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________________ - Hawa छह पथिक और छह लेश्याएं SumimiliaHINDIRAT R AINMENT है। उनके लिए हमने बड़ी सुविधा जुटाकर रखी है, क्योंकि अब तक जो दावे किए हैं, वे सब छोड़ देने होंगे। बीमारियों को हमने मित्र समझा है। | संसार के ऊपर तुमने जो दावे किए हैं, उनको छोड़ देना महावीर कहते हैं, आत्मा ही शत्रु है अपनी, आत्मा ही मित्र। संन्यास है। संसार को छोड़ देना संन्यास नहीं है, संसार के ऊपर अगर शत्रुओं को बसाने लगे अपने पास-क्रोध, मान, लोभ, किए गए दावों को छोड़ देना संन्यास है। और इन दावों को माया, मोह-तो आत्मा अपनी ही शत्रु हो जाती है। मित्रों को छोड़कर कुछ खोता नहीं। क्योंकि इन दावों से कुछ मिलता बसाने लगे तो मित्र हो जाती है। | नहीं। इन दावों को छोड़कर ही कुछ मिलता है। क्योंकि इन दावे महावीर की जो ऊंचाई है, वह तुम्हारी भी है। जीसस की जो के कारण ही कुछ छिपा है और ढका पड़ा है। पवित्रता है, वह तुम्हारी भी है। कृष्ण का जो आनंद है, वह जो तुम्हारा है उसे पाने की दिशा में बढ़ो। और जो तुम्हारा नहीं तुम्हारा भी है। लेकिन तुम्हें दावा करना होगा। और इस दावे के है, जानो कि तुम्हारा नहीं है। न धन तुम्हारा है, न पद तुम्हारा है, लिए तुम्हें छोटे दावे छोड़ने होंगे। तुम्हें क्षुद्र के दावे छोड़ने होंगे, न प्रतिष्ठा तुम्हारी है। जो भी बाहर मिल सकता है उसमें कुछ भी अगर विराट का दावा करना है। तुम्हें जमीन से आंखें उठानी तुम्हारा नहीं है। तुम आए खाली हाथ, तुम जाओगे खाली हाथ। होंगी, अगर आकाश के मालिक बनना है। तुम इस बात को जिस दिन समझ लोगे कि खाली हाथ आना, उसकी ऊंचाई के सन्मख हिमगिरि नगण्य खाली हाथ जाना; थोड़े दिन बीच में हाथ का भर लेना संसार से, उसकी नीचाई के सन्मुख नीचा पाताल कुछ सार नहीं रखता है। उसी दिन तुम उसकी तलाश में निकल उसकी असीमता के सन्मुख आकाश क्षुद्र पड़ोगे, जो तुम्हारे भीतर है जन्म के पूर्व; और जो तुम्हारे भीतर उसकी विराटता के सन्मुख अति क्षुद्र काल होगा मृत्यु के बाद। और जो तुम्हारे भीतर बह रहा है अभी भी, है आंख उसकी वर्षा ही करती बादल से इस क्षण भी। इस क्षण भी तुम भीतर मुड़ो तो उसी सागर से है उसकी ही मुस्कान थिरकती फूलों पर मिलन हो जाता है। संगीत उसी का गूंज रहा है कोयल में महावीर की व्याख्या में ये छह पर्दे तुम हटा दो, ये छह चक्र तुम हैं बिंधे उसी के स्वप्न नुकीले सूलों पर तोड़ दो और तुम्हारी ऊर्जा सातवें चक्र में प्रविष्ट हो जाए तो सौंदर्य सकल यह उसका ही प्रतिबिंब रूप तुम्हारे भीतर उस कमल का जन्म होगा, जो जल में रहकर भी है स्वर्ग उसी की सुंदरतम कल्पना नीड़ जल को छूता नहीं। है नर्क उसी की ग्लानि घृणा का गेह ग्राम उस पवित्रता को जो नहीं खोजता, वही अधार्मिक है। उस जग की हलचल उसके ही मन की भाव-भीड़ पवित्रता की जो खोज में निकलता है, वही धार्मिक है। शब्दों में वह अणु में बंदी होकर भी है मुक्त सदा बहुत मत उलझना। उस पवित्रता को कुछ लोग परमात्मा कहते वह जल में रहकर भी जल से है बहुत दूर हैं, कहें, सुंदर शब्द है। कुछ लोग उस पवित्रता को आत्मा कहते जलकर भी ज्वाला में न राख बनता है वह हैं, कहें; सुंदर शब्द है। कुछ लोग उसे आत्मा भी नहीं कहना पाषाणों में दबकर भी होता नहीं चूर चाहते, परमात्मा भी नहीं कहना चाहते, शून्य कहते हैं; बड़ा वह विराट, वह निरंतर शुद्ध, वह शाश्वत शुद्ध, वह सदा सुंदर शब्द है। पवित्र तुम्हारा स्वभाव है। लेकिन हटाओ पर्दे। कहो ब्रह्म, कहो शून्य, लेकिन एक बात स्मरण रखो कि जो वह अणु में बंदी होकर भी है मुक्त सदा बाहर है, वह तुम्हारा नहीं है। जो भीतर है, जो तुम हो, बस वही वह जल में रहकर भी जल से है बहुत दूर केवल तुम्हारा है। और शेष सब पर्दे गिरा दो। तो इस शुद्धतम जलकर भी ज्वाला में न राख बनता है वह की प्रतीति सच्चिदानंद से भर जाती है। पाषाणों में दबकर भी होता नहीं चूर सच्चिदानंद होकर भी हम भिखारी बने हैं। एक झूठा सपना पर उसकी घोषणा के पहले, उस पर दावा करने के पहले तुमने देख रहे हैं। व्यर्थ मांग रहे हैं उसे, जो हमें मिला ही हुआ है। 431 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340152
Book TitleJinsutra Lecture 52 Chah Pathik aur Chah Leshyaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size46 MB
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