________________ जिन सूत्र भागः 2 जीसस की हवा तुम्हें पुकार बन जाए, आह्वान बन जाए! कि | और कल पछताए थे क्रोध करके, आज भी पछता लिए। कल महावीर की आंख तुम्हारी आंख से मिले और तुम्हारी अतल | भूल हो गई थी, रो लिए थे, क्षमा मांग ली थी। आज फिर भूल गहराइयां कंपित हो उठे, तुम्हारे प्राणों में कोई नाद बजने | हो गई, फिर रो लिए, फिर क्षमा मांग ली। ऐसे वर्तुलाकार तुम लगे-स्वाभाविक है। कब तक भटकते रहोगे? लेकिन तुम यह भी तो पूछो कि किन पीड़ाओं से, किस | इसको ही पूरब में हमने संसार कहा है-संसार-चक्र। तपश्चर्या से? महावीर का शब्द सुनकर तुम्हारे भीतर मधुर | गोल-गोल घूमता रहता है, कोल्हू की बैल की तरह घूमता रहता वातास फैल जाए; महावीर का शब्द-शब्द तुम्हारे भीतर मधु | है। बैल को शायद लगता हो कि गति हो रही है, विकास हो रहा घोलने लगे-ठीक! लेकिन यह भी तो पूछो कि ये शब्द किस | है। कहीं जा रहा हूं, कहीं पहुंच रहा हूं। लेकिन जरा देखो, कहां मौन से आए हैं? किस ध्यान में इनका जन्म हुआ है? किस पहुंच रहा है! चलता जरूर है, मगर बंधा है एक ही केंद्र से। साधना में गर्भित हुए हैं? कहां से पैदा हुए हैं। उसी के आसपास चक्कर काटता रहता है। शब्द को ही पकड़कर तुम याद कर लो तो मुर्दा शब्द तुम्हारे | तुम जरा गौर से देखो, तुम्हारे जीवन में विकास है ? उत्क्रांति मस्तिष्क में अटका रह जाएगा, शोरगुल भी करेगा; लेकिन है? तुम कहीं जा रहे? कुछ हो रहा? कि सिर्फ उसी-उसी को तुम्हारे भीतर वैसी शांति पैदा न हो सकेगी, जो महावीर के भीतर | पुनरुक्त कर रहे हो? वही राहें, वही लीक! जैसे कल सुबह उठे है। क्योंकि शब्द के कारण शांति पैदा नहीं हुई, शांति के कारण | थे, वैसे आज सुबह उठ आए। जैसे कल रात सो गए थे, आज शब्द पैदा हुआ है। | रात भी सो जाओगे। कितनी बार सूरज ऊगा है; और तुम्हें वहीं महावीर की वीतरागता ऐसे ही आकश से नहीं टपक पड़ी है, का वहीं पाता है। छप्पर नहीं टूट गया है। महावीर की वीतरागता इंच-इंच | तो सुपरिचित नहीं हो; परिचित तो हो। सुपरिचित का अर्थ है सम्हाली गई है, साधी गई है। और जीवन के अनुभव में उसकी कि जो अनुभव तुम्हारे जीवन में गुजरा उसके गुजरने के कारण ही जड़े हैं। अनुभव पृथ्वी है। | अब तुम और हो गए। तुमने उससे कुछ सीखा, कुछ संपत्ति तुम किसी पौधे से प्रभावित हो गए, काट लाए पौधा ऊपर से जुटाई। अगर तुमने आज क्रोध किया तो तुमने उस क्रोध से कुछ और जड़ें वहीं छोड़ आए, तो थोड़ी-बहुत देर पौधा हरा रह जाए, सीखा। कल अगर क्रोध करना भी पड़ा तो ठीक आज जैसा नहीं लेकिन कुम्हलाने लगेगा; ज्यादा देर जीवंत नहीं रह सकता। करोगे। उसमें कुछ फर्क होगा, भेद होगा, सुधार होगा, तरमीम और अगर तुम जड़ें ले आओ, पौधा छोड़ भी आओ तो भी होगी, संशोधन होगा, कुछ छोड़ोगे, कुछ जोड़ोगे। चलेगा। क्योंकि जड़ें आरोपित करते ही तुम्हारे घर में भी पौधा तो ठीक है, विकास हो रहा है। अगर ऐसे ही क्रोध से सीखते अंकुरित होने लगेगा। गए...सीखते गए...सीखते गए तो एक दिन तुम पाओगे कि ‘जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित हैं...।' क्रोध अपने आप, जैसे-जैसे तुम सुपरिचित हुए, विदा हो गया परिचित भी नहीं कहते; महावीर कहते हैं- 'सुपरिचित।' है। जीवन का ज्ञान क्रांति है। परिचित तो हम सभी हैं थोड़े-बहुत, लेकिन नींद-नींद में हैं। 'जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित है...।' कुछ हो भी रहा है, कुछ पता भी चल रहा है, लेकिन सब इसलिए खयाल रखना, किसी के प्रभाव में कुछ कसम मत ले धुंधला-धुंधला है। न तो आंखें प्रगाढ़ हैं, न ज्योति जली है, न लेना। किसी के प्रभाव में कुछ छोड़ मत देना। एक-एक अनुभव को पकड़कर निचोड़ लेने की कला सीखी है। अकसर ऐसा होता है, जाते हो तुम सुनने, सत्संग में बैठते हो, तो रोज हम वही किए जाते हैं। बातें प्रभावित कर देती हैं! कोई कसम खा लेता है ब्रह्मचर्य की, तुमने कभी खयाल किया? नया क्या करते हो? जो कल | लेकिन ब्रह्मचर्य की कसम मंदिर में थोड़े ही खानी होती है। अगर किया था, वही फिर दोहरा लेते हो। कैसे आदमी हो तुम? यह तुम मुझसे पूछो तो ब्रह्मचर्य की कसम वेश्यालय में किसी ने तो यंत्र जैसा हुआ। कल क्रोध किया था, आज भी कर लिया। खायी हो तो शायद टिक भी जाए, मंदिर में खायी नहीं टिक 328 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org