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________________ सत्रहवां प्रवचन ध्यान है आत्मरमण 2010_03
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________________ C. . COS बाल SS जे इंदियाणं विसया मणुण्णा, न तेसु भावं निसिरे कयाइ। न याऽमणुण्णेसु मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी।।१२३।। सुविदियजगस्सभावो, निस्संगो निब्भओ निरासो य। वेरग्गभावियमणो, झाणंमि सुनिच्चलो होइ।।१२४।। देहविवित्तं पेच्छइ, अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे। देहोवहिवोसग्गं निस्संगो सव्वहा कुणइ।।१२५।। ___णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को। इदि जो झायदि झाणे, सो अप्पाणं हवदि झादा।।१२६।। णातीतमटुं ण य आगमिस्सं, अटुं नियच्छंति तहागया उ। विधूतकप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी।।१२७।। मा चिट्ठह, मा जंपह, मा चिंतह किं विजेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं।।१२८।। न कसायमुत्थेहि य, वहिज्जइ माणसेहिं दुक्खेहिं। ईसा-विसाय-सोगा इएहिं, झाणोवगयचित्तो।।१२९।। चालिज्जइ बिभेइ य, धीरो न परीसहोवसग्गेहिं। सुहुमेसु न संमुच्छइ, भावेसु न देवमायासु।।१३०।। 2010_03
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________________ . हला सूत्रः कि मन बनता कैसे है! और हम न बनाएं तो मन नहीं बनता। 7 'समाधि की भावना वाला तपस्वी इंद्रियों के हमारे बनाए बनता है। हम मालिक हैं। अनुकूल विषयों में कभी राग-भाव न करे और लेकिन ऐसा हो गया है कि बुनियाद में हम झांकते नहीं, जड़ों प्रतिकूल विषयों में भी मन में द्वेष न लाए।' | को हम देखते नहीं, पत्ते काटते रहते हैं। पत्ते काटने से कुछ हल मनुष्य के मन के आधार ही चुनाव में हैं। मनुष्य के मन की नहीं होता। बुनियाद चुनने में है। चुना, कि मन आया। न चुनो, मन नहीं महावीर का यह पहला सूत्र, निर्विकल्प भावदशा के लिए है। इसलिए कृष्णमूर्ति बहुत जोर देकर कहते हैं, च्वाइसलेस | पहला कदम है। महावीर कहते हैं, न तो राग में, न द्वेष में। ये दो अवेयरनेस-चुनावरहित सजगता। ही तो मन के विकल्प हैं। इन्हीं में तो मन डोलता है, घड़ी के चुनावरहित सजगता में मन का निर्माण नहीं होता। न रहेगा | पेंडुलम की तरह। कभी मित्रता बनाता, कभी शत्रुता बनाता। बांस, न बजेगी बांसुरी। कभी कहता अपना, कभी कहता पराया। मन को तो बहुत लोग मिटाना चाहते हैं। ऐसा आदमी खोजना | जैसे ही तुमने राग बनाया, तुमने द्वेष के भी आधार रख दिए। है, बेचैनी मिलती है। मन का कोई मार्ग शांति तक, आनंद तक संभव नहीं। शत्रु बनाना हो तो पहले मित्र बनाना ही पड़े। तो जाता नहीं; कांटे ही चुभते हैं। मन आशा देता है फूलों की, मित्र बनाया कि शत्रुता की शुरुआत हो गई। तुमने कहा किसी से भरोसा बंधाता है फूलों का; हाथ आते-आते तक सभी फूल 'मेरा है', संयोग-मिलन को पकड़ा-बिछोह के बीज बो दिए। कांटे हो जाते हैं। ऊपर लिखा होता है-सुख। भीतर खोजने जिसे तुमने जोर से पकड़ा, वही तुमसे छीन लिया जाएगा। पर दुख मिलता है। जहां-जहां स्वर्ग की धारणा बनती है, तो यह भी संभव हो जाता है कि आदमी देखता है, जिसे भी मैं वहीं-वहीं नर्क की उपलब्धि होती है। पकड़ता हूं, वही मुझसे छूट जाता है। तो छोड़ने को पकड़ने तो स्वाभाविक है कि मनुष्य मन से छूटना चाहे; लेकिन चाह लगता है, कि सिर्फ छोड़ने को पकड़ लूं। यही तो तुम्हारे त्यागी काफी नहीं है। यह भी हो सकता है कि मन से छूटने की चाह भी और विरागियों की पूरी कथा है। मन को ही बनाए। क्योंकि सभी चाह मन को बनाती हैं। चाह | धन को पकड़ते थे; पाया कि दुख मिला, तो अब धन को नहीं मात्र मन की निर्मात्री है। पकड़ते। लेकिन 'नहीं पकड़ने' पर उतना ही आग्रह है। पहले तो बुनियाद को खोजना जरूरी है, मन बनता कैसे है? यह धन के लिए दीवाने थे, अब धन पास आ जाए तो घबड़ा जाते हैं, | पूछना ठीक नहीं कि मन मिटे कैसे? इतना ही जानना काफी है जैसे सांप-बिच्छू आया हो; जैसे जहर आया हो। 325 2010_03
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________________ - जिन सूत्र भागः मन तो फिर कंप गया। पहले धन के लिए कंपता था, अब धन | ठहर जाओ। के विरोध में कंप गया। पहले खोजते थे सुंदर देह, सुंदर स्त्री, | यह तो उदाहरण हुआ। ऐसा ही जीवन की हर चीज में है। धन सुंदर पुरुष; अब अपने को समझा लिया कि दुख ही दुख पाया। तो धन है। न तो कहो कि यही मेरा सर्वस्व है; और न कहो, यह तो तुम जाओ त्यागी-वैरागियों के पास, तुम उन्हें वहां शरीर क्या है! यह तो मिट्टी ही है। कहो ही मत कुछ। कहा, कि मन की निंदा करते हुए पाओगे। और तुम यह भी देख पाओगे कि बना। तुमने इधर निर्णय लिया कि मन की ईंट रखी। तुम सिर्फ निंदा में बड़ा रस है। शरीर के भीतर मांस-मज्जा है, कफ-पित्त देखते रहो; द्रष्टा बनो। चुनाव मत करो। बीच में खड़े रहो; न है, दुर्गंध है, मल-मूत्र है, इसकी चर्चा करते हुए तुम त्यागियों को इधर जाओ, न उधर। पाओगे। जैसे भोगी चर्चा करता है सुंदर आंखों की, स्वर्ण जैसी देखा ! पेंडुलम घड़ी का रुक जाए तो घड़ी रुक जाती है। बायें काया की, स्वर्गीय सुगंध की, वैसे ही त्यागी भी चर्चा करता है। जाए, दायें जाए, तो घड़ी चलती रहती है। पेंडुलम के चलने से त्यागी चर्चा करता है शरीर में भरे मल-मूत्र की! यह तो गंदगी घड़ी चलती है। मन के गतिमान होने से मन निर्मित होता है। मन का टोकरा है। यह तो चमड़ी ही ऊपर ठीक है, बाकी सब भीतर डोलता नहीं, अडोल हो जाता है। वहीं ध्यान का जन्म होता है। गंदा भरा है। चमड़ी के धोखे में मत आओ। _ 'जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित हैं; निस्संग, निर्भय और लेकिन दोनों का राग शरीर से है। जिसको हम विराग कहते हैं, आशारहित हैं, तथा जिनका मन वैराग्य से युक्त है, वही ध्यान में वह भी सिर के बल खड़ा हो गया राग है; शीर्षासन करता हुआ सुनिश्चल भलीभांति स्थित होता है'। राग है। शरीर से छुटकारा नहीं हुआ। बंधे शरीर से ही हैं। जो इसलिए एक बात खयाल में ले लेना—'जो संसार के स्वरूप अभी कह रहा है कि शरीर मल-मूत्र की टोकरी है, अभी शरीर से से सुपरिचित है...।' उसका लगाव बना है। वह इसी लगाव को तोड़ने के लिए तो | महावीर कहते हैं, संसार से वही मुक्त हो सकता है, जिसने अपने को समझा रहा है कि शरीर मल-मूत्र की टोकरी है। कहां जल्दबाजी नहीं की; जो संसार के स्वभाव से सुपरिचित है। जाता है पागल! शरीर में कुछ भी नहीं है। वह तुम्हें नहीं समझा कच्चे-कच्चे भागे, बिना पके वृक्ष से छूट गए—पीड़ा रह रहा है, वह अपने को ही समझा रहा है तुम्हारे बहाने। वह शरीर जाएगी। किसी की सुनकर संसार छोड़ दिया; अपने जानने, की निंदा करके अपने भीतर जो छिपी वासना है, उस पर नियंत्रण | अपने अनुभव से नहीं छोड़ा, किसी के प्रभाव में छोड़ दिया, तो करने की कोशिश कर रहा है। ऊपर-ऊपर छूटेगा, भीतर-भीतर संसार खींचता रहेगा। निंदा हम उसी की करते हैं, जिससे हम डरते हैं। दमन भी हम इसलिए महावीर का यह सूत्र अति मूल्यवान है, 'जो संसार के उसी का करते हैं, जिससे हम भयभीत हैं / लेकिन भयभीत हम स्वरूप से सुपरिचित हैं, वे ही केवल वीतरागता को उपलब्ध हो उसी से होते हैं, जिसमें हमारा राग है। सकते हैं।' इस सारी व्यवस्था को समझना जरूरी है। इसलिए महावीर | वस्तुतः जो संसार से परिचित हो गया, वह वीतराग न होगा तो कहते हैं, 'न तो अनुकूल विषयों में राग-भाव करे, न प्रतिकूल और करेगा क्या? फिर कोई उपाय नहीं। वीतराग-भाव तुम्हारा विषयों में द्वेष-भाव करे।' निर्णय नहीं है, तुम्हारे जीवन-अनुभव का निचोड़ है। न तो कहो कि शरीर स्वर्ण की काया है, न कहो कि मल-मूत्र वीतराग-भाव राग के विपरीत तुम्हारा संकल्प नहीं है; राग, द्वेष की टोकरी है। चुनो ही मत-इधर या उधर। डोलो ही मत। सब के अनुभव से तुमने पाया, कुछ सार नहीं है; इस अनुभव शरीर जो है, है। तुम इसके संबंध में कोई धारणा मत बनाओ का नाम ही वीतरागता है। और कोई व्याख्या मत करो। तथ्य को तथ्य की भांति देखो। न इस पर मेरा भी बहुत जोर है। जहां रस हो वहां से भागना तो इसके प्रशंसा के गीत गाओ, न तो स्तुति में ऋचाएं रचो, और मत। रस का पूरा अनुभव कर लेना। दूसरे क्या कहते हैं, इसकी न निंदा में गालियां निकालो। न तो शरीर गाली के योग्य है, और चिंता मत करना क्योंकि दूसरों का अनुभव तुम्हारा अनुभव नहीं न स्तुति के योग्य है। शरीर बस, शरीर है। जैसा है, उतने पर बनेगा। अगर तुम्हें अभी भोजन में रस हो तो रस ले लेना। रस 3261 2010_03
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________________ aur ध्यान है आत्मरमण इतना ले लेना कि भीतर कोई भी आकांक्षा शेष न रह जाए। कहीं व्यक्ति हमारे पास से गुजरता है, तो उसकी दमक, उसकी प्रभा, कोने-कातर में मन के, किसी रस को दबा मत रहने देना, उभाड़ उसकी शांति का वायुमंडल हमें लोभ से भर देता है। हम कहते लेना; पूरा उभाड़ लेना। हां, इतना ही खयाल रखना कि रस हैं, काश, ऐसा आनंद हमारा होता! ऐसा आनंद कैसे हमारा हो बोधपूर्वक लेना, जागे लेना। जाए? कैसे डुबकी लगे इसी सागर में, जिसमें तुम डूबे? रस तो बहुत लोग लेते हैं। जो सोए-सोए लेते हैं, वे रस से तो हम महावीर और बुद्ध के वचनों को पकड़ने लगते हैं। कोई निष्पत्ति नहीं निकाल पाते। उनके जीवन में अनुभवों का ढेर हमने उनका गीत तो सुना, लेकिन किस पीड़ा से वे इस गीत को तो लग जाता है, निचोड़ नहीं होता। अनुभव में दब जाते हैं, उपलब्ध हुए, उसकी हमें कोई खबर नहीं है। अनुभव में खो जाते हैं, लेकिन अनुभव से कुछ जीवन-सत्य के | अश्कों में जो पाया है वो गीतों में दिया है मणि-माणिक्य नहीं खोजकर ला पाते। इस पर भी सुना है कि जमाने को गिला है अनुभव अगर सोए-सोए किया गया तो किया ही नहीं गया। जो तार से निकली वो धुन सबने सुनी है उससे कुछ सार न होगा। अगर जागकर किया गया तो अनुभव जो साज पे गजरी है वो किसको पता है तुम्हारे लिए शिक्षण दे जाएगा, कुछ पाठ सिखा जाएगा। वही जो साज पे गुजरी है वो किसको पता है पाठ जीवन की संपदा है। वही पाठ वेद है, वही कुरान है, वही जो तार से निकली है वो धुन सबने सुनी है धम्मपद है। जिन्होंने जीवन के अनभव को जाग-जागकर देखा, जब तम महावीर या बद्ध या कष्ण या क्राइस्ट के जाग-जागकर भोगा, उनके हाथ में कोई ज्योति आ गई। जो तो जो धुन निकल रही है वह तो सुनाई पड़ती है, जो गीत पैदा हो व्यर्थ था, वह व्यर्थ दिखाई पड़ गया, जो सार्थक था, वह सार्थक | रहा है वह तो सुनाई पड़ता है, लेकिन किन पीड़ाओं से इस गीत दिखाई पड़ गया। | का निखार हुआ है, किन पर्वत-खंडों को तोड़कर यह झरना बहा जैसे प्रकाश पैदा हो जाए तो कमरे में क्या है, सब साफ हो है; किन आंसुओं ने इन गीतों में धुन भरी है; किस कंटकाकीर्ण जाता है। कहां कचरा पड़ा है कोने में, वह भी पता चल जाता मार्ग पर गुजरकर मंदिर के ये स्वर्ण-कलश दिखाई पड़े हैं, है। कहां तिजोडी है, हीरे-जवाहरात रखे हैं, वह भी पता चल उसका तो हमें कछ भी पता नहीं चलता। गीत से ह जाता है। अगर तुम कमरे में सोए हो अंधेरे, तो भी तिजोड़ी है, | जाते हैं। धुन हमें बांध लेती है। हम पूछने लगते हैं, हम क्या कचरा भी पड़ा है, लेकिन तुम्हें कुछ पता नहीं चलता। | करें? कैसे तुम्हें हुआ, कैसे हमें भी हो जाए? और जब तक तुम्हें तिजोड़ी न दिखाई पड़े, तब तक कचरा तो अगर हम महावीर का अनुकरण करने लगे, बड़े धोखे में कचरा है, यह भी पता नहीं चल सकता। जीवन में सार्थकता की पड़ जाएंगे। हम महावीर जैसा वेष रख सकते हैं। अगर वे थोड़ी प्रतीति हो तो क्या-क्या निस्सार है, वह अपने आप साफ निग्रंथ हैं, नग्न हैं, तो हम नग्न हो सकते हैं, दिगंबर हैं, दिगंबर हो जाता है। कांटों का बोध हो जाए तो फलों का बोध हो जाता | हो सकते हैं। कैसे उठते हैं. कैसे बैठते हैं. कैसे चलते हैं. हम भी है। फूलों का बोध हो जाए तो कांटों का बोध हो जाता है। ठीक वैसा ही अभ्यास कर सकते हैं। जागकर जीवन के सारे अनुभव जिसने लिए, अधैर्य न किया, लेकिन तुम पाओगे कि जो धुन उनके भीतर पैदा हुई थी वह जल्दबाजी न की, लोभ न किया, यह न कहा कि चलो, तुम्हारे भीतर पैदा न हुई। क्योंकि मौलिक चीज खो रही है; जड़ ऋषि-महर्षि तो कहते हैं, कि छोड़ो संसार ! ऋषि-महर्षि ठीक ही नहीं है। तुम्हारे जीवन के अनुभव का निचोड़ नहीं है। महावीर कहते हैं लेकिन वे अपने अनुभव से कहते हैं। उन्होंने संसार का को तुमने ऊपर से ओढ़ लिया। वे तुम्हारे प्राण में विकसित हए दुख भोगा, उन्होंने संसार की पीड़ा झेली। उनकी पीड़ा को जब फूल नहीं हैं। तक तुम न झेलोगे, तब तक उनकी निष्पत्तियां तुम्हारी निष्पत्तियां | यही तो दुर्भाग्य है जैन मुनियों का। यही दुर्भाग्य है बौद्ध नहीं हो सकतीं। भिक्षुओं का। यही दुर्भाग्य है ईसाई साधु-संतों का। जिससे वे हम तो लोभ से भर जाते हैं। जब बुद्ध या महावीर जैसा कोई प्रभावित हुए थे, ठीक ही प्रभावित हुए थे। आश्चर्य नहीं है कि 2010_03
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________________ जिन सूत्र भागः 2 जीसस की हवा तुम्हें पुकार बन जाए, आह्वान बन जाए! कि | और कल पछताए थे क्रोध करके, आज भी पछता लिए। कल महावीर की आंख तुम्हारी आंख से मिले और तुम्हारी अतल | भूल हो गई थी, रो लिए थे, क्षमा मांग ली थी। आज फिर भूल गहराइयां कंपित हो उठे, तुम्हारे प्राणों में कोई नाद बजने | हो गई, फिर रो लिए, फिर क्षमा मांग ली। ऐसे वर्तुलाकार तुम लगे-स्वाभाविक है। कब तक भटकते रहोगे? लेकिन तुम यह भी तो पूछो कि किन पीड़ाओं से, किस | इसको ही पूरब में हमने संसार कहा है-संसार-चक्र। तपश्चर्या से? महावीर का शब्द सुनकर तुम्हारे भीतर मधुर | गोल-गोल घूमता रहता है, कोल्हू की बैल की तरह घूमता रहता वातास फैल जाए; महावीर का शब्द-शब्द तुम्हारे भीतर मधु | है। बैल को शायद लगता हो कि गति हो रही है, विकास हो रहा घोलने लगे-ठीक! लेकिन यह भी तो पूछो कि ये शब्द किस | है। कहीं जा रहा हूं, कहीं पहुंच रहा हूं। लेकिन जरा देखो, कहां मौन से आए हैं? किस ध्यान में इनका जन्म हुआ है? किस पहुंच रहा है! चलता जरूर है, मगर बंधा है एक ही केंद्र से। साधना में गर्भित हुए हैं? कहां से पैदा हुए हैं। उसी के आसपास चक्कर काटता रहता है। शब्द को ही पकड़कर तुम याद कर लो तो मुर्दा शब्द तुम्हारे | तुम जरा गौर से देखो, तुम्हारे जीवन में विकास है ? उत्क्रांति मस्तिष्क में अटका रह जाएगा, शोरगुल भी करेगा; लेकिन है? तुम कहीं जा रहे? कुछ हो रहा? कि सिर्फ उसी-उसी को तुम्हारे भीतर वैसी शांति पैदा न हो सकेगी, जो महावीर के भीतर | पुनरुक्त कर रहे हो? वही राहें, वही लीक! जैसे कल सुबह उठे है। क्योंकि शब्द के कारण शांति पैदा नहीं हुई, शांति के कारण | थे, वैसे आज सुबह उठ आए। जैसे कल रात सो गए थे, आज शब्द पैदा हुआ है। | रात भी सो जाओगे। कितनी बार सूरज ऊगा है; और तुम्हें वहीं महावीर की वीतरागता ऐसे ही आकश से नहीं टपक पड़ी है, का वहीं पाता है। छप्पर नहीं टूट गया है। महावीर की वीतरागता इंच-इंच | तो सुपरिचित नहीं हो; परिचित तो हो। सुपरिचित का अर्थ है सम्हाली गई है, साधी गई है। और जीवन के अनुभव में उसकी कि जो अनुभव तुम्हारे जीवन में गुजरा उसके गुजरने के कारण ही जड़े हैं। अनुभव पृथ्वी है। | अब तुम और हो गए। तुमने उससे कुछ सीखा, कुछ संपत्ति तुम किसी पौधे से प्रभावित हो गए, काट लाए पौधा ऊपर से जुटाई। अगर तुमने आज क्रोध किया तो तुमने उस क्रोध से कुछ और जड़ें वहीं छोड़ आए, तो थोड़ी-बहुत देर पौधा हरा रह जाए, सीखा। कल अगर क्रोध करना भी पड़ा तो ठीक आज जैसा नहीं लेकिन कुम्हलाने लगेगा; ज्यादा देर जीवंत नहीं रह सकता। करोगे। उसमें कुछ फर्क होगा, भेद होगा, सुधार होगा, तरमीम और अगर तुम जड़ें ले आओ, पौधा छोड़ भी आओ तो भी होगी, संशोधन होगा, कुछ छोड़ोगे, कुछ जोड़ोगे। चलेगा। क्योंकि जड़ें आरोपित करते ही तुम्हारे घर में भी पौधा तो ठीक है, विकास हो रहा है। अगर ऐसे ही क्रोध से सीखते अंकुरित होने लगेगा। गए...सीखते गए...सीखते गए तो एक दिन तुम पाओगे कि ‘जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित हैं...।' क्रोध अपने आप, जैसे-जैसे तुम सुपरिचित हुए, विदा हो गया परिचित भी नहीं कहते; महावीर कहते हैं- 'सुपरिचित।' है। जीवन का ज्ञान क्रांति है। परिचित तो हम सभी हैं थोड़े-बहुत, लेकिन नींद-नींद में हैं। 'जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित है...।' कुछ हो भी रहा है, कुछ पता भी चल रहा है, लेकिन सब इसलिए खयाल रखना, किसी के प्रभाव में कुछ कसम मत ले धुंधला-धुंधला है। न तो आंखें प्रगाढ़ हैं, न ज्योति जली है, न लेना। किसी के प्रभाव में कुछ छोड़ मत देना। एक-एक अनुभव को पकड़कर निचोड़ लेने की कला सीखी है। अकसर ऐसा होता है, जाते हो तुम सुनने, सत्संग में बैठते हो, तो रोज हम वही किए जाते हैं। बातें प्रभावित कर देती हैं! कोई कसम खा लेता है ब्रह्मचर्य की, तुमने कभी खयाल किया? नया क्या करते हो? जो कल | लेकिन ब्रह्मचर्य की कसम मंदिर में थोड़े ही खानी होती है। अगर किया था, वही फिर दोहरा लेते हो। कैसे आदमी हो तुम? यह तुम मुझसे पूछो तो ब्रह्मचर्य की कसम वेश्यालय में किसी ने तो यंत्र जैसा हुआ। कल क्रोध किया था, आज भी कर लिया। खायी हो तो शायद टिक भी जाए, मंदिर में खायी नहीं टिक 328 2010_03
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________________ ध्यान हे आत्मरमण सकेगी। अगर कामभोग के अनुभव से ही आयी हो तो टिक पैरों में चलने की सामर्थ्य नहीं रह जाती और मन में दूर पहाड़ जाएगी। मंदिर में प्रवचन सुनकर, शास्त्र पढ़कर, एक चढ़ने की कल्पना और सपने रह जाते हैं। तब बड़ी दविधा पैदा भावाविष्ट अवस्था में तुमने ले ली हो, टिकेगी नहीं, टूटेगी। होती है। इसी दुविधा के कारण बूढ़े निंदा करते हैं। उनकी निंदा तुमने तो हुक्मे-तकें-तमन्ना सुना दिया में अगर गौर करो, तो ईर्ष्या पाओगे। बूढ़ा जब निंदा करता है किस दिल से आह तर्के-तमन्ना करे कोई! जवान की, तो वह सिर्फ ईर्ष्या कर रहा है।। संत तो कहे चले जाते हैं, छोड़ो यह इश्क का जाल! छोड़ो यह | डी. एच. लारेन्स ने कहीं लिखा है कि जब मैं छोटे बच्चों को प्रेम की झंझट! छोड़ो यह भोग! वृक्षों पर चढ़ा देखता हूं तो तत्क्षण मेरे मन में होता है, उतरो! गिर तुमने तो हुक्मे-तकें-तमन्ना सुना दिया पड़ोगे! लेकिन तब मैने बार-बार यह कहकर सोचा कि मामला तुमने तो कह दिया, दे दिया आदेश कि छोड़ दो प्रेम! | क्या है? मैं अपने भीतर खोजं तो। तो मझे पता चला कि छोटे किस दिल से आह तर्के-तमन्ना करे कोई! बच्चों को वृक्ष पर चढ़ते देखकर मुझे ईर्ष्या होती है। मैं नहीं चढ़ लेकिन जिसे जीवन का अभी कोई अनुभव नहीं है, वह कैसे पाता अब। उम्र न रही। अब हाथ-पैर में वैसी लोच न रही, न प्रेम को छोड़ दे? वैसा साहस रहा: न खतरा मोले लेने का वैसा निर्बोध चित्त जिसे जाना ही नहीं, उसे छोड़ोगे कैसे? जिसे पाया ही नहीं. | रहा। तो कहता तो हैं कि 'उतरो, गिर पड़ोगे,' लेकिन भीतर उसे छोड़ोगे कैसे? एक बात को खयाल रखना, जो पाया हो कहीं कोई ईर्ष्या पंख फड़फड़ाती है, कि मैं नहीं चढ़ पाता अब। वही छोड़ा जा सकता है। जो तुम्हारी मुट्ठी में हो उसी को गिराया जब मैं नहीं चढ़ पाता तो कोई भी न चढ़े। जा सकता है। जो तुम्हारे पास हो उसे ही फेंका जा सकता है। बूढ़ों की निंदा में तुम अकसर पाओगे, जो वे नहीं कर पाते हैं, लेकिन अकसर ऐसा होता है कि बूढ़े बच्चों को सिखाते हैं। कोई भी न करे। इन्हीं से बच्चे शिक्षित होते हैं। और बच्चे उन इससे बड़ी झंझट पैदा होती है। बूढ़े बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं। चीजों को छोड़ने का विचार करने लगते हैं, जिनका अभी और बूढ़े भी कुछ जानकर दे रहे हैं, ऐसा नहीं है। जैसे जवानी में अनुभव ही नहीं हुआ है। गैर-अनुभव से छोड़ी गई कोई भी बात नशा होता है राग का, वैसे बुढ़ापे में नशा होता है वैराग्य का। न लौट-लौटकर आ जाएगी; फिर-फिर तुम्हें पकड़ेगी; फिर-फिर तो जवानी के राग में कोई समझ है, न बुढ़ापे के वैराग्य में कोई तुम्हें सताएगी। समझ है। जैसे जवानी में आदमी अंधा होता है, वैसे बुढ़ापे में भी महावीर के इस सूत्र को खूब हृदय में हीरे की तरह सम्हालकर अंधा होता है। बुढ़ापे का अंधापन बुढ़ापे का है, जवानी का रख लेनाअंधापन जवानी का है। 'जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित हैं, निस्संग, निर्भय और बढ़े जवानों की निंदा किए चले जाते हैं। कभी उन्होंने मन में आशारहित हैं...।' सोचा, कि जब तुम जवान थे, तुम्हारे बूढ़ों ने भी ऐसा ही किया जो ठीक से परिचित हुआ संसार से, जिसने सब कडुवे-मीठे था; तुमने सुना था? अगर तुम इतना भी न समझ पाए कि | अनुभव लिए, जो डरा नहीं, जो निस्संकोच उतर गया अंधेरों में, तुम्हारे बूढ़ों की तुमने नहीं सुनी, तुम्हारे जवान बेटे तुम्हारी कैसे जो गड्ढों में भी गिरा और भयभीत न हुआ, जिसने सारे जीवन के सुन लेगे, तो तुम कुछ भी नहीं समझ पाए। तो तुम बूढ़े...धूप में अनुभव लेने की ठानी कि परिचित तो हो लं! इस जीवन में आया बाल पक गए होंगे तुम्हारे, सुपरिचित नहीं हो। हं, ठीक से जान तो लूं, कि क्या है? जिसने उधार वचन न जो बूढ़ा सुपरिचित है, वह युवकों से कहेगा, ठीक से भोगना; सीखे, और उधार सिद्धांतों का बोझ न ढोया; और शास्त्रों से न जागकर भोगना; होश से भोगना। वह यह नहीं कहेगा कि भोग जीया, जीवन के शास्त्र को ही शिक्षा देने का जिसने मौका और छोड़ना। वह कहेगा, जब भोगने के दिन हैं तो खूब होश से भोग | अवसर दिया, वह अपने आप निस्संग हो जाएगा। लेना। कहीं ऐसा न हो कि भोगने के दिन निकल जाएं और भोग | निस्संगता का अर्थ है, जीवन को ठीक से पहचानोगे तो तुम की आकांक्षा भीतर शेष रह जाए तो बड़ी झंझट पैदा होती है। पाओगे, तुम अकेले हो। साथ होना धोखा है। हम सब अकेले 329 2010_03
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________________ जिन सूत्र भाग: 2 हैं। अकेले के कारण डर लगता, भय होता, असुरक्षा मालूम और एक बात तय है कि अकेले हम आते हैं, अकेले हम जाते होती; तो हमने संग-साथ बना लिया है। लेकिन संग-साथ हैं, और बीच में यह जो दो दिन का मेला है, इसमें हम बड़े संबंध मान्यता भर है। तुम मरोगे, अकेले जाओगे। तुम आए अकेले, बना लेते हैं। राह पर चलते लोगों के हाथ में हाथ डाल लेते हैं। जाओगे अकेले। थोड़ी देर को अपरिचित लोगों से...और ध्यान कोई पत्नी हो जाती है, कोई पति हो जाता है। कोई मित्र हो जाता | रखना, जब मैं अपरिचित कह रहा हूं तो मेरा मतलब यह नहीं है | है. कोई शत्र हो जाता है। हम जल्दी से संबंध जोड लेते हैं. ताकि जिसे तुम नहीं जानते। जिसे तुम सोचते हो कि तुम जानते हो, अकेलापन छिप जाए। हम संबंध की चादर फैला देते हैं ताकि वह भी तो अपरिचित है। | अकेलापन भीतर छिप जाए। हम अकेले होने से डरे हैं, भयभीत तुम्हारी पत्नी परिचित है? एक दिन एक अपरिचित स्त्री के | हैं। कोई तो अपना हो इस अजनबी दुनिया में। दो-चार को साथ सात चक्कर लगा लिए थे, परिचय हो गया? तुम्हारा बेटा | अपना बनाकर थोड़ा भरोसा आता है। कोई फिक्र नहीं, कोई तो तुमसे परिचित है? एक दिन एक अनजान आत्मा तम्हारे घर में अपना है। किसी से तो नाता है। पैदा हो गई थी। सिर्फ तम्हारे गर्भ से पैदा हआ. तो परिचित है? जिस व्यक्ति ने भी जीवन को गौर से देखा, वह यह पाएगा कि तुमने उसके अवतरण में थोड़ा साथ-सहयोग दिया, तो परिचित हम निस्संग हैं। और जब निस्संग हैं तो नाते-रिश्तों के धोखे में पड़ने का कोई कारण नहीं। . खलील जिब्रान ने कहा है, तुम्हारे बच्चे तुम्हारे नहीं हैं। तुमसे इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम सब नाते-रिश्ते तोड़कर आज आते हैं जरूर। तुम माध्यम हो। लेकिन दावा मत करना कि भाग जाओ। भागने का तो खयाल उसी को आता है, जिसको हमारे बच्चे हमारे हैं। तुम उन्हें प्रेम तो देना, ज्ञान मत देना। | समझ नहीं आई। मां मां रहेगी, पिता पिता रहेगा, बेटा बेटा क्योंकि वे कल में जीयेंगे। वे भविष्य में जीयेंगे। उस भविष्य का रहेगा; लेकिन भीतर अब तुम जानते हो, जागकर जानते हो कि तुम्हें सपना भी नहीं आ सकता। तुम्हारा ज्ञान अतीत का है। वे कोई, कोई का नहीं। कोई अपना नहीं। खेल के नियम हैं। भविष्य में जीयेंगे। तुम अपना प्रेम देना, अपना ज्ञान मत देना। जैसे ताश खेलते हैं, तो ताश के पत्तों में रानी होती है, राजा और दावा मत करना कि बच्चे हमारे हैं। | होता है, गुलाम होता और सब कुछ होता है; लेकिन कोई हम एक आदिम जाति है—होपी। अकेली होपी भाषा ऐसी भाषा मानते थोड़े ही, कि राजा-रानी हैं। जानते हैं कि ताश का पत्ता है, है, जो इस संबंध में सच के करीब पहंचती है। तुम अपने बेटे को खेल है। अगर कोई आदमी ताश के पत्तों में एकदम उठकर खड़ा लेकर कहीं जाते हो, कोई पूछता है 'कौन है?' तुम कहते हो, हो जाए और कहे, कि यह सब धोखा है, मैं तो त्याग करता हूं यह 'मेरा बेटा,' या 'मेरी बेटी।' होपी भाषा में ऐसा कोई शब्द | राजा-रानियों का। तुम्हें हंसी आएगी। क्योंकि त्याग करने का नहीं है, अगर होपी बाप अपने बेटे को लेकर कहीं जा रहा है और खयाल तो तभी सार्थक हो सकता है, जब राजा-रानी सच्चे हों। कोई पूछता है, यह कौन है, तो वह कहता है, यह लड़का है, तुम कहोगे पागल हुए हो? है ही कौन, जिसको तुम त्याग कर जिसके साथ हम रहते हैं। यह लड़का है, जो हमारे घर पैदा हुआ रहे हो? ये राजा-रानी तो कागज पर बने चिह्न हैं। यह तो हमारी है। पता नहीं कौन है! मान्यता है। त्याग तो तब हो सकता है, जब हो। यह बात ज्यादा समझ में आने जैसी लगती है—यह लड़का तो जब कोई आदमी कहता है, मैं पत्नी को छोड़कर जंगल जा हमारे साथ रहता है, हम इस लड़के के साथ रहते हैं। संयोग है। रहा हूं, तो चूक गया। पत्नी को छोड़कर जंगल जाने की क्या यह हमारे घर में पैदा हुआ है। वैसे हम जानते नहीं कौन है! | जरूरत थी? पत्नी जब तुम्हारे बिलकुल पास बैठी है, हाथ में कौन जानता है? कभी अपने छोटे बच्चे की आंखों में हाथ डाले बैठी है, तब भी तुम अकेले हो, यह जानना है। पत्नी झांककर देखा-जानते हो? इससे ज्यादा अजनबी आंखें और | अकेली है, यह जानना है। बेटा जब तम्हारी गोद में खेल रहा है, कहां पाओगे? कोई उपाय नहीं है। अपने को नहीं जानते, दूसरे तब भी जानना है कि तुम अकेले हो, बेटा अकेला है। को हम जानेंगे कैसे? संबंध ताश के पत्तों का खेल है; संयोग मात्र है। नदी-नाव 330 2010_03
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________________ n soommunisma MAAVARANANEWomawwwmummo वाEिDIAS ध्यान है आत्मरमण MANTRINAGIRATRAINA संयोग! थोड़ी देर को मिलना हो गया है। इन थोड़े क्षणों में इस साधु-संत तुम्हें कहते हैं, वासना छोड़ो, यह नहीं कहते कि आशा तरह जीओ कि तुम्हारे कारण किसी को व्यर्थ दुख न पहुंचे; बस छोड़ो। क्योंकि अगर आशा छोड़ो तो साधु-संत भी आशा ही के काफी है। थोड़ी देर राह पर साथ हो लिए हैं, गीत गुनगुना लो, सहारे जी रहे हैं-स्वर्ग की आशा, मोक्ष की आशा, इस संसार ठीक। कुछ देते बने, दे दो; ठीक! लेकिन इस भ्रांति में मत में नहीं मिला तो परलोक में मिलेगा सुख, इसकी आशा। पड़ना कि यह सदा संबंध रहनेवाला है—निस्संग! महावीर की बात कुछ और है। महावीर कह रहे हैं, आशा और जिसको यह पता चला कि मैं निस्संग हूं, वह निर्भय हो जानी चाहिए। आशारहितता जब तक न हो जाए, तब तक मुक्ति जाता है। मूल भित्ति है, जीवन से जो सुपरिचित होता है, वह | नहीं है। निस्संग हो जाता है। जीवन को देखोगे तो दिखाई ही पड़ जाएगा| आशा वासना का सूक्ष्मतम रूप है। आशा का अर्थ है, जो अकेला हूँ; बिलकुल अकेला हूं। जन्मों-जन्मों से अनंत की आज नहीं हुआ, कल होगा। जो आज नहीं हो पाया, कल कर यात्रा पर अकेला हूं। लेंगे। आज चूक गए, कल न भूलेंगे, कल न चूकेंगे। आशा का और जब अकेला हूं, और साथ-संगी होने का कोई उपाय ही अर्थ है, जीवन को कल पर टालने की सुविधा। नहीं है तो भय कैसा? जब अकेला ही हूं और अकेला ही रहा हूं | रोज-रोज हारते हैं, लेकिन कल की आशा बचाए रखते हैं! और अकेला ही रहूंगा तो अब भय भी क्या करना ! जब कोई बहुत घुटन है, कोई सूरते-बयां निकले, आदमी तथ्यों को देख लेता है, तथ्य स्वीकार हो जाते हैं। अगर सदा न उठे, कम से कम फुगां निकले। अकसर ऐसा होता है कि युद्ध के मैदान पर जब सैनिक जाते फकीरे-सहर के तन पर लिबास बाकी है, हैं, तो बहुत डरे रहते हैं-जाने के पहले डरे रहते हैं; बड़े अमीरे-सहर के अरमां अभी कहां निकले। घबड़ाए रहते हैं, मौत की तरफ जा रहे हैं। पता नहीं लौटेंगे, नहीं | हकीकतें हैं सलामत तो ख्वाब बहुतेरे लौटेंगे। लेकिन जैसे ही युद्ध के मैदान पर पहुंच जाते हैं, भय मलाल क्यों हो जो कुछ ख्वाब रायगां निकले। समाप्त हो जाता है। फिर गोलियां चलती रहती हैं और बम गिरते -कुछ सपने अगर झूठे निकल गए तो इतना दुखी होने की हैं और वे ताश भी खेलते रहते हैं, गपशप भी करते हैं, हंसते भी क्या जरूरत? हैं, गुनगुनाते भी हैं, भोजन भी करते हैं—सब चलता है। हकीकतें हैं सलामत तो ख्वाब बहुतेरे एक दफा युद्ध के मैदान पर पहुंच गए, एक बात स्वीकृत हो और अभी संसार तो बना है; तो और सपने बना लेंगे जाती है कि ठीक है, मौत है। जो है, है। उससे बचने का क्या मलाल क्यों हो जो कुछ ख्वाब रायगां निकले! है? भागने का कहां है? -कुछ ख्वाब झूठे निकल गए, कुछ सपने सच न सिद्ध हुए जैसे ही हम तथ्यों के साथ आंख मिलाना सीख जाते हैं, एक तो इसमें दुखी होने की क्या बात है? अभय पैदा होता है कि जो है, है। मौत है तो है, करोगे क्या? आदमी हारता है एक में, तो लोग उसे आश्वासन देते हैं, क्या जाओगे कहां? भागोगे कहां? फिर युद्ध के क्षेत्र से तो भागना घबड़ाते हो? एक बार आदमी हार जाता है, दूसरी बार जीत संभव भी है। युद्ध के क्षेत्र में तो बचने का कोई उपाय हो भी जाता है। दूसरी बार हार जाता है, तीसरी बार जीत जाता है। सकता है, लेकिन जीवन के क्षेत्र में कहां भागोगे? चले चलो! जीतोगे। यहां तो मौत सुनिश्चित ही है। कहीं भी जाओ, कैसे भी बचो, हालांकि इस संसार में कोई अब तक जीता नहीं। यहां सभी कहीं भी छिपो, मौत तुम्हें खोज ही लेगी। तो जब होना ही है तो हारे हैं। जीत यहां संभव नहीं है। हार यहां स्वभाव है। लेकिन स्वीकार हो जाता है। आशा कहे चली जाती है, आज हार गए, ठीक से संघर्ष न कर 'निस्संग, निर्भय और आशारहित...।' पाए, विधि-विधान न जुटा पाए, अब समझदार भी हो गए यह आशारहित शब्द को बहुत खयाल से समझने की जरूरत | ज्यादा, अनुभव भी हो गया, कल जीत लेंगे। है। जीवन में हम कामना से भी ज्यादा आशा से बंधे हैं। ऐसे जो कभी नहीं घटता, कभी नहीं घटेगा, उसकी आशा में 331 2010_03 www.jainelibrar.org
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________________ जिन सूत्र भाग : 2 हम जीये चले जाते हैं। और हाथ से रोज-रोज जीवन चुकता | हार और जीत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जाता है। इधर जीवन राख हुआ जा रहा है, उधर आशा सुलगती आशा-निराशा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। रहती है, सुलगाए रखती है। हम दौड़े रहते हैं। सुख-दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वासना से भी ज्यादा खतरनाक पकड़ है आशा की। क्योंकि स्वर्ग-नर्क एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ऐसा तो दिखाई पड़ता है कि बहुत से लोग वासना से ऊब जाते तुम दुख से बचना चाहते हो, सुख पाना चाहते हो; मिलता तो हैं, मगर आशा से नहीं ऊबते। इधर वासना से ऊबते हैं, तो दुख ही है। तुम निराशा से बचना चाहते हो, आशा को उकसाए भागते हैं संसार छोड़कर; लेकिन संन्यास में भी आशा को तो रखते हो; मिलती तो निराशा ही है। जलाए ही रखते हैं कि जो संसार में नहीं मिला, वह संन्यास में महावीर कहते हैं, आशारहित हो जाओ; आशा से शुद्ध हो मिल जाएगा। | जाओ। आशा को छोड़ दो। आशा के छोड़ते ही एक क्रांति महावीर की दृष्टि में संन्यास घटता है, जब तुम आशारहित हो | घटती है। वह क्रांति है, भविष्य का विसर्जित हो जाना। वह गए। जब तुमने यह स्वीकार कर लिया कि कुछ होता ही नहीं, क्रांति है, भविष्य का समाप्त हो जाना। निराशा नहीं आती, होनेवाला नहीं है। सब आशाएं व्यर्थ हैं, धोखा हैं, प्रवंचना हैं, भविष्य विदा हो जाता है। और भविष्य के विदा होते ही तुम्हारी मृग-मरीचिका हैं। ऊर्जा यहीं और अभी ठहर जाती है। तुम तो घबड़ाओगे। तुम कहोगे, अगर ऐसा आदमी | वही ध्यान का पहला चरण है-ऊर्जा यहां, अभी ठहर जाए। आशारहित हो जाए, हताश हो जाए, निराश हो जाए तो जीयेगा कल में न भटकती फिरे, कल में तलाश न करे। आज और यहीं कैसे? चलेगा कैसे? उठेगा कैसे? सुबह बिस्तर से बाहर कैसे और इसी क्षण तुम्हारा सारा अस्तित्व संगठित हो जाए। निकलेगा? अगर कुछ भी नहीं होना है तो बिस्तर से बाहर अभी तुम बिखरे-बिखरे हो। कुछ अतीत में पड़ा है, जो अब निकलने का भी क्या प्रयोजन? रहा नहीं; कुछ वहां उलझा है...कुछ क्या, काफी उलझा है। हम डरते हैं। हम डरते हैं कि ऐसा आदमी अगर निराश हो नब्बे प्रतिशत आदमी अतीत में उलझा है। किसी ने गाली दी थी गया तो फिर जीना असंभव है; श्वास लेना असंभव है। लेकिन बीस साल पहले, अभी भी वहां उलझाव बना है। तीस साल हमें पता नहीं है। निराश भी हम तभी तक होते हैं, जब तक पहले कोई मित्र चल बसा था दुनिया से, अभी भी एक घाव बना | आशा है। जब आशा बिलकुल विदा हो जाती है तो निराश भी है। पंद्रह साल पहले कोई हार हो गई थी, अभी तक उसकी होने को कुछ नहीं बचता। इसे समझना। तिक्तता जीभ पर बनी है। अभी तक छटती नहीं है। अभी तक निराशा आशा की असफलता है। बार-बार याद आ जाती है। निराशा आशा का अभाव नहीं है, निराशा आशा की नब्बे प्रतिशत आदमी वहां उलझा है, जो है नहीं; और जो दस असफलता है। जिस आदमी ने आशा छोड़ दी, उसी के साथ प्रतिशत है वह वहां उलझा है, जो अभी आया नहीं। ऐसे हम निराशा भी छूट गई। अब निराश होने को भी कुछ न बचा। जब | शून्य में जीते हैं। आशा ही न बची तो निराश होने का क्या बचा? जब जीत का यही ठीक अर्थ है माया में जीने का। माया का अर्थ है, उसमें कोई खयाल ही न रहा तो हारोगे कैसे? | जीना, जो नहीं है-अतीत; और उसमें जीना, जो अभी आया इसलिए लाओत्से कहता है, मुझे कोई हरा नहीं सकता। नहीं है- भविष्य। क्योंकि मैं जानता है, जीत होती ही नहीं। और मैं जीत की कोई और ब्रह्म में जीने का अर्थ है अभी जीना. यहीं जीना, सौ आकांक्षा नहीं करता हूँ। मझे कोई हरा नहीं सकता। प्रतिशत इसी क्षण में इकट्ठे हो जाना। सारी प्राण-ऊर्जा इसी क्षण कैसे हराओगे उस आदमी को, जो जीतने के लिए आतुर ही में आकर इकट्ठी हो जाए, केंद्रित हो जाए, संगठित हो जाए, नहीं है? जिसने जीतने की व्यर्थता को समझ लिया, उसे तुम | एकाग्र हो जाए। तो उस ऊर्जा की एकाग्रता में ही हमारा पहला कैसे हराओगे? संबंध, पहला साक्षात्कार सत्य से होता है। 332 Jal Education International 2010_03
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________________ H ध्यान है आत्मरमण - इसलिए महावीर कहते हैं, आशारहितता। आज, कल अत्यंत और अभिन्न क्या? हम अपने को धोखा दिए चले जाते हैं। हम कहते हैं, कल सब सनातन, सिद्ध और समग्र है अच्छा हो सकेगा। मनुष्य की बड़ी से बड़ी जो भ्रांति की कला है, सब अचिंत्य, अनादि और अव्यग्र है वह यह है कि कल थोड़ा सुधार हो जाएगा। आज दुकान ठीक और वह पल जो गया सो गया ही नहीं चल रही है, कल चलेगी। आज ग्राहक नहीं आए, कल जो नया आए, रहे वह नया ही आएंगे। आज सम्मान नहीं मिला, कोई कारण नहीं है, कल क्यों इसे थोड़ा सोचना। न मिलेगा। थोड़ी और कोशिश करें। तुम्हारी आशा के कारण नया भी नया नहीं हो पाता। तुम प्रत्येक नया दिन नई नाव ले आता है, जो-जो योजना बना लेते हो, उसके कारण नए को भी जूठा कर लेकिन समुद्र है वही, सिंधु का तीर वही देते हो, पुराना कर देते हो, आने के पहले ही खराब कर देते हो। प्रत्येक नया दिन नया घाव दे जाता है, तुम्हारी अपेक्षा नए पर पहले से ही छाया डाल देती है। लेकिन पीड़ा है वही, नैन का नीर वही तुम कुछ मानकर चल रहे हो, यह होगा; अगर हुआ तो भी कुछ बदलता नहीं। पीछे लौटकर देखो! रेगिस्तान की मजा नहीं आता। क्योंकि इसको तो तुम बहुत बार सपने में देख तरह...रिक्त है जीवन। अपने अतीत को देखो, वहां कुछ भी चुके थे; बहुत बार सोच चुके थे, वही हुआ। होने के पहले ही नहीं है। न होने का कारण ही जो-जो तुम अतीत में चूक गए हो, पुराना पड़ गया। वह तुम भविष्य में रख लिए हो। जो तुम्हें पीछे नहीं मिल सका, अगर न हुआ तो दुखी होओगे कि नहीं हुआ; अगर हुआ तो उसे तमने आगे सरका लिया है। जो तम सत्य में नहीं पा सके, सखी न होओगे। आदमी का गणित बड़ा अजीब है। उसका सपना देख रहे हो। तुमने खयाल किया, जिससे अपेक्षा हो उससे सुख नहीं जब महावीर कहते हैं, कि 'आशारहितता', तो उनका अर्थ मिलता। राह तुम चल रहे हो, तुम्हारा रूमाल गिर जाए और एक यह है : सत्य यहां है, इस क्षण! तुम इस क्षण से और कहीं न अजनबी आदमी उठाकर रूमाल दे दे तो तुम धन्यवाद देते हो; भटको। तुम इस क्षण में लौट आओ। इस क्षण में होगा मिलन। क्योंकि अपेक्षा नहीं थी। तुम प्रसन्न होते हो कि भला आदमी है। इस क्षण में घटेगी वह क्रांति, जिसको समाधि कहें, सम्यक ज्ञान लेकिन तुम्हारी पत्नी ही रूमाल उठाकर दे दे, तो तुम धन्यवाद भी कहें या कोई और नाम देना हो तो और नाम दें। नहीं देते! हां, अगर उठाकर न दे तो नाराज होओगे कि तुमने इस क्षण से द्वार खुलता है अस्तित्व में। यह क्षण द्वार है। उठाकर दिया क्यों नहीं? उठाकर दे, तो प्रसन्न नहीं होते; न केवल वर्तमान सच है, शेष सब झूठ है। जो बीत गया, बीत | धन्यवाद, न अनुग्रह। न दे तो नाराज होते हो।। गया, अब नहीं है। जो नहीं आया, अभी नहीं आया है। जो बीत | जिससे अपेक्षा होती है, उससे हम दुख पाते हैं, सुख नहीं गया वह कभी सच था, जब वह वर्तमान था। और जो नहीं | पाते। अगर पूरा हो जाए तो होना ही चाहिए था; इसलिए सुख आया है, वह कभी सच होगा लेकिन तभी जब वर्तमान बनेगा। का कोई कारण नहीं है। पत्नी ने रूमाल उठाकर दिया-देना ही तो एक बात तय है कि केवल वर्तमान के अतिरिक्त और कुछ चाहिए था। उसका कर्तव्य ही था। इसमें बात क्या हो गई भी सच नहीं होता। तो तुम वर्तमान में होने की कला सीख धन्यवाद की? अगर न दिया तो कर्तव्य का पालन नहीं हुआ। जाओ, तो सत्य के साथ हो जाओगे। सत्य से सत्संग जुड़ेगा। __ अगर बेटा बाप को सम्मान दे तो कोई सुख नहीं मिलता; न दे और वह पल जो गया, सो गया ही सम्मान तो दुख मिलता है। यह बड़ी हैरानी की बात है। फिर तुम जो नया आए, रहे वह नया ही कहते हो, हम दुखी क्यों हैं? यह नहीं होगा, नया भी जाएगा अगर तुमने धंधा किया और दस हजार रुपये मिलने की आशा और हर क्षण नया ही क्षण आएगा थी, मिल गए तो कोई खास सुख नहीं होता–मिलने ही थे। फिर क्षणिक क्या? खंड क्या है, छिन्न क्या? निश्चित ही था। मिलने के पहले ही तुम योजना बना चुके थे कि 333 2010_03 www.jainelibrary org
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________________ जिन सूत्र भागः 2 मिलेंगे। इतना ही नहीं, मिलने के बाद क्या-क्या करोगे उस लेना-सभी कुछ अपूर्व है। सबकी भी योजना बना चुके थे। तो जब मिलते हैं, तब चौंकाते लेकिन आशारहित व्यक्ति हो तो प्रतिक्षण सोने का है; नहीं तुम्हें। विस्मय से नहीं भरते, आनंद-विभोर नहीं करते। प्रतिक्षण में सुगंध है, प्रतिक्षण में स्वर्ग है। अगर न मिले तो तुम दुखी जरूर हो जाते हो। | महावीर कहते हैं, 'संसार से जो सुपरिचित, निस्संग, निर्भय महावार कहत हार कलकत्ते में मेरे एक मित्र हैं, उनके घर मैं कभी-कभी रुकता और आशारहित है, उसी का मन वीतरागता को उपलब्ध होता था। एक बार मुझे लेकर एअरपोर्ट से वे घर जा रहे थे, उदास है; और वही ध्यान में सुनिश्चल, भलीभांति स्थित होता है।' थे; तो मैंने पूछा कि क्या मामला है? वे बोले कि बड़ा नुकसान ध्यान की स्थिरता का अर्थ है, वर्तमान के क्षण से यहां-वहां न लग गया, कोई पांच लाख का नुकसान लग गया। उनकी पत्नी जाना; जरा भी डांवाडोल न होना। जो है, उसके साथ पूरी भी पीछे थी कार में, वह हंसने लगी। उसने मुझसे कहा, आप समरसता से जीना। जो है, उससे अन्यथा की न मांग है, न चाह इनकी बातों में मत पड़ना। मैंने कहा, वे उदास हैं और तू हंस रही है, न आशा है। जो है, वैसा ही होना चाहिए। ऐसा ही भाव है। है; बात क्या है? | जो है, वह वैसा है ही जैसा होना चाहिए था। न कोई विरोध है, न तो उसने कहा, मामला ऐसा है कि नुकसान हुआ नहीं, पांच कोई निंदा है, न कोई आलोचना है। लाख का लाभ हआ है। लेकिन दस लाख का होना चाहिए था. तथ्य की इस स्वीकति का नाम तथाता है। और 3 इसलिए ये दुखी हैं। इनको मैं लाख समझा रही हूं कि तुम्हें पांच तथाता को उपलब्ध हुआ, उसको महावीर और बुद्ध दोनों ने लाख का लाभ हुआ। मगर ये कहते हैं, वह कोई सवाल ही नहीं तथागत कहा है। तथागत बुद्ध और महावीर का विशिष्ट शब्द है, दस का होना निश्चित ही था। पांच का नुकसान हो गया। है। उसका अर्थ होता है, तथाता को उपलब्ध; तथ्य की स्वीकृति अब जिसको दस लाख का लाभ होना है, उसे पांच लाख का को पूर्णता से उपलब्ध है। जो है, है; जो नहीं है, नहीं है। और भी लाभ हो तो प्रसन्नता कैसे हो? क्योंकि प्रसन्नता तो तुम्हारी इसमें मेरा कोई चुनाव नहीं है। मैं राजी हूं। जो है, उसके होने से अपेक्षा पर निर्भर होती है। राजी हूं। जो नहीं है, उसके नहीं होने से राजी हूं। अन्यथा की तुम खयाल करना, अगर तुम अपेक्षाशून्य हो जाओ तो तुम्हारे | कोई चाह नहीं है। तथ्य का पूरा स्वागत है। ऐसा व्यक्ति ही जीवन में आनंद की वर्षा हो जाएगी। अगर तुम्हारी कोई आशा न | ध्यान को स्थित होता है। रह जाए तो तम पाओगे, प्रतिपल स्वर्ग के फल खिलने लगे। आमतौर से तो हम रोते ही रहते हैं। लोगों की आंखें देखो. तम जिसकी कोई आशा नहीं है उसे तो सांस चलना भी बड़े आनंद | उन्हें सदा आंसुओं से भरी पाओगे। हजार शिकायतें हैं। की घटना मालूम पड़ती है। जिंदा है, यह भी बहुत है / यह भी शिकायतें ही शिकायतें हैं। सारा अतीत व्यर्थ गया, वर्तमान कोई जरूरी तो नहीं है कि होना चाहिए। इसकी भी कोई ऐसी व्यर्थ जा रहा है, भविष्य की आशा पर टंगे हैं। बड़ा पतला धागा अनिवार्यता तो नहीं है। यह जगत मुझे जिलाए ही रखे, इसकी है, जिससे तलवार लटकी है। वह भी होगा इसका पक्का क्या अनिवार्यता है? मेरे दीये को बुझा दे तो शिकायत कहां भरोसा थोड़े ही है। सिर्फ आशा है, भरोसा नहीं है। करूंगा? अपील की कोई कोर्ट भी तो नहीं है। मेरा दीया जल | भरोसा हो भी कैसे सकता है? आशा तो पहले भी की थी, हर रहा है, यह भी धन्यभाग है। बार टूट गई। आशा-आशा करके तो अब तक गंवाया; मिला जिस व्यक्ति के जीवन में आशा नहीं है, होना मात्र भी परम कुछ भी नहीं। लेकिन बिना आशा के जीयें भी कैसे? तो फिर आनंद है। छोटी-छोटी चीजें आनंद की हो जाती हैं। हवाओं का आगे के लिए सरका लेते हैं। पीछे के लिए रोते रहते हैं, आगे के वृक्षों से गुनगुनाते हुए गुजर जाना! वृक्षों में नई कोपलों का फूट लिए रोते रहते हैं। और बीच के क्षण में परमात्मा तुम्हारे द्वार पर आना ! सुबह पक्षियों की चहचहाहट ! रात आकाश का तारों से दस्तक देता रहता है। परमात्मा कहता है, यहां, इसी क्षण! भर जाना ! राह पर किसी आदमी का नमस्कार कर लेना, किसी खोलो आंखें! देखो, मैं मौजूद हूं! बच्चे का मुस्कुरा देना, किसी का प्रेम से हाथ हाथ में ले लेकिन हमें फुर्सत कहां? वर्तमान का छोटा-सा क्षण, बड़ा 334 | JanEducation International 2010_03
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________________ - ध्यान है आत्मरमण छोटा है—आणविक, हमारी चिंताओं में अतीत और भविष्य | लेकिन जब दूसरों से संबंध धीरे-धीरे छोड़ देते हो, भीतर जान की, कहीं खो जाता है। लेते हो, जाग जाते हो कि कोई अपना नहीं, तो यह शरीर की दौड़ कभी सोचना बैठकर बंद हो जाती है। इस दौड़ के बंद होते ही धीरे-धीरे शरीर के साथ आओ कि आज गौर करें इस सवाल पर तुम्हारी जो आंतरिक आसक्ति है, वह क्षीण हो जाती है। जब देखे थे हमने जो वह हंसी ख्वाब, क्या हुए? कोई अपना नहीं है तो एक दिन पता चलता है कि शरीर भी पहले भी तुम ख्वाब देखते रहे थे; उनका क्या हुआ? अब | अपना नहीं है। मैं शरीर नहीं हूं, यह बोध गहन होता है। फिर ख्वाब देख रहे हो। जो उनका हुआ, वही इनका भी होगा। और जब यह बोध गहन होता है, तब एक और नई क्रांति मरते वक्त रोओगे कि ख्वाब में ही गंवाया। आशा में ही घटती है कि मैं मन भी नहीं हूं। जैसे शरीर जोड़ता है दूसरों से, बंधे-बंधे नष्ट हुए। ऐसा मन जोड़ता है शरीर से। जैसे-जैसे तुम पीछे हटते जाते हो, ख्वाब छोड़ो। ये स्वप्नीली आंखों पर थोड़ा पानी छिड़को होश सेतु टूटते जाते हैं। का। थोड़ा झकझोरो अपने को, जगाओ। और इस क्षण में लौट शरीर जोड़ता है संसार से, पर से। पर से संबंध गिरा, शरीर आओ। पकड़-पकड़कर...। का संबंध शिथिल हुआ। शरीर का पता चला कि शरीर मुझसे पहले तो बड़ी कठिनाई होगी। क्योंकि मन की परानी आदतें अलग है, मैं देह नहीं, तो मन जोड़ता है शरीर से। अब मन के हैं, वह खिसक-खिसक जाता है। तुमने इधर से पकड़ा, वह भी जोड़ने का कोई कारण न रहा। मैं शरीर नहीं हूं तो मन का दूसरी गली से निकल गया। पीछे गया, आगे गया, यहीं भर नहीं | जोड़ भी उखड़ा। आता। लेकिन तुम कोशिश करते रहो, कोशिश करते रहो, कभी और जैसे ही जोड़ उखड़ा कि आखिरी क्रांति घटती है। पता अगर क्षणभर को भी यहां रुक जाएगा, तो स्वाद की शुरुआत हो चलता है कि मैं मन भी नहीं हूं; उसके पार जो शेष है, वही हूं। जाएगी-सत्य का स्वाद! फिर स्वाद पकड़ लेता है। फिर उस वही हूं। स्वाद के कारण मन ज्यादा-ज्यादा रुकने लगता है। उससे संबंध कभी नहीं छूटता। वही है शाश्वत आत्मा। वही 'ध्यान-योगी अपने आत्मा को शरीर तथा समस्त बाह्य | है तुम्हारे भीतर सनातन। वही है नित्य। वही संयोगों से भिन्न देखता है। अर्थात देह तथा उपाधि का सर्वथा | शरीर मरता है; इसलिए शरीर के साथ जुड़े तो भय रहेगा। त्याग करके निस्संग हो जाता है।' मन बदलता है; मन के साथ जड़े तो जीवन में कभी थिरता न जिसने यह जाना कि कोई मेरा नहीं है, कोई मित्र नहीं, कोई होगी। प्रियजन नहीं; जिसने यह समझा कि मैं अकेला हूं, उसे जल्दी ही शरीर और मन के पार जो छिपा है-साक्षी, चैतन्य—उससे | एक और नई समझ आएगी। और वह समझ होगी कि मैं शरीर जुड़े तो फिर सब शाश्वत है, सब थिर है। फिर कोई परिवर्तन की नहीं हूं। क्योंकि दूसरों के साथ हम जो संबंध जोड़े हैं, वह शरीर लहर नहीं आती। फिर तुम उस अनंत गृह में पहुंचे, जहां से से जोड़े हैं। जब दूसरों से संबंध टूट जाता है तो शरीर से संबंध निकलने का कोई कारण नहीं। जहां तुम सदा के लिए विश्राम शिथिल होने लगता है। जो आदमी दौड़ता है, उसके पैर मजबूत कर सकते हो। जहां विराम है—चिंताओं से, विचारों से, रहते हैं। जब वह घर बैठ जाता है, दौड़ना बंद कर देता है, पैर अशांतियों से, तनावों से। तुम अपने घर वापिस आए। अपने आप कमजोर हो जाते हैं। अगर वह वर्षों तक बैठा ही रहे | 'ध्यान-योगी अपने शरीर को तथा समस्त बाह्य संयोगों को तो फिर चल ही न पाएगा। | भिन्न देखता है। देह तथा उपाधि का सर्वथा त्याग करके निस्संग जब तुम्हारा मन शरीर के माध्यम से दूसरों से बहुत संबंध हो जाता है।' बनाता है, हजार तरह के नाते जोड़ता है तो शरीर मजबूत रहता 'वही श्रमण आत्मा का ध्याता है, जो ध्यान में चितवन करता है। शरीर की पकड़ गहरी रहती है, आसक्ति भारी रहती है। है कि मैं न पर का है, न पर पदार्थ या भाव मेरे हैं। मैं तो एक क्योंकि उसी के द्वारा...वही तो सेतु है दूसरे तक पहुंचने का। शुद्ध-बुद्ध ज्ञानमय चैतन्य हूं।' 335 2010_03
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________________ जिन सूत्र भागः2 RATHI 'चितवन'—जैनों का अपना शब्द है। इसे तुम चिंतन से एक अकंप होने की दिशा है वर्तमान। मत समझ लेना। चिंतन से भिन्न करने के लिए ही इस शब्द को 'तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते।' गढा गया है चितवन। चिंतन का अर्थ होता है. सोचना. और | न तो अतीत में कोई सार्थकता है. और न भविष्य में कोई चितवन का अर्थ होता है देखना। सार्थकता है। तथागत तथ्य में देखते हैं। तथ्य में देखने से ही, तुम ऐसा बैठकर सोच सकते हो कि मैं शुद्ध-बुद्ध परमात्मा हूं; तथ्य के साथ जुड़ने से ही, जो है उसमें उतरने से ही, सत्य का इससे कुछ लाभ न होगा। यह तो मन में ही उठी तरंग है। यह तो अनुभव उपलब्ध होता है। मन ही दोहरा रहा है। नहीं, ऐसा सोचना नहीं है, ऐसा देखना है। तथ्य द्वार है सत्य का। ऐसा विचार में नहीं, भीतर दोहराना है। ऐसा भीतर अनुभव में ....कल्पनामुक्त महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो।' लाना है। ऐसा स्पष्ट दिखाई पड़े कि मैं शुद्ध-बुद्ध परमात्मा हूं। अनुपश्यी वर्तमान का! वर्तमान की प्रतीति में, वर्तमान के इसमें जरा भी शंका और शल्य न रहे। इसमें जरा भी संदेह की अनुभव में, वर्तमान के साक्षात्कार की जो दशा है, जो इस समय छाया न पड़े। यह श्रद्धा परिपूर्ण हो। यह हो जाती है। गुजर रहा है सामने से, उसको ही देखता है। उसका ही अनुपश्यी जो आशारहित, निस्संग भाव से जीता है. स्वभावतः धीरे-धीरे होता है। उसे यह दृष्टि उपलब्ध होती है। यह सम्यकत्व उपलब्ध होता अवेयरनेसं, जागरूकता बस इस क्षण की होती है। इसे थोड़ा है। वह देखने लगता है अपने भीतर। उसे साफ दिखाई पड़ने करने की कोशिश करो। कठिन है, अति कठिन है। लेकिन जब लगता है कि मैं देखनेवाला हूं। जो भी दिखाई पड़ता है, वह मैं | सधता है तो सभी कठिनाइयां सहने योग्य थीं, ऐसा पता नहीं है। हो भी कैसे सकता है? जो मझे दिखाई पड़ता है. उससे चलेगा। तब बहमल्य हीरा. अमल्य हीरा हाथ लगता है। मैं अलग हो गया। मैं तो वह हूं, जिसे दिखाई पड़ता है। थोड़ी कोशिश करो। जो भी तुम कर रहे हो...रास्ते पर चल इसलिए धीरे-धीरे समस्त दृश्यों से अपने को मुक्त करके शुद्ध रहे हो, तो बस चलने का ही अनुपश्यन, चलने की ही द्रष्टा में लीन हो जाने का नाम चितवन है। | जागरूकता रहे। भोजन कर रहे हो तो भोजन करने की ही 'वही श्रमण आत्मा का ध्याता है...।' जागरूकता रहे। और महावीर कहते हैं, वही ध्यान को उपलब्ध हुआ, जो झेन फकीर बोकोजू से किसी ने पूछा कि तुम्हारी साधना क्या | चितवन करता है, जो देखता है, जिसके अनुभव में आता है, है? उसने कहा, जब भोजन करता हूं तो सिर्फ भोजन करता है जिसकी प्रतीति में उतरता है कि मैं न पर का हूं, न पर मेरे हैं। मैं और जब कुएं से पानी भरता हूं तो सिर्फ कुएं से पानी भरता हूं। एक शुद्ध-बुद्ध ज्ञानमय चैतन्य हूं। . | और जब सो जाता हूं तो सिर्फ सो जाता हूं। 'तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते...।' उस आदमी ने कहा, यह भी कोई साधना हुई? यह तो सभी 'तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते। करते हैं। कल्पनामुक्त महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो, कर्म-शरीर का | बोकोजू ने कहा, काश! सभी यह करते होते तो पृथ्वी पर बुद्ध शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है।' ही बुद्ध होते। सब तथागत होते। तुम जब भोजन करते हो तब "तथागत अतीत और भविष्य में नहीं देखते'-वही तथागत तुम हजार काम और भी करते हो। भोजन तो शायद ही करते हो, की परिभाषा है; जो न पीछे देखता है, न आगे। जो बस यहीं है; और ही काम ज्यादा करते हो। इस क्षण में पर्याप्त है। जो इस क्षण से बाहर नहीं जाता। आदमी भोजन पर बैठा है, वह यंत्रवत भोजन को फेंके जाता है जैसे दीये की लौ हवा के झोंके में कंपती इधर-उधर, फिर हवा | शरीर में। मन हजारों दिशाओं में भटकता है। न मालूम के झोंके बंद हो गए और दीये की लौ अकंप जलती है। जब तुम कहां-कहां की यात्राएं करता है। न मालूम कितनी योजनाएं | अकंप होते हो, तुम यहां होते हो। जरा कंपे कि या तो अतीत में | बनाता है। गए, या भविष्य में गए। दो ही दिशाएं हैं कंपने की। तुम रास्ते पर चलते हो, जब चलते हो तो सिर्फ चलते हो? 336 Jal Education International 2010_03
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________________ - ध्यान है आत्मरमण चलने का तो खयाल ही नहीं रखते। जो वर्तमान में हो रहा है '...तेरी आत्मा आत्मरत हो जाएगी।' उसको तो देखते ही नहीं। उससे तो तुम चूकते ही चले जाते हो। मा चिट्ठह, मा जंपह, मा चिंतह किं वि जेण होइ थिरो। और वर्तमान बड़ा छोटा-सा क्षण है। जरा चूके कि गया। चूके अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं।। नहीं कि गया! एक शब्द भी उठा मन में कि वर्तमान गया। तुमने यही परम ध्यान है। अगर इतना भी कहा कि 'अरे! वर्तमान को देखू,' वर्तमान | इसे थोड़ा खयाल में ले लें। कभी बैठे हैं तो बैठे रह जाएं; तो गया। तुमने इतना भी कहा मन में कि मुझे वर्तमान में जागरूक बैठने में ही लीन हो जाएं। भीतर से शब्दों को विदा कर दें, रहना है, तो तुम जब यह कह रहे थे तब वर्तमान जा रहा था। नमस्कार कर लें। कुछ चिंतन भी न करें। आत्मा का भी चिंतन जो है, वह तो शब्द मात्र से भी चूक जाता है। इसलिए भीतर न करें। यह भी मत सोचें कि मैं आत्मा हूं, शुद्ध-बुद्ध हूं। शब्द न उठे, निशब्द रहे तो ही वर्तमान पकड़ में आता है। क्योंकि वह सब चूकना है। निशब्द रहे और जो क्रिया तुम कर रहे हो, उसमें ही पूरी न चिंतन करें, न शरीर की कोई क्रिया में संलग्न हों, बैठे हैं तो तल्लीनता रहे। जैसे यही परम कृत्य है। | बैठने में डूब जाएं और भीतर सिर्फ जागे रहें, बस एक खयाल इसीलिए कबीर ने कहा है कि जो खाता-पीता है, वही तेरी रखें कि होश बना रहे. नींद न आ जाए। सेवा है प्रभु! जो उठता-बैठता हूं, वही तेरी परिक्रमा है प्रभु! अगर ध्यान का किसी चीज से विरोध है तो नींद से; और 'खाऊ पिऊ सो सेवा।' किसी चीज से विरोध नहीं है। संसार छोड़कर मत भागो। बडी अदभत बात कबीर ने कही कि मैं जो खाता-पीता हं. वही| घर-गहस्थी छोडकर मत भागो। इससे कछ लेना-देना नहीं है। तुझे मैंने भोग लगा दिया प्रभु! और भोग कहां लगाऊं? | सिर्फ नींद को गिरा दो। उठता-बैठता हूं, यही तेरे मंदिर की परिक्रमा है; अब और | जब मैं कह रहा हूं, नींद को गिरा दो तो मेरा मतलब यह नहीं है परिक्रमा करने कहा जाऊं? इसका अर्थ हुआ कि अगर क्षण को | कि रात तुम सोओ मत। जब जागो तो परिपूर्णता से जागो। कोई पूरी तरह जीये तो सब हो गया। क्षण से चूके कि सब चूके। आहिस्ता-आहिस्ता चलो, उठो, बैठो एक बात ख क्षण में जागे कि सब पाया। भीतर होश को सम्हाले रखना है। 'हे ध्याता, तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ अभी नाजुक है। अभी बार-बार खो जाएगा। बोल और न मन से कुछ चिंतन कर। इस प्रकार योग का निरोध सम्हालते-सम्हालते आने लगेगा। फिर धीरे-धीरे तुम पाओगे, करने से तू स्थिर हो जाएगा, तेरी आत्मा आत्मरत हो जाएगी। जब दिन की जागृति में जागरण सध गया, तो नींद में भी शरीर तो यही परम ध्यान है।' सो जाएगा, तुम जागे रहोगे। शरीर तो विश्राम करेगा, लेकिन यह परम ध्यान का परम सूत्र! तुम्हारे भीतर एक प्रहरी जागा रहेगा। 'हे ध्याता, तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर...।' ध्यान के जिस दिन चौबीस घंटे जागरण सध जाता, उसी दिन व्यक्ति लिए शरीर की चेष्टा का कोई प्रयोजन नहीं है। | बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता। '...न वाणी से कछ बोला' न भीतर शब्द को निर्मित कर। तो जागने में तो जागना पहले साधो. फिर नींद की फिक्र कर क्योंकि ध्यान से उसका भी कोई संबंध नहीं है। लेंगे। पहले तो जागने से नींद को हटाओ। तुम्हें भी कई दफे '...और न मन से कुछ चिंतन कर। इस प्रकार योग का | लगा होगा कि तुम्हारे भीतर जागरण की कई मात्राएं होती हैं। निरोध करने से तू स्थिर हो जाएगा।' जैसे समझो कि तुम रास्ते पर जा रहे हो और अचानक एक एक निशब्द शून्य भीतर घेर ले। उस निशब्द शून्य में जागरण सांप रास्ते से निकल जाए तो तुम चौंक पड़ते हो। सांप नहीं का दीया भर जलता रहे, बस! शून्य हो और जागृति हो। निकला था तब तुम किस अवस्था में थे? थोड़ी तंद्रा थी। चले शून्य + जागृति—कि ध्यान हुआ। जा रहे थे डूबे-डूबे, सोये-सोये; थोड़े-थोड़े जागे, थोड़े-थोड़े ध्यान का यही परम सूत्र है। सोये। सांप सामने आया, मौत सामने आ गई, एक धक्का 337 2010 03
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________________ जिन सूत्र भागः2 लगा, एकदम जाग गये। एक क्षण को तुम उस अवस्था में आए से बाधित, ग्रस्त या पीड़ित नहीं होता।' जिसको महावीर कहते हैं, प्रत्येक क्षण की बनाना है। _ 'वह धीर पुरुष न तो परीषह, न उपसर्ग आदि से विचलित तुम कार चला रहे थे, गीत गुनगुना रहे थे, कि सिगरेट पी रहे | होता है, न ही सूक्ष्म भावों, से भयभीत होता है, और देव-निर्मित थे, कि रेडियो सुन रहे थे। चले जा रहे थे अपनी धुन में। मायाजाल से मुक्त होता है।' अचानक दूसरी कार तेजी से सामने आ गई, मौत का खतरा ध्यान, धर्म का मौलिक आधार है। आया। दुर्घटना होने-होने को थी, बाल-बाल बचे। उस क्षण जैसे किसी को दर्शनशास्त्र में जाना हो तो विचार, तर्क मौलिक एक जोर तुम्हारे भीतर ऊर्जा का उठेगा। तुम जाग जाओगे। एक आधार है। वैसे ही किसी को स्वयं में जाना हो, स्वभाव में जाना क्षण को लगेगा, सब नींद टूट गई। खतरा इतना था कि नींद रह हो तो ध्यान मौलिक आधार है। नहीं सकती थी। तुम और सब साध लो और ध्यान न सधे, तो तुमने जो साधा मनोवैज्ञानिक कहते हैं खतरे में रस ही इसीलिए है कि उससे है, वह धर्म नहीं है। तुम तप साधो, योग साधो, और हजार तरह कभी-कभी जागने की झलकें आती हैं। लोग पहाड़ पर चढ़ने के क्रियाकांड और विधियां करो; यज्ञ करो, हवन करो, जाते हैं, गौरीशंकर चढ़ते हैं, खतरनाक है, जान-जोखिम में पूजा-प्रार्थना करो, लेकिन तुम्हारे भीतर अगर ध्यान नहीं सधा तो डालना है। लेकिन जब जोखिम होती है तो भीतर जागरण होता यह सब साधना बाहर-बाहर है; भीतर तुम न आ पाओगे।। है। जब जोखिम बहुत होती है तो भीतर बहुत जागरण होता है। और इस भीतर आने के लिए कुछ करने जैसा नहीं है। इस पहाड़ पर चढ़नेवाले को शायद पता भी न हो, कि वह क्यों पहाड़ भीतर आने की प्रक्रिया को तुम्हारी सारी क्रियाओं में से साधा जा पर चढ़ने के लिए पागल हुआ जा रहा है! लेकिन मनस्विद कहते सकता है। तुम दुकान पर बैठे बाजार में काम कर रहे हो, हैं, और सदा से ज्ञानियों को इस बात का खयाल रहा है कि खतरे ध्यान-पूर्वक करो-सोओ मत। मजदूर हो, कि अध्यापक हो, में लोगों को इसीलिए रस आता है कि खतरे में थोड़ी-सी नींद | कि दफ्तर में क्लर्क हो, कि स्कूल में चपरासी हो, कुछ भी हो; टूटती है और जागरण का स्वाद मिलता है। गरीब हो, कि अमीर हो; सैनिक हो कि दुकानदार हो; कोई भी लेकिन पहाड़ पर अगर रोज-रोज चढ़ते रहे...जो पहाड़ पर | कृत्य हो जीवन का, वहीं एक बात साधी जा सकती है कि जो भी चढ़ने जाता है उसको तो थोड़ा रस आता है, लेकिन नेपाल में जो तुम करो, उसे होशपूर्वक करते रहो। आदमी दूसरों को पहाड़ पर चढ़ाने का काम करते हैं जिंदगी से, पृथ्वी यह परिस्थिति यह, उनको कुछ नहीं होता। स्थान और पुरजन ये दलदल है, वह अभ्यस्त हो गया, यह यांत्रिक हो गया। एरावत बन हम फंसते हैं बाहर तो हर चीज यांत्रिक हो जाती है, जब तक कि भीतर का मदांध हो समझते हैं जागरण ही सीधा-सीधान खोजा जाए...जैसे तुम कभी आग कमलवन हमारा है, हमारा हे जलाते हो, अंगारों पर राख जम जाती है. ऐसी चित्त पर नींद जमी यहां कुछ भी हमारा नहीं। यहां जो भी हमारा मालूम पड़ता है, है। इसे थोड़ा झकझोरना है। इसे झकझोरते रहना है। अंगारा वह सब दलदल है। लेकिन इस हमारे के दलदल में कुछ है, जो जलता रहे। हमारा स्वभाव है। मेरा तो कुछ भी नहीं है, लेकिन मैं हूं। 'हे ध्याता, न तो तू शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ यह मैं क्या है? इस मैं को हम कैसे पकड़ें? इस मैं की तरफ बोल और न मन से कुछ चिंतन कर। इस प्रकार निरोध करने से हम किन यात्राओं, किन यात्रापथों से चलें? इस मैं का सुराग तू स्थिर हो जाएगा। तेरी आत्मा आत्मरत हो जाएगी। यही परम कैसे मिले? ध्यान है।' महावीर के इन सूत्रों का अर्थ हुआ कि इस मैं को जानना हो तो 'जिसका चित्त इस प्रकार के ध्यान में लीन है, वह आत्मध्यानी पहले तो जिस-जिस को तुमने मेरा माना है, उससे अपना संबंध पुरुष कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुखों शिथिल कर लो। क्योंकि 'मेरे' के दलदल में, 'मैं' फंसा है। 1338 2010_03
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________________ N ध्यान हे आत्मरमण तो पहले तो दलदल से बाहर कर लो। एक बार दलदल से बाहर आश्रम में, वही उसका काम था, और फकीर ने आकर पीछे से हो जाए, मेरे का जाल छूट जाए तो फिर दूसरा काम करने का है, उस पर हमला किया एक लकड़ी और वह यह है कि मैं सोया न रहे। सम्राट तो बहुत चौंका, उसने कहा, यह आप क्या करते हैं? बाहर का दलदल मिटे, फिर भीतर का दलदल मिटाओ। फकीर ने कहा, ध्यान की शुरुआत आज हुई। अब तुम खयाल बाहर का दलदल है संबंधों का जाल, और भीतर का दलदल है रखना। तुम कुछ भी कर रहे हो...तुम्हारा काम है लकड़ी एक तरह की सुप्ति, एक तरह की निद्रा, एक तरह की तंद्रा। काटकर लाना, बुहारी लगाना, भोजन पकाना, तुम सब करना, हम ऐसे चल रहे हैं जैसे कोई शराबी चल रहा हो। चल भी रहे लेकिन एक ध्यान रखना कि मैं कभी भी पीछे से हमला करूंगा, हैं, साफ भी नहीं है-अंधेरे में टटोलते से, खोये-खोये से, इसका होश रखना।। सोये-सोये से। उसने कहा, यह किस तरह का ध्यान हुआ? फकीर ने कहा, तो झकझोरो! पुकारो! खींचो इस भीतर के दलदल से अपने वह तुम फिक्र मत करो। तुम बस इतना होश रखो। को बाहर। कहते हैं ऐसा एक वर्ष बीता। और वह फकीर अनेक-अनेक महावीर कहते हैं, इसके लिए न तो कोई योगासन करने जरूरी | रूपों से पीछे से हमला करता। धीरे-धीरे होश सम्हलने लगा। हैं। शरीर की कोई क्रिया अपेक्षित नहीं है। न कोई बहुत बड़ा | क्योंकि जब कोई चौबीस घंटे हमले के बीच में पड़ा हो तो कैसे विचारक होना जरूरी है। कोई बड़े विश्वविद्यालयों से बड़ी रहेगा बेहोशी में? वह बार-बार चौंककर इधर-उधर देख उपाधियां लेकर आना जरूरी नहीं है। न शास्त्रों का पठन-पाठन लेता। जरा-सी पीछे से आवाज आती कि वह सजग हो जाता। आवश्यक है। क्योंकि चिंतन यहां काम आता ही नहीं। यहां तो हमले से बचना जरूरी था। बिल्ली भी चलती, कोई हवा का सिर्फ एक चीज काम आती है. और वह जागरण है। झोंका आता तो भी वह सजग हो जाता। तो तुम जो भी करते हो, अपने छोटे-छोटे कृत्यों में...बुहारी एक वर्ष होते-होते ऐसी हालत हो गई कि जब भी फकीर लगा रहे हो घर में, बस जागकर लगाओ। हमला करता—इसके पहले कि फकीर हमला करता, उसका एक झेन फकीर हुआ; सम्राट उसके पास आया था सीखने हाथ लकड़ी को पकड़ लेता। हमला करना मुश्किल हो गया। ध्यान। तो उस फकीर ने कहा कि रुको, जब ठीक समय फकीर बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने कहा, तमने पहला पाठ सीख आएगा, मैं शुरू करूंगा। उस सम्राट ने कहा, मैं ज्यादा देर नहीं लिया। अब दूसरा पाठ-कि अब रात जरा सम्हलकर सोना, रुक सकता, मेरे पिता वृद्ध हैं उनकी मृत्यु कभी भी हो सकती है। क्योंकि मैं सोते में हमला करूंगा। उन्होंने ही मुझे भेजा है कि उनके जीते-जी मैं ध्यान को उपलब्ध | लेकिन अब सम्राट को भी खयाल में आ गया था कि एक बड़ी हो जाऊं। तो जल्दी करें। गहरी शांति, अकारण-भीतर भरी थी। एक बड़ा प्रसाद, बड़ी उस फकीर ने कहा, अगर जल्दी की तो देर हो जाएगी। जल्दी प्रसन्नता। कुछ सीधा संबंध भी नहीं दिखाई पड़ता था कि आदमी करने में बड़ी देर हो जाती है। यह तो काम धीरज का है। तुमने किसी के पीछे से हमला करे तो प्रसाद का क्या संबंध? इतने अगर समय की मांग की तो फिर न हो सकेगा। तो तम पहले तय आनंद का क्या कारण? लेकिन आनंद ही आनंद था। जरूर कर लो। मैं तो तुम्हें स्वीकार ही तब करूंगा शिष्य की तरह, जब इसमें भी कुछ राज होगा। तुम मुझ पर छोड़ दो। जब समय परिपक्व होगा, जब मौसम रात कुछ दिन तो चोटें खायीं, फिर धीरे-धीरे नींद में भी आएगा और जब मैं समझूगा, कि अब शुरू करना पाठ, शुरू | सम्हलकर सोने लगा। नींद में भी, कमरे में फकीर प्रवेश करता कर दूंगा। तो वह आंख खोलकर बैठ जाता। गहरी नींद सोया होता, घुर्राटे कोई और उपाय न देखकर सम्राट ने स्वीकार कर लिया। तीन | लेता होता, लेकिन जरा आवाज होती कि वह चौंक जाता। साल, कहते हैं बीत गए और फकीर ने ध्यान की बात ही न की। तुमने देखा किसी मां को? तूफान हो, आंधी हो, नींद नहीं लेकिन एक दिन फकीर आया और सम्राट बुहारी लगा रहा था | खुलती। बच्चा जरा रो दे, नींद खुल जाती है। जिस तरफ ध्यान 339 2010_03
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________________ जिन सूत्र भागः 2 होता है, उस तरफ संबंध हो जाता है। तो एक आह्लाद बचता है-असीम! अपरिभाषित! तुम यहां सारे लोग सो जाओ आज रात, फिर मैं आकर आज मिलन-त्यौहार मनाये कौन वहां? पुकारूं, 'राम', तो किसी को सनाई न पड़ेगा, लेकिन जिसका। बरस रही रसधार कि गाये कौन वहां? नाम राम है उसे सुनाई पड़ जाएगा। क्योंकि राम से उसका एक वीणा को स्वरकार बजाये कौन वहां? सेतु बंधा है, एक संबंध बंधा है। बरस रही रसधार कि गाये कौन वहां? एक साल बीतते-बीतते ऐसा हो गया कि फकीर नींद में भी अमत बरसता है। इतना कहने को भी कोई नहीं बचता कि हमला न कर पाता। हमला करता कि इसके पहले ही हमला | अमत बरस रहा है कि गाये कौन वहां? बरस रही रसधार। रोकने का इंतजाम हो जाता। वीणा बजती है. बजानेवाला भी नहीं रह जाता। एक दिन सबह की बात है, सर्दी के दिन! फकीर. बढ़ा फकीर वीणा को स्वरकार बजाये कौन वहां? वृक्ष के नीचे धूप में बैठा कुछ पढ़ रहा था, और वह युवक इसको हिंदुओं ने अनाहत नाद कहा है-अपने से हो रहा संन्यासी–सम्राट–बुहारी लगा रहा था। बुहारी लगाते- नादः ओंकार। लगाते उसे खयाल आया कि दो साल से यह आदमी सब तरह से इसको महावीर ने स्वभाव कहा है-अपने से जो हो रहा। मुझ पर चोट कर रहा है, लाभ भी बहुत हुए, लेकिन मैंने कभी | आनंद हमारा स्वभाव है। हम सच्चिदानंद-रूप हैं। लेकिन इस यह नहीं सोचा कि मैं भी इस पर कभी हमला करके देखू, इस बूढ़े रूप को जानने के लिए जो आंख चाहिए ध्यान की, वह हमारे पर, यह भी जागा हुआ है या नहीं? पास नहीं है। या है भी, तो बंद पड़ी है। ऐसा खयाल भर आया, कि उस बूढ़े ने अपनी किताब पर से सौ-सौ बार चिताओं ने मरघट पर मेरी सेज बिछाई आंख उठाई और कहा, नासमझ! ऐसा मत करना, मैं बूढ़ा सौ-सौ बार धूल ने मेरे गीतों की आवाज चुराई आदमी हूं। लाखों बार कफन ने रोकर मेरा तन शंगार किया पर वह बहुत घबड़ा गया। उसने कहा, 'हआ क्या? मैंने तो एक बार भी अब तक मेरी जग में मौत नहीं हो पाई सिर्फ सोचा।' उसने कहा, 'जब जागरूकता बहुत सघन होती है तो जैसे अभी तू पैर की आवाज को पकड़ने लगा, ऐसे विचार मैं जीवन हूं, मैं यौवन हूं की आवाज भी पकड़ में आने लगती है। विचार की भी तो जन्म-मरण है मेरी क्रीड़ा आवाज है। विचार की भी तो तरंग है। विचार से भी तो घटना इधर विरह-सा बिछुड़ रहा हूं घटती है। जैसे तू अभी नींद में भी जाग जाता है, मेरा पैर नहीं| उधर मिलन-सा आ मिलता हूं। पड़ता तेरे कमरे के पास कि तू बैठ जाता है तैयार होकर। मैं इतने जिसे तुमने अब तक समझा है तुम हो, वे तो केवल सतह पर सम्हलकर चलता हूं, कोई उपाय नहीं। जरा-सी आवाज तुझे उठी तरंगें हैं। और जो तुम हो उसका तुम्हें पता नहीं है। उसका न चौंका देती है। एक दिन तेरे जीवन में भी ऐसी घड़ी तो कभी जन्म हुआ और न कभी मृत्यु हुई। आएगी-अगर जागता ही गया—कि विचार की तरंग भी | उस शाश्वत को जगाओ। पर्याप्त होगी। उस शाश्वत में जागो। ध्यान का अर्थ है : जागरण। उस शाश्वत को बिना पाए विदा मत हो जाना। जीवन उसको जैसे-जैसे तुम जागते जाते हो, वैसे-वैसे जीवन की सूक्ष्मतम पाने का अवसर है। जिसने ध्यान का धन पा लिया, उसने जीवन तरंगों का बोध होता है। परमात्मा जीवन की आत्यंतिक तरंग है, में कुछ कमा लिया। और जो और सब कमाने में लगा रहा और आखिरी सूक्ष्म तरंग है। तुम्हारी जब जागरण की आखिरी गहराई ध्यान के धन को न कमा पाया, उसने जीवन व्यर्थ गंवा दिया। आती है, तब परमात्मा का शिखर तुम्हारे सामने प्रगट होता है। इस अवसर से चूकना मत। पहले बहुत बार चूके हो, इसलिए उस घड़ी में न तो तुम बचते, न परमात्मा बचता। उस घड़ी में चूकने की संभावना बहुत है। क्योंकि चूकने की आदत बन गई 2010_03
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________________ R ध्यान है आत्मरमण है। लेकिन कितने ही बार चूके होओ, पा लेना संभव है। क्योंकि जिसे पाना है, वह तुम्हारा स्वभाव है। वह तुम्हारे भीतर मौजूद ही है। जरा पर्दे हटाना। जरा धूंघट हटाना। चूंघट के पट खोल! बूंघट बहुत तलों पर है। संबंधों का चूंघट, फिर शरीर का चूंघट, फिर मन का बूंघट। इन तीन पर्तों को तुम तोड़ दो तो तुम्हारी अपने से पहचान हो जाए। अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं। आत्मा आत्मा में रम जाती है फिर। यही परम ध्यान है। आज इतना ही। 341 2010_03