़ा हुई, बाकी पचास मुसलमान के लिए कोई...। दिन...कोई अभी आज तो मर नहीं रहे। कोई कहे, सात साल | तुमको भी नहीं लगता, जब पचास मुसलमान मर जाएं तो कुछ बाद मरोगे तो कुछ चोट न मालूम पड़ेगी। कोई कहेगा, सत्तर चोट नहीं मालूम पड़ती। मुसलमान थे, बात खतम हो गई। साल बाद मरोगे। तुम कहोगे, छोड़ो भी! सात सौ साल बाद | मुसलमान सुनता है, हिंदू मर गए, कुछ अंतर नहीं पड़ता। हिंदू कोई कहे तो...। थे। जैसे हिंदुओं में कोई प्राण नहीं, कोई जीवन नहीं। कोई मृत्यु वक्तव्य तो वही है कि मर जाओगे। लेकिन जैसे-जैसे समय हिंदू की भी होती है कहीं! अच्छा हुआ मर गए। मुसलमान बड़ा होता जाता है, वैसे-वैसे तुम्हारी चिंता क्षीण होती चली मरता है तो पीड़ा होती है मुसलमान को। जाती है। जो निकट मालूम पड़ता है...।। तुमने कभी खयाल किया। एक आदमी मर जाए तुम्हारे पड़ोस हिरोशिमा में एक लाख आदमी मर गए एक साथ, तो भी में तो पीड़ित हो जाते हो तुम। फिर पता चलता कि कहीं अफ्रीका दुनिया में ऐसा नहीं हुआ कि दुख की लहर फैल गई हो। लोगों ने में हजार आदमी मर गए, कि बांगला देश में दस हजार आदमी पढ़ लिया अखबार में, सुन लिया, लेकिन कोई चोट न हुई। मर गए। एक आदमी का मरना पड़ोस में तुम्हें पीड़ित कर देता सीमा के बाहर हो गई बात।। है। दस हजार आदमी बांगला देश में मरते हैं, तुम अखबार पढ़ / __ आदमी की बड़ी छोटी-सी सीमा है। उसकी रोशनी बड़ी लेते हो; कुछ भी नहीं होता। टिमटिमाती हुई थोड़ी-सी सीमा पर पड़ती है। उसके पार फिर क्या मामला है? इससे क्या फर्क पडता है. तम्हारे पडोस में कछ अंतर नहीं पड़ता। मरे, एक मील पर मरे कि हजार मील पर मरे! लेकिन सीमा है तो तुमने जो व्याख्या सुनी है अब तब कि मरने के बाद, अगर तुम्हारी। तुम्हारी पत्नी मर जाए तो ज्यादा पीड़ा होती है। पड़ोसी तुम गलत लेश्याओं के साथ ग्रसित रहे तो दुर्गति होगी, नर्क में की पत्नी मर जाए तो उतनी पीड़ा नहीं होती। जरा दूर है। चाहे पड़ोगे। मरने के बाद नर्क में पड़ोगे? तुम्हें कोई फिक्र नहीं होती, एक घर का ही फासला हो, मगर फासला हो गया। किसी और | इसकी कोई चोट ही नहीं पड़ती। की पत्नी मरी। मैं तुमसे कहता हूं, इस व्याख्या ने आदमी का बड़ा नुकसान जैसे तम्हारे चित्त से दूरी होती जाती है, वैसे-वैसे तुम्हारी चिंता, | कर दिया। यह व्याख्या सही है। अगर जीवनभर गलत तुम्हारी बेचैनी कम होती जाती है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि | लेश्याओं का संबंध रहा तो तुम्हारा अगला जीवन इन्हीं गलत मनुष्य के मन की बड़ी सीमाएं हैं। एक आदमी मरे और हजार | भित्तियों पर खड़ा होगा। तो दुर्गति तो होनेवाली है। लेकिन मैं आदमी मरें, तो दोनों खबरें सुनकर तुम्हें हजार गुना दुख नहीं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं कि तुम टालो मत। दुर्गति अभी भी होता, जब हजार आदमी मरते हैं। खयाल किया? एक आदमी | हो रही है, इसीलिए कल भी होगी, परसों भी होगी। जो अभी हो मर गया, हजार आदमी मर गए, दस हजार आदमी मर रही है, उसको अभी देखने की कोशिश करो। कहीं ऐसा न हो गए...दस हजार आदमी मरे सुनकर क्या तुम्हें दस हजार गुना | कि मौत के बाद सोचकर तुम टाल ही दो। दुख होता है? संभावना तो यह है कि शायद उतना भी न हो, | 'पीत, पद्म, शुक्ल, ये तीनों धर्म या शुभ लेश्याएं हैं। इनके जितना एक आदमी के मरने से होता था-अगर वह एक | कारण जीव विविध संगतियों में उत्पन्न होता है।' 14251 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग: 2 299 और वही सुगति के लिए भी याद रखना। मैं स्वर्ग और नर्क अब फल खाने हैं और पूरे वृक्ष को पीड़ से काटने बैठ गए। को वर्तमान में खींच लाना चाहता हूं। मैं तुमसे कहना चाहता हूं कोई...अनावश्यक है। कि स्वर्ग और नर्क यहीं हैं। इसका तुम यह मतलब मत समझना | बहुत लोग, अधिक लोग यही कर रहे हैं। तुम्हें कितना भोजन कि आगे नहीं हैं। लेकिन जो भी आगे है, वह यहां भी है। और चाहिए? कितना कपड़ा चाहिए? कितना छप्पर चाहिए? तुम उसे यहां देख लो तो ही आगे सम्हाल सकोगे। अगर तुमने | लेकिन तुम इकट्ठा किए जा रहे हो। कोई सीमा ही नहीं है। ऐसी यहां न देखा तो तुम आगे भी न सम्हाल सकोगे। जगह लोग पहुंच जाते हैं धन इकट्ठा करने की, कि उनको समझ तमने कभी देखा। कोई बीमार है और तुम एक फूल जाकर में भी आता है कि अब करके और करेंगे क्या? क्योंकि धन से उसको भेंट कर आए। उस क्षण में तुमने अपने भीतर झांककर जो मिल सकता था, मिल गया। अब तो अतिरिक्त धन इकट्ठा देखा? तुम्हारी प्रतिमा उज्ज्वल हो जाती है तुम्हारी ही आंखों में। हो रहा है, फिर भी किए चले जाते हैं। जैसे एक नशा है। इस हलके हो जाते हो तुम। किसी को गाली दे दी, किसी का धन का क्या करेंगे अब, यह कोई सवाल भी नहीं है। जो भी इस अपमान कर दिया, उसके बाद तुमने देखा? तुम्हारी प्रतिमा दुनिया में धन से खरीदा जा सकता था, वह सब मिल गया है। तुम्हारी ही आंखों में धूल-धूसरित हो जाती है। तुम नीचे गिर | अच्छा मकान है, अच्छी कार है, अच्छा बगीचा है, अच्छा जाते हो। तुम तड़फते हो।। भोजन, अच्छे कपड़े हैं; अब और क्या चाहिए? लेकिन दौड़ नर्क और स्वर्ग प्रतिपल घटता है। तो जब भी तुम सुखी | जारी रहती है। अनुभव करो, जानना कि सुख स्वर्ग है। जब भी दुखी अनुभव जो व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की सीमा नहीं मानता वह करो, जानना कि दुख नर्क है। जब भी दुखी अनुभव करो, | सदा दुखी रहता है। और जो अपनी आवश्यकताओं की सीमा जानना कि तुमने अधर्म लेश्याओं के साथ संबंध जोड़ा होगा, पहचान लेता है, उसके जीवन में सुख का अवतरण शुरू हो अन्यथा दुख होता नहीं। और जब भी सुखी समझो तो जानना | जाता है। आवश्यकता की सीमा को पहचान लेना सुख की कि तुमने शुभ लेश्याओं के साथ संबंध जोड़ा, धर्म के साथ पहली व्यवस्था है। और आवश्यकता की सीमा को ही न संबंध जोड़ा; अन्यथा सुख होता नहीं।। पहचाने जो, वह तो सुखी हो ही नहीं सकता। उसके पास कितना सुख परिणाम है शुभ भाव का। दुख परिणाम है अशुभ भाव ही हो, वह दुखी रहेगा। जितना होगा, उतना ज्यादा दुखी होगा; का। तुम्हारे ही भाव हैं, तुम्हीं पर परिणाम आते हैं। क्योंकि और ज्यादा की मांग बढ़ती जाएगी। यह जो महावीर ने छोटी-सी बोधकथा कही है : पहले ने सोचा पेड़ को जड़मूल से काटकर, दूसरे ने कहा 'पहले ने सोचा, पेड़ को जड़मूल से काटकर उसके सारे फल केवल स्कंध ही काटा जाए। तीसरे ने कहा, इतने की क्या खा जाएं...।' इसे अपने भूख की चिंता है, लेकिन पेड़ के जरूरत? शाखा को तोड़ने से चल जाएगा। चौथे ने कहा, जीवन की कोई भी नहीं। उपशाखा ही तोड़ना काफी है। पांचवें ने कहा, पागल हए हो? 'दूसरे ने कहा, केवल स्कंध ही काटा जाए...।' पूरे वृक्ष को | शाखा, उपशाखा, स्कंध, वृक्ष को करना क्या है? फल ही तोड़ क्यों नष्ट करें? स्कंध काटने पर फिर अंकुरित हो जाएगा। फिर | लिए जाएं। वृक्ष पैदा हो जाएगा। भूख लगी है, फल की जरूरत है। भूख के लिए फल चाहिए। लेकिन इस दूसरे को भी सोच में न आया कि स्कंध भी क्यों शाखाएं, प्रशाखाएं क्यों तोड़ी जाएं? काटा जाए? फल काटने के लिए स्कंध काटना जरूरी कहां छठे ने कहा, बैठे; पके फल हैं, गिरेंगे। तोड़ने की जरूरत नहीं है? तुमने देखा जीवन में? जहां सुई की जरूरत होती है, तुम है। छीनना भी क्या? तलवार लिए घूमते हो। और जो काम सुई से हो सकता है, वह और ध्यान रखना, अस्तित्व इतना दे रहा है बिना मांगे और तलवार से हो ही नहीं सकता। अक्सर तो ऐसा होगा कि सूई से बिना छीने, कि जो छीनने में पड़ जाता है वह भूल ही जाता है जो काम होता था, तलवार के कारण उसमें बाधा पड़ जाएगी। | जीवन का एक परम गुण, कि यहां प्रसाद बंट रहा है। यहां मिल 426 2010_03
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________________ छह पथिक और छह लेश्याएं PARTNER ही रहा है। तुम झपट्टा मारने में सिर्फ ओछे सिद्ध होते हो। जीवन | खो गई। इसकी चर्चा ही बंद हो गई। का कुछ रहस्य ऐसा है कि यहां बिना मांगे...सब मिल ही रहा | __ अभी अमरीका में फिर पुनः एक नया उदभव हुआ, है। जीवन मिल गया तो अब और क्या चाहिए? और भी मिल आकस्मिक हुआ। दुनिया की बहुत-सी खोजें आकस्मिक हुई जाएगा। जब जीवन बिना मांगे मिल गया...। हैं। जो वैज्ञानिक काम कर रहा था वह किसी और दृष्टि से काम तुमने कभी मांगा था जीवन? सोचा इस पर? कहीं तुम हाथ कर रहा था। लेकिन खोज में उसको यह अनुभव हुआ कि वृक्षों जोड़कर याचक की तरह खड़े हुए थे कि जीवन दे दो मुझे? | में कुछ संवेदनाएं मालूम होती हैं। तो उसने वृक्षों में महीन तार जीवन मिल गया। जब जीवन मिल गया तो और क्या है, जो | जोड़े और यंत्र बनाए देखने के लिए, कि वृक्ष भी कुछ अनुभव नहीं मिल सकेगा? थोड़ी प्रतीक्षा चाहिए। | करते हैं? तो छठे ने कहा, हम बैठ जाएं। पके फल लगे हैं, हवा के झोंके | तो तुम अगर वृक्ष के पास जाओ कुल्हाड़ी लेकर, तो तुम्हें आएंगे। फिर वृक्ष को भी तो दया होगी। फिर वृक्ष भी तो | कुल्हाड़ी लेकर आता देखकर वृक्ष कंप जाता है। अगर तुम मारने समझेगा कि हम भूखे हैं। फिर वृक्ष भी तो चाहता है कि कोई | के विचार से जा रहे हो, वृक्ष को काटने के विचार से जा रहे हो तो उसके फलों को चखे और प्रसन्न हो, आनंदित हो। नहीं तो वृक्ष बहुत भयभीत हो जाता है। अब तो यंत्र हैं, जो तार से खबर दे की भी प्रसन्नता कहां है? देते हैं। नीचे ग्राफ बन जाता है, कि वृक्ष कंप रहा है, घबड़ा रहा कवि के पास गीत हो तो गुनगुनाकर तुम्हें सुनाना चाहता है। है, बहुत बेचैन है, तुम कुल्हाड़ी लेकर आ रहे हो। लेकिन अगर तुम ताली बजाओ इसकी प्रतीक्षा करता है। संगीतज्ञ वीणा तुम कुल्हाड़ी लेकर जा रहे हो, और काटने का इरादा नहीं है, बजाना चाहता है। तुम्हारी आंखें आह्लाद से भर जाएं तो वह सिर्फ गुजर रहे हो वहां से तो वृक्ष बिलकुल नहीं कंपता। वृक्ष के प्रफुल्लित होगा। फूलों की गंध बिखरती है और हवाओं पर | भीतर कोई परेशानी नहीं होती। सवार हो जाती है, दूर-दूर की यात्रा पर निकल जाती है कि कोई | यह तो बड़ी हैरानी की बात है। इसका मतलब यह हुआ कि नासापुट प्रतीक्षा करते होंगे। | तुम्हारे भीतर जो काटने का भाव है, वह वृक्ष को संवादित हो वृक्षों के फल जब पक जाते हैं तो शाखाएं अपने आप नीचे जाता है। फिर जिस आदमी ने वृक्ष काटे हैं पहले, वह बिना झुक जाती हैं, ताकि कोई राहगीर आए तो शाखाएं बहुत दूर न कुल्हाड़ी के भी निकलता है तो वृक्ष कंप जाता है। क्योंकि उसकी हों। फिर जब फल पक जाते हैं तो अपने से गिरने लगते हैं। दुष्टता जाहिर है। उसकी दुश्मनी जाहिर है। जो पक गया है, वह अपने से गिर आता है। लेकिन जिस आदमी ने कभी वृक्ष नहीं काटे हैं, पानी दिया है महावीर यह कह रहे हैं, भरोसा करो, श्रद्धा करो। तुम जिस पौधों को, जब वह पास से आता है तो वृक्ष प्रफुल्लता से भर जीवन से आए हो उसी से वृक्ष भी आया। तुम दोनों जुड़े हो कहीं जाता है। उसके भी ग्राफ बन जाते हैं कि कब वह प्रफुल्ल है, भीतर गहरे में। तुम्हारी भूख तुम्हारी ही भूख नहीं है, वृक्ष को भी कब वह परेशान है। पीड़ा होगी। तुम जरा भूखे होकर इस वृक्ष के नीच बैठ तो और वैज्ञानिक अदभुत आश्चर्यजनक निष्कर्षों पर पहुंचे हैं कि जाओ। एक वृक्ष को काटो तो सारे वृक्ष बगीचे के कंप जाते हैं, पीड़ित हो इस सत्य को भी अब आधुनिक मनोविज्ञान ने बड़े प्रमाण दिए जाते हैं। और एक वृक्ष को पानी दो तो बाकी वृक्ष भी प्रसन्न हो हैं। न्यूयार्क में एक वैज्ञानिक वृक्षों पर प्रयोग कर रहा था-वृक्षों जाते हैं जैसे एक समुदाय है। के संवेगों पर, भावनाओं पर। वह बड़ा हैरान हो गया। पहले | इससे भी गहरी बात जो पता चली है, वह यह कि एक वृक्ष के भी नहीं था कि वक्षों में संवेग हो सकते हैं। पास बैठकर तम एक कबतर को मरोड़कर मार डालो, तो वक्ष महावीर के बाद जगदीशचंद्र बसु तक बात ही भूल गई थी। फिर कंप जाता है। जैसे कबूतरों से भी बड़ा जोड़ है, संबंध है। जैसे जगदीशचंद्र बसु ने थोड़ी बात उठाई कि वृक्षों में जीवन है। सारी चीजें जुड़ी हैं, लेकिन बसु भी धीरे-धीरे विस्मृत हो गए। विज्ञान से यह बात ही होना भी ऐसा ही चाहिए, क्योंकि हम एक ही अस्तित्व की माग 427 ___ 2010_03 www.jainelibrary org
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________________ जिन सूत्र भाग : 2 तरंगें हैं। सागर तो एक है, हम उसकी ही लहरें हैं। एक लहर पर जाकर खड़े हो गए और कहा कि भोजन दो, तो जबर्दस्ती है। वृक्ष बन गई, एक लहर पशु बन गई, एक लहर मनुष्य बन गई, न देना हो उसे तो? इंकार करे तो बेइज्जती होती है, अपमान लेकिन हम सब भीतर जुड़े हैं। हम सब जीवन के ही अंग हैं। होता है। बेमन से दे तो लेने का मजा ही चला गया। तो महावीर कहते हैं, छठवां कहता है, बैठे। वह श्वेत लेश्या तो महावीर ने बड़ा अनूठा प्रयोग किया। सिर्फ महावीर ने को उपलब्ध व्यक्ति है। उसके भीतर चंद्रमा की चांदनी फैल गई किया पृथ्वी पर। दो-दो महीने, महीने-महीनेभर के उपवास के है। वह होश से भरा व्यक्ति है। वह कहता है, काटने-पीटने की बाद गांव में जाते और अगर न मिलता तो वे प्रसन्नता से वापस जरूरत ही नहीं है। छीनने-झपटने की बात ही गलत है। जहां लौट आते। जीवन मुफ्त मिला है, वहां भोजन न मिलेगा? ___ इसमें कुछ विषाद भी न था, शिकायत भी न थी। वे कहते. तो जीसस ने कहा है अपने शिष्यों को, देखो खेत में लगे हुए | ठीक है। आज भोजन की जरूरत न होगी। जब प्रकृति आज देने लिली के फूलों को; न तो ये श्रम करते हैं, न ये दुकान करते हैं, न | को तैयार नहीं है तो साफ है कि मेरे मन का ही खयाल होगा कि ये बाजार करते। फिर भी कोई अनजान, अपरिचित इनकी सब | भूख लगी है। अगर भूख लगी ही होती तो कहीं न कहीं, कहीं न जरूरतें पूरी कर जाता है। और देखो तो जरा इनके सौंदर्य को। कहीं प्रकृति में कंपन होता। कोई न कोई उपाय बनता। सम्राट सोलोमन भी अपनी सारी सजावट के साथ इतना सुंदर न एक दफा उन्होंने नियम ले लिया कि कोई राजकुमारी लोहे की था, जितने ये खेत के किनारे लगे लिली के फूल हैं। तुम इन जैसे जंजीरों में बंधी...अब राजकुमारी और लोहे की जंजीरों में हो जाओ: जीसस ने अपने शिष्यों से कहा। बंधी!-निमंत्रण देगी; द्वार पर कोई गाय खड़ी, उसके सींग में महावीर तो इस तरह जीए हैं। महावीर तो जब उन्हें भूख लगती | गुड़ लगा; तो स्वीकार करूंगा। कई दिन आए और गए, पूरा तो गांव में आ जाते। कैसे यह पक्का हो कि मैंने मांगा नहीं? तो | नगर परेशान हो गया। क्योंकि पूरा नगर देख रहा है कि उन्होंने वे सुबह ही जब ध्यान में होते तब निर्णय कर लेते कि आज किसी| कुछ व्रत लिया है, पूरा नहीं हो रहा है। हम भोजन भी नहीं दे पा द्वार के सामने कोई स्त्री अपने बच्चे को कंधे पर लिए खड़ी होगी रहे हैं। लोग रो रहे हैं, पीड़ित हैं, परेशान हैं। वे रोज आते हैं, और यदि निवेदन करेगी कि आप हमारे घर भोजन कर लें. तो मैं उसी प्रसन्नचित्त-भाव से, उसी आह्लाद से, चक्कर लगाकर गांव भोजन करूंगा। कोई स्त्री अगर कंधे पर बच्चे को लिए खड़ी | का वापस चले जाते हैं। ऐसा कई दिन हुआ। फिर एक दिन वह होगी तो! एक पैर बाहर निकला होगा देहली के, एक पैर भीतर घटना भी घट गई। वह जो बिलकुल अकल्पित मालूम पड़ती है होगा तो! | कि कभी कैसे घटेगी, वह भी घट गई। ऐसा ध्यान में तय कर लेते, फिर वे गांव में जाते। अगर ऐसी | एक बैलगाड़ी में गुड़ लदा जाता था। और कोई गाय पीछे से कोई युवती बच्चे को लिए हुए एक पैर देहली के बाहर, एक | उस गुड़ को खाने के लिए बढ़ी तो उसके सींग में गुड़ लग गया। खड़ी हो और निवेदन करे कि हे महामनि। आप कहां जा | वह गाय वहां खड़ी थी गड़ चबाती। सींग में गड़ लगा। और रहे हैं? सौभाग्य हमारा। हमारे घर को धन्य करें, भोजन ग्रहण | | बाप नाराज हो गया था तो अपनी बेटी को उसने हथकड़ियां कर लें। तो वे भोजन ग्रहण कर लेते। अगर ऐसा न होता तो वे | डलवाकर कारागृह में बंद कर दिया था। सींखचों के पार पूरे गांव का चक्कर लगाकर वापस चले आते। कई लोग रास्ते | राजकुमारी लोहे की जंजीरों में पड़ी थी। गाय सींग पर गुड़ लगाए में उनको कहते भी, कि भोजन ग्रहण कर लें, तो भी वे न करते। खड़ी थी। तो महावीर ने भोजन स्वीकार किया। क्योंकि जो उन्होंने स्वयं सुबह बांध लिया था नियम, उससे | महावीर कहते हैं, जब जरूरत होगी, मिलेगा। मांगो मत। अन्यथा नहीं। | मांगकर व्यर्थ दीन मत बनो। उस नियम का अर्थ था, महावीर कहते कि अगर प्रकृति को इसलिए श्वेत लेश्या का वे कह रहे हैं, छठवें ने कहा, चुप भी देना होगा तो वह नियम पूरा करेगी। अगर नहीं देना होगा तो हम | रहो। शांति से बैठो भी। वृक्ष से फल टपकेंगे। पके फल झपटेंगे नहीं। मांगने में तो झपटना हो जाएगा। किसी के दरवाजे चुनकर क्यों न खाए जाएं? 428 2010_03
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________________ NITION छह पथिक और छह लेश्याएं जो तोड़ा जाए वह कच्चा होगा। जो कच्चा हो वह अभी खाने | यद्यपि जो छठवें तक पहुंच जाता है, उसे सातवें तक जाने में योग्य नहीं। जो अपने से गिर जाए वही पका होगा। वही खाने | कठिनाई नहीं होती। जिसने अंधेरी रातों के पर्दे उठा दिए, वह योग्य भी होगा। जो अपने से मिल जाए वही खाने योग्य है। फिर आखिरी झीने-से पारदर्शी सफेद पर्दे को उठाने में क्या प्रकृति दे रही है हजार-हजार ढंगों से। अगर आदमी झपटे न, अड़चन पाएगा? वह कहेगा, अब अंधेरा भी हटा दिया, अब तो भी मिलता है। पक्षियों को मिलता है, पशुओं को मिलता है, प्रकाश भी हटा देते हैं। अब तो हम जो हैं, जैसा है, उसे वैसा ही वृक्षों को मिलता है। देखा? वृक्ष तो कहीं जाते-आते भी नहीं। देख लेना चाहते हैं-निपट नग्न, उसकी सहज स्वभाव की जड़ जमाए एक ही जगह खड़े हैं। तो भी क्या कमी है? कुछ अवस्था में। तमसे कम हरे हैं? कुछ तुमसे कम ताजे हैं? कुछ तुमसे कम इन चित्त की दशाओं को हम छिपाने की कोशिश करते हैं। इन्हें जीवंत हैं? खूब हरे हैं। खूब जीवंत हैं। जमीन में जड़ें रोपे खड़े मिटाने की कोशिश करें। छिपाने से पाखंड पैदा होता है। छिपाने हैं। कहीं जाते भी नहीं। आने-जाने की चिंता भी नहीं करते। से कुछ छिपता भी नहीं। तुम लाख छिपाओ, पता चल ही जाता वहीं आना पड़ता है परमात्मा को देने। वहीं प्रकृति को लाना | है। तुमने कभी इस पर खयाल किया? इस पर निरीक्षण पडता है। वहीं बादल आकर बरस जाते हैं। वहीं जमीन | किया? तम जो-जो छिपाते हो. तम्हें लगता हो तमने छिपा हजार-हजार ढंगों से भोजन को जमा देती है। वहीं सूरज की लिया, लेकिन सभी को पता चल जाता है। | किरणें आ जाती हैं। वहीं हवा के झोंके प्राणवायु ले आते हैं। मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी से कह रहा था कि मैं जब वृक्षों तक के लिए यह हो रहा है तो आदमी की अश्रद्धा एक घंटे में वापिस आने का प्रयत्न करूंगा। यदि न आया तो खूब है, अदभुत है। यह होगा ही। लेकिन श्वेत लेश्या के जन्म शाम तक आ जाऊंगा। और अगर शाम तक भी न आ पाया तो के बाद ही ऐसी महत श्रद्धा का जन्म होता है कि सब होता है। समझ लेना कि मुझे अकस्मात बाहर जाना पड़ गया। वैसे अगर सब होगा ही, इस परम श्रद्धा से ही आदमी आस्तिक बनता है। मैं बाहर गया तो चपरासी से चिट्ठी जरूर भिजवा दूंगा। मुल्ला और महावीर कहते हैं कि ये छहों भी लेश्याएं हैं, छठवीं भी। | की पत्नी ने कहा, चपरासी को तकलीफ मत देना, मैंने चिट्ठी इनके पार वीतराग की, अरिहंत की अवस्था है। उस अरिहंत की | तुम्हारी जेब से निकाल ली है। अवस्था में तो कोई पर्दा नहीं रहा। शुभ्र पर्दा भी नहीं रहा। वह चिट्ठी तो लिखकर रखे ही हुए है! यह तो सब बातचीत '...इन छहों पथिकों के विचार, वाणी तथा कर्म कमशः छहों कर रहे हैं। छिपाने के उपाय कर रहे हैं। लेश्याओं के उदाहरण हैं।' ___ हम जो भीतर हैं, उसकी एक अनिवार्य उदघोषणा होती रहती छठवीं लेश्या को अभी लक्ष्य बनाओ। श्वेत लेश्या को लक्ष्य है। अक्सर तो जिसे हम छिपाते हैं, हमारे छिपाने के कारण ही बनाओ। चांदनी में थोड़े आगे बढ़ो। चलो, चांद की थोड़ी यात्रा वह प्रगट हो जाता है। तुम देखो कोशिश करके। जिसे तुम करें। पूर्णिमा को भीतर उदित होने दो। छिपाओगे, तुम पाओगे, दूसरों को कुछ संकेत मिलने लगे। हिंदू संस्कृति का सारा सार इस सूत्र में है : एक पुलिसवाले ने मुल्ला नसरुद्दीन को रोककर कहा-वह सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्त निरामयः | अपनी कार में कहीं जा रहा है कि तुम्हारा लाइसेंस देखें जरा सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत। | मल्ला ने कहा, बड़ी हैरानी की बात है। लेकिन हवलदार साहब. सब सुखी हों, रोगरहित हों, कल्याण को प्राप्त हों। कोई दुख मैंने तो कोई नियम तोड़ा भी नहीं। लाइसेंस दिखाने की क्या का भागी न हो। जरूरत है? यह श्वेत लेश्या में जीनेवाले आदमी की दशा है। इसके पार उस हवलदार ने कहा, महानुभाव! तुम इतनी सावधानी से तो कहा नहीं जा सकता। इसके पार तो अवर्णनीय है, | मोटर चला रहे हो कि मुझे शक हो गया। सावधानी से चलाते ही अनिर्वचनीय का लोक है। इसके पार तो शब्द नहीं जाते। छठवें | वे लोग हैं, जिनके पास लाइसेंस नहीं। तक शब्द जाते हैं, इसलिए छठवें तक महावीर ने बात कर दी। तुम जो-जो छिपाने की चेष्टा करते हो, किसी बेबूझ ढंग से वह 1429 ___ 2010_03 .
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________________ जिन सूत्र भाग : 2 प्रगट होने लगता है। तुम क्रोध छिपाना चाहते हो, तुम्हारे चारों | किसका क्या बिगाड़ रहे थे? किसी से कुछ लेना-देना न था। तरफ क्रोध की छाया पड़ने लगती है। तुम लोभ छिपाना चाहते | अपनी मौज में मस्त। दीवाने ढंग के आदमी थे। रहने देते इस हो, वह तुम्हारे चारों तरफ उसकी छाया पड़ने लगती है। तुम्हारे | दीवाने को। कौन किसका क्या बिगाड़ रहा था? किसी का कुछ छिपाए कुछ भी छिपेगा नहीं।। नकसान नहीं था। लेकिन जो आदमी इसके करीब आया उसे लाख बैठे कोई छुप-छुप के कमींगाहों में बेचैनी हुई। खून खुद देता है जल्लादों के मस्कन का सुराग तुमने कहानी सुनी? अकबर ने अपने दरबारियों से कहा, यह साजिशें लाख उढ़ाती रहें जुलमत की नकाब लकीर मैं खींच देता हूं। इसे बिना छुए छोटा कर दो। वे नहीं लेकर हर बूंद निकलती है हथेली पे चिराग कुछ कर पाए। बीरबल उठा, उसने एक बड़ी लकीर उसके पास तुम किसी की हत्या करो, लाख छिपाने की कोशिश करो, | खींच दी। वह लकीर छोटी हुई बिना छुए। एक-एक बूंद चिराग लेकर तुम्हारी खबर देने लगती है। तुम | महावीर या बद्ध के पास जब तम खड़े होते हो, अचानक तम | चोरी करो, तुम लाख छिपाने की कोशिश करो, तुम्हारी आंखें, | छोटे हो गए। बड़ी लकीर खिंच गई। तुम नाराज होते हो। तम्हारे हाथ-पैर, तम्हारा उठना-बैठना, सब तुम्हारे चोर होने की | तुम्हारी नाराजगी तुम्हारे इस दीनभाव से मने खबर देने लगते हैं। वह तो तुम अंधों के बीच रहते हो, इसलिए | मुझे छोटा किया। कुछ किया नहीं किसी ने। तुम्हें छुआ भी शायद लोगों को पता नहीं चलता। क्योंकि वे खुद, खुद को | नहीं। लेकिन अब महावीर भी क्या करें, उनकी बड़ी लकीर है। छिपाने में लगे हैं, तुम्हारी फिक्र किसको है? तुम चोरों के बीच | मजबूरी है। तुम पास आते हो, तुम्हारी छोटी लकीर! तुम छोटे | रहते हो, इसलिए तुम्हारी चोरी शायद थोड़ी-बहत छिप भी जाती | मालम पड़ते हो।। है, पता नहीं चलता। कहते हैं, ऊंट पहाड़ों के पास जाने से डरते हैं। डरते हों, इसीलिए लोग संतों के पास जाने से डरते हैं। इसीलिए लोगों क्योंकि तब तक पहाड़ नहीं होता तब तक वे पहाड़ होते हैं। जब ने संतों का सदा ही बहिष्कार किया। कभी उनको पत्थर मारे, पहाड़ के पास जाते हैं, तब पता चलता है, अरे। हम और कछ कभी जहर पिलाया, कभी सूली लगा दी। इसके पीछे कोई बहुत भी नहीं। मगर ऊंट इतने नासमझ नहीं हैं कि पहाड़ों को सूली पर महत्वपूर्ण कारण है। इतने लोग नाराज क्यों थे? जीसस से लटका दें। कि पहाड़ों को जहर पिला दें। मगर आदमी बड़ा नाराजगी का कारण क्या था? सीधा-सादा आदमी! रहा होगा पागल है। थोड़ा झक्की। बाकी किसी का कोई नुकसान तो कर नहीं रहा हम नाराज रहे सुकरात पर, जीसस पर, बुद्ध पर, महावीर इतनी क्या आतुरता? अंधेरी शकलें, हमारे घाव भरे हुए चित्त, हमारी बहती मवाद, कुछ अड़चन थी। यह आदमी एक चलता-फिरता आईना हमारी सड़ांध, सब उनके सामने आकर खलने लगती है। वहां | था। जो आदमी इसके सामने आया, उसे अपनी शक्ल दिखाई छिपाना मुश्किल हो जाता है। उनके सामने हम आकर बेपर्दा पड़ी। नाराजगी आती है आईने पर। लोग अगर आईने में होने लगते हैं। और वे हमसे कहते हैं, बेपर्दा हो जाओ। तो एक देखकर उन्हें पता चले कि कुरूप हैं तो आईने को तोड़ देते हैं। दिन ऐसी घड़ी भी आएगी, जब सब पर्दे गिर जाएंगे, तब तुम क्योंकि वे कहते हैं, यह आईना हमें कुरूप बनाए दे रहा है। पाओगे कि तुम्हारे भीतर वह छिपा है, जो सदा कुंआरा है; जो लोग जीसस पर नाराज हो गए। क्योंकि इस जीसस की सदा पवित्र है; जिसको रुग्ण होने का कोई उपाय नहीं और मौजूदगी में जो-जो उन्होंने छिपाया था, वह उदघोषित होने | जिसके अशुद्ध होने की कोई संभावना नहीं। लगा। इस आदमी की मौजूदगी में छिपाना मुश्किल था। लेकिन उस तक जाने के लिए, बड़ी बीमारियां हमने पाल रखी महावीर को लोगों ने खूब पत्थर मारे, खूब परेशान किया। | हैं, उनको गिराना होगा। उन बीमारियों को हमने बड़े गांवों से भगाया। कहीं टिकने न दिया। क्या अड़चन? महावीर | साज-संवारकर रखा है। बड़ा आगंन छवा, लिपा पुताकर रखा 1430 | Jair Education International 2010_03
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________________ - Hawa छह पथिक और छह लेश्याएं SumimiliaHINDIRAT R AINMENT है। उनके लिए हमने बड़ी सुविधा जुटाकर रखी है, क्योंकि अब तक जो दावे किए हैं, वे सब छोड़ देने होंगे। बीमारियों को हमने मित्र समझा है। | संसार के ऊपर तुमने जो दावे किए हैं, उनको छोड़ देना महावीर कहते हैं, आत्मा ही शत्रु है अपनी, आत्मा ही मित्र। संन्यास है। संसार को छोड़ देना संन्यास नहीं है, संसार के ऊपर अगर शत्रुओं को बसाने लगे अपने पास-क्रोध, मान, लोभ, किए गए दावों को छोड़ देना संन्यास है। और इन दावों को माया, मोह-तो आत्मा अपनी ही शत्रु हो जाती है। मित्रों को छोड़कर कुछ खोता नहीं। क्योंकि इन दावों से कुछ मिलता बसाने लगे तो मित्र हो जाती है। | नहीं। इन दावों को छोड़कर ही कुछ मिलता है। क्योंकि इन दावे महावीर की जो ऊंचाई है, वह तुम्हारी भी है। जीसस की जो के कारण ही कुछ छिपा है और ढका पड़ा है। पवित्रता है, वह तुम्हारी भी है। कृष्ण का जो आनंद है, वह जो तुम्हारा है उसे पाने की दिशा में बढ़ो। और जो तुम्हारा नहीं तुम्हारा भी है। लेकिन तुम्हें दावा करना होगा। और इस दावे के है, जानो कि तुम्हारा नहीं है। न धन तुम्हारा है, न पद तुम्हारा है, लिए तुम्हें छोटे दावे छोड़ने होंगे। तुम्हें क्षुद्र के दावे छोड़ने होंगे, न प्रतिष्ठा तुम्हारी है। जो भी बाहर मिल सकता है उसमें कुछ भी अगर विराट का दावा करना है। तुम्हें जमीन से आंखें उठानी तुम्हारा नहीं है। तुम आए खाली हाथ, तुम जाओगे खाली हाथ। होंगी, अगर आकाश के मालिक बनना है। तुम इस बात को जिस दिन समझ लोगे कि खाली हाथ आना, उसकी ऊंचाई के सन्मख हिमगिरि नगण्य खाली हाथ जाना; थोड़े दिन बीच में हाथ का भर लेना संसार से, उसकी नीचाई के सन्मुख नीचा पाताल कुछ सार नहीं रखता है। उसी दिन तुम उसकी तलाश में निकल उसकी असीमता के सन्मुख आकाश क्षुद्र पड़ोगे, जो तुम्हारे भीतर है जन्म के पूर्व; और जो तुम्हारे भीतर उसकी विराटता के सन्मुख अति क्षुद्र काल होगा मृत्यु के बाद। और जो तुम्हारे भीतर बह रहा है अभी भी, है आंख उसकी वर्षा ही करती बादल से इस क्षण भी। इस क्षण भी तुम भीतर मुड़ो तो उसी सागर से है उसकी ही मुस्कान थिरकती फूलों पर मिलन हो जाता है। संगीत उसी का गूंज रहा है कोयल में महावीर की व्याख्या में ये छह पर्दे तुम हटा दो, ये छह चक्र तुम हैं बिंधे उसी के स्वप्न नुकीले सूलों पर तोड़ दो और तुम्हारी ऊर्जा सातवें चक्र में प्रविष्ट हो जाए तो सौंदर्य सकल यह उसका ही प्रतिबिंब रूप तुम्हारे भीतर उस कमल का जन्म होगा, जो जल में रहकर भी है स्वर्ग उसी की सुंदरतम कल्पना नीड़ जल को छूता नहीं। है नर्क उसी की ग्लानि घृणा का गेह ग्राम उस पवित्रता को जो नहीं खोजता, वही अधार्मिक है। उस जग की हलचल उसके ही मन की भाव-भीड़ पवित्रता की जो खोज में निकलता है, वही धार्मिक है। शब्दों में वह अणु में बंदी होकर भी है मुक्त सदा बहुत मत उलझना। उस पवित्रता को कुछ लोग परमात्मा कहते वह जल में रहकर भी जल से है बहुत दूर हैं, कहें, सुंदर शब्द है। कुछ लोग उस पवित्रता को आत्मा कहते जलकर भी ज्वाला में न राख बनता है वह हैं, कहें; सुंदर शब्द है। कुछ लोग उसे आत्मा भी नहीं कहना पाषाणों में दबकर भी होता नहीं चूर चाहते, परमात्मा भी नहीं कहना चाहते, शून्य कहते हैं; बड़ा वह विराट, वह निरंतर शुद्ध, वह शाश्वत शुद्ध, वह सदा सुंदर शब्द है। पवित्र तुम्हारा स्वभाव है। लेकिन हटाओ पर्दे। कहो ब्रह्म, कहो शून्य, लेकिन एक बात स्मरण रखो कि जो वह अणु में बंदी होकर भी है मुक्त सदा बाहर है, वह तुम्हारा नहीं है। जो भीतर है, जो तुम हो, बस वही वह जल में रहकर भी जल से है बहुत दूर केवल तुम्हारा है। और शेष सब पर्दे गिरा दो। तो इस शुद्धतम जलकर भी ज्वाला में न राख बनता है वह की प्रतीति सच्चिदानंद से भर जाती है। पाषाणों में दबकर भी होता नहीं चूर सच्चिदानंद होकर भी हम भिखारी बने हैं। एक झूठा सपना पर उसकी घोषणा के पहले, उस पर दावा करने के पहले तुमने देख रहे हैं। व्यर्थ मांग रहे हैं उसे, जो हमें मिला ही हुआ है। 431 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग: 2 खोज रहे हैं उसे, जो हमारे भीतर ही पड़ा है। उसकी तलाश कर रहे हैं...। तुमने कभी देखा? कभी-कभी हो जाता है। आदमी चश्मा लगाए चश्मा खोजने लगता है। भूल ही जाता है कि चश्मा तो आंख पर चढ़ा है। भूल ही जाता है कि उसी चश्मे से मैं चश्मे को खोज रहा हूं। ऐसे मौके तुम्हें भी आए होंगे। इस जीवन में कुछ ऐसा ही घटा है। जो है, भूल गया है। सिर्फ विस्मरण हुआ है, उसे हमने खोया नहीं है। मात्र स्मरण पर्याप्त है। स्मरण मात्र से उसे पाया जा सकता है। धर्म है—खोज नहीं, पुनर्योज। पाए हुए की खोज; मिले हुए की खोज। जो प्राप्त है उसकी प्राप्ति का उपाय। लेकिन इन छह पर्यों से लड़ना होगा। कठिन नहीं है लड़ाई। क्योंकि हमारे ही सहयोग से पर्दे खड़े हैं। सहयोग के हटते ही गिरने शुरू हो जाते हैं। आज इतना ही। _432 Jan Education International 2010_03